Friday 28 January 2022

सांसदों-विधायकों की तरह से ही सरकारी नौकरी में खाली पद भरने की समय सीमा तय हो



पटना और प्रयागराज में रेलवे की भर्ती परीक्षाफल से असंतुष्ट छात्रों द्वारा की गई तोडफ़ोड़ पूरी तरह गलत और गैरकानूनी है किन्तु उनके गुस्से को भी अनुचित नहीं ठहराया जा सकता। ये समस्या केवल रेलवे तक सीमित नहीं है। सरकारी नौकरी के लिये होने वाली लिखित परीक्षाएँ और साक्षात्कार समय पर संपन्न नहीं होने से देश भर में करोड़ों अभ्यर्थी युवा अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। उनके अभिभावक भी अपनी संतान की परेशानियों  से तनाव में हैं। इन युवाओं में लाखों की संख्या उनकी है जो सरकारी नौकरी की आस में अधिकतम आयु सीमा पार कर चुके हैं। प्रयागराज स्टेशन में छात्रों पर लाठी चार्ज भी हुआ और इसे उ.प्र के चुनावों से जोड़ने की कवायद भी शुरू हो गई। अनेक उपद्रवकारियों के अलावा कुछ कोचिंग संचालक भी पकड़े गये हैं। रेलवे ने उच्च स्तरीय जांच बिठा दी है। परीक्षाफल में तकनीकी गड़बड़ी के कारण ये बखेड़ा खड़ा हुआ जो नया नहीं है। उ.प्र के विधानसभा चुनाव में भी सरकारी नौकरियों के लिए ली जाने वाली परीक्षाओं के रद्द होने का मामला गरमाया हुआ है। अनेक बार प्रश्नपत्र लीक होने से भी कुछ परीक्षाएं टाली जाती रहीं। ऐसा केवल उ.प्र. में ही होता हो ऐसा नहीं है। सरकारों द्वारा भर्ती हेतु अनेक व्यवस्थाएं कर रखी हैं लेकिन उनका संचालन करने वाले या तो पेशेवर नहीं होते या फिर राजनीतिक दबाव और उससे भी ऊपर तो भ्रष्टाचार की वजह से परीक्षाएं या तो रुकी रहती हैं या फिर धांधली का शिकार हो जाती हैं। म. प्र को ही लें तो यहाँ लोक सेवा आयोग द्वारा ली जाने वाले परीक्षा के परिणाम आने में लम्बा समय लगने के बाद साक्षात्कार के लिए गाड़ी रुकी रहती है। सब कुछ होने के बाद चयनित अभ्यर्थियों की सूची जारी होने में महीने तो छोटी बात है बरसों-बरस बिता दिए जाते हैं। इसके कारण युवाओं में निराशा और गुस्सा तो आता ही है लेकिन सरकारी अमले की कमी से शासन का काम भी प्रभावित होता है। आज की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय से लेकर निचली अदालत तक में न्यायाधीशों के पद खाली पड़े हैं। जिससे लंबित मुकदमों के अम्बार लग गये हैं। लगभग सभी राज्यों  में पुलिस बल की कमी है। शासकीय विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय भी अध्यापकों की कमी से जूझ रहे हैं। सरकारी दफ्तरों में लिपिक और भृत्य कम पड़ रहे हैं। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि सरकार के पास जितना काम है उस अनुपात में उसके पास अमला नहीं होने से उसके कार्यालय में जाने वाली जनता हलाकान होती है। अपना खर्च घटाने के लिए सरकार ने तदर्थ और दैनिक भोगी जैसी व्यवस्था भी लागू की। इसी तरह अतिथि शिक्षक भी नियुक्त  किये जाने लगे। चुनाव आते ही राजनीतिक दल ऐसी नियुक्तियों को स्थायी नौकरी में बदलने का आश्वासन देते हैं किन्तु सत्ता में आने के बाद खजाना खाली होने का रोना शुरू हो जाता है। म.प्र में 2003 के विधानसभा चुनाव में उमाश्री भारती ने आश्वासन दिया था कि वे मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही दैनिक भोगी कर्मचारियों को नियमित कर देंगी परन्तु 19 साल बाद भी स्थिति जस की तस है। अनेक कर्मचारी तो उसी स्थिति में सेवानिवृत्त हो गये। इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि जिस तरह से सांसदों और विधायकों की सीट खाली रहने पर आपातकालीन स्थिति को छोड़कर छह माह में उसे भरने के लिए उपचुनाव करवाना अनिवार्य है, वही व्यवस्था सरकारी पदों के लिए भी लागू की जावे। लोक प्रशासन के अंतर्गत सरकार के पास इस बात की जानकारी पहले से तैयार होनी चाहिए कि किस समय तक कितने अधिकारी-कर्मचारी सेवा निवृत्त होने वाले हैं। इसके पहले कि उनका विदाई समरोह हो और यदि उनकी जगह को भरा जाना है तब उस पद के लिए पहले से चयन हो जाना चाहिए। पदोन्नति में भी इसी प्रक्रिया का पालन किया जाना अपेक्षित है। नई नौकरियों का वायदा हर राजनीतिक दल के घोषणापत्र में होता है लेकिन सरकार में आते ही वह किसी कोने में रख दिया जाता है। इस सम्बन्ध में ये भी उल्लेखनीय है कि संघ लोकसेवा आयोग द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं के नतीजे लगभग तय समय पर घोषित होने के बाद चयनित व्यक्तियों की नियुक्ति, प्रशिक्षण और पद स्थापना भी निर्धारित समय में होती है। लेकिन बाकी पदों को लेकर की जाने वाली भर्ती पूरी तरह भगवान भरोसे बना दी गई है। इस समस्या का समाधान करना कठिन नहीं है लेकिन शासन और प्रशासन में जमे नेता और नौकरशाह दरअसल पूरी तरह असंवेदनशील हो चुके हैं। बेरोजगारों को उज्जवल भविष्य के सापने दिखाने वाले नेता सत्ता में आते ही अपना और अपने परिवार का भविष्य उज्ज्वल बनाने में जुट जाते हैं। इसी तरह उच्च पदों पर विराजमान नौकरशाह भी उन्हीं भर्तियों में ज्यादा रूचि दिखाते हैं जिनमें या तो खुरचन मिले या फिर और किसी स्वार्थ की पूर्ति होती हो। ये सब देखते हुए जरूरी हो गया है कि सरकारी नौकरियों के लिए आयोजित परीक्षाओं और उनके नतीजों को लेकर निश्चित व्यवस्था बनाई जाए जिसका पालन करना कानूनी बंदिश हो। दुर्भाग्य से हमारे देश के हुक्मरान और उनके मातहत काम करने वाले साहेब बहादुर तभी जागते हैं जब पानी नाक तक आ जाता है। किसानों द्वारा बनाये गये दबाव के बाद प्रधानमंत्री ने जिस तरह कृषि कानून वापिस लिए उससे देश भर में ये संदेश गया कि सरकार दबाव में ही झुकती है। पटना और प्रयागराज में जो कुछ  घटा उसका कोई भी समझदार व्यक्ति समर्थन नहीं करेगा। उसके पीछे राजनीतिक षडयंत्र होने की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता किन्तु केंद्र और राज्यों की सरकारों को ये बात समझ में आ जानी चाहिए कि फैसलों को टालते रहने से भड़कने वाला असंतोष अब सामूहिक आक्रोश की शक्ल अख्तियार करने लगा है। आम जनता के मन में ये अवधारणा तेजी से घर करती जा रही है कि राजनेता अपने ऐशो आराम की हर व्यवस्था तो चाक-चौबंद रखते हैं किन्तु जब जनता की भलाई का सवाल उठता है तब तरह-तरह के बहाने बनाये जाते हैं। समय आ गया है जब इन विसंगतियों को दूर किया जाए अन्यथा जो घटनाएँ बीते कुछ दिनों में देखने मिलीं उनकी पुनरावृत्ति देश भर में हो सकती है जिसका लाभ देश विरोधी ताकतें भीं उठा लें तो आश्चर्य नहीं होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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