Monday 3 January 2022

भारत छुट्टियों और मुफ्त चुनावी उपहारों का देश बनकर रह गया



2022 के पहले और दूसरे दिन क्रमश: शनिवार और रविवार होने के कारण कार्यालयों में अवकाश रहा। इस वजह से लोगों ने जमकर जश्न मनाया और सैर-सपाटा भी किया। तनावों से भरी जि़न्दगी में आनन्द के क्षण यूं भी कम ही आते हैं। आधुनिक जीवन शैली में इतनी ज्यादा भाग-दौड़ हो चली है कि इंसान के पास खुद के लिए भी वक्त नहीं रहा। पहले ये समस्या केवल विकसित देशों में ही सुनाई देती थी लेकिन अब भारत जैसे देश में भी मानसिक तनाव लोगों की मानसिकता पर हावी होता जा रहा है। लेकिन इसी के साथ ही एक समस्या कार्य संस्कृति के अभाव के रूप में भी सामने आ रही है। बेरोजगारी के कारण करोड़ों लोग बेकार हैं किन्तु इससे भी बड़ी बात ये है कि जिनके पास नौकरी रूपी काम है उनमें से भी अधिकतर अपनी 100 प्रतिशत क्षमता से काम नहीं करते। इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि हमारा देश छुट्टियों का देश हो गया है। राजीव गांधी के सत्ता में आने के बाद केंद्र सरकार के कार्यालयों में पांच दिवसीय कार्य सप्ताह की शुरुवात हुई जिसे धीरे-धीरे कारपोरेट व्यवस्था में भी स्वीकार कर लिया गया। कोरोना के बाद म.प्र जैसे राज्य में भी सरकारी कार्यालयों में पांच दिवसीय सप्ताह शुरू हो गया। विश्व श्रम संगठन द्वारा बनाये गए नियमों के अंतर्गत ही सप्ताह में काम के घंटे तय किये गये हैं। निजी क्षेत्र में तो श्रमिक कानूनों का पालन उतनी ईमानदारी से नहीं होने से शोषण की प्रवृत्ति विद्यमान है किन्तु सरकारी नौकरी में जहां वेतनमान, भत्ते, चिकित्सा एवं सेवा निवृत्ति के उपरान्त मिलने वाली राशि जैसी सुविधाएँ हैं, उसमें भी कार्यसंस्कृति निरंतर घटती जा रही है। यही वजह है देश में प्रति व्यक्ति उत्पादन का अनुपात अपेक्षा से कम है। न सिर्फ कार्यालयों अपितु सरकारी क्षेत्र के कारखानों में भी काम के प्रति समर्पण नहीं होने से विकास के आँकड़े उम्मीद से कम ही रहते हैं। एक समय था जब केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के सरकारी कर्मचारियों के वेतनमान में अंतर होता था लेकिन श्रमिक कल्याण की योजनाओं के चलते वेतनमानों में तो एकरूपता आ गई परन्तु कार्य की गुणवत्ता में अंतर नहीं आया। निजी क्षेत्र के कारपोरेट जगत में वेतन और सुविधाएँ भले ही आकर्षित करती हों लेकिन बाकी में काम की शर्तें कठिन और सुविधाएँ कम हैं। भविष्य की सुरक्षा भी नहीं होती ,इसीलिये आज भी हमारे देश में सरकारी नौकरी का आकर्षण बरकरार है। लेकिन धीरे-धीरे सरकार के लिए उसका अपना अमला ही बोझ बनता जा रहा है। कोरोना काल में लगे लॉक डाउन के दौरान निजी क्षेत्र की बड़ी-बड़ी कम्पनियों तक ने वेतन भत्ते कम कर दिए और छटनी भी हुई। छोटे और मध्यम श्रेणी के व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में तो लॉक डाउन के दौरान वेतन बंद कर दिया गया किन्तु सरकार के लिए वैसा करना संभव नहीं था। हालाँकि बैंक , पुलिस, नगर निगम, अस्पताल तथा अन्य आवश्यक सेवाएं तो कार्यरत रहीं किन्तु स्कूल, कॉलेज सहित तमाम प्रशासनिक कार्यालयों में तालाबंदी के बाद भी वेतन अदि समय पर मिलते रहे। लेकिन अब जब स्थितियां सामान्य होने को हैं और कोरोना की तीसरी लहर की आशंका के बाद भी ये माना जा रहा है कि उसका प्रकोप पिछली लहर जैसा भयावह नहीं होगा तब इस बात की जरूरत है कि नए साल को कार्यकुशलता वर्ष के रूप में मनाया जाए। इसके लिए सरकारी दफ्तरों और शिक्षण संस्थानों में दिए जाने वाले अवकाश घटाए जाने चाहिए। हमारे देश में विभिन्न धर्मों का पालन करने वाले रहते हैं। उनसे जुड़े महापुरुषों की जयन्ती अथवा निर्वाण दिवस पर सरकारी अवकाश रहता है। वोट बैंक की राजनीति ने जातीय महापुरुषों के नाम पर भी छुट्टी रखे जाने का चलन शुरू कर दिया। इस सबके कारण भारत छुट्टियों का देश बनकर रह गया है। इसका असर अब असंगठित क्षेत्र पर भी दिखाई देने लगा है। निर्माण कार्यों में कार्यरत श्रमिक और घरेलू कर्मचारी तक छुट्टी संस्कृति से प्रेरित-प्रभावित होते जा रहे हैं। इसका दुष्प्रभाव दफ्तरों में आज का काम कल पर टालने के साथ ही उत्पादन के लक्ष्य समय पर पूरे न होने से विकास के सभी अनुमान धरे के धरे रह जाते हैं। सरकारी निर्माण कार्य में समय-सीमा का पालन नहीं होने से लागत बढ़ जाती है। भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था के तौर पर उभर रहा है लेकिन कार्य संस्कृति का विकास उस अनुपात में नहीं होने से एक कदम आगे , दो पीछे की स्थिति बनी हुई है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत निश्चित तौर पर वैश्विक मापदंडों के अनुरूप कार्य कर रहा है। हाल ही में साफ्टवेयर निर्यात के जो आंकड़े आये वे उत्साहित करने वाले हैं लेकिन अन्य क्षेत्रों में कार्य संस्कृति का विकास आशानुरूप नहीं होने से भारत आज भी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाता है। 2020 में चीन द्वारा लद्दाख में की गयी घुसपैठ के बाद दोनों देशों के व्यापारिक रिश्ते भी तनावपूर्ण रहे। जिसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत और वोकल फॉर लोकल जैसे नारे देते हुए स्वदेशी के भाव को उभारने का आह्वान किया। उसके प्रभावस्वरूप चीन से होने वाले आयात में कुछ समय के लिए तो कमी आई तथा कच्चे माल पर निर्भरता खत्म करने का भी सराहनीय प्रयास हुआ । लेकिन कुछ दिनों पूर्व जो आँकड़े आये उनके अनुसार चीन से आयात कोरोना पूर्व की स्थिति से भी ज्यादा हो गया। इसकी वजह कीमतों में अंतर ही है। यदि भारत वाकई विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे कामचोरी की मानसिकता से निकलकर कार्यसंस्कृति को राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाना होगा। हालाँकि इसमें हमारे देश की चुनाव प्रणाली बड़ी बाधा बने बिना नहीं रहेगी। देश में हर वर्ष होने वाले चुनाव विकास को प्रभावित करते हैं। इसके कारण नीतिगत अनिश्चितता और असमंजस कायम रहने से देशहित के अनेक निर्णय लंबित पड़े रहते हैं। चुनावी खर्च का असर भ्रष्टाचार के रूप में सामने आता है। सबसे बड़ी बुराई है मुफ्तखोरी को राजनीतिक औजार बनाने की। मुफ्त अनाज, मुफ्त बिजली-पानी, नगद राशि आदि के कारण समाज का एक बड़ा वर्ग निठल्ला बैठा हुआ है। यदि इसका उपयोग उत्पादन प्रक्रिया में होने लगे तो न सिर्फ समय पर काम होंगे अपितु लागत भी घटेगी। लेकिन चुनावों की कभी न टूटने वाली श्रृंखला के कारण कोई भी राजनीतिक दल मुफ्तखोरी की संस्कृति को रोकने का साहस नहीं कर पाता। इसके विपरीत वह और बढ़ती जा रही है। बाहरी तौर पर तो सभी राजनीतिक दल देश और जनता के हित की बात सोचते हैं परन्तु सत्ता प्राप्त करने की लालसा उन्हें चुनाव जीतने के फेर में उलझाकर रख देती है। शुरू – शुरू में श्री मोदी से ये अपेक्षा की जा रही थी कि वे कड़े निर्णय लेकर देश को इस ढर्रे से मुक्ति दिलवाएंगे किन्तु येन-केन-प्रकारेण चुनाव जिताने की जिम्मेद्दारी कन्धों पर आ जाने की वजह से वे भी मजबूर नजर आने लगे हैं। यदि देश को सही मायनों में विश्व शक्ति बनना है तो उसे इन विसंगतियों पर विजय हासिल करना होगी। अन्यथा बड़े-बड़े दावों और वायदों के बावजूद सुधार प्रक्रिया कछुआ गति से चलती रहेगी और आंकड़ों की वह फसल यूँ ही लहलहाती रहेगी जिससे किसी का पेट नहीं भरता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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