Saturday 15 January 2022

स्वामीप्रसाद का बड़बोलापन अखिलेश की मेहनत पर पानी फेर सकता है



उ.प्र विधानसभा चुनाव में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस बार छोटी – छोटी जातिवादी पार्टियों को अपने साथ मिलाकर जो गठबंधन बनाया उसके बारे में विश्लेषक ये मान रहे थे कि उन्होंने 2017 में भाजपा द्वारा अपनाई रणनीति पर ही काम किया और बिखरे हुए मतदाता समूहों को अपने झंडे तले लाकर कड़ी चुनौती पेश कर दी | इसके कारण सब दूर ये चर्चा होने लगी  कि  लड़ाई भाजपा और अखिलेश के बीच है | यादव और मुस्लिम समुदाय के बीच जो नजदीकी मुलायम सिंह यादव ने पैदा की थी वह पिछले कुछ चुनावों में नहीं  दिखाई दी | लेकिन जैसी परिस्थितियाँ नजर आ रही हैं उनके मद्देनजर ये कहा जा रहा है कि इस बार के चुनाव में एम – वाई समीकरण फिर बैठने जा रहा है | अखिलेश ये जानते हैं कि तमाम कोशिशों के बाद भी सवर्ण जातियों के बीच उनका प्रभाव ज्यादा नहीं रहेगा | इसी तरह प. उ.प्र में किसान आन्दोलन के कारण भाजपा से नाराज बताये जा रहे जाट समुदाय में भी जो गाँव के बाहर हैं उनमें भाजपा के प्रति झुकाव है | ऐसे में मुस्लिम – यादव की गोलबंदी के साथ पिछड़े जाति समूहों को मिला लिया जावे तो चुनावी नैया पार हो सकती है | इसी सोच के साथ उन्होंने बीते कुछ महीनों में तमाम छोटी पार्टियों को अपने पाले में खींचकर भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण हालात बना दिए | उनमें सबसे ज्यादा चर्चा ओमप्रकाश  राजभर की हो रही थी | लेकिन विगत तीन – चार दिनों से योगी मंत्रीमंडल छोड़कर सपा में  आये स्वामीप्रसाद मौर्य ,  अखिलेश द्वारा जमाये गये मजमे को लूटने में लगे हुए हैं | गत दिवस लखनऊ में उन्होंने सपा कार्यालय में जो भाषण दिया उससे ऐसा  लगा जैसे उनका मकसद अपने आपको तुरुप का इक्का साबित करने का है और इसी धुन में वे खुद को अखिलेश की बराबरी का नेता साबित करने में लग गये | पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और लोकसभा  चुनाव में बसपा से गठबंधन करने का जो कड़वा अनुभव अखिलेश को हुआ उससे उन्होने ये सीखा कि अपने से बड़े कद के नेता से जुड़ने पर उसकी शख्सियत भारी पड़ जाती है | राहुल गांधी और मायावती उस दृष्टि से उनके लिए बोझ बन गये | इसीलिए उन्होंने इस चुनाव में छोटे – छोटे दलों को साथ लिया जिनकी वजनदारी उनकी तुलना में बेहद कम है | ओमप्रकाश राजभर ने भी अभी तक किसी तरह के बडबोलेपन से परहेज ही किया किन्तु श्री मौर्य ने आते ही जिस तरह की बयानबाजी की  उससे तो लगता है जैसे वे मुकाबले को योगी बनाम स्वामी बनाने के लिए आतुर हैं | रास्वसंघ को नाग और भाजपा को सांप कहने के बाद खुद ,को नेवला बताने के बाद वे ये डींग हांकते सुने  गए कि वे जिसके साथ रहते हैं उसे मुख्यमंत्री बनवा देते हैं |गत दिवस के भाषण में उन्होंने इस चुनाव को 85 और 15 फीसदी के बीच की जंग  निरुपित करते हुए सवर्ण जतियों को महज 15 फीसदी बताने के साथ  कहा  कि वे भी विभाजित हैं | उनके कहने  का आशय ये रहा कि भाजपा के पास केवल उच्च जातियां रह गई हैं जो कि बिखरी हुई हैं | इसी के साथ श्री मौर्य ने ये भी कह डाला कि लोहियावादियों के साथ अब आम्बेडकरवादी भी आ गये हैं | वैसे मौर्य दलित न होकर पिछड़े माने जाते हैं | स्वामीप्रसाद बसपा  की सरकार में मंत्री रहने के बाद अखिलेश सरकार के समय नेता प्रतिपक्ष भी रहे किन्तु फिर मायावती पर तरह – तरह के आरोप लगाते हुए भाजपाई बन गये |  इसलिए उनका खुद को आम्बेडकरवादी कहना जमता नहीं है | बसपा में रहते हुए भी वे कभी दलित समुदाय के नेता नहीं माने गये | लेकिन इस सबसे अलग हटकर भाजपा छोड़ते ही वे जिस शैली में बात कर रहे हैं उससे ऐसा लगता है मानों वे अखिलेश की मजबूरी भांप चुके हैं | मुख्यमंत्री बनवाने की अपनी क्षमता का बखान उनके द्वारा जिस अंदाज में किया जा रहा है उससे ये लगता है वे अपनी कीमत बताने में जुटे हैं | जिससे  ज्यादा से ज्यादा सीटें अपने समर्थकों को दिलवा सकें | सवाल ये है कि श्री मौर्य के इस अंदाज को श्री यादव किस हद तक सहन कर पाएंगे क्योंकि अभी तो चुनाव प्रक्रिया शुरू ही हुई है और उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया जारी है | प्रदेश की 150  सीटों में  जीत – हार का फैसला करवाने का उनका दावा अखिलेश पर दबाव बढ़ाने की रणनीति हो सकती है | लेकिन लगातार मजबूत होते दिख रहे अखिलेश को ये सावधानी रखनी होगी कि बिना सोचे समझे आयात किये जाने से उनको वैसा ही नुकसान हो सकता है जैसा प. बंगाल में भाजपा भोग चुकी है | जिसने ममता बैनर्जी से सत्ता छीनने की जल्दबाजी में तृणमूल से बड़ी संख्या में विधायकों और अन्य नेताओं को पार्टी में लाकर टिकिट दी जिससे उसका परम्परागत समर्थक वर्ग उदासीन हो गया | स्वामीप्रसाद के तेवर देखकर ऐसा लगता है जैसे वे अखिलेश पर हावी होने के मूड में हैं | इसलिए उनको ये ध्यान रखना होगा कि 2017 के चुनाव में कांग्रेस के लिए 100 सीटें छोड़ने से सपा के वे नेता और कार्यकर्ता घर बैठ गये जिनकी टिकिट काटी गई | वहीं दूसरी तरफ जिन 300 सीटों पर पार्टी उनमें कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने कोई रूचि नहीं दिखाई | ऐसा ही खेल लोकसभा चुनाव में हुआ | जिसके बाद अखिलेश ने कांग्रेस और बसपा से तो तौबा कर ली किन्तु ऐसा लगता है भाजपा को झटका  देने के फेर में खुद का नुकसान न कर बैठें | इस चुनाव में कांग्रेस ने सभी सीटें लड़ने की जो रणनीति बनाई है उससे कुछ हासिल हो न हो लेकिन इतना तो जरूर होगा कि पूरे प्रदेश में उसका झंडा उठाने वाले होंगे | अखिलेश यादव के पास पूरे उ.प्र में संगठनात्मक ढांचा है | रालोद के साथ उनका गठबंधन भी फायदेमंद हो सकता है लेकिन जयंत चौधरी और ओमप्रकाश राजभर ने अभी तक ऐसा कुछ ही नहीं कहा जिसे  खुद को अखिलेश से बड़ा सबित करने का प्रयास कहा जाता | लेकिन श्री मौर्य ने पूत के पांव पालने में वाली कहावत की याद दिलाते हुए जैसी शुरुआत की वह अखिलेश की अब तक की मेहनत पर पानी फेर सकती है | उनका कल का भाषण सीधे – सीधे जातिवादी ध्रुवीकरण का आधार बन सकता है जिसके कारण जिस इन्द्रधनुषी गठबंधन की बात सपा कर रही थी उसकी छटा धूमिल हो सकती है | इस बारे में याद  रखने वाली बात ये है कि जाति समूहों को एक साथ जोड़े रखना मेंढ़क तौलने जैसा है | पिछड़ी और दलित जातियों के बीच भी ऊंच - नीच की जो विभाजन रेखा है वह चुनाव के समय और गहरी हो जाती है | भाजपा ने श्री मौर्य के नखरे क्यों नहीं उठाये इसका पता लगाने के बाद ही उनकी नीयत और ताकत का आकलन अखिलेश को करना चाहिए | वैसे भी उनके चुनाव प्रचार में मुद्दे गायब होकर आयाराम और उनकी अहमियत हावी हो गई है | उनको ये याद रखना चाहिये कि बिहार में तेजस्वी यादव ने भी एनडीए के विरोध में महागठबंधन नामक जो चुनौती पेश की थी वह भी इसी तरह ताकतवर नजर आ रही थी | समाचार माध्यमों में भी तेजस्वी को धूमकेतु की तरह पेश किया जा रहा था | उनकी सभाओं में  भीड़ उमड़ रही थी | नीतीश कुमार को थका हुआ मानकर उनके हारने की भविष्यवाणी  हर कोई कर रहा था किन्तु तेजस्वी अंत में गच्चा खा गये | कांग्रेस उनके साथ थी लेकिन उसका कमजोर प्रदर्शन राजद की संभावनाओं को धूमिल कर गया | उ.प्र के चुनाव में भी विपक्ष के पास मुद्दे हैं लेकिन लड़ाई चार खेमों में बंटी है | मायावती और प्रियंका वाड्रा जानती हैं कि उनकी पार्टी सरकार नहीं बना सकेगी किन्तु वे अखिलेश को भाजपा का विकल्प न बनने देने की कोशिश में पीछे नहीं रहेंगी | अखिलेश ने प्रारम्भिक तौर पर जो हवा बनाई उसे बनाए रखना असली चुनौती है क्योंकि कहीं  ऐसा न हो कि असली  लड़ाई शुरू होते – होते उनका तरकश खाली हो जाए और उनको स्वामीप्रसाद  जैसों की मदद लेनी पड़े जो पूरी तरह गैर भरोसेमंद हैं | भाजपा निश्चित रूप से फिलहाल दबाव में है लेकिन वह इतनी आसानी से बाजी हाथ से नहीं जाने देगी |  स्वामीप्रसाद का बडबोलापन अखिलेश के किये कराये पर भारी पड सकता है | जिस तरह से गत दिवस उन्होंने भाषण दिया वैसे एक – दो वाकये  और हो गये तो जातीय समीकरण उलट – पुलट होते देर नहीं लगेगी |

-रवीन्द्र वाजपेयी

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