Monday 31 January 2022

बजट : जनता को भाषण नहीं राहत चाहिए



आज से संसद का बजट सत्र प्रारंभ हो रहा है | वैसे तो सभी सत्र महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन इस सत्र का सम्बन्ध देश की अर्थव्यवस्था और लोगों की आय और खर्च से होता है इसलिए इस पर समाज के हर वर्ग की निगाह रहती है | वर्ष 2021 में आये बजट पर कोरोना की काली छाया थी | आर्थिक मोर्चे पर जबरदस्त निराशा  और अनिश्चितता के बीच बजट बनाना ही  दुष्कर कार्य था किन्तु वह एक संवैधानिक आवश्यकता है जिसे टालना संभव न होने से उसे पूरा करना पड़ता है | सौभाग्य से इस साल कारोबारी जगत से आने वाले संकेत बीते दो वर्षों की तुलना में बेहद उत्साहजनक हैं | यद्यपि अभी भी कोरोना का असर पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है लेकिन ये कहना गलत न होगा कि आर्थिक मोर्चे पर खोया हुआ आत्मविश्वास न सिर्फ लौटा है अपितु उसमें पूर्वापेक्षा वृद्धि भी हुई है | तीसरी लहर के रूप में आये संकट की तीव्रता कम होने से उद्योग – व्यापार में रौनक लौटती नजर आने लगी  है | उपभोक्ताओं के उत्साहजनक संकेतों से  बाजारों में रौनक दिखाई देने लगी  है | दो साल से ठन्डा पड़ा पर्यटन उद्योग भी  गुलजार हुआ है | लेकिन ये बात भी स्वीकार करनी होगी कि इस दौरान महंगाई में भी जबरदस्त वृद्धि हुई है | घटते रोजगार और बढ़ती कीमतों ने आम जनता  का कचूमर निकालकर रख दिया है | कोरोना काल में बड़ी संख्या में नौकरियां चली गईं । निजी क्षेत्र ने  कार्यरत कर्मचारियों के वेतन – भत्ते कम कर दिए | निश्चित रूप से सरकार को भी राजस्व की कमी से जूझना पड़ा और ऊपर से राहत कार्यों पर उसे अतिरिक्त खर्च करना पड़ा | लेकिन ज्यों – ज्यों कोरोना का असर कम हो रहा है त्यों – त्यों आर्थिक स्थिति भी कुलांचे भरने को बेताब है | ऐसे में कल मंगलवार को पेश होने वाले केन्द्रीय बजट पर न सिर्फ देश वरन पूरे विश्व की नजरें लगी हैं | वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण निश्चित तौर पर बीते वर्ष के दबाव से काफी मुक्त होंगीं किन्तु प्रधानमन्त्री के मन पर  उ.प्र सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का बोझ जरूर है | और इसीलिये बीते कुछ दिनों से ये सुनने में आ रहा है कि बजट में अर्थव्यवस्था को बूस्टर डोज लगाने के साथ ही आम जनता के लिए भी राहत का इंतजाम किया जावेगा | ये आयकर छूट की सीमा बढ़ाये जाने के रूप में होगा  या किसी और रूप में ये तो साफ़ नहीं है लेकिन सरकार को इस बात का ध्यान रखना ही होगा कि कारोबार जगत को बीते दो वर्ष में जितने झटके लगे हैं उनसे उसे उबारने के पुख्ता प्रबंध बजट में  किये जावें जिससे कि रोजगार में आ रही गिरावट को रोका जा सके | ये इसलिए जरूरी हो गया है क्योंकि जिन युवाओं को दुनिया भर में प्रधानमन्त्री भारत की बड़ी ताकत बताते हैं वह  बिना काम के तनाव में आकर आपा खोने लगा है | इसी के साथ ही किसान आंदोलन के बहाने ग्रमीण क्षेत्रों में सरकार के बारे में नकारात्मक छवि बनाने का जो अभियान चल रहा है उससे निपटने के लिए बजट में ऐसा कुछ करना आवश्य्क है जिससे किसान समुदाय के मन को शांति मिले | दुनिया भर के आर्थिक विशेषज्ञ मौजदा वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था के बेहतरीन प्रदर्शन की जो बात कह रहे हैं वह सरकार का हौसला बढ़ाने वाली है | जीएसटी के रूप में आने वाला कर संग्रह उम्मीद के  मुताबिक होने से भी बजट में मिठास घोली जाने की गुंजाईश है | लेकिन ये तभी होगा जब बजट को शुष्क सिद्धान्तवादिता के बजाय व्यवहारिक जमीनी सच्चाइयों से प्रेरित रखा जावे | उस दृष्टि से वित्तमंत्री को कितनी छूट मिलेगी ये कहना कठिन है क्योंकि बजट पेश भले ही वे करती हों लेकिन उसे बनाने का असली काम वे नौकरशाह करते हैं जिनका आम जनता से जुड़ाव खत्म सा हो चुका होता है और जिनकी नजर में आंकड़ो की फसल ही खुशहाली का द्योतक होती है | ये देखते हुए प्रधानमंत्री से भी  अपेक्षा है कि वे बजट को अंतिम रूप देते समय इस बात का ध्यान रखें कि वित्तमंत्री नहीं बल्कि वे ही इस सरकार का चेहरा हैं और इसीलिये इसे  मोदी सरकार कहा जाता है | चूंकि उनकी  कार्यप्रणाली भी शक्तियों के केन्द्रीकरण पर आधारित है इसलिए जिस तरह से उपलब्धियों का  श्रेय वे लूटते हैं उसी तरह नाकामियां और जनता का गुस्सा भी किसी  अन्य के बजाय उन्हीं के खाते में आता है | जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां भी श्री मोदी ही भाजपा के तारणहार होंगे | सबसे बड़ी बात ये है कि जिस उ.प्र ने उनको दो बार सत्ता में पहुँचाया वहां इस बार मुकाबला काफी कड़ा बताया जा रहा है | किसान आन्दोलन के कारण भाजपा की सोशल इन्जीनियरिंग  भी खतरे में है |  ये देखते हुए बजट इन चुनावों पर सीधा असर डालने वाला होगा | चूँकि नया वित्त्तीय वर्ष चुनाव संपन्न होने के बाद शुरु होगा इसलिए बजट में दी जाने वाली राहतों का लाभ  जनता को तत्काल नहीं मिलने वाला | वैसे भी बजट का तकनीकी पक्ष कम ही  लोगों को समझ में आता है | ऐसे में ये जरूरी है कि श्रीमती सीतारमण केवल अच्छा बजट भाषण ही न दें अपितु उसके जरिये ऐसी राहतों का ऐलान करें जो आम जनता के साथ ही कारोबारी जगत को फ़ौरन और आसानी से समझ में आ जाए | ये बजट राष्ट्रीय और राजनीतिक दोनों ही दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है | इसी साल गुजरात और आगामी वर्ष म.प्र , राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होंगे तथा उनके 6 महीने बाद ही लोकसभा का महा - मुकाबला होगा | इसलिए  इस बजट में जनता के लिए उपदेश नहीं अपितु राहत का सीधा सन्देश होना चाहिए क्योंकि केंद्र सरकार ने अब तक जो कुछ भी किया उसका पुरस्कार जनता उसे दे चुकी है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 29 January 2022

आरक्षण : दवा असरकारक नहीं या फिर डाक्टर झोला छाप हैं



पदोन्नति में आरक्षण का मामला राज्यों पर टरकाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़ – साफ़ कह दिया है कि वे आरक्षित वर्ग के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाकर समय – समय पर इसकी समीक्षा करें | इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का मानक निश्चित करने से इंकार करते हुए उसने इसे राज्यों  का काम  बताते हुए निर्देश दिया कि वे इस बारे में आंकड़े जुटाकर पेश करें | स्मरणीय है केंद्र और विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा पदोन्नति में आरक्षण को लेकर उत्पन्न विवादों को सुलझाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से स्थायी व्यवस्था बनाने की मांग की थी किन्तु उसने गेंद राज्यों और केंद्र के पाले में  भेजते हुए उनसे आरक्षित समुदाय के प्रतिनिधित्व संबंधी जानकारी जुटाकर मसला सुलझाने का निर्देश दिया | अब वह केंद्र  और राज्यों द्वारा प्रस्तुत याचिकाओं पर अलग – अलग सुनवाई करते हुए उनकी संवैधानिकता तय करेगा | इस कानूनी पेचीदगी की वजह से म.प्र सहित पूरे देश में लाखों कर्मचारी और अधिकारी पदोन्नत हुए बिना सेवा निवृत्त हो गए | जो जानकारी मिल रही है उसके अनुसार तो निकट भविष्य में सेवा निवृत्त होने वाले भी इस लाभ से वंचित रह जायेंगे | सर्वोच्च न्यायालय भी चूँकि कानूनी पक्ष ही देखता है इसलिए वह अपने  दायरे में रहते हुए ही बात करता है |  लेकिन सही मायनों में ये मसला अब राजनीतिक ज्यादा हो गया है | यही वजह है कि किसी भी राजनीतिक दल में ये साहस नहीं है कि वह आरक्षण के बारे में गुणात्मक पहलुओं पर बात करे | दलितों और पिछड़ों का उत्थान निश्चित रूप से राष्ट्र हित में है | समाज के बहुसंख्यक वर्ग का  सामाजिक , आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर विकास की दौड़ में पीछे  रहना सबका साथ , सबका विकास के नारे को अर्थहीन सबित कर  देता है | आजादी की स्वर्ण जयन्ती मना रहे देश में आज तक इस तरह के मसलों का अनसुलझा रहना वाकई दुखद है क्योंकि इनकी वजह से सामाजिक विद्वेष बढ़ रहा है | उ.प्र विधानसभा चुनाव में जातिगत विभाजन जिस तरह से खुलकर सामने आया  है उससे ये बात साफ़ हो गई है कि आरक्षण चंद राजनीतिक नेताओं की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बनकर रह गया है | सरकारों में बैठे आरक्षित वर्ग के नेताओं ने अपने और  अपने परिवारों के उत्थान के लिये जितना कुछ किया उसकी जगह यदि वे ईमानदारी से ऐसे मुद्दों का स्थायी हल निकालने की चिंता करते तो ये  समस्या पैदा ही नहीं होती | सर्वोच्च न्यायालय समय – समय पर ऐसे विषयों पर अपनी टिप्पणियों से राजनेताओं को संकेत देता है किन्तु उनकी  मंशा मुद्दों को  उलझाने में ज्यादा रहती है | जब आरक्षण दिया गया था तभी  पदोन्नति में उसे लागू करने संबंधी विचार आ जाता तब इस तरह की समस्या सामने नहीं आती |  लेकिन  तदर्थ सोच रखने के कारण राजनीतिक नेता केवल वोटों के ठेकेदार बनकर रह गये हैं | जिन राज्यों में चुनाव होने वाले होते हैं वहां आरक्षण का मुद्दा गरमाता है  | नए – नये जाति समूह सक्रिय हो जाते हैं | दलितों में अति दलित और पिछड़ों में अति पिछड़े जैसे वर्ग उभरने लगते हैं | इसमें दो राय नहीं हैं कि यदि चुनावी राजनीति न हो तो आरक्षण का किसी को ख्याल तक न रहे | ये बात पूरी तरह से प्रमाणित है कि अपना राजनीतिक अस्तित्व  बनाये रखने के लिए तमाम ऐसे नेता राजनीतिक मंचों पर दिखते हैं जिन्होंने अपनी जाति को रक्षा कवच बना रखा है | यही वजह है कि सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से बेहतर स्थिति में माने जाने वाले जाट और गुर्जर भी आरक्षण  हेतु बवाल  करने में संकोच नहीं करते | किसी व्यक्ति या समुदाय को सदैव हाथ  फ़ैलाने के लिए बाध्य करते रहने से उसके भीतर की उद्यमशीलता नष्ट हो जाती है | सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय के परिप्रेक्ष्य  में विचारणीय मुद्दा ये है कि वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से अनु. जाति / जनजाति के अलावा अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण के बावजूद आर्थिक और सामाजिक तौर पर बराबरी हासिल नहीं हो सकी | कड़वा सच ये है कि इन समुदायों के नेता ही इनकी बदहाली के लिए जिम्मेदार हैं | स्व.  रामविलास पासवान की पार्टी के आधे से ज्यादा सांसद उनके अपने परिवार के हैं | इसीलिये उनकी मौत के बाद विरासत के लिए उनके भाई और बेटे में महाभारत छिड़ी | यही हाल लालू प्रसाद यादव का है जिनके बेटे – बेटी पिता की राजनीतिक कमाई में बंटवारे के लिए लड़ते देखे जा सकते हैं | उ.प्र में मुलायम सिंह यादव के कुनबे में होने वाला यादवी संघर्ष जगजाहिर है | स्वामी प्रसाद मौर्य बात पिछड़े और दलितों की करते हैं लेकिन अपनी बेटी को सांसद बनवाने के बाद बेटे को विधायक बनवाने के लिए उठापटक में जुटे हैं | केन्द्रीय मंत्री और अपना दल की नेत्री अनुप्रिया पटेल और उनकी माँ की बीच का विवाद भी सब  जानते हैं । पूरे देश पर नजर डालें तो जितने भी आरक्षित समुदाय के नेता हैं उनकी पूरी राजनीति  परिवार के भीतर ही सीमित है | कांशीराम ने जरूर मायावती को अपनी विरासत सौंपी किन्तु वे भी अपने भतीजे को ही आगे लाने में जुटी हैं | इस आधार पर ये कहना कदापि गलत न होगा कि आरक्षण के अंतर्गत नौकरियां और पदोन्नति जैसे मुद्दे असली उद्देश्य से भटककर वोट बैंक के दलदल में धंसते जा रहे हैं | ये कहना भले अटपटा लगे लेकिन न्यायपालिका ऐसे विषयों पर फैसला करते समय भी मानसिक तौर पर दबाव में नजर आती है | इसीलिए वह अपनी तरफ से फैसला करने की बजाय उनका हल चुनी हुई उन सरकारों पर छोड़ देती है जो खुद इनको उलझाने की दोषी हैं | दरअसल आरक्षण ऐसा मुद्दा बन गया है जिस पर खुलकर बोलने से हर कोई बचता है क्योंकि जरा सी बात का बतंगड़ बन जाता है | रास्वसंघ प्रमुख डा. मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की जरूरत बताई तो संघ और भाजपा को आरक्षण विरोधी बताने की मुहिम चल पड़ी | इसी तरह म.प्र के  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा  कोई माई का लाल आरक्षण नहीं  हटा सकता जैसा बयान  देक्र्र अपने लिए मुसीबत पैदा कर ली और 2018 के चुनाव में भाजपा को इसी कारण म.प्र की सत्ता गवानी पड़ी | पंजाब में 32 फीसदी दलित आबादी होने के बाद आज तक उसे नेतृत्व देने के बारे में नहीं सोचा गया किन्तु जब कांग्रेस को लगा कि कैप्टन अमरिंदर सिंह की बगावत नुकसान पहुंचा सकती है तब चरणजीत चन्नी को दलित चेहरा बनाकर सामने कर दिया गया | कांग्रेस से ये पूछा जाना चाहिए कि इतनी बड़ी आबादी के बावजूद आज तक उसने पंजाब में दलित समुदाय से मुख्यमंत्री क्यों  नहीं बनाया ?  आजादी के बाद नेहरु जी से लेकर इंदिरा जी तक की  सरकार में बाबू जगजीवन राम मंत्री रहे जिनकी  कार्यकुशलता का लोहा सभी ने माना  किन्तु उनका नाम प्रधानमन्त्री के लिए भूलकर भी चर्चा में नहीं लाया गया | भाजपा पर उ.प्र में ये आरोप लग रहा है कि  2017 का  चुनाव  पिछड़े वर्ग के नेता केशवदेव मौर्य के नेतृत्व में लड़कर जीतने के बाद भी उसने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बना दिया | इन सब उदाहरणों से ये स्पष्ट है कि आरक्षण प्राप्त वर्ग के जो नेता हैं वे ही उसकी प्रगति में बाधक हैं | दरअसल ये चाहते ही नहीं हैं कि दलित और पिछड़ों की दशा सुधरे | इसीलिये इनके द्वारा इस तरह के विवादस्पद सवाल उठाये जाते हैं जिससे इनकी रोटियां सिकती रहें | पदोन्नति में आरक्षण की गुत्थी सुलझना ही चाहिए लेकिन इस सवाल का उत्तर तलाशना भी तो समय की मांग है कि सरकारी नौकरियां जिस तरह से कम होती जा रही हैं और निजीकरण के साथ ही सेवाओं की आउट सोर्सिंग की जाने लगी है तब भविष्य में रोजगार और पदोन्नति के मुद्दों का क्या होगा ? सात दशक तक मिले आरक्षण के बावजूद हालातों में यदि सुधार नहीं हुआ तब देखने वाली बात है कि दवा असरकारक नहीं है या फिर बीमारी का इलाज करने वाले डाक्टर झोला छाप हैं | 


- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 28 January 2022

सांसदों-विधायकों की तरह से ही सरकारी नौकरी में खाली पद भरने की समय सीमा तय हो



पटना और प्रयागराज में रेलवे की भर्ती परीक्षाफल से असंतुष्ट छात्रों द्वारा की गई तोडफ़ोड़ पूरी तरह गलत और गैरकानूनी है किन्तु उनके गुस्से को भी अनुचित नहीं ठहराया जा सकता। ये समस्या केवल रेलवे तक सीमित नहीं है। सरकारी नौकरी के लिये होने वाली लिखित परीक्षाएँ और साक्षात्कार समय पर संपन्न नहीं होने से देश भर में करोड़ों अभ्यर्थी युवा अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। उनके अभिभावक भी अपनी संतान की परेशानियों  से तनाव में हैं। इन युवाओं में लाखों की संख्या उनकी है जो सरकारी नौकरी की आस में अधिकतम आयु सीमा पार कर चुके हैं। प्रयागराज स्टेशन में छात्रों पर लाठी चार्ज भी हुआ और इसे उ.प्र के चुनावों से जोड़ने की कवायद भी शुरू हो गई। अनेक उपद्रवकारियों के अलावा कुछ कोचिंग संचालक भी पकड़े गये हैं। रेलवे ने उच्च स्तरीय जांच बिठा दी है। परीक्षाफल में तकनीकी गड़बड़ी के कारण ये बखेड़ा खड़ा हुआ जो नया नहीं है। उ.प्र के विधानसभा चुनाव में भी सरकारी नौकरियों के लिए ली जाने वाली परीक्षाओं के रद्द होने का मामला गरमाया हुआ है। अनेक बार प्रश्नपत्र लीक होने से भी कुछ परीक्षाएं टाली जाती रहीं। ऐसा केवल उ.प्र. में ही होता हो ऐसा नहीं है। सरकारों द्वारा भर्ती हेतु अनेक व्यवस्थाएं कर रखी हैं लेकिन उनका संचालन करने वाले या तो पेशेवर नहीं होते या फिर राजनीतिक दबाव और उससे भी ऊपर तो भ्रष्टाचार की वजह से परीक्षाएं या तो रुकी रहती हैं या फिर धांधली का शिकार हो जाती हैं। म. प्र को ही लें तो यहाँ लोक सेवा आयोग द्वारा ली जाने वाले परीक्षा के परिणाम आने में लम्बा समय लगने के बाद साक्षात्कार के लिए गाड़ी रुकी रहती है। सब कुछ होने के बाद चयनित अभ्यर्थियों की सूची जारी होने में महीने तो छोटी बात है बरसों-बरस बिता दिए जाते हैं। इसके कारण युवाओं में निराशा और गुस्सा तो आता ही है लेकिन सरकारी अमले की कमी से शासन का काम भी प्रभावित होता है। आज की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय से लेकर निचली अदालत तक में न्यायाधीशों के पद खाली पड़े हैं। जिससे लंबित मुकदमों के अम्बार लग गये हैं। लगभग सभी राज्यों  में पुलिस बल की कमी है। शासकीय विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय भी अध्यापकों की कमी से जूझ रहे हैं। सरकारी दफ्तरों में लिपिक और भृत्य कम पड़ रहे हैं। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि सरकार के पास जितना काम है उस अनुपात में उसके पास अमला नहीं होने से उसके कार्यालय में जाने वाली जनता हलाकान होती है। अपना खर्च घटाने के लिए सरकार ने तदर्थ और दैनिक भोगी जैसी व्यवस्था भी लागू की। इसी तरह अतिथि शिक्षक भी नियुक्त  किये जाने लगे। चुनाव आते ही राजनीतिक दल ऐसी नियुक्तियों को स्थायी नौकरी में बदलने का आश्वासन देते हैं किन्तु सत्ता में आने के बाद खजाना खाली होने का रोना शुरू हो जाता है। म.प्र में 2003 के विधानसभा चुनाव में उमाश्री भारती ने आश्वासन दिया था कि वे मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही दैनिक भोगी कर्मचारियों को नियमित कर देंगी परन्तु 19 साल बाद भी स्थिति जस की तस है। अनेक कर्मचारी तो उसी स्थिति में सेवानिवृत्त हो गये। इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि जिस तरह से सांसदों और विधायकों की सीट खाली रहने पर आपातकालीन स्थिति को छोड़कर छह माह में उसे भरने के लिए उपचुनाव करवाना अनिवार्य है, वही व्यवस्था सरकारी पदों के लिए भी लागू की जावे। लोक प्रशासन के अंतर्गत सरकार के पास इस बात की जानकारी पहले से तैयार होनी चाहिए कि किस समय तक कितने अधिकारी-कर्मचारी सेवा निवृत्त होने वाले हैं। इसके पहले कि उनका विदाई समरोह हो और यदि उनकी जगह को भरा जाना है तब उस पद के लिए पहले से चयन हो जाना चाहिए। पदोन्नति में भी इसी प्रक्रिया का पालन किया जाना अपेक्षित है। नई नौकरियों का वायदा हर राजनीतिक दल के घोषणापत्र में होता है लेकिन सरकार में आते ही वह किसी कोने में रख दिया जाता है। इस सम्बन्ध में ये भी उल्लेखनीय है कि संघ लोकसेवा आयोग द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं के नतीजे लगभग तय समय पर घोषित होने के बाद चयनित व्यक्तियों की नियुक्ति, प्रशिक्षण और पद स्थापना भी निर्धारित समय में होती है। लेकिन बाकी पदों को लेकर की जाने वाली भर्ती पूरी तरह भगवान भरोसे बना दी गई है। इस समस्या का समाधान करना कठिन नहीं है लेकिन शासन और प्रशासन में जमे नेता और नौकरशाह दरअसल पूरी तरह असंवेदनशील हो चुके हैं। बेरोजगारों को उज्जवल भविष्य के सापने दिखाने वाले नेता सत्ता में आते ही अपना और अपने परिवार का भविष्य उज्ज्वल बनाने में जुट जाते हैं। इसी तरह उच्च पदों पर विराजमान नौकरशाह भी उन्हीं भर्तियों में ज्यादा रूचि दिखाते हैं जिनमें या तो खुरचन मिले या फिर और किसी स्वार्थ की पूर्ति होती हो। ये सब देखते हुए जरूरी हो गया है कि सरकारी नौकरियों के लिए आयोजित परीक्षाओं और उनके नतीजों को लेकर निश्चित व्यवस्था बनाई जाए जिसका पालन करना कानूनी बंदिश हो। दुर्भाग्य से हमारे देश के हुक्मरान और उनके मातहत काम करने वाले साहेब बहादुर तभी जागते हैं जब पानी नाक तक आ जाता है। किसानों द्वारा बनाये गये दबाव के बाद प्रधानमंत्री ने जिस तरह कृषि कानून वापिस लिए उससे देश भर में ये संदेश गया कि सरकार दबाव में ही झुकती है। पटना और प्रयागराज में जो कुछ  घटा उसका कोई भी समझदार व्यक्ति समर्थन नहीं करेगा। उसके पीछे राजनीतिक षडयंत्र होने की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता किन्तु केंद्र और राज्यों की सरकारों को ये बात समझ में आ जानी चाहिए कि फैसलों को टालते रहने से भड़कने वाला असंतोष अब सामूहिक आक्रोश की शक्ल अख्तियार करने लगा है। आम जनता के मन में ये अवधारणा तेजी से घर करती जा रही है कि राजनेता अपने ऐशो आराम की हर व्यवस्था तो चाक-चौबंद रखते हैं किन्तु जब जनता की भलाई का सवाल उठता है तब तरह-तरह के बहाने बनाये जाते हैं। समय आ गया है जब इन विसंगतियों को दूर किया जाए अन्यथा जो घटनाएँ बीते कुछ दिनों में देखने मिलीं उनकी पुनरावृत्ति देश भर में हो सकती है जिसका लाभ देश विरोधी ताकतें भीं उठा लें तो आश्चर्य नहीं होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 26 January 2022

कर्तव्यों से विमुख हो जाने वाली कौम अधिकार भी खो बैठती है



 भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है | जिस संविधान सभा ने इसके प्रारूप को अन्त्तिम रूप दिया उसके सदस्यों में तत्कालीन दौर के सर्वाधिक योग्य , समर्पित , संवेदनशील और राष्ट्रभक्त नेता थे | समाज के प्रत्येक वर्ग का उसमें प्रतिनिधित्व था | लम्बे विचार – विमर्श , बहस , चिंतन – मनन के उपरांत जिस संविधान को स्वीकार किया गया उसे 26 जनवरी 1950 को लागू कर देश ने अंतिम रूप से ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति हासिल की और उसी दिन से भारत सार्वभौमिक गणराज्य के तौर पर विश्व मानचित्र पर उभरा | लेकिन आजादी की खुशियों के बीच ही वह अनेक प्रकार की समस्याओं में फंस गया था | अंग्रेजों ने सत्ता के साथ ही  विकट समस्याएं भी विरासत में सौंपीं  | विभाजन के बाद  रियासतों का एकत्रीकरण एक बड़ी चुनौती थी | कश्मीर में कबायली हमला और गांधी जी की हत्या जैसी घटनाओं के कारण अजीबोगरीब परिस्थितियां पैदा हो गई थीं परन्तु संविधान द्वारा तय किये गये रास्ते पर चलते हुए देश ने जल्द ही उन आशंकाओं को निर्मूल साबित कर दिया कि आजाद होने के बाद भारत अपने आपको एकजुट नहीं रख सकेगा | अनगिनत जातियां , बोलियाँ , भाषाएँ , क्षेत्रीय पहिचान , सांस्कृतिक भिन्नता और सबसे बढ़कर विभिन्न धर्मों  के अनुयायियों का होना देश की एकता और काफी हद तक अखंडता को खतरे में डालने के लिए पर्याप्त था | पाकिस्तान का निर्माण होने के पहले ही अंग्रेजों ने जिस तरह के हालात उत्पन्न कर दिए थे उनमें  भारत सरीखे विविधता भरे देश में आन्तरिक अशांति की जोरदार गुंजाईश तो थी ही और फिर सैकड़ों साल की गुलामी से हमारी मानसिकता भी  गहराई तक प्रभावित हुई थी | अंग्रेज चले तो गये लेकिन अपने पीछे जो प्रशासनिक ढांचा छोड़ गये उसमें उपनिवेशवाद के अंश विद्यमान थे | इसीलिये  ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आजादी के अमृत महोत्सव तक का लम्बा सफर तय करने के बाद भी हमारा समूचा तंत्र काले अंग्रेज  कहे जाने वाले उन साहेब बहादुरों के इशारों पर चलता है जिनमें उसी प्रकार का श्रेष्ठता का भाव है जो अंग्रेजों में अपनी नस्ल के प्रति था | यही वजह है कि 15 अगस्त 1947 को मिली  स्वाधीनता और 26 जनवरी 1950 को प्राप्त सार्वभौमिकता के बावजूद भी भारत का आम नागरिक शासन – प्रशासन के सामने लाचार बनकर रह गया है | वैसे तो संविधान निर्माताओं ने देश को स्वतंत्र न्यायपालिका जैसी व्यवस्था भी दी जो विधायिका और कार्यपालिका दोनों की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाने में सक्षम है | उसने अपनी इस भूमिका का निर्वहन बहुत ही जिम्मेदारी और साहस के साथ किया भी लेकिन ये कहना सौ फीसदी सही है कि न्याय प्राप्त करना बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट पर चढ़ने से  भी ज्यादा कठिन है क्योंकि उसमें केवल विलंब ही नहीं होता अपितु बेहद खर्चीला होने से वह आम भारतीय के बस के बाहर होता जा रहा है |  मुम्बई उच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त न्यायाधीश स्व.चंद्रशेखर धर्मधिकारी ने एक बार ये कहने का दुस्साहस किया था कि हमारे देश में व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा कानून तोड़ने की उसकी क्षमता पर निर्भर करती है | उनका वह कथन भले ही अटपटा लगे लेकिन था सौ फीसदी सच | गत दिवस किसी  टीवी रिपोर्टर ने उ.प्र के एक नेता से सवाल किया कि वे जिस गठबंधन में हैं उसने अनेक अपराधियों को विधानसभा चुनाव में टिकिट दिया है तब नेता जी ने उसका औचित्य ये कहते हुए साबित करने का प्रयास किया कि जब सामने वाला एके 47 राइफल लेकर खड़ा हो तब क्या उसका मुकाबला तमंचे से किया जा सकता है ?  उक्त दो बयानों से ये समझा जा सकता है कि हमारे देश में कानून के राज के प्रति कितना सम्मान है | ये दुर्भाग्य ही है कि क़ानून बनाने वाले सम्माननीय सदनों में कानून की धज्जियाँ उड़ाने वाले लकझक सफेद लिबास में विराजमान होते हैं | संविधान में मौलिक अधिकार के साथ ही कुछ ऐसे प्रावधान भी हैं जो कर्तव्यों की ओर इशारा करते हैं | लेकिन बीते  सात दशक में हमारे देश में केवल अधिकार की ही बात होती आई है , वहीं कर्तव्यों के पालन पर केवल उपदेश सुनाई देते हैं | यही वजह है कि गत वर्ष गणतंत्र दिवस पर राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक लालकिले की प्राचीर पर चढ़कर राष्ट्रध्वज का अपमान करने का दुस्साहस जिन लोगों द्वारा किया गया उन पर से मुकदमे वापिस लेने का दबाव बनाया गया | संविधान ने लोकतंत्र के संचालन हेतु वयस्क मताधिकार के जरिये जनता की राय जानने की जो व्यवस्था बनाई वह भी बेहद संकीर्ण दायरे में कैद होकर रह गई है | जाति , भाषा , क्षेत्र और धर्म जैसे मुद्दे सरकार बनाने के आधार बन गये हैं | दर्जनों अपराधों के आरोपी  जनादेश हासिल कर  जब सांसद , विधायक अथवा मंत्रीपद की शपथ लेते समय विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान में सच्ची श्रदधा रखने की बात कहते हैं तब लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लोगों पर क्या बीतती होगी ये बताने की जरूरत नहीं है | ऐसे में संविधान की सालगिरह  सरकारी परेड और सजावट तक सीमित न रहकर उन विसंगतियों पर   चिंतन  - मनन  करने का अवसर है जिनके कारण लोकतंत्र की मर्यादाएं तार – तार हो रही हैं और संविधान  मजाक बनकर रह गया है | चुनाव लड़ना और न्याय हासिल करना यदि आम आदमी के बस के बाहर हो जाए तब उस संविधान का महत्व ही क्या रह जाता है जिसकी शुरुआत हम भारत के लोग से होती है | आशय ये है कि इस  दस्तावेज की पवित्रता बनाए रखना हम सभी का मौलिक कर्तव्य भी है | इस सम्बन्ध में एक बात हर देशवासी को जान और समझ लेनी चाहिए कि जो कौम अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाती है वह अधिकार भी खो बैठती है | इसलिये हम भारत के लोग एक साथ मिलकर उन प्रवृत्तियों के विरुद्ध एकजुट हों जो बीते 75 साल से लोकतंत्र को अपनी निजी मिल्कियत मानकर  संविधान की प्रस्तावना में  हम भारत के लोग की जगह भारत के कुछ लोग लिखवाने की कोशिश कर रही हैं |

गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 25 January 2022

उद्धव को कुछ समय और इंतजार करना था : जल्दबाजी महंगी पड़ सकती है



भले ही महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना के बीच राजनीतिक तौर पर जमकर रस्साकशी चला करती है लेकिन उसी के बीच में ये कयास भी लगाये जाते रहे कि देर-सवेर  दोनों फिर एक साथ आ जायेंगे। इसकी वजह महाराष्ट्र में चल रही मिली - जुली सरकार में कांग्रेस और राकांपा नामक दो घटक दलों के साथ शिवसेना का आधारभूत वैचारिक मतभेद है। अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिन पर कांग्रेस और राकांपा का रुख शिवसेना के विपरीत होता है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष तो अगले चुनाव में उनकी पार्टी के अकेले मैदान में उतरने की बात कई मर्तबा दोहरा भी चुके हैं। वीर सावरकर के बारे में उठे विवाद पर भी शिवसेना का इन पार्टियों से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। बीच-बीच में शिवसेना और भाजपा के कुछ नेताओं का मिलना-बैठना पुराने दिनों के लौटने के संकेत देता रहा। शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत और पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस के बीच होटल में घंटों चली बैठक के बाद तो ऐसा कहा जाने लगा था कि दोनों हिंदूवादी पार्टियाँ एक दूसरे से गले मिलने के लिए लालायित हैं। इसके पीछे एक वजह ये भी बताई जाती है कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे में प्रशासनिक अनुभव की कमी का लाभ उठकर राकांपा नेता शरद पवार परदे के पीछे से सरकार चला रहे हैं। उनके भतीजे अजीत तो उपमुख्यमंत्री हैं ही। प्रशासनिक अधिकारी भी श्री पवार को काफी अहमियत देते हैं। उधर संख्या में कम होते हुए भी कांग्रेस उद्धव और शिवसेना को अपेक्षित महत्व नहीं देती। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता भी महाराष्ट्र के राजनीतिक मामलों में मुख्यमंत्री की बजाय श्री पवार से ही संपर्क करते हैं। दरअसल कांग्रेस के मन में ये डर भी है कि शिवसेना के साथ नजदीकियां मुसलमानों में उसके जनाधार के लिए नुकसानदेह होंगी। कुछ समय पूर्व केन्द्रीय मंत्री और महाराष्ट्र की राजनीति में अच्छी पकड़ रखने वाले नितिन गड़करी की उद्धव के साथ हुई अंतरंग चर्चा के बाद भी आ अब लौट चलें का तराना बजा था। स्थानीय निकाय चुनाव में शिवसेना को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने से भी ऐसा सुनाई दिया था कि मनोहर जोशी जैसे पुराने शिवसेना नेता उद्धव को भाजपा के साथ फिर से गठबंधन करने की सलाह देने लगे हैं। ये चर्चा भी उड़ी कि उद्धव ने श्री गड़करी के सामने ये शर्त रखी कि श्री फड़नवीस को भाजपा केंन्द्र की राजनीति में ले जाये क्योंकि उन्हीं की वजह से महाराष्ट्र में दोनों के रिश्ते खराब होते-होते टूट गये। शिवसेना के भीतर इस बात की चिंता भी है कि कांग्रेस और रांकपा के मंत्री अपनी पार्टी के लिए जिस तरह धन बटोरने में लगे हुए हैं उससे उसके खाते में बदनामी आ रही है। लेकिन दो दिन पहले श्री ठाकरे ने ये कहते हुए उन सभी कयासों पर पानी फेर दिया कि भाजपा के साथ गठबंधन में शिवसेना ने 25 साल खराब कर दिए। कभी भाजपा को पूर्व और भविष्य का सहयोगी बताने वाले अपने बयान के विपरीत उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा का हिंदुत्व अवसरवादी और सत्ता के लिए है। उनके अनुसार शिवसेना ने भले ही भाजपा को छोड़ दिया लेकिन वह हिंदुत्व के रास्ते पर कायम है। अपने पिता और शिवसेना के संस्थापक स्व.बालासाहेब ठाकरे के जन्मदिवस पर पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए श्री ठाकरे ने याद दिलाया कि शिवसेना ने केंद्र में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनवाने में पूरा सहयोग दिया था । लेकिन महाराष्ट्र में उसने शिवसेना को कमजोर करने का प्रयास किया जो उसकी उपयोग करो और फेंक दो की नीति का परिचायक है। इसी के कारण एनडीए के दो सबसे पुराने सहयोगी शिवसेना और अकाली दल अलग जा बैठे। उनके इस बयान में अफ़सोस के साथ खिसियाहट भी नजर आई। लेकिन जिस अंदाज में उन्होंने भाजपा को कोसा उससे दोनों पार्टियों के दोबारा करीब आने की अटकलों पर विराम लग गया है। दरअसल बाल ठाकरे जैसे दबंग व्यक्ति को भाजपा के साथ जोड़ने का करिश्मा स्व. प्रमोद महाजन ने किया था। जब तक दोनों जीवित रहे तब तक भाजपा महाराष्ट्र में छोटे भाई की भूमिका में रही। बालासाहेब भी अपनी सीमाएं जानते थे और इसीलिये उन्होंने कभी महाराष्ट्र से बाहर हाथ-पैर नहीं मारे। यहाँ तक कि वे स्व. वाजपेयी के शपथ ग्रहण समारोह तक में नहीं शामिल हुए। लेकिन स्व. महाजन के बाद से भाजपा को शिवसेना बोझ लगने लगी थी। बालासाहेब की मृत्यु के बाद उसे महसूस हुआ  कि उद्धव में पिता जैसा दमखम और दूरंदेशी नहीं है। इसलिए ज्योंही अवसर मिला उसने राज्य सरकार को अपने हाथ में लेकर शिवसेना को छोटा भाई बनने मजबूर कर दिया। इस सबके लिए भाजपा जहां उद्धव को दोषी ठहराती है वहीं शिवसेना गृह मंत्री अमित शाह के साथ श्री फड़नवीस को। हालाँकि दोनों के बीच रिश्ते बनाये रखने के लिए यदि मनोहर जोशी और नितिन गड़करी जैसे नेता बात करते तो रास्ता निकल सकता था लेकिन संजय राउत जैसे मुंहफट प्रवक्ता दूध में नींबू निचोड़ने का काम करते रहे। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो शिवसेना और भाजपा स्वाभाविक सहयोगी हैं लेकिन बालासाहेब के रहते ही बजाय श्री जोशी सरीखे सुलझे व्यक्ति के श्री राउत को आगे किया जाने लगा। सुरेश प्रभु समान काबिल और ईमानदार नेता को भी शिवसेना छोड़ने मजबूर कर दिया गया। हालाँकि शिवसेना में अनंत गीते जैसे गंभीर और जिम्मेदार नेता भी थे लेकिन भाजपा के साथ टकराव बढ़ाने में श्री राउत जैसे विघ्नसंतोषियों का बड़ा हाथ है जिन्होंने अपनी नेतागिरी चमकाने के फेर में उद्धव को मुख्यमंत्री बनने के लिए उकसाते हुए श्री पवार और कांग्रेस की गोद में बिठा दिया। महाराष्ट्र की सत्ता से वंचित कांग्रेस और रांकपा को इस प्रयोग में दूरगामी लाभ नजर आया क्योंकि भाजपा और शिवसेना के साथ रहते उनको हराना कठिन था। महाराष्ट्र की वर्तमान सरकार और केंद्र के बीच के रिश्ते अब जिस तरह बिगड़े उसमें अनेक घटनाएँ सहयोगी बनती गईं। श्री ठाकरे के ताजा बयान के बाद से तो अब दोनों पार्टियों के दोबारा साथ आने की संभावनाओं पर फिर धूल जम गई है। हालाँकि 2024 के लोकसभा चुनाव की बिसात बिछना अभी बाकी है। भाजपा के विरोध में विपक्ष का एक गठबंधन बनेगा या नहीं और उसका नेतृत्व कौन करेगा ये उ.प्र विधानसभा चुनाव के परिणाम तय करेंगे क्योंकि जिस तरह के संकेत हैं उनके मुताबिक कांग्रेस वहां दहाई का आंकड़ा भी शायद ही छू सके और उस सूरत में ममता बैनर्जी खुद को नरेन्द्र मोदी के विकल्प के तौर पर पेश करने आगे आयेंगी। राहुल गांधी के नेतृत्व को वे पहले ही नकार चुकी हैं। गोवा में तृणमूल का मैदान में उतरना शिवसेना के लिए संकेत है। ऐसे में भले ही उद्धव शिवसेना को राष्ट्रीय राजनीति में उतारने का इरादा जता रहे हों किन्तु लोकसभा चुनाव में शिवसेना को साथ रखने का जोखिम न कांग्रेस उठाना चाहेगी औए न ही ममता और अखिलेश यादव। ये देखते हुए श्री ठाकरे का ताजा बयान उनकी राजनीतिक समझ पर सवाल उठाने का कारण बन रहा है। बेहतर होता वे पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने तक धैर्य रखते। उन्हें ये ध्यान रखना चाहिए कि कांग्रेस और शरद पवार के लिए उनकी अहमियत केवल सत्ता सुख लूटने के लिए है। लोकसभा चुनाव में सीटों का बंटवारा करते समय वे दोनों शिवसेना को कितना हिस्सा देंगी ये सोचा जा सकता है। राजनीति के जानकार भी बिना संकोच ये मानते हैं कि उद्धव में बाल ठाकरे जैसी चतुराई और बड़प्पन नहीं है। इसीलिए वे ऐसी पार्टियों के साथ गठबंधन कर बैठे जिनके साथ उनका लम्बे समय तक चल पाना असम्भव होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 24 January 2022

आयकर समाप्त करना सबसे क्रांतिकारी आर्थिक सुधार होगा



फरवरी के करीब आते ही भारत में बजट को लेकर कयास लगने शुरू हो जाते हैं। अर्थशास्त्र के ज्ञाता तो सुझाव देते ही हैं लेकिन उद्योग-व्यापार संगठन, कर्मचारी और जमा राशि के ब्याज पर निर्भर बुजुर्ग भी अपने-अपने नजरिये से बजट से अपेक्षाएं करते हैं। वित्त मंत्री द्वारा भी समाज के विभिन्न वर्गों से राय लेकर बजट को लोकप्रिय बनाने की कोशिश की जाती है। लेकिन शायद ही कभी किसी वित्तमंत्री ने हर तबके को संतुष्ट किया हो। उस दृष्टि से निर्मला सीतारमण भी अपवाद नहीं हैं। और फिर बीते दो साल से कोरोना के कारण अर्थव्यवस्था वैसे भी डांवाडोल रही। सौभाग्य से इस वर्ष कोरोना की दूसरी भयावह लहर के बाद ओमिक्रोन नामक तीसरी लहर का का खौफ जल्द खत्म होने की सम्भावना के चलते अर्थव्यवस्था की पुरानी रफ्तार लौटती दिखाई दे रही है। बीते कुछ महीनों में मासिक जीएसटी संग्रह लगातार एक लाख करोड़ से अधिक होना अपने आप में काफी कुछ कहता है। ऐसे में आम जन के साथ ही उद्योग-व्यापार जगत भी वित्तमंत्री से अपेक्षा कर रहा है कि वे उसके घावों पर मरहम लगाने की कृपा करेंगीं। सबसे ज्यादा उम्मीद आयकर की दरों और छूट को लेकर लगाई जा रही हैं। इस बारे में अनेक तरह के सुझाव आते जा रहे हैं किन्तु सबसे सटीक और कारगर सुझाव दिया डा. सुब्रमण्यम स्वामी ने। अर्थशास्त्र के अध्यापन के साथ राजनीति का उनका अनुभव काफी विशद है। यद्यपि अपने विवादास्पद बयानों और अति महत्वाकांक्षी स्वभाव के कारण लोग उनसे छिटकते भी हैं। विशेष रूप से सत्ता पक्ष सदैव उनसे बचने का प्रयास करता है। बीते अनेक सालों से वे भाजपा के साथ हैं लेकिन हिन्दुत्व के प्रखर पैरोकार होने के अलावा गांधी परिवार के विरुद्ध अनेक अदालती मामले चलाने के बावजूद उनकी मोदी सरकार से पटरी नहीं बैठी। हालाँकि उनको राज्यसभा में भेजने के साथ ही वीआईपी सुरक्षा भी दी गई किन्तु नीतिगत मामलों में सरकार की टांग खींचने का कोई मौका वे नहीं गंवाते। लेकिन आगामी बजट को लेकर डा. स्वामी ने आयकर समाप्त करने का जो सुझाव सरकार को दिया है उस पर विचार किया जावे तो ये महसूस होगा कि वे उस जनभावना को ही अभिव्यक्त कर रहे हैं जो लम्बे समय से बौद्धिक विमर्श का विषय तो है लेकिन न जाने क्यों देश भर के अर्थशास्त्री और आर्थिक क्षेत्र में काम करने वाले पेशेवर जन इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय नहीं बनाते? इस बारे में उल्लेखनीय है कि अर्थ क्रांति नामक एक अध्ययन संस्थान ने इस बारे में जो शोध प्रबंध तैयार किया उसमें आय कर खत्म कर बैंक में जमा की जाने वाली नगद राशि पर ट्रांजेक्शन टैक्स लगाने का सुझाव दिया गया है। उसके अनुसार आय कर हमारे देश में कर चोरी और काले धन को प्रोत्साहित करने का जरिया बन गया है। भ्रष्टाचार भी इसी के कारण पनपता है। उक्त संगठन के अनुसार देश में सबसे बड़ा नोट 100 रु. का ही होना चाहिए। कहा जाता है अर्थ क्रांति के प्रमुख अनिल बोकिल से उक्त विषय पर चर्चा के उपरांत ही प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में नोटबंदी जैसा दुस्साहसी कदम उठाया किन्तु उस सुझाव को आधा ही लागू किया गया। नोट बंदी के कुछ लाभ हुए और उसकी वजह से देश में गैर नगदी लेन-देन बढ़ा। नई पीढ़ी की डिजिटल ट्रांजेक्शन के प्रति जबरदस्त रूचि भी काबिले गौर है। व्यावसायिक लेन-देन में भी ई-बैंकिंग का चलन लोकप्रिय हुआ है। इस कारण काले धन से चलने वाली समानांतर अर्थव्यवस्था को हल्की चोट तो लगी लेकिन 2000 रु. का नोट चलन में आने के बाद वह उसका माध्यम बन गया। अभी हाल ही में कन्नौज में इत्र व्यापारी के यहाँ छापे में तकरीबन 200 करोड़ की नगदी मिलने के बाद विपक्ष ने नोट बंदी की विफलता का मुद्दा एक बार फिर उठाया। डा. स्वामी भी समय-समय पर प्रधानमन्त्री के उस कदम की आलोचना करते हुए कहते रहे हैं कि उसका क्रियान्वयन ठीक तरह से नहीं होने से कारोबारी जगत को बड़ा नुकसान हुआ। ये देखते हुए आगामी बजट में करों को लेकर राहत की जो भी मांगें हो रही हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण आयकर समाप्त करने संबंधी सलाह है। डा. स्वामी के अनुसार आयकर से मिलने वाला राजस्व लगभग 8 से 9 लाख करोड़ ही है जो कि अर्थव्यवस्था के आकार के मुताबिक बहुत ही मामूली है। ऐसे में सरकार चाहे तो इसे समाप्त कर वैकल्पिक स्रोतों से अपना खजाना भर सकती है। उनके मुताबिक आयकर खत्म होने से लोगों में बचत की प्रवृत्ति बढ़ेगी तथा काले धन के रूप में अनुपयोगी पड़ा धन भी अर्थव्यवस्था में शामिल होकर उसे गतिशील बनाने में सहायक होगा। डा. स्वामी तो खैर आर्थिक मामलों के अच्छे जानकार हैं ही किन्तु इस विषय की छोटी सी जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी ये स्वीकार करेगा कि आयकर भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण है। इस विभाग के प्रति आम जनता के मन में क्या धारणा है ये किसी से छिपा नहीं है। कर चोरों की तो बात ही अलग है परन्तु जो लोग ईमानदारी से आय कर का भुगतान करते हैं वे भी इस विभाग के साधारण कर्मचारी के आ जाने से भयग्रस्त हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार में बैठे महानुभाव इस वास्तविकता से अनजान हों लेकिन ऐसा लगता है आय कर विभाग में होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने में किसी सरकार की रूचि नहीं है या फिर साहस का अभाव है। डा. स्वामी से प्रधानमन्त्री की भले ही न पटती हो लेकिन उनका सुझाव जनता और अंतत: देश के हित में है। जीएसटी आ जाने के बाद वैसे भी विभिन्न करों की जरूरत खत्म हो जानी चाहिए। प्रधानमंत्री साहसिक फैसले लेने के लिए जाने जाते हैं। बीते सात साल से भी ज्यादा के शासनकाल में आर्थिक, सामरिक, प्रशासनिक और सामाजिक क्षेत्र से जुड़े अनेक सुधारवादी फैसले उनके द्वारा लिए गये। हालाँकि भूमि अधिग्रहण और कृषि सुधार कानून उनको वापिस लेने पड़े किन्तु शेष फैसले लागू करने में वे सफल रहे। ये देखते हुए आय कर खत्म करने जैसा निर्णय यदि आगामी बजट में लिया जा सके तो इससे अर्थव्यवस्था में जबरदस्त सुधार देखने मिलेगा। सबसे बड़ी बात ये होगी कि संस्थागत रूप ले चुके भ्रष्टाचार पर अकल्पनीय अंकुश लगने से पूरी दुनिया में भारत की छवि उद्योग-व्यवसाय के लिए सर्वाधिक अनुकूल देश के तौर पर स्थापित हो सकेगी। हालाँकि सरकार में बैठे राजनेता इस विषय की बारीकी को कितना समझ सकेंगे ये विचारणीय है क्योंकि उनमें से अधिकतर तो वे हैं जो नौकरशाही की नजर से देखने के आदी हैं। प्रधानमंत्री रेडियो पर मन की बात कार्यक्रम के लिए आम जनता से सुझाव आमन्त्रित करते हैं। इस माह के अंत में की जाने वाली मन की बात के लिए वे आय कर की उपयोगिता पर लोगों की राय आमंत्रित करें तो उन्हें वही सब सुनने मिलेगा तो अनिल बोकिल और अब डा. स्वामी ने कहा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 22 January 2022

अच्छा हो अपनी पार्टी से ही शराबबंदी अभियान की शुरुआत करें साध्वी



म.प्र की पूर्व मुख्यमंत्री उमाश्री भारती ने शराबबंदी जैसे सामाजिक मुद्दे के जरिये प्रदेश में सक्रियता बढ़ाने का  जो संकेत कुछ समय पहले दिया उसके बाद ही शिवराज सिंह चौहान की सरकार नई आबकारी नीति लेकर आ गई | जिसके अंतर्गत शराब सस्ती की जायेगी ताकि पड़ोसी राज्यों में कम दामों के कारण तस्करी से होने वाली राजस्व हानि रोकी जा सके | इस नीति का कांग्रेस जमकर विरोध कर रही है | वहीं केन्द्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते तो यहाँ तक कह गये कि शराब सरकार की कमाई का बड़ा हिस्सा है और पर्यटन भी इसी से बढ़ता है | भोपाल की सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने हालाँकि शराब नीति का समर्थन तो नहीं किया किन्तु ये कहकर सुर्खियाँ बटोरीं कि कम मात्रा में उसका सेवन औषधि का  काम करता है जबकि अधिक लेने पर वह जहर बन जाती है | लेकिन उमाश्री अपनी बात पर कायम हैं और गत दिवस उन्होंने घोषणा कर दी कि वे आगामी 14 फरवरी से बाकायदा शराबबंदी हेतु अभियान चलाएंगी | उन्होंने ये भी कहा कि वे इस बाबत वरिष्ठ स्वयंसेवकों , मुख्यमंत्री श्री चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा से भी चर्चा कर  चुकी है | सुश्री भारती ने  ये भी स्पष्ट कर दिया कि उनका अभियान सरकार के नहीं अपितु नशा और शराब के विरुद्ध है | वैसे भी  मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दोनों शराब  समर्थक नहीं माने जाते | इसी तरह जिन स्वयंसेवकों से मिलने की बात उन्होंने उजागर की वे भी जाहिर है नशे को खराब ही मानते होंगे तभी वे उनसे समर्थन मांगने गईं | लेकिन इस अभियान को जनता का साथ  मिले उसके पहले साध्वी को चाहिए वे भाजपा  कार्यकर्ताओं के बीच इस मुहिम को शुरू करें और उनसे शपथपत्र भरवाएं कि वे मद्यपान अथवा अन्य किसी  भी तरह के नशे से दूर रहेंगे | प्रमुख रूप से वे महिला नेत्रियों को इस अभियान से जुड़ने हेतु राजी करें |  इससे उनके अभियान को जन समर्थन मिलने में आसानी होगी तथा आगामी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ ही बाकी राजनीतिक दलों पर भी शराबबंदी को अपने घोषणापत्र में शामिल करने का दबाव बनेगा | शराब को आज भी हमारे देश में सामाजिक तौर पर जन स्वीकृति नहीं मिली | भले ही बड़े तबके में उसका चलन बढ़ने के साथ ही  अभिजात्य वर्ग में वह प्रतिष्ठा सूचक बन गयी है | सांसद प्रज्ञा ठाकुर का ये कहना  सही मान भी लें कि सीमित मात्रा में दवाई का काम करने वाली शराब लत बन जाने के बाद जहर बन जाती है किन्तु  सवाल ये है कि ऐसे कितने विवेकशील और अनुशासित लोग हैं जो इसे बतौर दवा उपयोग करते हैं | अनेक चिकित्सकीय शोध भी चिकित्सक द्वारा सुझाई  गई मात्रा में शराब के सेवन को स्वास्थ्य के लिए अच्छा बताते हैं लेकिन इस अनुशासन का ज्यादातर लोगों द्वारा पालन नहीं किया जाना आम बात है | आधुनिक दिखने की होड़ में जिस पेज थ्री संस्कृति ने समाज में प्रवेश किया है उससे प्रभावित वर्ग में महिलाएं और किशोरावस्था  के बच्चे भी मद्यपान करते दिखाई देते हैं | राजनीतिक दल भी इससे अछूते नहीं रहे | वरना महात्मा गांधी की राजनीतिक विरासत की सबसे बड़ी दावेदार कांग्रेस ने देश  आजाद होते ही मद्यनिषेध लागू कर बापू के आदर्शों को मान्यता दी होती | बाकी दलों में भी गांधी जी को मानने वाले बहुत नेता है लेकिन उनमें से कुछ अपवादों को छोड़ किसी ने भी शराबबंदी के लिए आन्दोलन करना जरूरी नहीं समझा | ऐसे में सुश्री भारती जो दुस्साहस करने जा रही हैं वह जनता के मन में तभी जगह बना सकेगा जब वे अपनी पार्टी के लोगों विशेष रूप से युवा कार्यकर्ताओं को शराब से दूर रहने के लिए प्रेरित कर सकें | भाजपा भी चूँकि अन्य राजनीतिक दलों की तरह ही होती जा रही है इसलिए उससे जुड़ने में शराब जैसी चीज बाधक नहीं बनती | अनेक जनप्रतिनिधि तो शाम के साथ ही जाम लेकर बैठने के लिए कुख्यात है | चूंकि पार्टी द्वारा इस पर कोई रोक नहीं लगाई गई इसलिए पीने वालों में कोई झिझक या अपराधबोध भी  नहीं है | ये देखते हुए प्रदेश में शराबबंदी का अभियान प्रारम्भ करने के साथ ही उमाश्री को सबसे पहले भाजपा में अपना समर्थक वर्ग तैयार करना चाहिए | ऐसा करने पर उनके अभियान को चुनावी राजनीति में  प्रवेश का तरीका कहने वालों को तो जवाब मिलेगा ही इस प्रयास की सार्थकता और प्रामाणिकता पर भी कोई संदेह नहीं रहेगा | कोरोना की तीसरी लहर के कारण इस अभियान में जनभागीदारी के साथ ही राजनीति से परे  लोगों की सक्रियता को  कठिन मानते हुए सुश्री भारती ने स्वीकार किया कि अन्य बाधाएं भी हैं | परन्तु बाहरी लोगों से अपेक्षा करने की बजाय यदि वे भाजपा और उससे जुड़े संगठनों में बैठे अपने समर्थकों को शराबबंदी के पक्ष में मुखर कर सकें तो इस प्रयास की सफलता को लेकर उम्मीद की जा सकती है | और फिर उमाश्री का अस्थिर स्वभाव देखते हुए वे इस मुहिम को बीच में ही छोड़कर कब दूसरे किसी मुद्दे को हाथ में ले बैठें ये कहना मुश्किल है | इसका प्रमाण चुनावी राजनीति को अलविदा कहने के बाद दोबारा चुनाव लड़ने की इच्छा व्यक्त किये जाने से मिलता है | ये प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता कि इसके पहले साध्वी को शराबबंदी की जरूरत महसूस क्यों नहीं हुई जबकि थोड़े समय तक वे खुद भी प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी थीं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 21 January 2022

योग्यता किसी की बपौती नहीं लेकिन अयोग्य को अधिकार देना अनुचित



सर्वोच्च न्यायालय की ये टिप्पणी पूरी तरह सही है कि आरक्षण योग्यता का विरोधी नहीं है और ये भी कि किसी खुली प्रतियोगिता में प्रदर्शन उसका आधार नहीं बन सकता। मेडिकल कालेजों में प्रवेश हेतु होने वाली नीट परीक्षा में  27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को सही ठहराते हुए न्यायालय ने आरक्षण संबंधी विभिन्न चर्चाओं का उत्तर देते हुए कहा कि आरक्षण प्राप्त व्यक्ति भले ही पिछड़ेपन को लेकर स्थापित मानदंडों के अंतर्गत न आता हो लेकिन उसे उससे वंचित नहीं किया जा सकता। अदालत ने साफ़ कहा कि पिछड़ेपन को व्यक्तिगत आधार पर नहीं अपितु व्यापक सामाजिक आधार पर आँका जाना चाहिए। दरअसल ये मुद्दा इसलिए उठता रहा है क्योंकि आरक्षित वर्ग के कतिपय हिस्से के आर्थिक, शैक्षणिक और काफी हद तक सामाजिक उत्थान के बावजूद उसकी भावी पीढ़ी को भी वही सुविधा मिलती है । सर्वोच्च न्यायालय भी अतीत में अनेक मर्तबा आरक्षित वर्ग में आर्थिक और सामाजिक विकास के स्तर को पार कर जाने वाले तबके को क्रीमी लेयर कह चुका है। इस विसंगति को दूर करने के लिए ही आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण की सुविधा दी गई। अपने ताजा फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतियोगी परीक्षाओं में आरक्षण के औचित्य को सामाजिक बराबरी के संदर्भ में सही ठहराया है। उसका स्पष्ट कहना है कि कुछ लोगों के उत्थान को पूरे समाज की स्थिति नहीं माना जा सकता और न ही सामाजिक असमानता हटाने में आरक्षण की भूमिका को नकारा जा सकता है। हालाँकि अदालत ने ये स्वीकार किया है कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त कुछ लोग पिछड़ेपन की स्थिति से बाहर होते हैं वहीं उससे वंचित अनेक जन पिछड़ेपन का शिकार, परन्तु यह व्यवस्था व्यक्तिगत न होकर समुदाय को ध्यान में रखकर बनाई गई है इसलिए इस विसंगति को सहन करना ही होगा। आरक्षण को लेकर देश में बीते लगभग तीन दशक से राजनीति हो रही है। विशेष रूप से मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के लागू हो जाने के बाद अन्य पिछड़ा वर्ग नामक वह ताकतवर समूह उभरकर सामने आ गया जिसने सियासत की धारा ही बदल डाली। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकतम सीमा 50 फीसदी कर दी लेकिन अनेक राज्य उसके बाहर जाने का दुस्साहस कर रहे हैं। म.प्र के पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण को लेकर मचा बवाल सबके सामने है। उ.प्र विधानसभा का मौजूदा चुनावी मुकाबला जिस तरह जाति केन्द्रित बन गया उससे लगता है कि सामाजिक असमानता मिटाने के लिए की गई यह व्यवस्था सामाजिक समरसता को नुकसान पहुँचाने का कारण बनती जा रही है। अनेक राज्य जातिगत जनगणना करवाए जाने की तैयारी कर रहे हैं। म.प्र के पंचायत चुनाव हेतु सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर जातिगत आधार पर मतदाता सूची बनाई जा रही है जिससे आरक्षण की 50 फीसदी सीमा को लांघने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति ली जा सके। वैसे गत दिवस आये फैसले के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत से सवालों के जवाब दे दिए हैं। इस फैसले में एक तरह से क्रीमी लेयर को आरक्षण से वंचित करने की सलाह को दरकिनार कर उसे सामाजिक न्याय बताते हुए योग्यता में बाधक मानने से दो टूक इंकार कर दिया गया है। रोज-रोज उठने वाले अनेक विवादों का पटाक्षेप भी उसके फैसले से हो गया है किन्तु जहां तक बात योग्यता की है तो भले ही आरक्षण को उसमें बाधक न माना जाए लेकिन योग्यता को महज इसलिए उपेक्षित भी नहीं किया जा सकता कि सम्बन्धित व्यक्ति सामाजिक तौर पर पिछड़े समुदाय से ताल्लुक रखता है। सबसे अधिक विवाद पदोन्नति में आरक्षण को लेकर हो रहा है। किसी व्यक्ति को आरक्षण का लाभ देकर अवसर दिया जाना पूर्णरूपेण उचित है। लेकिन उसके बाद यदि वह अपने आपको साबित करने में असफल रहता है तब उसे और रियायत देना उसे लापरवाह और निठल्ला बनाना है। मसलन आरक्षण प्राप्त एक व्यक्ति को कम अंकों के बाद भी परीक्षा उत्तीर्ण करने की सुविधा भले दी जाए लेकिन शिक्षक जैसे काम के लिए योग्यता में समझौता किये जाने से दूरगामी नुकसान होते हैं। मेडिकल और इंजीनियरिंग महाविद्यालयों के शिक्षक अथवा वैज्ञानिक शोध करने वाले संस्थान में चयन करते समय योग्यता ही आधार होना चाहिए। दुर्भाग्य से आरक्षण समरसता और अवसर की समानता की बजाय वोट बैंक का विषय बनकर रह गया है। जिन राज्यों की सत्ता पर अनु. जाति/जनजाति और ओबीसी के नेता लम्बे समय से काबिज हैं वहां इस वर्ग का कितना उत्थान हुआ ये अध्ययन का विषय है। मायावती की पार्टी का महासचिव पद काफी समय से सतीश चन्द्र मिश्र के पास होना बहुत कुछ कह जाता है। यही हाल सपा का भी है जो अनिल अम्बानी और जया बच्चन जैसों को राज्यसभा में भेजती रही है। इन सब कारणों से आरक्षण का असली उद्देश्य राजनीति के जाल में उलझकर रह गया है। सरकारी नौकरियां लगातार घटती जा रही हैं। उस वजह से बड़ी संख्या में आरक्षण प्राप्त नौजवान बिना काम के बैठे हैं। उन्हें स्वरोजगार के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करने की बजाय राजनीतिक नेता उनको सपने दिखाया करते हैं। उदारीकारण के बाद देश के आर्थिक ही नहीं वरन सामाजिक ढांचे में भी काफी बदलाव हुए जिससे लोगों की सोच और कार्यपद्धति बदली है। आईआईटी और आईआईएम से शिक्षित तमाम नौजावान लड़के और लड़कियों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नौकरी की बजाय अपना कारोबार जमाया और रोजगार प्रदाता बने। कोरोना काल में अनगिनत ऐसे स्टार्ट अप प्रारंभ हुए जिनका संचालन उच्च शिक्षित पेशेवर कर रहे हैं। आरक्षण को योग्यता में बाधक न मानने की अवधारणा यहाँ आकर सवालों के घेरे में आ जाती है। सर्वोच्च न्यायालय का संदर्भित फैसला सैद्धान्त्तिक रूप से तो सही है लेकिन वास्तविकता के धरातल पर देखें तो अयोग्यता या अल्प योग्यता व्यक्ति के विकास में बाधक बनती है वहीं उससे समाज का वातावरण भी प्रभावित होता है। राजनीति इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। समय आ गया है जब अवसर की समानता के सिद्धांत को पूरी ईमानदारी के साथ लागू किये जाने के बावजूद योग्यता को उपेक्षित करने की प्रवृत्ति को तिलांजलि दी जावे। जो भी लोग आरक्षण की आड़ में योग्यता की उपेक्षा करने का समर्थन करते हैं वे दरअसल वंचित समुदाय के हितचिन्तक न होकर उसका भावनात्मक शोषण करने के दोषी हैं। निश्चित रूप से योग्यता किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष की बपौती नहीं है किन्तु इसी के साथ ये भी उतना ही सही है कि अयोग्य को अधिकार देना किसी समाज और देश के लिए अच्छा नहीं होता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 20 January 2022

आईपीएल के खिलाड़ी जैसे बनते जा रहे हैं नेता



उ.प्र में समाजवादी पार्टी भले न माने  लेकिन मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी की पहली शादी से जन्मे बेटे की पत्नी अपर्णा का भाजपा में आना निश्चित रूप से परिवार की छवि के लिए धक्का है | अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव को मना लेने के बावजूद अखिलेश यादव अपने सौतेले भाई की पत्नी को पार्टी और परिवार से अलग राह पर चलने से नहीं रोक सके | इस प्रकरण में मुलायम सिंह की स्थिति हास्यास्पद होकर रह गई है | न तो वे अखिलेश के समर्थन में बोल पा रहे हैं और न ही अपर्णा के | इसमें दो मत नहीं हैं कि अपर्णा बहुत महत्वाकांक्षी हैं | 2017 में वे लखनऊ कैंट सीट से सपा उम्मीदवार बनीं किन्तु भाजपा की रीता बहुगुणा जोशी से लम्बे अंतर से हार गईं | उस चुनाव में मुलायम सिंह तो प्रचार हेतु आये लेकिन अखिलेश ने अपर्णा के पक्ष में एक भी सभा नहीं की | उसके बाद वे सामाजिक कार्यों में अपनी सक्रियता बनाये रहीं और एक – दो आयोजनों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी बुलवाया | तभी से उनके भाजपा में आने की अटकलें लगने लगी थीं | उल्लेखनीय हैं अपर्णा और योगी दोनों मूलतः गढ़वाली हैं | लेकिन इस दलबदल का असली कारण अखिलेश की पत्नी डिम्पल  हैं जो लोकसभा सदस्य रह चुकी हैं | मुलायम के परिवार में वे ही एकमात्र महिला हैं जिनकी राजनीतिक पहिचान है | अखिलेश के मुख्यमंत्री रहते हुए वे सत्ता के गलियारों में काफी ताकतवर बन गई थीं | यद्यपि बतौर सांसद उनकी उपलब्धि कुछ ख़ास नहीं रही | मुलायम सिंह द्वारा अपने दाहिने हाथ रहे  भाई शिवपाल की जगह अखिलेश को उत्तराधिकारी बना देने और फिर डिम्पल को आगे लाने के कारण ही सैफई के इस राजनीतिक परिवार में दरारें पढ़ना शुरू हुईं | शिवपाल द्वारा  अलग पार्टी बना लेने के बाद अपर्णा ने भी अखिलेश के वर्चस्व को चुनौती देनी चाही लेकिन जब उनको लगा कि सपा में रहते हुए उनको मनमाफिक  हिस्सेदारी नहीं मिलेगी तब उन्होंने अंततः भाजपा की शरण ली | ये भी सुनने में आया है कि अखिलेश ने परिवार में दो टिकिटें न देने का जो फार्मूला बनाया उसकी वजह से अपर्णा के पास राजनीतिक अस्तित्व बचाने का और कोई रास्ता नहीं बचा था | बीते कुछ दिनों में सपा द्वारा की गयी सेंधमारी से भाजपा बुरी तरह भन्नाई हुई थी | राजनीतिक नुकसान से ज्यादा उसे अपनी धाक घटने की चिंता थी | उसके रणनीतिकार इसीलिये ऐसे किसी चेहरे के तलाश में थे जिसके आने से वे सीधे अखिलेश की चमक  को कम कर  सकें | हालाँकि मुलायम सिंह के कुछ निकट रिश्तेदारों को भाजपा अपने पाले में खींचने में सफल हो चुकी थी किन्तु वे राज्य स्तर पर उतने चर्चित और असरदार नहीं थे | लेकिन अपर्णा चूंकि नेताजी की बहू हैं इसलिए उनका आना बड़ी खबर तो बना ही उससे ये  भी साफ़ हो गया कि पिछड़ी जातियों का इन्द्रधनुषी गठबन्धन बनाने में कामयाब नजर आ रहे अखिलेश के अपने परिवार में ही समन्वय  की कमी है |  भले ही ऊपरी तौर पर चाचा शिवपाल उनके खेमे में नजर आ रहे हैं लेकिन अंदरूनी खबर ये है कि परिवार की राजनीति पर भतीजे की पकड़ मजबूत हो जाने से वे भी मन ही मन रुष्ट हैं | सुनाई तो ये भी दे रहा है कि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व शिवपाल की  घेराबंदी करते हुए उन्हें भी  अपनी ओर खींचने में लगा है | हालाँकि ये काम आसान नहीं होगा लेकिन इतना तय है कि सपा द्वारा किये गये छापामार हमलों के जवाब में भाजपा के लिए  ऐसा करना नाक का सवाल बन गया  | दूसरी तरफ ये भी देखने वाली बात होगी कि चुनावी मौसम में पाला बदलने वाले भले ही सीमित प्रभाव वाले हों लेकिन वे अपने समर्थन की मुँहमांगी कीमत वसूलते हैं और जब उनका दबाव काम करना बंद कर देता है तब बिना देर किये इधर से उधर हो जाते हैं | स्वामीप्रसाद मौर्य हों या ओमप्रकाश राजभर सभी के साथ यही है | वे न सिर्फ अपने और परिजनों के लिए अपितु समर्थकों के लिए भी टिकिट मांगते हैं | प्रयागराज से भाजपा सांसद  रीता बहुगुणा जोशी ने पार्टी पर ये दबाव बनाया है कि उनके बेटे को लखनऊ कैंट से  चुनाव लड़वाया जावे | श्रीमती जोशी ने भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व के सामने अजीबोगरीब प्रस्ताव रखते हुए कहा है कि बेटे की उम्मीदवारी के बदले वे लोकसभा सीट से त्यागपत्र देने तैयार हैं | उन्हें अच्छी तरह पता है कि पार्टी इसके लिए तैयार नहीं होगी | ऐसा नहीं है ये समस्या भाजपा के समक्ष ही हो | पश्चिमी उ.प्र के जाट बहुल क्षेत्रों में किसान आन्दोलन के कारण भाजपा से जो नाराजगी उत्पन्न हुई उसके कारण सपा और रालोद का गठबंधन हो गया | विगत कुछ चुनावों से इस अंचल में जाटों के समर्थन से भाजपा अच्छी सफलता अर्जित कर रही थी | रालोद नेता जयंत चौधरी को भी लगा कि सपा के साथ गठबंधन से वे राजनीति में पुनर्स्थापित हो जायेंगे | समझौते के अंतर्गत कुछ सीटों पर सपा के उम्मीदवार रालोद के चुनाव चिन्ह पर उतारने का निर्णय हुआ | लेकिन ज्योंही अखिलेश ने उन सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारे त्योंही रालोद में विरोध शुरू हो गया | किसान आन्दोलन के बाद से जिस जाट – मुस्लिम एकता के दावे किये जा रहे थे वह मुस्लिम उम्मीदवारों के नाम सामने आते ही खतरे में पड़ती नजर आने लगी | इसी तरह कांग्रेस से सपा में आये एक मुस्लिम नेता को टिकिट देते ही पार्टी में विरोध होने लगा | सवाल ये है कि चुनाव के समय अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए कूद – फांद करने वाले इन  नेताओं को राजनीतिक पार्टियां  कब तक सिर पर बिठाती रहेंगीं ? विगत चुनाव में भाजपा ने उ.प्र में जो थोक भर्ती अभियान चलाया था उस दौरान अनेक नेता जैसे  आये वैसे चलते बने और पार्टी की जड़ें खोदने का ऐलान करते घूम रहे हैं | रीता बहुगुणा जोशी को जब लगा था कि गांधी परिवार उनको किनारे कर रहा है तो वे भाजपा में घुस आईं और अब अपने बेटे को विधायक बनवाने हेतु दबाव बना रही हैं | भाजपा उ.प्र के इस चुनाव  को किसी भी कीमत पर जीतना चाहेगी क्योंकि सत्ता हाथ से जाने का दूरगामी परिणाम आगामी लोकसभा चुनाव पर पड़ना निश्चित है | ऐसे में कल को अपर्णा की तरह यादव परिवार से और कोई आये तो वह उसे भी हाथों – हाथ लेगी | चूंकि सभी पार्टियाँ युद्ध और जंग में सब कुछ जायज के सिद्धांत पर अमल कर रही हैं इसलिए भाजपा पर भी उंगली नहीं उठाई जाती किन्तु उसे अपनी संगठन क्षमता पर शायद पहले जैसा विश्वास नहीं रहा | वरना पांच साल तक उ.प्र की सरकार चलाने के बाद भी उसे इन प्रवासियों  की जरूरत क्यों  है , ये बड़ा सवाल है | अपर्णा यदि सपा में असहज महसूस कर रही थीं तब वे चुनाव तक क्यों रुकी रहीं , इस बात का जवाब भी उनको देना चाहिए | लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि राजनीति भी आजकल आईपीएल जैसी हो गई है जिसमें हर सीजन में खिलाड़ी ऊंची कीमत पर इधर से उधर होते हैं | जिस तरह केवल पैसे की खातिर होने वाले मुकाबलों में खेलों की कलात्मकता नष्ट होती जा रही है , उसी तरह से राजनीति भी ले – देकर चुनाव जीतने पर आकर केन्द्रित हो जाने से सिद्धांत और आदर्श रद्दी की टोकरी में नजर आने लगे हैं | राम मंदिर आन्दोलन के महानायक रहे स्व. कल्याण सिंह भी एक समय उन मुलायम सिंह यादव के साथ जा मिले जिन्होंने राम भक्तों पर गोलियां चलवाई थीं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 19 January 2022

शराब सस्ती करने वाले शायद भूल गये कि म.प्र में पेट्रोल-डीजल भी महंगा है



शायद ही कोई राजनीतिक दल अपने चुनाव घोषणापत्र में शराब सस्ती करने का वायदा करता होगा। म.प्र की सत्ता में आने के पहले भाजपा ने बिजली, पानी और सड़क को लेकर तो खूब वायदे किये थे लेकिन शराब सस्ती करने जैसा कोई आश्वासन शायद ही दिया हो। लेकिन गत दिवस म.प्र सरकार ने आगामी वित्तीय वर्ष के लिए जो आबकारी नीति तय की उसमें अंग्रेजी और देशी दोनों शराब सस्ती करने के प्रावधान के साथ ही घर में बार खोलने के साथ ही शराब रखे जाने की मात्रा भी बढ़ा दी है। शराब बनाने और बेचने के बारे में कुछ और निर्णय भी किये गये हैं। शराब सस्ती करने का मुख्य कारण पड़ोसी राज्यों से होने वाली तस्करी को रोकना बताया गया है। इसी के साथ ही प्रदेश सरकार ने घरेलू हिंसा में दिव्यांग हो गई महिलाओं को 2 से 4 लाख तक का मुआवजा देने के साथ ही अदालती खर्च देने का निर्णय भी किया। शराब सरकार की कमाई का बड़ा जरिया होता है। कुछ राज्यों को छोड़कर बाकी में इसकी बिक्री धड़ल्ले से की जाती है। अतीत में कुछ राज्यों ने शराबबंदी का जोखिम उठाया किन्तु बाद में कदम पीछे खींच लिए। लेकिन गांधी के गुजरात और जयप्रकाश के बिहार में मद्यनिषेध लागू है। बिहार में कुछ साल पहले नीतीश कुमर ने महिलाओं की मांग पर ये निर्णय किया था। पिछला विधानसभा चुनाव जीतने में उन्हें महिलाओं का काफी समर्थन भी मिला। कुछ साल पहले शिवराज सरकार ने भी प्रदेश में राजमार्गों और पवित्र नदियों के करीब शराब बेचने पर रोक लगाई थी। नई शराब दुकानें न खोलने  की बात भी अक्सर सुनाई देती है। लेकिन शराब सस्ती करने, घर में उसे रखने की मात्रा बढ़ाने, एक करोड़ से ज्यादा आय वालों को घर में बार खोलने जैसे फैसलों के साथ ही घरेलू हिंसा में दिव्यांग हुए महिलाओं को मुआवजा देने जैसा फैसला विरोधाभासी है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बड़े ही सात्विक व्यक्ति हैं। दर्शनशास्त्र के मेधावी विद्यार्थी होने से धर्म  और आध्यात्म के अच्छे ज्ञाता भी हैं किन्तु शराब को लेकर उनकी सरकार ऐसा कुछ न कर सकी जिससे लगता कि वह इस बुराई को खत्म करने या कम करने के प्रति संकल्पबद्ध है। उनके मंत्रीमंडल में कुछ महिलाएं भी हैं जो सामाजिक जीवन में सक्रिय रहने के दौरान इस वास्तविकता से भली-भांति परिचित होंगीं कि घरेलू हिंसा का एक प्रमुख कारण शराबखोरी भी है। विशेष रूप से निम्न आय वर्गीय परिवारों में तो ये समस्या बहुत है। मनरेगा के अस्तित्व में आने के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में भी शराब की बिक्री में वृद्धि ने महिलाओं पर घरेलू हिंसा की घटनाओं में वृद्धि की है। हालाँकि इनमें से ज्यादातर लोक-लाज में दबी रह जाती हैं। आर्थिक निर्भरता के कारण महिला के सामने प्रतिरोध का विकल्प भी नहीं रहता। उस दृष्टि से शिवराज सरकार ने घरेलू हिंसा में दिव्यांग होने वाली महिलाओं को आर्थिक क्षतिपूर्ति देने का जो फैसला किया वह उसकी सम्वेदनशीलता का परिचायक है लेकिन इसी के साथ ही शराब को सस्ती करने और उसके घर में रखे जाने की  सीमा बढ़ाने  और  घर को बार बनाने की सुविधा से तो शराबखोरी और घरेलू हिंसा में वृद्धि होना अवश्यंभावी है। इसके अलावा परिवार के किशोर और युवाओं पर भी बुरा असर पड़े बिना नहीं रहेगा। ऐसा नहीं है कि मुख्यमंत्री और उनके मंत्रीमंडलीय साथी शराब के दुष्प्रभावों से अपरिचित हों। अपराध और भ्रष्टाचार बढ़ाने में भी नशे का कारोबार सहायक है। बावजूद इसके कभी महिलाओं के लिए अलग शराब दूकान खोलने की चर्चा होती है तो कभी घर-घर शराब पहुँचाने की बात सुनाई देती है। इन सबसे शराब का उपयोग कम होने की बजाय और बढ़ेगा ही। इस कदम के पीछे सरकार ने पड़ोसी राज्यों की तुलना में म.प्र में शराब महंगी होने का जो तर्क दिया है वह हास्यास्पद है क्योंकि इस आधार पर तो सबसे पहले  प्रदेश में पेट्रोल-डीजल सस्ता करना चाहिये था। उल्लेखनीय है उ.प्र में पेट्रोल-डीजल म.प्र की तुलना में 8 से 10 रु. प्रति लिटर सस्ता है। इस कारण सीमावर्ती जिलों के लोग उ.प्र जाकर पेट्रोल-डीजल खरीदते हैं। वहीं म.प्र में आने या जाने वाले यात्री और व्यावसायिक वाहन चालक इस बात का ध्यान रखते हैं कि वे उ.प्र में ही अपने वाहन की टंकी पूरी भरवा लें। वैसे भी पेट्रोल-डीजल वे चीजें हैं जिनका उपयोग हर वर्ग के द्वारा किया जाता है और जो अर्थव्यवस्था को सीधे प्रभावित करती हैं। ये देखते हुए सरकार चलाने वाले नेता और उनके मातहत कार्य करने वाले नौकरशाह इस बात को अच्छी तरह समझते होंगे कि शराब पीने वालों के कारण जहां उनके परिवार की आर्थिक स्थिति पर बुरा असर पड़ता है वहीं पेट्रोल-डीजल सस्ता होने से परिवार को होने वाली बचत से लोगों का जीवन सुधरता है। इसलिए सरकार को सस्ता करना ही था तो बजाय शराब के यदि वह पेट्रोल डीजल सस्ता करती तो पूरे प्रदेश में ही नहीं अपितु दूसरे राज्यों की जनता भी उसकी प्रशंसा करती। लेकिन ऐसा लगता है सरकार में बैठे महानुभावों को बढ़ती महंगाई से नशाखोरों को हो रही परेशानी की ज्यादा चिंता है किन्तु उस जनता की नहीं जिसका महंगा पेट्रोल और डीजल खरीदते-खरीदते तेल निकला जा रहा है। उल्लेखनीय है म.प्र उन राज्यों में से हैं जहां ये चीजें सबसे ज्यादा महंगी हैं। इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि पूर्व मुख्यमंत्री साध्वी उमाश्री भारती ने हाल ही में प्रदेश में शराब बंदी हेतु अभियान चलाने की बात कही थी। इसे उनका दोबारा सक्रिय राजनीति में आगमन का संकेत भी कहा गया। लेकिन इसी के साथ स्मरणीय है कि जब मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के राज में खजुराहो में विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए कैसिनो खोलने का प्रस्ताव आया तब सुश्री भारती ने उसका जबरदस्त विरोध किया और पूरी भाजपा दिग्विजय पर चढ़ बैठी थी। आश्चर्य की बात है उसी भाजपा की सरकार प्रदेश में शराब की बिक्री बढ़ाने के लिए उसके दाम घटाने नीतिगत निर्णय ले रही है। घरों में शराब रखने की मात्रा बढ़ाने और बड़ी आय वालों को बार खोलने की अनुमति भी समझ से परे है। बेहतर होगा शिवराज सरकार और भाजपा सार्वजनिक तौर पर ये घोषित करें कि उनकी नजर में शराब अच्छी है या बुरी? रही बात उससे होने वाली आय से तो फिर उसका सामाजिक पक्ष भी देखना चाहिए क्योंकि उसके कारण होने वाले अपराधों पर नियन्त्रण रखने में सरकार का जो खर्च होता है वह भी कम नहीं है। और यदि शराब को सस्ती कर दूसरे राज्यों से होने वाली तस्करी को रोककर सरकार अपनी कमाई बढ़ाना चाहती है तब उसे नशा मुक्ति केन्द्रों पर ताला डाल देना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 18 January 2022

उ.प्र में 14 साल दलित और पिछड़ों के शासन के बाद भी उनकी हालत क्यों नहीं सुधरी



उ.प्र विधानसभा के चुनाव को अगड़े – पिछड़े के बीच मुकाबला कहा जा रहा है | विश्लेषकों के अनुसार सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पिछड़ी जातियों के नेताओं को अपने साथ मिलाकर जो गठबंधन बनाया है उसने भाजपा के लिए चिंता के कारण उत्पन्न कर दिए हैं | स्वामीप्रसाद मौर्य ने  योगी मंत्रीमंडल से त्यागपत्र देकर सपा में प्रवेश करते हुए योगी आदित्यनाथ पर पिछड़ों और दलितों की उपेक्षा करने का आरोप लगाकर  भाजपा छोड़ने के औचित्य को साबित करने की कोशिश की | अपने भाषण में उन्होंने ऐसा जताया मानों उ.प्र में पिछड़ी और दलित जातियों पर  बहुत अत्याचार होता है | हालाँकि  बसपा की सर्वेसर्वा मायावती ने स्वामीप्रसाद को फर्जी आम्बेडकरवादी बताते हुए सवाल उठाया कि वे यही बता दें कि मंत्री रहते हुए उन्होंने  दलित और पिछड़े वर्ग की तो छोड़ दें अपने मौर्य समुदाय के लिए भी क्या किया ? हालाँकि श्री मौर्य से मायावती की खुन्नस काफी हद तक सही है क्योंकि 2007 से 12 तक वे उनके मंत्रीमंडल में मंत्री रहे और उसके बाद 2012 से 17 तक बसपा की और से नेता प्रतिपक्ष | लेकिन गत विधानसभा चुनाव के समय वे भाजपाई हो गए और योगी सरकार में मंत्री रहने के बाद हाल ही में सपाई बन बैठे  | जाहिर है स्वामीप्रसाद का दलित और पिछड़ा प्रेम राजनीतिक अवसरवाद ही है वरना बीते पांच साल में उनके श्रीमुख से एक बार भी योगी सरकार और भाजपा के विरोध में कुछ नहीं निकला | उनके अलावा ओमप्रकाश राजभर नामक पिछड़ी जाति के नेता पहले ही योगी सरकार से किनारा कर चुके थे | उनका भी रोना यही है कि दलितों और पिछड़ों की घोर उपेक्षा हुई | लेकिन इसी के साथ ये भी प्रचारित किया जा रहा है कि मुख्यमंत्री ने अपने सजातीय ठाकुरों को आगे बढ़ाया और भाजपा के परम्परागत समर्थक ब्राह्मणों की उपेक्षा की | अपराधी सरगना विकास दुबे के एनकाऊंटर के बाद तो ये हवा और जमकर फैलाई गयी | उधर मुसलमान भी भाजपा से बेहद खफा हैं और जैसा कहा जा रहा है उनके मत थोक के भाव अखिलेश के मोर्चे को जायेंगे | उल्लेखनीय है अयोध्या में एकत्र हुए राम भक्तों पर गोली चलाने के कारण मुलायम सिंह यादव मुस्लिम समुदाय के चहेते बन गये थे जिससे  यादव – मुस्लिम समीकरण सपा का तगड़ा वोट बैंक बना | लेकिन इस सबसे हटकर एक प्रश्न ये है कि 2003 से 2007 तक मुलायम सिंह , उसके बाद पांच साल तक मायावती और फिर पांच वर्ष अखिलेश ने बतौर मुख्यमंत्री उ.प्र की कमान संभाली | मुलायम और माया उसके पहले भी थोड़े – थोड़े समय तक मुख्यमंत्री रह चुके थे | लेकिन 2003 से 2017 तक के 14 साल तो इस प्रदेश में पिछड़ी और दलित जाति के नेताओं की सरकार चली | कांग्रेस उस दौरान ढलान पर थी और भाजपा अपने पाँव जमाने की कोशिश में जुटी थी |  ऐसे में मुलायम सिंह , मायावती और अखिलेश के पास   पिछड़ी और दलित जातियों के लिए मनचाहा करने का अवसर था  | लेकिन उन पर अपनी निजी जाति पर ज्यादा मेहरबान रहने के आरोप  लगते रहे | हालाँकि ये कहना गलत न होगा कि वे 14 वर्ष उ.प्र में दलित और पिछड़ी जातियों के राजनीतिक प्रभुत्व के रहे | शासन और प्रशासन में भी उन्हीं  जातियों के लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किया गया | मुलायम सिंह और मायावती के बाद अखिलेश ने भी सरकार में रहते हुए जातिगत झुकाव  को कभी छिपाया नहीं | बावजूद इसके 2012 में मुलायम सिंह को उ.प्र की जनता ने सत्ता से हटाकर मायावती को पूर्ण बहुमत प्रदान कर दलित राजनीति को भरपूर अवसर दिया | कहते हैं मुलायम और उनकी बिरादरी के आतंक से रुष्ट सवर्ण जातियों ने भी बसपा को जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया | तिलक , तराजू और तालवार को जूते मारने वाला नारा हाथी नहीं गणेश है , ब्रह्मा , विष्णु , महेश है , में बदल गया | मायावती ने ब्राह्मण चेहरे सतीश चन्द्र मिश्र को बसपा महासचिव बनाकर पार्टी की ब्राहमण विरोधी छवि बदलने का दांव भी चला | लेकिन जल्द ही अगड़ी जातियों का मायावती से  मोहभंग होने लगा | चूंकि 2012 का चुनाव आते तक भाजपा और कांग्रेस इस प्रदेश में अपना आभामंडल नहीं फैला सके   इसीलिये जनता ने एक बार फिर सपा को सत्ता सौंप दी किन्तु मुलायम सिंह ने अपने दाहिने हाथ माने जाने वाले अनुज शिवपाल और अल्पसंख्यक चेहरे आजम खान को ठेंगा दिखाते हुए बेटे अखिलेश की ताजपोशी करवा दी | इसकी वजह से उनके परिवार में टूटन हुई और सपा का विभाजन हो गया | यही वजह रही कि 2017 में अखिलेश ने राहुल गांधी के साथ जोड़ी बनाई किन्तु मतदाता उनसे ऊब चुके थे और उन्होंने वह कर दिखाया जो 1992 में बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद के  चुनाव में भी नहीं हुआ | भाजपा को ऐतिहासिक बहुमत तो मिला लेकिन सबसे बड़ी बात ये रही कि उसे दलितों और पिछड़ों का भी जबरदस्त समर्थन हासिल हुआ | यद्यपि इसकी  शुरुआत 2014 के लोकसभा चुनाव में ही हो चुकी थी जब नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर ने सपा , बसपा और कांग्रेस का सफाया कर दिया | बावजूद उसके सपा और बसपा को उम्मीद थी कि विधानसभा चुनाव में उनका जातिगत जनाधार बरकरार रहेगा लेकिन 2017 में वह मिथक भी टूट गया | इसका साफ़ मतलब निकलता है कि 2003 से 2017 तक की लम्बी समयावधि में पिछड़ी और दलित जातियों के सबसे बड़े नेताओं की सरकार भी इन जातियों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी | स्वामीप्रसाद मौर्य ने मायावती की सरकार में मंत्रीपद संभाला और फिर नेता प्रतिपक्ष भी रहे | उन्हें ये स्पष्ट करना चाहिए कि बसपा सरकार 2012 में जनता द्वारा क्यों ठुकराई गई और अखिलेश यादव ने यदि पिछड़ी जातियों के हित में अच्छा काम किया था तो वे गत चुनाव में भाजपा की गोद में आकर क्यों बैठे ? आज अखिलेश और मायावती तथा उनके साथ जुड़े अन्य नेतागण दलितों और पिछड़ों की बदहाली का रोना रो रहे हैं लेकिन इनके लगातार 14 साल सत्ता  रहने के बाद भी यदि ये वर्ग दुर्दशा का शिकार है तब उसके असली दोषी तो ये नेता ही कहे जायेंगे | तमाम चुनाव विश्लेषक बेझिझक कहते हैं कि मायावती के पक्ष में उनका सजातीय जाटव मतदाता गोलबंद है वहीं यादवों की एकमात्र पसंद अखिलेश यादव हैं | ऐसे में प्रश्न ये है कि अनेक बार सत्ता में रहने के बाद  भी समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी क्रमशः सभी पिछड़ी और दलित जातियों का विश्वास नहीं जीत सकीं | यदि ऐसा हो जाता तब उन्हें चुनाव के समय स्वामीप्रसाद , ओमप्रकाश और  दारासिंह जैसों की जरूरत नहीं पड़ती | उ.प्र के मौजूदा चुनाव में जिस तरह से समाज को अगड़े , पिछड़े और दलित में बाँट दिया गया है वह भविष्य में बहुत बड़े खतरे का कारण बनेगा | ज्यादा समय नहीं बीता जब बिहार में जाति  आधारित निजी सेनाएं हुआ करती थी | टिकिट वितरण में भी जातिगत समीकरण हावी होने से क्षेत्रीय विकास और सामाजिक समरसता जैसे मुद्दे लुप्त हो रहे हैं | मुलायम और अखिलेश के साथ ही मायावती से भी ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि सत्ता में रहते हुए यदि उन्होंने पिछड़ी और दलित जातियों के कल्याण और उत्थान के लिए  बहुत अच्छा काम किया तब जनता ने  उनकी सरकार को क्यों हटाया और यदि उनके पास बताने के लिए कुछ नहीं  है तब उन्हें दोबारा सत्ता क्यों दी जाए ? सवाल भाजपा और कांग्रेस से भी पूछे जाने चाहिए जो इन पार्टियों के दबाव में मुख्य धारा से भटककर अगड़े – पिछड़े और दलितों जैसे मकड़जाल में उलझकर रह गये हैं | जनता द्वारा एक बार ठुकरा दिए गये नेता को मतदाताओं के सामने उन कारणों को स्पष्ट करना चाहिए जिनके आधार पर उनको दूसरी या तीसरी बार सत्ता सौंपी जाए | और जो नेता और पार्टी पहले अनेक बार सत्ता में रहने पर भी कुछ न कर सकी वह किस मुंह से नया जनादेश मांगती है इस पर भी बहस होनी चाहिए | चूँकि भारतीय प्रजातन्त्र पार्टी से आगे निकलकर परिवार के शिकंजे में आता जा रहा है इसलिए ये मुद्दा ज्यादा विचारणीय हो गया है | कई  बार सत्ता में रहने के बाद मतदाताओं द्वारा नकारे जाने वाले नेता की जगह नया चेहरा पेश न करना ये दर्शाता है कि राजनीतिक दल भी व्यक्ति अथवा परिवार विशेष की निजी जागीर बनकर रह गये हैं |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 17 January 2022

ये तेवर कभी-कभार ही क्यों : मुख्यमंत्री इस शैली को स्थायित्व प्रदान करें



म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आम तौर पर शांत प्रकृति के व्यक्ति हैं किन्तु यदा-कदा उन्हें गुस्सा आता है और उस दौरान वे दो-चार सरकारी अफसरों अथवा कर्मियीं को निलम्बित या स्थानांतरित कर देते हैं। बीते कुछ दिनों में ऐसे अनेक वाकये हुए जब मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक जलसों में सरकारी अमले पर गाज गिराई। इसके पहले भी अनेक मर्तबा उन्होंने इसी तरह के तेवर दिखाए जिसे आम जनता में सिंघम अवतार कहा गया। उ.प्र में मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती भी ऐसे ही जनता के बीच खड़ी होकर प्रशासनिक अमले पर गुस्सा उतारती थीं। जिस तरह फिल्मों में नायक द्वारा खलनायक की पिटाई किये जाने पर दर्शक प्रसन्न होते हैं उसी तरह सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता द्वारा नौकरशाही पर इस तरह हंटर चलाये जाने से वहां मौजूद जनता खुश होती है। इसके साथ ही नेताजी का रुतबा भी कायम होता है। हालांकि बाद में दण्डित अधिकारी अथवा कर्मी कब बहाल हो जाता है ये किसी को पता ही नहीं चलता। शिवराज जी लम्बे समय से प्रदेश की सत्ता पर विराजमान हैं। इसीलिये नौकरशाही उनके स्वभाव और कार्यप्रणाली से अच्छी तरह वाकिफ है। सबसे बड़ी बात ये है कि वे सचिवालय में बैठकर राज करने वाले न होकर राज्य में निरंतर भ्रमण करने वाले मुख्यमंत्री के रूप में पहिचान बना चुके हैं। इस वजह से उनका चेहरा आम जनता में जाना-पहिचाना है। सत्ता में आने से पहिले उन्होंने पार्टी संगठन का भी काम किया जिसके कारण उनका दलीय कार्यकर्ताओं और नेताओं से आत्मीय सम्बन्ध है। यही वजह है कि सत्ता की दौड़ में प्रतिद्वंदी भी उनके विरुद्ध बोलने से बचते हैं। यहाँ तक कि विपक्ष के नेता भी सौजन्यता के निर्वहन में श्री चौहान की प्रशंसा करते हैं। लेकिन इसके साथ ही ये बात भी कही जाती है कि म.प्र में शासकीय अमला समूची व्यवस्था पर हावी है जिसकी वजह से भ्रष्टाचार चरम पर है। इसका प्रमाण समय-समय पर लोकायुक्त और आर्थिक अपराध विंग द्वारा मारे जाने वाले छापों में शासकीय अमले के पास से मिलने वाली अनाप-शनाप राशि के साथ ही चल-अचल सम्पत्ति का मिलना है। ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार की शुरुआत शिवराज सरकार के कार्यकाल में ही हुई हो लेकिन ये कहना जरा भी गलत नहीं होगा कि तमाम दावों के बाद भी सरकारी दफ्तरों में होने वाला लेन-देन और घूसखोरी रुकने की बजाय बढ़ गई। अनेक सेवाओं को ऑनलाइन करने के बाद भी प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़े लोग अपनी कमाई का रास्ता तलाश ही लेते हैं। इसमें दो मत नहीं हैं कि शिवराज सरकार ने म.प्र को बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर निकाला है। सड़क और बिजली के क्षेत्र में उसकी उपलब्धियाँ काबिले गौर हैं। कृषि उत्पादन में आगे बढऩे के साथ ही पर्यटन में भी अच्छी-खासी वृद्धि हुई है और अधो संरचना के काम भी खूब हो  रहे हैं। लेकिन इतना सब होते हुए भी प्रदेश में नौकरशाही की चाल और चरित्र में लेश मात्र भी सुधार देखने में नहीं मिलता। ऐसे में श्री चौहान द्वारा थोड़े-थोड़े अंतराल के उपरान्त दिखाया जाने वाला गुस्सा दूरगामी असर नहीं छोड़ पाता। इसके लिए उन्हें केवल सीएम हेल्पलाइन के अंतर्गत आने वाली शिकायतों के निराकरण की स्थिति का जायजा लेना होगा जिससे वे अच्छी तरह जान सकेंगे कि प्रदेश की पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी में मुख्यमंत्री का कितना खौफ है? भाजपा खुद को पार्टी विथ डिफऱेंस कहती है किन्तु म.प्र में सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भर्राशाही को रोकने में उसकी सरकार क्यों विफल है ये बात पार्टी के नेतृत्व को समझना होगी क्योंकि विकास सम्बन्धी बाकी बातें सरकारी अमले के भ्रष्टाचार के आगे बेमानी होकर रह जाती हैं। उस दृष्टि से मुख्यमंत्री यदि कड़ा रुख दिखा रहे हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए परन्तु उसका औचित्य तभी तक है जब वह स्थायी रूप ले सके। ये बात किसी से छिपी नहीं है कि सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भले ही प्रत्यक्ष तौर पर राजनीति न करते हों किन्तु उनमें से ज्यादातर की राजनेताओं के साथ अघोषित भागीदारी है। इसीलिए ये कहना कदापि गलत न होगा कि भ्रष्टाचार को सत्ता में बैठे कतिपय लोगों का संरक्षण मिलता है अन्यथा भ्रष्ट अधिकारी और कर्मचारी इतने निडर होकर जनता की मजबूरी का फायदा उठाने की हिम्मत न कर पाते। इस बारे में ध्यान रखने वाली बात ये है कि सत्ता के शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार का खात्मा कठिन हो गया है क्योंकि हमारे देश में हर समय चलने वाले चुनाव की वजह से सत्ता  में बैठे नेताओं को चंदे का जो जुगाड़ करना पड़ता है उसने भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप देते हुए स्थायित्व प्रदान कर दिया। चुनावी खर्च जिस तेजी से बढ़ता जा रहा है उसके कारण सरकार में बैठे लोगों पर भी दबाव बना रहता है। उद्योग और व्यापार जगत के अलावा नौकरशाही के चुनावी चंदे का बड़ा स्रोत बन जाने से भ्रष्टाचार रोकना किसी सरकार के बस में नहीं रहा। लेकिन आम जनता को उससे मुक्ति दिलवानी है तो सरकार को अपने घर से ही शुरूआत करनी होगी। इसके लिए सबसे बड़ी बात है इच्छा शक्ति। देश में अनेक ऐसे सत्ताधारी नेता हुए हैं जिन्होंने काजल की कोठरी में से बेदाग़ निकलने का कारनामा कर दिखाया। उनकी तारीफ़ तो समर्थक और विरोधी दोनों करते हैं लेकिन दुर्भाग्य से वे उनका आदर्श नहीं बन सके। आज देश में विश्वास का जो संकट है उसका सबसे बड़ा कारण सत्ताधारी नेताओं का भ्रष्टाचारी हो जाना है। जो व्यक्तिगत घूस नहीं लेता उसे भी पार्टी फंड के नाम पर उगाही करना होती है। प्रदेश में बैठे सत्ताधारियों से उनकी पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व उम्मीद करता है कि वे पार्टी के लिए पैसे का इंतजाम करें। ये चलन आजादी के बाद से ही चला आ रहा है। ऐसे में शिवराज सिंह द्वारा समय-समय पर सिंघम शैली का प्रदर्शन दो चार दिन की सुर्खियों से ज्यादा और कुछ नहीं रहेगा। यदि मुख्यमंत्री वाकई चाहते हैं कि उनके राज में नौकरशाही की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगे तो उन्हें संदर्भित सख्ती को स्थायी कार्यशैली बनाना होगा। वरना एक कदम आगे, दो कदम पीछे की स्थिति बनी रहेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 15 January 2022

स्वामीप्रसाद का बड़बोलापन अखिलेश की मेहनत पर पानी फेर सकता है



उ.प्र विधानसभा चुनाव में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस बार छोटी – छोटी जातिवादी पार्टियों को अपने साथ मिलाकर जो गठबंधन बनाया उसके बारे में विश्लेषक ये मान रहे थे कि उन्होंने 2017 में भाजपा द्वारा अपनाई रणनीति पर ही काम किया और बिखरे हुए मतदाता समूहों को अपने झंडे तले लाकर कड़ी चुनौती पेश कर दी | इसके कारण सब दूर ये चर्चा होने लगी  कि  लड़ाई भाजपा और अखिलेश के बीच है | यादव और मुस्लिम समुदाय के बीच जो नजदीकी मुलायम सिंह यादव ने पैदा की थी वह पिछले कुछ चुनावों में नहीं  दिखाई दी | लेकिन जैसी परिस्थितियाँ नजर आ रही हैं उनके मद्देनजर ये कहा जा रहा है कि इस बार के चुनाव में एम – वाई समीकरण फिर बैठने जा रहा है | अखिलेश ये जानते हैं कि तमाम कोशिशों के बाद भी सवर्ण जातियों के बीच उनका प्रभाव ज्यादा नहीं रहेगा | इसी तरह प. उ.प्र में किसान आन्दोलन के कारण भाजपा से नाराज बताये जा रहे जाट समुदाय में भी जो गाँव के बाहर हैं उनमें भाजपा के प्रति झुकाव है | ऐसे में मुस्लिम – यादव की गोलबंदी के साथ पिछड़े जाति समूहों को मिला लिया जावे तो चुनावी नैया पार हो सकती है | इसी सोच के साथ उन्होंने बीते कुछ महीनों में तमाम छोटी पार्टियों को अपने पाले में खींचकर भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण हालात बना दिए | उनमें सबसे ज्यादा चर्चा ओमप्रकाश  राजभर की हो रही थी | लेकिन विगत तीन – चार दिनों से योगी मंत्रीमंडल छोड़कर सपा में  आये स्वामीप्रसाद मौर्य ,  अखिलेश द्वारा जमाये गये मजमे को लूटने में लगे हुए हैं | गत दिवस लखनऊ में उन्होंने सपा कार्यालय में जो भाषण दिया उससे ऐसा  लगा जैसे उनका मकसद अपने आपको तुरुप का इक्का साबित करने का है और इसी धुन में वे खुद को अखिलेश की बराबरी का नेता साबित करने में लग गये | पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और लोकसभा  चुनाव में बसपा से गठबंधन करने का जो कड़वा अनुभव अखिलेश को हुआ उससे उन्होने ये सीखा कि अपने से बड़े कद के नेता से जुड़ने पर उसकी शख्सियत भारी पड़ जाती है | राहुल गांधी और मायावती उस दृष्टि से उनके लिए बोझ बन गये | इसीलिए उन्होंने इस चुनाव में छोटे – छोटे दलों को साथ लिया जिनकी वजनदारी उनकी तुलना में बेहद कम है | ओमप्रकाश राजभर ने भी अभी तक किसी तरह के बडबोलेपन से परहेज ही किया किन्तु श्री मौर्य ने आते ही जिस तरह की बयानबाजी की  उससे तो लगता है जैसे वे मुकाबले को योगी बनाम स्वामी बनाने के लिए आतुर हैं | रास्वसंघ को नाग और भाजपा को सांप कहने के बाद खुद ,को नेवला बताने के बाद वे ये डींग हांकते सुने  गए कि वे जिसके साथ रहते हैं उसे मुख्यमंत्री बनवा देते हैं |गत दिवस के भाषण में उन्होंने इस चुनाव को 85 और 15 फीसदी के बीच की जंग  निरुपित करते हुए सवर्ण जतियों को महज 15 फीसदी बताने के साथ  कहा  कि वे भी विभाजित हैं | उनके कहने  का आशय ये रहा कि भाजपा के पास केवल उच्च जातियां रह गई हैं जो कि बिखरी हुई हैं | इसी के साथ श्री मौर्य ने ये भी कह डाला कि लोहियावादियों के साथ अब आम्बेडकरवादी भी आ गये हैं | वैसे मौर्य दलित न होकर पिछड़े माने जाते हैं | स्वामीप्रसाद बसपा  की सरकार में मंत्री रहने के बाद अखिलेश सरकार के समय नेता प्रतिपक्ष भी रहे किन्तु फिर मायावती पर तरह – तरह के आरोप लगाते हुए भाजपाई बन गये |  इसलिए उनका खुद को आम्बेडकरवादी कहना जमता नहीं है | बसपा में रहते हुए भी वे कभी दलित समुदाय के नेता नहीं माने गये | लेकिन इस सबसे अलग हटकर भाजपा छोड़ते ही वे जिस शैली में बात कर रहे हैं उससे ऐसा लगता है मानों वे अखिलेश की मजबूरी भांप चुके हैं | मुख्यमंत्री बनवाने की अपनी क्षमता का बखान उनके द्वारा जिस अंदाज में किया जा रहा है उससे ये लगता है वे अपनी कीमत बताने में जुटे हैं | जिससे  ज्यादा से ज्यादा सीटें अपने समर्थकों को दिलवा सकें | सवाल ये है कि श्री मौर्य के इस अंदाज को श्री यादव किस हद तक सहन कर पाएंगे क्योंकि अभी तो चुनाव प्रक्रिया शुरू ही हुई है और उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया जारी है | प्रदेश की 150  सीटों में  जीत – हार का फैसला करवाने का उनका दावा अखिलेश पर दबाव बढ़ाने की रणनीति हो सकती है | लेकिन लगातार मजबूत होते दिख रहे अखिलेश को ये सावधानी रखनी होगी कि बिना सोचे समझे आयात किये जाने से उनको वैसा ही नुकसान हो सकता है जैसा प. बंगाल में भाजपा भोग चुकी है | जिसने ममता बैनर्जी से सत्ता छीनने की जल्दबाजी में तृणमूल से बड़ी संख्या में विधायकों और अन्य नेताओं को पार्टी में लाकर टिकिट दी जिससे उसका परम्परागत समर्थक वर्ग उदासीन हो गया | स्वामीप्रसाद के तेवर देखकर ऐसा लगता है जैसे वे अखिलेश पर हावी होने के मूड में हैं | इसलिए उनको ये ध्यान रखना होगा कि 2017 के चुनाव में कांग्रेस के लिए 100 सीटें छोड़ने से सपा के वे नेता और कार्यकर्ता घर बैठ गये जिनकी टिकिट काटी गई | वहीं दूसरी तरफ जिन 300 सीटों पर पार्टी उनमें कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने कोई रूचि नहीं दिखाई | ऐसा ही खेल लोकसभा चुनाव में हुआ | जिसके बाद अखिलेश ने कांग्रेस और बसपा से तो तौबा कर ली किन्तु ऐसा लगता है भाजपा को झटका  देने के फेर में खुद का नुकसान न कर बैठें | इस चुनाव में कांग्रेस ने सभी सीटें लड़ने की जो रणनीति बनाई है उससे कुछ हासिल हो न हो लेकिन इतना तो जरूर होगा कि पूरे प्रदेश में उसका झंडा उठाने वाले होंगे | अखिलेश यादव के पास पूरे उ.प्र में संगठनात्मक ढांचा है | रालोद के साथ उनका गठबंधन भी फायदेमंद हो सकता है लेकिन जयंत चौधरी और ओमप्रकाश राजभर ने अभी तक ऐसा कुछ ही नहीं कहा जिसे  खुद को अखिलेश से बड़ा सबित करने का प्रयास कहा जाता | लेकिन श्री मौर्य ने पूत के पांव पालने में वाली कहावत की याद दिलाते हुए जैसी शुरुआत की वह अखिलेश की अब तक की मेहनत पर पानी फेर सकती है | उनका कल का भाषण सीधे – सीधे जातिवादी ध्रुवीकरण का आधार बन सकता है जिसके कारण जिस इन्द्रधनुषी गठबंधन की बात सपा कर रही थी उसकी छटा धूमिल हो सकती है | इस बारे में याद  रखने वाली बात ये है कि जाति समूहों को एक साथ जोड़े रखना मेंढ़क तौलने जैसा है | पिछड़ी और दलित जातियों के बीच भी ऊंच - नीच की जो विभाजन रेखा है वह चुनाव के समय और गहरी हो जाती है | भाजपा ने श्री मौर्य के नखरे क्यों नहीं उठाये इसका पता लगाने के बाद ही उनकी नीयत और ताकत का आकलन अखिलेश को करना चाहिए | वैसे भी उनके चुनाव प्रचार में मुद्दे गायब होकर आयाराम और उनकी अहमियत हावी हो गई है | उनको ये याद रखना चाहिये कि बिहार में तेजस्वी यादव ने भी एनडीए के विरोध में महागठबंधन नामक जो चुनौती पेश की थी वह भी इसी तरह ताकतवर नजर आ रही थी | समाचार माध्यमों में भी तेजस्वी को धूमकेतु की तरह पेश किया जा रहा था | उनकी सभाओं में  भीड़ उमड़ रही थी | नीतीश कुमार को थका हुआ मानकर उनके हारने की भविष्यवाणी  हर कोई कर रहा था किन्तु तेजस्वी अंत में गच्चा खा गये | कांग्रेस उनके साथ थी लेकिन उसका कमजोर प्रदर्शन राजद की संभावनाओं को धूमिल कर गया | उ.प्र के चुनाव में भी विपक्ष के पास मुद्दे हैं लेकिन लड़ाई चार खेमों में बंटी है | मायावती और प्रियंका वाड्रा जानती हैं कि उनकी पार्टी सरकार नहीं बना सकेगी किन्तु वे अखिलेश को भाजपा का विकल्प न बनने देने की कोशिश में पीछे नहीं रहेंगी | अखिलेश ने प्रारम्भिक तौर पर जो हवा बनाई उसे बनाए रखना असली चुनौती है क्योंकि कहीं  ऐसा न हो कि असली  लड़ाई शुरू होते – होते उनका तरकश खाली हो जाए और उनको स्वामीप्रसाद  जैसों की मदद लेनी पड़े जो पूरी तरह गैर भरोसेमंद हैं | भाजपा निश्चित रूप से फिलहाल दबाव में है लेकिन वह इतनी आसानी से बाजी हाथ से नहीं जाने देगी |  स्वामीप्रसाद का बडबोलापन अखिलेश के किये कराये पर भारी पड सकता है | जिस तरह से गत दिवस उन्होंने भाषण दिया वैसे एक – दो वाकये  और हो गये तो जातीय समीकरण उलट – पुलट होते देर नहीं लगेगी |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 13 January 2022

भाजपा समझ ले उधार की बैसाखियों से लम्बा सफर तय नहीं किया जा सकता



उ.प्र में  दो मंत्रियों के त्यागपत्र देकर सपा में शामिल होने के संकेत के बाद भाजपा के महारथी भी हरकत में आये और कांग्रेस तथा सपा से कुछ नेताओं को तोड़कर ये साबित करने की कोशिश की कि वह भी जवाबी हमला  करने में सक्षम है | भाजपा द्वारा बड़ी संख्या में  विधायकों के टिकिट काटे जाने की अटकलों के कारण ही उसे छोड़ने वालों का सिलसिला जारी है | राजनीति में रूचि रखने वालों को याद होगा कि 2017 में भाजपा में आने वालों का तांता भी इसी तरह लगा हुआ था | श्री मौर्य उसी समय बसपा से निकलकर आये थे | भाजपा ने बीते पांच साल में दूसरी पार्टियों के दर्जनों नेताओ को अपने घर में जगह दी | उ.प्र से उसके जो लोकसभा सदस्य हैं उनमें भी दल बदलुओं की अच्छी खासी संख्या है | इसमें कोई शक नहीं है कि उ.प्र जैसे बड़े  राज्य में  सिक्का ज़माने के लिए अपने दरवाजे खोल  दिए जाने से पार्टी को जबरदस्त लाभ मिला किन्तु ये बात भी पूरी तरह सही है कि इस प्रक्रिया में तमाम ऐसे लोग भी  आ बैठे जिन्हें पार्टी की संस्कृति और संस्कारों से लेश मात्र भी लगाव नहीं था | श्री मौर्य ने अपने इस्तीफे में वैचारिक मतभिन्नता शब्द का इस्तेमाल भी किया है | दरअसल वे भाजपा के सदस्य  इसलिए बने थे क्योंकि  वे जिस बसपा में थे उसके सत्ता में आने की संभावनाएं शून्य हो चली थीं और तब  सपा उनको भाव देने तैयार न थी |  भाजपा का कहना है श्री मौर्य अपने बेटे सहित कुछ  नजदीकी लोगों की उम्मीदवारी चाह रहे थे  जो दो बार चुनाव हार चुका  था  | पार्टी छोड़ने वाले शेष नेताओं के साथ भी ऐसी ही बातें जुड़ी हुई हैं | भाजपा ने हाल ही के वर्षों में क्षेत्रीय और जातिगत संतुलन बनाने के लिए अनेक ऐसे चेहरों को  सत्ता तथा संगठन में हिस्सेदारी दी जिनके कारण उसके प्रतिबद्ध नेता और कार्यकर्ता स्वयं को उपेक्षित और असहज महसूस करने लगे |   जाहिर तौर पर भाजपा का दबदबा बनाने में डेढ़ दर्जन राज्यों में उसकी सरकारों का होना भी सहायक बना किन्तु इसका अप्रत्यक्ष नुकसान ये हुआ कि उसकी वैचारिक पहिचान धूमिल होने लगी | पांच साल तक  उसके साथ रहकर सत्ता की मलाई खाते रहने के बाद भी आयातित नेता  उसके रंग में नहीं रंग सके | प. बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने जिस बड़ी संख्या में दल बदलुओं को उम्मीदवारी दी उसकी वजह से उसके समर्पित कार्यकर्ता और नेताओं में नाराजगी फ़ैल गयी जिसकी वजह से उसका चुनाव अभियान अपेक्षित नतीजे न दे सका | ममता बैनर्जी ने तीसरी बार सत्ता हासिल करने के बाद जिस तरह की आक्रामकता दिखाई उसकी वजह से भाजपा में आये अनेक तृणमूल नेता वापिस लौट गये | उनमें कुछ जीते हुए कुछ विधायक भी हैं | पार्टी के राज्यसभा सदस्य और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय ने इस राज्य में भाजपा की जड़ें ज़माने में काफी योगदान दिया था लेकिन वे एक झटके में उसी ममता  के साथ चले गये जिससे उनका छत्तीस का आँकड़ा  था | इसी तरह केन्द्रीय मंत्री पद से हटाये जाते ही बाबुल सुप्रियो ने पार्टी को अलविदा कह दिया | मेघालय के राज्यपाल  सत्यपाल मलिक संवैधानिक पद पर बैठे हुए भी प्रधानमंत्री को घमंडी कहने का दुस्साहस करते हैं लेकिन पार्टी उनको बर्दाश्त कर रही है क्योंकि उ.प्र के चुनाव के पहले उन्हें छेड़ने से पश्चिमी उ.प्र के जाट समुदाय की नाराजगी और न बढ़ जाए | ये सब देखते हुए भाजपा को ये ध्यान  रखना होगा कि  कहीं आगे पाट पीछे सपाट वाली कहावत लागू न होने लगे | आज उसके नेता और प्रवक्ता श्री मौर्य  को अवसरवादी और दल बदलू कहकर उनका उपहास कर रहे हैं लेकिन पांच साल पूर्व जब इन जैसों की भीड़  भाजपा में आ रही थी तब भी अवसरवाद और सत्ता लोलुपता का दाग उनके दामन पर था | म.प्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से बगावत करते हुए कमलनाथ सरकार गिरवाने की कीमत राज्यसभा की सीट के साथ ही केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री के पद के साथ अपने तमाम अनुयायियों को प्रदेश सरकार में मंत्रीपद दिलवाकर वसूल कर ली | समय आ गया है जब भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के साथ उसके बौद्धिक अभिभावक के तौर पर रास्वसंघ को ये सोचना चाहिए कि विचारधारा के प्रसार के लिए किसी भी कीमत पर  सत्ता हथियाने की बजाय इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि पार्टी की जड़ें गहरी हों और जो लोग अन्य दलों से आयें उनको ज्यादा सिर पर न बिठाया जाए | किसी भी विचारधारा वाली पार्टी में बाहर से आने वाले को पूरी तरह परखे बिना  महत्वपूर्ण पद या दायित्व नहीं दिया जाता किन्तु भाजपा ने इस तरफ से आँखें मूँद रखी हैं | कई दिनों से सुनने में आ रहा था कि भाजपा आलाकमान श्री  मौर्य सहित अन्य नाराज नेताओं की मिजाजपुर्सी में जुटा रहा लेकिन सफलता नहीं मिली | सवाल ये है कि ऐसे नेताओं की चिरौरी करने की बजाय इनको खुद होकर बाहर कर देना चाहिए था जिससे उनकी  वजनदारी कम होती | वैसे भाजपा तमाम विसंगतियों के बाद भी अपनी वैचारिक पहिचान रखती है | निश्चित तौर पर राजनीतिक दलों का उद्देश्य सत्ता हासिल करना होता है जो कि गलत भी नहीं है | लेकिन ऐसा करने के लिए यदि वे अपने सिद्धांतों और नीतियों से  समझौता  करते हैं तब उनका  भविष्य असुरक्षित हो जाता है | इसके दो सबसे ज्वलंत उदाहरण हैं समाजवादी और साम्यवादी पार्टियाँ | समाजवादी आन्दोलन चंद परिवारवादी  नेताओं की निजी जागीर बनकर रह गया है , वहीं वामपंथी मोर्चा भी सुदूर केरल छोड़कर और कहीं नजर नहीं आता | इसके पीछे कारण सत्ता की राजनीति में उलझकर सिद्धांतों के साथ समझौता करना ही रहा | डा. लोहिया ने देश को गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था लेकिन उनकी विरासत के लगभग सभी दावेदारों ने समय – समय पर कांग्रेस की गोद में बैठने से परहेज नहीं किया | यही हाल हुआ वामपंथी मोर्चे का जिसने देश को आर्थिक उदारवाद के रास्ते पर ले जाने वाले डा.मनमोहन सिंह की सरकार को  टेका लगाकर अपनी छवि को पलीता लगा लिया | भाजपा ने बीते कुछ दशकों में राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जो पहिचान बनाई वह नीतिगत स्पष्टता और सैद्धांतिक दृढ़ता के कारण ही संभव हो सकी | राम मंदिर का निर्माण , धारा 370 को विलोपित करना , तीन तलाक पर रोक ,नागरिकता संशोधन कानून बनाने जैसे कामों ने जनमानस पर असर छोड़ा है परन्तु  राज्यों में सत्ता हासिल करने की आपाधापी में वह अपनी पुण्याई का ह्रास कर रही है | उ.प्र में जीत भाजपा के भविष्य के लिए बहुत जरूरी है | विधानसभा में सीटों की संख्या आगामी राष्ट्रपति चुनाव पर असर डालेगी | लेकिन सोचने वाली बात ये है कि पांच साल तक विशाल बहुमत वाली सरकार चलाने के बाद भी यदि वह आयाराम और गयाराम में उलझी है तो इससे उसका अपना समर्थक मतदाता भी भ्रमित और निराश होता है | राज्य सरकारें निश्चित रूप से पार्टी के लिए बड़ा सहारा होती हैं जिनके जरिये वह अपनी पकड मजबूत करती है | गुजरात में अच्छी सरकार चलाने के कारण ही नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय पहिचान मिली | उ.प्र में भी  योगी आदित्य नाथ ने कानून व्यवस्था के मोर्चे पर अच्छा काम किया और भ्रष्टाचार के आरोपों से भी वे मुक्त हैं | लेकिन उसके बाद भी पार्टी को जातीय समीकरण साधने की जरूरत पड़े तो ऐसा लगता है कि सत्ता चलाने की व्यस्तता में संगठन का काम प्रभावित हुआ है | ऐसा कहा जा रहा है कि योगी जी की सरकार लौटेगी तो जरूर लेकिन उसका बहुमत कम हो जाएगा | यदि ऐसा होता है और भाजपा 2017 वाला प्रदर्शन नहीं दोहरा पाती तब ये कहना गलत न होगा कि उधार की बैसाखियों के बल पर लम्बा सफर तय नहीं किया जा सकता | और उसके लिए अपने पांवों को ही मजबूत करना पड़ता है | उ.प्र में भाजपा छोड़कर जाने वालों के बदले जो बाहरी तबका आ रहा है वह भी भविष्य में ऐसा ही  करेगा क्योंकि उसकी भी पार्टी के सिद्धांतों की बजाय सत्ता में रूचि है |  

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 12 January 2022

मायावती की चुप्पी के पीछे है सोची-समझी रणनीति : राजनीतिक भविष्य दांव पर



उ.प्र के विधानसभा चुनाव इस समय सबसे ज्यादा चर्चित हैं क्योंकि 80 लोकसभा सीटें देने वाले इस राज्य के बारे में ये  मशहूर है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता लखनऊ होते हुए जाता है। देश में अब तक जितने भी प्रधानमंत्री हुए उनमें से 9 इसी राज्य के रहे। भले ही स्व.अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी को पूरी तरह उ.प्र का न माना जाए लेकिन वे प्रधानमन्त्री तभी बन सके जब उन्होंने उ.प्र से लोकसभा चुनाव जीता। अटल जी तो कहते भी थे कि वे एमपी (सांसद) तो अनेक स्थानों से बने लेकिन पीएम (प्रधानमंत्री) उनको लखनऊ ने ही बनाया। 2014 में श्री मोदी का नाम जब भाजपा ने प्रधानमन्त्री पद हेतु आगे बढ़ाया तब वे भी गुजरात से निकलकर वाराणसी आये। इसके बाद की कहानी सभी को पता है। इसीलिए पूरे देश की निगाहें यदि इस राज्य के विधानसभा चुनाव पर टिकी हुई हैं तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जिन चार अन्य राज्यों में भी इसी के साथ चुनाव होने जा रहे हैं उनके बारे में भी चर्चा होती है लेकिन जितना ध्यान उ.प्र पर राजनीति में रूचि रखने वालों का है उतना बाकी पर नहीं। समीक्षक, विश्लेषक और सर्वेक्षण करने वाले भी उ.प्र पर ही निगाहें लगाये हुए हैं। इस राज्य में बीते पांच साल से भाजपा का शासन है। 2017 में पार्टी को पहली बार अपनी दम पर जबरदस्त बहुमत मिला था। अपने सहयोगियों सहित वह 325 तक जा पहुँची। उसके बाद 2019  के लोकसभा चुनाव में भी मोदी लहर के चलते उसे भारी सफलता हासिल हुई। उसके बाद से ये माना  जाने लगा था कि इस राज्य में भाजपा चुनौती विहीन हो चली है। उल्लेखनीय है 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव और राहुल गांधी के गठबंधन ने भाजपा को हराने की कोशिश की थी लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश ने मायावती के साथ गठजोड़ किया जिसे बुआ और बबुआ की जोड़ी कहकर वजनदार माना जा रहा था लेकिन नतीजा फुस्स रहा...। उस परिणाम से भाजपा को ये गुमान होने लगा कि वह अजेय हो चली है परन्तु बीते एक साल के भीतर ही माहौल में बदलाव आ गया। बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कानून व्यवस्था के साथ ही विकास के काफी काम किये लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के कहर और फिर किसान आन्दोलन की वजह से उ.प्र में भाजपा विरोधी मुखर होते हुए उत्साहित हुए और आज आलम ये है कि सभी ये मानकर चलने लगे कि मुकाबला कड़ा है। राममंदिर निर्माण की बाधाएं दूर होने और काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के साथ राजमार्गों के जबरदस्त विकास के कारण भाजपा का जो दबदबा अपेक्षित था वह काफी कुछ ठंडा पड़ता दिख रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने सोशल इंजीनियरिंग का जो तानाबाना बुना उसने न सिर्फ पिछड़ी अपितु दलित जातियों में भी उसका जनाधार बढ़ा दिया था। मंडल आन्दोलन से जुड़ी जातियों का मंदिर आन्दोलन के साथ जुड़ना बड़ा सामाजिक बदलाव माना गया। उसकी वजह से भाजपा को उच्च जातियों की पार्टी मानने  वालों को अपनी धारणा बदलना पड़ी। लेकिन इस चुनाव के आने से पहले ही पिछड़ी जातियों के कुछ नेताओं के भाजपा का साथ छोड़कर अखिलेश यादव से हाथ मिलाते ही ये अवधारणा फैलने लगी कि उ.प्र में भाजपा और अखिलेश के बीच सीधा मुकाबला है। अपने पिता  मुलायम सिंह यादव की अस्वस्थता के कारण अखिलेश ही सपा के सर्वेसर्वा बन बैठे हैं।  नाराज होकर अलग हो गये चाचा शिवपाल सिंह को भी वे मनाने में कामयाब हो गये। लेकिन श्री यादव को सबसे बड़ा लाभ मिला किसान आन्दोलन का जिसकी वजह से भाजपा को अपने सबसे मजबूत गढ़ पश्चिमी उ.प्र में जाट समुदाय की जबरदस्त नाराजगी झेलनी पड़ रही है जिसका देखते हुए अखिलेश ने स्व. चौ. चरण सिंह के पौत्र और स्व. अजीत सिंह के पुत्र रालोद नेता जयंत चौधरी से गठबंधन कर लिया। इस अंचल में काफी प्रभावशाली माने जाने वाले जाटों के नेता बनकर उभरे किसान नेता राकेश टिकैत के नेतृत्व में गाजीपुर में एक साल तक चले धरने के बाद किसानों में भाजपा के विरुद्ध जो गुस्सा खुलकर सामने आया उसने पूरे राज्य में योगी-मोदी की जोड़ी की इकतरफा जीत पर संशय उत्पन्न कर दिए। हर कोई ये मान रहा है कि अखिलेश ने भाजपा से पिछड़ी जातियों का थोक समर्थन छीन  लिया है। वहीं योगी जी के  कथित ठाकुर प्रेम के कारण ब्राह्मण भी भाजपा से छिटके हैं। यादव और मुसलमान तो सपा की जेब में ही माने जाते हैं। इसलिए ये कहने वाले काफी हैं कि अखिलेश सत्ता में लौट रहे हैं। यद्यपि प्रियंका वाड्रा की अगुआई में कांग्रेस उ.प्र में अपना खोया जनाधार वापिस प्राप्त करने के लिए काफी हाथ पाँव मार रही है और हैदराबाद से आकर असदुद्दीन ओवैसी भी मुस्लिम मतदाताओं को दूसरी पार्टियों का दुमछल्ला बनने की बजाय अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम करने के लिए उकसा रहे हैं किन्तु उसके बाद भी साधारण तौर पर ये मान लिया गया है कि अखिलेश ने भाजपा के सामने जबरदस्त मोर्चेबंदी करते हुए सत्ता परिवर्तन की सम्भावना को मजबूती प्रदान कर दी है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि जिस तरह 2017 में सपा-बसपा छोड़कर नेता भाजपा में आ रहे थे उसी तरह इस बार भाजपा में भगदड़ जारी है और सपा का ग्राफ ऊपर जाते देख सारे नेता अखिलेश में संभावनाएं देख रहे हैं। गत दिवस स्वामी प्रसाद मौर्य नामक पिछड़े नेता भी मंत्री पद छोड़कर सपा की ओर झुक गए। पिछली बार वे बसपा से भाजपा में आये थे। कहा जा रहा है कि अखिलेश ने राजभर, मौर्य, सैनी आदि पिछड़ी जातियों को अपनी तरफ खींचकर भाजपा की हवा निकाल दी है। कुछ और भाजपा विधायकों के पार्टी छोड़ने की अटकलें भी तेज हैं। लेकिन समूचे परिदृश्य में कांग्रेस की उपेक्षा तो एक बार सही भी लगती है क्योंकि उसका प्रदर्शन चुनाव दर चुनाव निराशाजनक ही रहा है किन्तु तमाम राजनीतिक समीक्षक बसपा को जिस तरह उपेक्षित कर रहे हैं वह आश्चर्यचकित करता है क्योंकि 2017 के चुनाव में जब उसे 19 सीटें मिली थीं तब भी उसका 22 फीसदी मत प्रतिशत बरकरार रहा था। दरअसल मायावती बीते कुछ समय से जिस तरह सार्वजनिक तौर पर कम दिखाई दीं उससे बसपा को कमजोर माना जाने लगा। अखिलेश और भाजपा बीते अनेक महीनों से चुनावी मैदान में सक्रिय हैं लेकिन मायावती ने न कोई रैली की और न ही अन्य आयोजन। गठबंधन के बारे में भी बसपा पूरी तरह से उदासीन नजर आ रही है। लेकिन हाल ही में मायावती ने पत्रकार वार्ता में सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने का संकेत देकर बसपा की उपस्थिति दर्ज करवा दी। उसके बाद से ही अब इस बात के कयास लगाये जाने लगे हैं कि बसपा की रणनीति क्या रहेगी और वह इतनी देर से सक्रिय क्यों हुई? चुनाव विश्लेषक ये मानने लगे हैं कि राज्य में भाजपा के अलावा किसी और के पास समर्पित और स्थायी कैडर है तो वह है बसपा के पास। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों में दलित वर्ग के जो लोग हैं वे बसपा को पर्दे के पीछे से समर्थन देते हैं। भले ही आर्थिक संसाधनों की कमी के नाम पर मायावती ने बड़े आयोजन न करने का ऐलान किया लेकिन उनके कार्यकर्ताओं का काम चुपचाप शुरू हो गया है। जैसी जानकारी मिल रही है उसके अनुसार बसपा की सोच ये है कि उ.प्र में त्रिशंकु विधानसभा बनने जा रही है और उस स्थिति में वह सौदेबाजी करने में कामयाब हो जायेगी। सबसे बड़ी बात ये है कि उसने यदि अपने परम्परागत जनाधार को बनये रखा तब अखिलेश के अरमानों पर पानी फिर सकता है। उल्लेखनीय है बसपा मुसलमानों को भी बड़ी संख्या में टिकिट देती है। मायावती ने जिस ठंडे अंदाज में चुनाव में उतरने की घोषणा की वह राजनीतिक विश्लेषकों को इसलिए हैरान कर रहा है क्योंकि वे तामझाम पसंद करने वाली नेता हैं। उनके शैली में आक्रामकता का अभाव रणनीति में बदलाव है या परदे के पीछे चल रहे किसी खेल का हिस्सा ये फि़लहाल कह पाना कठिन है किन्तु मायावती किसी भी सूरत में अखिलेश को दोबारा मुख्यमंत्री बनते नहीं देखना चाहेंगी क्योंकि वैसा होने पर उ.प्र में उनका भविष्य अंधकार मय हो जाएगा। भाजपा भी इसीलिये बसपा पर हमले करने से बच रही है। अभी टिकिटों की घोषणा नहीं हुई है इसलिए सारे अनुमान बौद्धिक विश्लेषण पर आधारित हैं। ज्योंही सभी पार्टियाँ उम्मीदवारों की सूची निकालेंगी त्योंही समीकरण भी  बदलेंगे। भाजपा से मची भगदड़ के पीछे बड़े पैमाने पर विधायकों की टिकिटें काटे जाने की आशंका है। सूची जारी होने के बाद सपा को भी दिक्कतें हो सकती हैं। और उस सूरत में बसपा अपनी जगह बनाने में जुटेगी क्योंकि योगी और अखिलेश के साथ ही ये चुनाव मायावती के राजनीतिक जीवन के लिए भी महत्वपूर्ण है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 11 January 2022

भ्रम और भय फ़ैलने से रोकने के लिए कोरोना का अधिकृत सूचना तंत्र होना जरूरी



कोरोना , डेल्टा और  ओमिक्रोन से होते हुए अब बात डेल्टाक्रोन तक आ पहुँची है | अख़बारों  और  टीवी पर आने वाले समाचारों के अलावा डिजिटल प्लेटफार्म नामक माध्यम पर भी कोरोना के बाद नए नाम वाले संक्रमणों के बारे में तरह – तरह की जानकारी के अतिरिक्त  सुझाव , संभावनाएं और भविष्यवाणियाँ भरी पड़ी हैं | तीसरी लहर कितने दिन जारी रहेगी , उसका असर क्या होगा , चरमोत्कर्ष कब आयेगा आदि – अदि पर इतनी बातें परोसी जा रही हैं कि आम जनता भ्रमित भी है और भयभीत भी | केंद्र और राज्य सरकारें लोगों से सावधान रहने की अपील तो कर रही हैं लेकिन दफ्तरों , शैक्षणिक संस्थानों , बाजारों और सार्वजनिक समारोहों को लेकर आये दिन विरोधाभासी  घोषणाएं होने से लोग तय  नहीं कर पा रहे हैं कि वे क्या करें और क्या न करें ? शादी आदि में कितने अतिथि बुलाये जा सकते हैं , ये भी अनिश्चित है | केवल एक बात की पूरी छूट है और वह है राजनीति | नेताओं के दौरे बदस्तूर जारी हैं | लोगों से उनके मिलने में मास्क और शारीरिक दूरी जैसी सावधानियां पूरी तरह उपेक्षित की जाती हैं |  तीसरी लहर के आगमन की पुष्टि करने के बाद प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों ने उच्च स्तरीय बैठकें करते हुए कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हुई गलतियों से बचते हुए माकूल इंतजाम करने के निर्देश प्रशासन को दे दिए जिसके अंतर्गत सरकारी अमले ने भी मुस्तैदी दिखाना शुरू कर दिया |  लेकिन  शिक्षण संस्थान खुलेंगे या नहीं और कितनी उम्र तक के बच्चे कक्षाओं में पढ़ने आ सकते हैं इस बारे में भी स्थिति अस्पष्ट है | अभिभावक इतने डरे हुए हैं कि वे ऑन लाइन पढाई पर ही जोर दे रहे हैं | शासकीय और अशासकीय कार्यालयों में भी पूरी उपस्थिति से काम हो रहा है | अदालतों में कुछ जगह आभासी तो कुछ जगह सामान्य तरीके से काम चल रहा है | रात्रिकालीन कर्फ्यू लगाते हुए बाजार जल्दी बंद कराने के निर्देश  दे दिए गए हैं | टीकाकरण को लेकर भी सरकारी व्यवस्थाओं की जानकारी रोजाना प्रसारित हो रही है | लेकिन इन सभी में सामंजस्य का अभाव होने से संचार क्रान्ति के इस युग में भी आम जनता को ये समझ में नहीं आ रहा कि उसे आखिर करना क्या है ? पिछले  अनुभवों के आधार पर अर्थव्यवस्था को चलायमान  रखने के लिए लॉक डाउन लगाने से सरकार बच रही है | पहली लहर में इकतरफा घोषणा से हुई आलोचना के कारण दूसरी लहर में केंद्र सरकार ने लॉक डाउन का निर्णय राज्यों पर छोड़ दिया था | इस बार भी  केंद्र की नीति वही है | लेकिन उद्योग – व्यापार को रोकने के दूरगामी दुष्परिणाम बीते दो लॉक डाउन के दौरान सामने आ चुके हैं , इसीलिये कोई भी सरकार इसे लागू करने से कतरा रही है | लेकिन ओमिक्रोन की प्रसार क्षमता का जो पूर्वानुमान लगाया गया था वह जिस तरह से सही साबित हो रहा है उसके बाद लोगों को प्रामाणिक जानकारी देने की पुख्ता व्यवस्था की जानी चाहिए | इस बारे में ये बात ध्यान रखनी होगी कि पिछली दोनों लहरों के दौरान लोगों को जो अनधिकृत जानकारियां मिलती रहीं उसके कारण काफी परेशानियाँ बढ़ीं | पहले - पहले संक्रमण को हलके में लिया गया और उसके बाद जब हालात बिगड़े तब अफरा - तफरी मची | इसलिए बेहतर होगा सरकार तीसरी लहर के बारे में चिकित्सा व्यवस्थाओं संबंधी जानकारी देने के लिए अधिकृत एजेसियाँ तय कर बाकी सभी को इस संदर्भ में ज्ञान बांटने से रोके | बीते कुछ दिनों में विभिन्न माध्यमों के जरिये जिस तरह की सूचनाएँ मिल रही हैं उनकी सत्यता की पुष्टि करने का कोई जरिया आम जनता के पास नहीं होने से जितने मुंह उतने सुझाव सुनने मिल जाते हैं | टीके के तीसरे या बूस्टर डोज को लेकर भी भारी अनिश्चितता है | इसके अलावा देश भर के वैज्ञानिक , चिकित्सक , आईआईटी शोधकर्ता और उनके  अलावा भी अनेक लोग लगभग रोजाना नई – नई बातें बताकर लोगों को भ्रमित और भयभीत करने का कारण बन रहे हैं | ये देखते हुए केंद्र और राज्य स्तर पर अधिकृत एजेंसियों को ही इस बारे में लोगों को सूचनाएँ देने हेतु अधिमान्य किया जाना चाहिए | बीते एक सप्ताह में संक्रमण जिस तेजी से बढ़ा है उसके बारे में भी विभिन्न प्रकार के अनुमान सुनने  मिल रहे हैं | संक्रमण का चरमोत्कर्ष कब आएगा और कब तक रहेगा इसे लेकर विरोधाभासी बातें कही जा रही हैं | ओमिक्रोन नामक वायरस की समुचित जांच हेतु सरकार और निजी पैथालोजी लैब के पास पर्याप्त साधन न होने के बाद भी जाँच किस आधार पर की जा रही है इसे लेकर भी असमंजस  है | कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि सरकारी स्तर पर चिंता और बेफिक्री दोनों एक साथ चल रही हैं , जिसका लाभ लेकर  अनधिकृत लोग अधकचरी जानकारी प्रसारित कर अपने मियाँ मिट्ठू बने फिर रहे हैं | हालाँकि हमारे देश में झोला छाप डाक्टर भी स्वास्थ्य सेवाओं का अभिन्न हिस्सा हैं | लेकिन कोरोना काल में महामारी के बारे में बताने वाले ऐसे लोग पैदा हो गये हैं जिन्हें चिकित्सा विज्ञानं और आपदा प्रबंधन के बारे में समुचित ज्ञान नहीं है | तीसरी लहर की तीव्रता , इलाज , चिकित्सा प्रबंध और टीकाकरण आदि के बारे में अनधिकृत जानकारी न आये इस बात का केंद्र और राज्य सरकारों को ध्यान रखना चाहिए | जैसी आशंका है आने वाले कुछ दिनों में ही संक्रमण में और तेजी आयेगी और उस दौरान अप्रामाणिक सूचनाएं भीड़ वाली मानसिकता उत्पन्न करने का कारण बन सकती हैं , जो खतरनाक होगा | इस तरह की स्थितियों में लोगों का अनुशासित रहना बहुत जरूरी है परन्तु ये तभी संभव होगा जब उन्हें सही समय पर सही जानकारियाँ मिलें | मास्क और सैनिटाइजर जैसी चीजों की मुनाफाखोरी रोकना भी जरूरी होगा | वैसे समाज का बड़ा वर्ग पिछले दो वर्ष में इस आपदा से निपटने का अभ्यस्त और प्रशिक्षित हो चुका है किन्तु  संक्रमण जिस तरह रूप बदल रहा है उसे देखते हुए हर तरह की सावधानी रखना जरूरी है | उम्मीद है सरकार अपने सूचनातंत्र को अधिक विश्वसनीय और प्रभावशाली बनाने के साथ ही अनधिकृत लोगों को इस बारे में बोलने से रोकेगी ताकि किसी भी प्रकार का भ्रम न फैले |

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 10 January 2022

बरसात में भीगता अनाज राष्ट्रीय क्षति : भण्डारण क्रान्ति की सख्त जरूरत



एक साल से ज्यादा चले किसानों के धरने में कृषि कानून वापिस लिए जाने के साथ ही इस बात पर भी  जोर रहा कि कृषि उत्पादों के लिए निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी स्वरूप प्रदान किया जाए | हालाँकि धरना तो खत्म हो गया लेकिन इस मांग पर किसान संगठन अभी भी अड़े हुए हैं और केंद्र सरकार शीघ्र ही इस बारे में  एक समिति गठित करने वाली है | ये समस्या इसलिए खड़ी  हुई क्योंकि सत्तर के दशक में  आयात खत्म कर देश को खाद्यान्न आत्मनिर्भर बनाने हेतु तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने जिस हरित क्रांति की शुरुआत की उसने पूरी कृषि व्यवस्था को बदल डाला | सिंचाई सुविधाओं के विकास के साथ ही तकनीक आधारित उन्नत खेती की वजह से अनाज का उत्पादन तेजी से बढ़ने लगा | व्यावसायिक दृष्टिकोण वाले किसानों ने सब्जियों  , फलों  और फूलों की खेती करना शुरु किया | परिणाम ये हुआ कि भारत गेहूं और चावल का निर्यात करने की सुखद स्थिति में आ गया | इस वर्ष देश के पास  इतना अनाज सरकारी गोदामों में है जिससे आगामी दो  साल तक काम चलाया जा सकता है | कहा जाता है यदि केंद्र सरकार कोरोना काल में 80 करोड़ लोगों  को मुफ्त अनाज न बांटती तब उसको रखने की जगह नहीं बचती | 2020 और 2021 में लगाये गए लॉक डाउन के दौरान जब उद्योग – व्यापार बुरी तरह चौपट होकर रह गये थे,  उस समय भी किसानों ने अपनी उद्यमशीलता से रिकॉर्ड उत्पादन करते हुए देश को खाद्यान्न सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त रखा | लेकिन इस उपलब्धि पर हर साल भण्डारण क्षमता की कमी पानी फेर देती है | बीते कुछ दिनों से देश के अनेक राज्यों में बरसात हो रही है | इस मौसम में बिना ओले वाली वर्षा रबी फसल के लिए अमृत समान मानी जाती है | लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अगली फसल के लिए लाभदायक इस मौसम की वर्षा पिछले मौसम की उपज को बर्बाद करने का कारण भी बनती  है | म.प्र को ही लें तो यहाँ सरकार द्वारा खरीदी जा रही लाखों टन धान उचित भण्डारण नहीं होने के कारण खुले आकाश के नीचे रखी – रखी भीग गई | इसी के साथ ही जिन किसानों की धान कृषि उपज मंडियों में सरकारी खरीद हेतु तुलाई का इंतजार कर रही थी , वह भी बरसात का शिकार हो गई | ज्यादा दूर न जाएं तो केवल जबलपुर जिले में ही एक लाख क्विंटल धान के भीगने की खबर है | यदि समूचे प्रदेश में हुए नुकसान का आँकड़ा एकत्र किया जाए तो अंदाज लगाया जा सकता है कि किसान की मेहनत और सरकार के पैसे किस तरह बर्बाद हो रहे हैं |  | इस बारे में ये भी जानकारी आई है कि मंडियों में रखे जाने वाले अनाज को ढांकने के लिए पर्याप्त मात्रा में तिरपाल तक उपलब्ध नहीं हैं | ये वाकया हर साल और हर फसल के दौरान दोहराया जाता है | रबी फसल की ख्ररीदी होते – होते जब मानसून आ टपकता है ,  तब मंडियों में रखा गेंहू तथा चना  वगैरह  भीगते हैं और खरीफ फसल के समय शीतकालीन वर्षा से अनाज बर्बाद होता है | देश में  अनाज के साथ ही सब्जियों और फलों का उत्पादन जिस मात्रा में बढ़ रहा है उस लिहाज से भण्डारण और प्रसंस्करण ( प्रोसेसिंग ) क्षमता में वृद्धि न होने से प्रतिवर्ष जितना नुकसान होता है वह अक्षम्य अपराध की श्रेणी में रखे जाने लायक है | भारतीय खाद्य निगम अपनी गोदामों के अलावा निजी क्षेत्र की गोदामों को भी अनुबंध पर किराये से लेता है | गोदाम बनाने के लिए बैंकों से ऋण के अलावा सरकार से अनुदान भी मिलता है | हालाँकि स्थिति पहले से कुछ सुधरी है किन्तु कृषि उत्पादन जिस अनुपात में बढ़ रहा है उसकी तुलना में भंडारण व्यवस्था न होने से अनाज की बर्बादी का निर्बाध क्रम जारी है | सब्जियों और फलों के भंडारण के लिए कोल्ड स्टोरेज और प्रसंस्करण इकाइयों के अभाव में भी प्रगतिशील किसानों को उनके श्रम का उचित मूल्य नहीं मिल पाता ,  वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रीय  अर्थव्यस्था को भी नुकसान होता है | हरित क्रान्ति के सूत्रपात के समय ही यदि इस दिशा में समानांतर और सार्थक प्रयास किये जाते तो ये समस्या उत्पन्न नहीं होती | लेकिन हमारे देश में योजना बनाने वालों में समग्र सोच का अभाव होने से समय और धन का समुचित उपयोग नहीं हो पाता | इसका एक उदाहरण बड़े बांधों के बन जाने के बरसों बाद तक उनसे जोड़ी जाने वाली नहरों का निर्माण न होना है | ऐसे  में  उनसे बिजली भले बनती हो लेकिन किसानों को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध करवाने का मूल उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता | देश आज जिस मुकाम पर खड़ा है वहां उसे वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए स्वयं को तैयार करना है तो  किसी भी चीज के उत्पादन के  साथ ही उसके निर्यात की व्यवस्था भी करनी होगी | यदि उचित भंडारण और प्रसंस्करण की पर्याप्त व्यवस्था की जाए तो बड़ी बात नहीं भारत कृषि उत्पादों के निर्यात  में भी बड़ी ताकत बन सकता है | सरकार द्वारा  खरीदे जाने वाले खाद्यान्न की बर्बादी के साथ भ्रष्टाचार भी काफी नजदीकी से जुड़ा है | गोदामों में रखे अनाज को चूहे  जितना खाते हैं उससे ज्यादा तो सरकार का भ्रष्ट अमला हजम कर जाता है | इसी तरह की  और भी बातें हैं लेकिन कुछ दिन उछलने के बाद सारे मामले ठन्डे पड़ जाते हैं , अगली बरसात के लिए | सरकार को ये सब न दिखता हो ऐसा नहीं है किन्तु सरकारी मंडियों और समितियों में बैठी  राजनीतिक जमात भी इस लूटमार में बराबरी से चूंकि शामिल रहती है इसलिए हल्ला चाहे कितना मचे , परन्तु  स्थिति वही ढाक के तीन पात की बनी रहती है | जबलपुर जिले में एक लाख क्विंटल धान के भीग जाने से नुकसान किसानों का हुआ या सरकार का ये उतना महत्वपूर्ण नहीं बल्कि चिंता का विषय है कि ये सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले  रहा |   सरकार किसानों की आय दोगुनी करने के लिए जो प्रयास कर  रही है वे अपनी जगह हैं लेकिन यदि भंडारण और प्रसंस्करण की समुचित व्यवस्था की जा सके तो किसान और सरकार दोनों हर साल होने वाले बड़े नुकसान से बच सकते हैं | पता नहीं किसान आन्दोलन के कर्ताधर्ताओं की समझ में ये मुद्दा क्यों नहीं  आया जबकि इस दिशा में उसी तरह के समयबद्ध प्रयास जरूरी हैं जैसे परिवहन मंत्री नितिन गडकरी राजमार्गों के निर्माण में कर  रहे हैं |  

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 8 January 2022

समृद्धि से ज्यादा स्वस्थ शरीर और मानसिक शांति महत्वपूर्ण भारतीय संस्कृति में ज़िन्दगी केवल सांसों का सफर नहीं ......


 
एक पुरानी कहावत है भूत मारता भले न हो लेकिन परेशान जरूर करता है | कोरोना की तीसरी लहर  और उसके साथ ओमिक्रोन नामक नए वायरस के बारे में भी यही कहा जा रहा है कि वह दूसरी लहर की तरह जानलेवा नहीं होगा परन्तु  उसके चंगुल में आने वाले व्यक्ति को कुछ समय तक परेशानी उठानी पड़ेगी | लगे हाथ ये चेतावनी भी दी जा रही है कि इसे हल्के में न लें क्योंकि इसके लक्षण पहली और दूसरी लहर से भिन्न हैं जिनकी अनदेखी घातक  हो सकती है | सबसे बड़ी बात जो देखने में आ रही है वह ये कि कोरोना के दोनों टीके लगवा चुके व्यक्ति को भी ये वायरस संक्रमित कर रहा है | हालाँकि अब तक के निष्कर्षों के अनुसार ओमिक्रोन से पीड़ित मरीज को अस्पताल और ऑक्सीजन की जरूरत नहीं पड़ रही और घर में ही अलग  रहकर वह साधारण इलाज से स्वस्थ हो जाता है किन्तु इसके साथ नुकसानदेह बात ये है कि इसका संक्रमण कोरोना से कई गुना ज्यादा फैलता है | यही वजह है कि बीते कुछ दिनों के भीतर ही देश में संक्रमितों  का नियमित आंकड़ा डेढ़ लाख के निकट जा पहुंचा है | चिकित्सा वैज्ञानिक ये मान  रहे हैं कि जनवरी का अंत आते तक ये संख्या 10 और 20 लाख से भी ऊपर  जा सकती है | लेकिन दूसरी तरफ ये भी आश्वासन मिल रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर का चरमोत्कर्ष जहाँ तीन माह बाद आया था वहीं  ओमिक्रोन  फरवरी के मध्य तक उतार पर आने लगेगा | विश्व भर के चिकित्सा विशेषज्ञ ये भी मान रहे हैं कि 2022 खत्म होते – होते कोरोना का चक्र पूरा हो जाएगा | लेकिन दबी जुबान कहा जा रहा है कि अनुकूल परिस्थितियों के चलते इसी तरह की कुछ और बीमारियाँ  मानव जाति के लिए परेशानी का कारण बनी रहेंगीं | 

जिस तरह समुद्र के किनारे रहने वाले ज्वार भाटा , चक्रवात और तूफ़ान आदि के अभ्यस्त हो जाते हैं ठीक वैसे ही अब हमें भी इसी तरह के वायरस हमलों के लिए खुद को तैयार  रखना होगा क्योंकि बीती एक सदी में मानव जाति ने विकास की वासना के वशीभूत होकर जो कुछ हासिल किया उसके दुष्प्रभाव अप्रत्यक्ष  तौर पर ही सही किन्तु सामने आने लगे हैं | ये देखते हुए विज्ञान से जुड़े महानुभावों का ये दायित्व है कि वे पूरी दुनिया को उस जीवनशैली को  अपनाने हेतु प्रेरित करें जो प्रकृति से संघर्ष की बजाय  सामंजस्य बनाते हुए सह - अस्तित्व के उस सिद्धांत पर आधारित है जिसमें चीटी से लेकर हाथी और कंकड़ - पत्थर से पर्वत तक का महत्व स्वीकार किया गया था | घास का तिनका हो या वट वृक्ष , सभी को पूजित मानने का भारतीय चिंतन वैज्ञानिक अध्ययन और शोध पर ही आधारित था किन्तु  सैकड़ों वर्षों की गुलामी के कारण विदेशी प्रभाव के मोहपाश में  जिस भोगवादी जीवनशैली ने हमारी सोच पर आधिपत्य कायम कर लिया उसके कारण ही  तरह – तरह की ऐसी समस्याएं आपदा के रूप में आ धमकने लगी हैं जिनके सामने पूरा का पूरा विज्ञान लाचार नजर आता है | अन्तरिक्ष की अनंत ऊंचाइयों को छूने का पराक्रम करने वाला विज्ञान एक अदृश्य वायरस के हमले से हतप्रभ  हो गया | आज तक वह ये खोज कर पाने में सफल न हो सका कि उसकी उत्पत्ति क्यों , कहाँ और कैसे हुई ? पहले दावा किया गया था कि टीके की दो खुराक इसके प्रकोप से बचा लेगी लेकिन वह दावा भी विश्वसनीय साबित नहीं हुआ | पूरी दुनिया उसके हमले से किस तरह  हिल गई है , ये बताने की जरूरत नहीं है | ज्ञान – विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र पर इसका असर पड़ा  है और ये कहने में कुछ भी गलत  नहीं है कि 21वीं सदी के पहले दो दशक में दुनिया जितनी आगे बढ़ी थी उतनी ही बीते दो  साल में पीछे हो गई  |

दूसरी तरफ ये उम्मीद भी  है कि मानव जाति में संघर्ष की जो नैसर्गिक क्षमता है उसके बल पर वह इस झंझावात से भी बचकर बाहर आ जायेगी परन्तु उसे इससे कुछ सबक जरूर लेना चाहिए | हर आपदा अपने पीछे कुछ न कुछ ऐसा छोड़ जाती है जिसमें भविष्य  के लिए संकेत होते हैं | प्रकृति की अपनी कोई भाषा भले न हो लेकिन जिस सांकेतिक शैली में वह हमें आने वाले  खतरों से सावधान करती है उसे समझ लेने पर उनसे बचाव संभव है | कोरोना की तीसरी लहर , जैसा कहा जा रहा है जल्द ठंडी पड़ जायेगी परन्तु  इसके बाद भी निश्चिन्त होकर बैठ जाना मूर्खता होगी | समय आ गया है जब हम  अपनी जिम्मेदारी समझते हुए अपनी संतानों के लिए ऐसी दुनिया छोड़ जाने की दिशा में प्रयासरत हों जिसमें शुद्ध हवा और पानी उपलब्ध हो | देश के जिन महानगरों में विकास और आर्थिक समृद्धि की चकाचौंध नजर आती है उनमें रहने वालों की सांसों में कितना जहर घुल रहा है ये बताने की जरूरत नहीं है | दुनिया के कुछ समझदार देशों ने विकास के साथ ही सुखमय जीवन को अपना लक्ष्य बनाया , जिसके कारण वहां रहने वालोँ की जीवन शैली पूरे विश्व के लिए आकर्षण का विषय बन गई है | भारत के पड़ोसी  पहाड़ी  देश भूटान को भी ऐसे ही देशों में शुमार किया जाता है | हमारे देश में  बेहतर जीवन जीने के लिए जो तौर – तरीके अपनाये जाते रहे हैं उनसे अपने बच्चों का परिचय करवाते हुए उनमें उनके बीज रोपित करना मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरूरत है | कोरोना नामक महामारी के बाद बड़ी संख्या में लोगों को इस बात का  एहसास हुआ कि जीवन में समृद्धि से ज्यादा स्वस्थ शरीर और मानसिक शांति  महत्वपूर्ण है | लेकिन इसके लिए हमें अपनी  सोच में जरूरी बदलाव करना होंगे | भारतीय संस्कृति में ज़िन्दगी केवल सांसों का सफर नहीं अपितु ईश्वर प्रदत्त  दायित्वों के निर्वहन करने का अवसर है | रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने बड़े ही  सरल शब्दों में लिखा है :-

बड़े भाग मानुष तन पावा , 
सुर दुर्लभ सद्ग्रंथहिं गावा |

काश , हम इसका आशय समझ सकें तो मृत्युलोक में भी स्वर्ग का एहसास हो सकता है |

-आलेख रवीन्द्र वाजपेयी