Tuesday 6 August 2019

कांग्रेस के पास उबरने का आखिऱी मौका

राजनीतिक दल विचारधारा के आधार पर पहिचाने जाते हैं। सबकी अपनी-अपनी नीतियां और सिद्धांत होते हैं। लोकतंत्र में असहमति भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके बिना सत्ता निरंकुश हो जाती है। लेकिन अनेक अवसर ऐसे भी आते हैं जब दलीय हित को छोड़कर सभी को एक स्वर में केवल और केवल देश के हित की बात कहनी चाहिए। गत दिवस नियति ने ऐसा ही एक अवसर पैदा किया जब केंद्र सरकार ने राज्यसभा में जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को बदलने वाला विधेयक पेश किया। इसके अनुसार जम्मू और कश्मीर एक राज्य होगा और लद्दाख दूसरा। दोनों केंद्र शासित होंगे। विधेयक के पहले गृहमंत्री ने राष्ट्रपति द्वारा जारी उस अधिसूचना को सदन में पेश किया जिसके अंतर्गत जम्मू-कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370, 35ए नामक राष्ट्रपति के आदेश को निष्प्रभावी कर दिया गया जिसके बल पर ये राज्य भारतीय संघ का हिस्सा होते हुए भी अलग संविधान, अलग झंडा, अलग नागरिकता के कारण दूसरे देश जैसा एहसास देता था। ये कहना लेशमात्र भी गलत नहीं होगा कि उसी के कारण इस सीमावर्ती राज्य में अलगाववाद का बीजारोपण हुआ और नौबत यहां तक आ पहुंची कि वहां पकिस्तान का झंडा सार्वजानिक तौर पर फहराते हुए आजादी के नारे सुनाई देने लगे। जुमे की नमाज के बहाने भारत विरोधी भावनाएं भड़काने का दुस्साहस भी बेहद आम हो चला। सुरक्षा बलों पर छोटे-छोटे बच्चों तक से पत्थर फिंकवाने का चलन शुरू हो गया। कुल मिलकर हालात ऐसे बना दिए गए जिनमें यदि सेना एक दिन के लिए भी हटा दी जाती तो कश्मीर घाटी पर पाकिस्तान का आधिपत्य होने में जरा सी भी देर नहीं लगती। प्यार-मोहब्बत से कश्मीरियों को समझाने में सात दशक बीत गए। सरकारें बनती और गिरती रहीं, राष्ट्रपति शासन भी लगा, वार्ताओं और समझौतों के अनगिनत दौर चले लेकिन समस्या जस की तस रही। और इसका एकमात्र कारण है वह विशेष स्थिति जो 370 और 35ए से इस राज्य को मिली हुई थी। बीते अनेक वर्षों में कश्मीर घाटी के भीतर यदि कुछ पनपा तो वह था आतंकवाद। इस बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि दर्जनों किताबें छप सकती हैं। बीते कुछ दिनों से घाटी में केंद्र सरकार ने अचानक जिस तरह की सक्रियता बढ़ाई उससे किसी बड़ी कार्रवाई का अंदेशा तो था लेकिन कल  सुबह जब राज्यसभा में गृह मंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे की समाप्ति करते हुए उसे केंद्र शासित राज्य बनाने संबंधी विधेयक पेश किया तब पूरे देश में खुशी की अभूतपूर्व लहर दौड़ पड़ी। नेता कुछ  भी कहते रहे हों परंतु उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने मोदी सरकार के इस साहसिक फैसले को सिर आंखों पर लिया। लेकिन देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने जिस तरह का रवैया अपनाया उसने साबित कर दिया कि नेतृत्व शून्यता की शिकार यह पार्टी वैचारिक शून्यता का भी शिकार होकर रह गयी है। राज्यसभा में कांग्रेस दल के नेता और कश्मीर से ताल्लुक रखने वाले गुलाम नबी आजाद की भड़ास तो समझ में आने लायक थी क्योंकि उनका राजनीतिक भविष्य पूरी तरह अंधकारमय होने जा रहा है लेकिन पार्टी के शेष नेताओं ने भी जब इस ऐतिहसिक कदम के विरोध में तर्क रखने शुरू किये तब पूरे देश को कांग्रेस के आला नेतृत्व की अविवेकपूर्ण सोच पर गुस्सा आने लगा। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात ये रही कि पार्टी अपना अधिकृत बयान देने का साहस तक नहीं बटोर सकी। बात-बात पर ट्वीट करने वाले राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा पूरी तरह ठंडे होकर बैठ गए। विपक्षी एकता का तानाबाना तो इस संवेदनशील मुद्दे के पहले ही नष्ट हो चुका था। राज्यसभा में सरकार ने अनेक विधेयक सफलातापूर्वक पारित करवाकर कांग्रेस को ये एहसास करवा दिया कि विपक्षी दलों के भीतर एक तबका ऐसा है जिसे केवल विरोध के लिए विरोध करने की नीति रास नहीं आ रही और वह अपनी रचनात्मक भूमिका के प्रति जागरूक है। लेकिन कांग्रेस को अक्ल नहीं आनी थी सो नहीं आई और गत दिवस जब उसके पूर्वजों द्वारा अतीत में की गयी भयंकर भूलों को सुधारकर देश  की अखंडता, एकता और सुरक्षा को मजबूत करने की दिशा  में केन्द्र सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया तब उसका समर्थन कर उन गलतियों का प्रायश्चियत करने की बजाय वह उसे सही साबित करने की जिद कर बैठी। जिससे नाराज कांग्रेस के सचेतक ने ही पार्टी छोड़ दी। अमित शाह का विधेयक भारी बहुमत से पारित हो गया। घोर भाजपा विरोधी दल भी जनभावनाओं और देशहित को समझते हुए सरकार के साथ  खड़े हो गए लेकिन कांग्रेस ने मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग वाली जिद नहीं छोड़ी जिसकी वजह से पूरे देश में उसे जबरदस्त आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है। सोशल मीडिया पर कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ता इस फैसले को देश के लिए अच्छा बता रहे हैं लेकिन शिखर पर विराजमान नेताओं का अहं भाव पार्टीजनों और जनता दोनों को ठेंगे पर रखने पर अड़ा है। आज लोकसभा में अमित शाह उक्त विधेयक प्रस्तुत करेंगे। इस सदन में भाजपा का अपना स्पष्ट बहुमत है और अनेक पार्टियों के समर्थन से विधेयक भारी बहुमत से पारित होना तय है। ऐसे में कांग्रेस के पास आखिरी मौका है जब वह सत्तर साल से उसके माथे पर लगे कलंक को मिटाकर राष्ट्र की मुख्यधारा में खुद को समाहित करने की बुद्धिमत्ता दिखाए वरना ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आने वाले दिनों में उसका बचा-खुचा जनाधार भी जाता रहेगा। संसद में बहुमत या अल्पमत किसी पार्टी के अस्तित्व को तय नहीं करता। पार्टी जीवित रहती है अपनी वैचारिक शुद्धता और नेतृत्व की दृढ़ता से। दुर्भाग्य से कांग्रेस में आज इन दोनों बातों का सर्वथा अभाव हो गया है। यदि लोकसभा में भी कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर को लेकर अतीत में की गयी हिमालयी भूल को सही साबित करने की मूर्खता की तब ये मानकर चलना होगा कि उसके नेताओं को देशहित और जनभावनाओं की रत्ती भर भी परवाह नहीं है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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