Wednesday 26 January 2022

कर्तव्यों से विमुख हो जाने वाली कौम अधिकार भी खो बैठती है



 भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है | जिस संविधान सभा ने इसके प्रारूप को अन्त्तिम रूप दिया उसके सदस्यों में तत्कालीन दौर के सर्वाधिक योग्य , समर्पित , संवेदनशील और राष्ट्रभक्त नेता थे | समाज के प्रत्येक वर्ग का उसमें प्रतिनिधित्व था | लम्बे विचार – विमर्श , बहस , चिंतन – मनन के उपरांत जिस संविधान को स्वीकार किया गया उसे 26 जनवरी 1950 को लागू कर देश ने अंतिम रूप से ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति हासिल की और उसी दिन से भारत सार्वभौमिक गणराज्य के तौर पर विश्व मानचित्र पर उभरा | लेकिन आजादी की खुशियों के बीच ही वह अनेक प्रकार की समस्याओं में फंस गया था | अंग्रेजों ने सत्ता के साथ ही  विकट समस्याएं भी विरासत में सौंपीं  | विभाजन के बाद  रियासतों का एकत्रीकरण एक बड़ी चुनौती थी | कश्मीर में कबायली हमला और गांधी जी की हत्या जैसी घटनाओं के कारण अजीबोगरीब परिस्थितियां पैदा हो गई थीं परन्तु संविधान द्वारा तय किये गये रास्ते पर चलते हुए देश ने जल्द ही उन आशंकाओं को निर्मूल साबित कर दिया कि आजाद होने के बाद भारत अपने आपको एकजुट नहीं रख सकेगा | अनगिनत जातियां , बोलियाँ , भाषाएँ , क्षेत्रीय पहिचान , सांस्कृतिक भिन्नता और सबसे बढ़कर विभिन्न धर्मों  के अनुयायियों का होना देश की एकता और काफी हद तक अखंडता को खतरे में डालने के लिए पर्याप्त था | पाकिस्तान का निर्माण होने के पहले ही अंग्रेजों ने जिस तरह के हालात उत्पन्न कर दिए थे उनमें  भारत सरीखे विविधता भरे देश में आन्तरिक अशांति की जोरदार गुंजाईश तो थी ही और फिर सैकड़ों साल की गुलामी से हमारी मानसिकता भी  गहराई तक प्रभावित हुई थी | अंग्रेज चले तो गये लेकिन अपने पीछे जो प्रशासनिक ढांचा छोड़ गये उसमें उपनिवेशवाद के अंश विद्यमान थे | इसीलिये  ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आजादी के अमृत महोत्सव तक का लम्बा सफर तय करने के बाद भी हमारा समूचा तंत्र काले अंग्रेज  कहे जाने वाले उन साहेब बहादुरों के इशारों पर चलता है जिनमें उसी प्रकार का श्रेष्ठता का भाव है जो अंग्रेजों में अपनी नस्ल के प्रति था | यही वजह है कि 15 अगस्त 1947 को मिली  स्वाधीनता और 26 जनवरी 1950 को प्राप्त सार्वभौमिकता के बावजूद भी भारत का आम नागरिक शासन – प्रशासन के सामने लाचार बनकर रह गया है | वैसे तो संविधान निर्माताओं ने देश को स्वतंत्र न्यायपालिका जैसी व्यवस्था भी दी जो विधायिका और कार्यपालिका दोनों की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाने में सक्षम है | उसने अपनी इस भूमिका का निर्वहन बहुत ही जिम्मेदारी और साहस के साथ किया भी लेकिन ये कहना सौ फीसदी सही है कि न्याय प्राप्त करना बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट पर चढ़ने से  भी ज्यादा कठिन है क्योंकि उसमें केवल विलंब ही नहीं होता अपितु बेहद खर्चीला होने से वह आम भारतीय के बस के बाहर होता जा रहा है |  मुम्बई उच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त न्यायाधीश स्व.चंद्रशेखर धर्मधिकारी ने एक बार ये कहने का दुस्साहस किया था कि हमारे देश में व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा कानून तोड़ने की उसकी क्षमता पर निर्भर करती है | उनका वह कथन भले ही अटपटा लगे लेकिन था सौ फीसदी सच | गत दिवस किसी  टीवी रिपोर्टर ने उ.प्र के एक नेता से सवाल किया कि वे जिस गठबंधन में हैं उसने अनेक अपराधियों को विधानसभा चुनाव में टिकिट दिया है तब नेता जी ने उसका औचित्य ये कहते हुए साबित करने का प्रयास किया कि जब सामने वाला एके 47 राइफल लेकर खड़ा हो तब क्या उसका मुकाबला तमंचे से किया जा सकता है ?  उक्त दो बयानों से ये समझा जा सकता है कि हमारे देश में कानून के राज के प्रति कितना सम्मान है | ये दुर्भाग्य ही है कि क़ानून बनाने वाले सम्माननीय सदनों में कानून की धज्जियाँ उड़ाने वाले लकझक सफेद लिबास में विराजमान होते हैं | संविधान में मौलिक अधिकार के साथ ही कुछ ऐसे प्रावधान भी हैं जो कर्तव्यों की ओर इशारा करते हैं | लेकिन बीते  सात दशक में हमारे देश में केवल अधिकार की ही बात होती आई है , वहीं कर्तव्यों के पालन पर केवल उपदेश सुनाई देते हैं | यही वजह है कि गत वर्ष गणतंत्र दिवस पर राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक लालकिले की प्राचीर पर चढ़कर राष्ट्रध्वज का अपमान करने का दुस्साहस जिन लोगों द्वारा किया गया उन पर से मुकदमे वापिस लेने का दबाव बनाया गया | संविधान ने लोकतंत्र के संचालन हेतु वयस्क मताधिकार के जरिये जनता की राय जानने की जो व्यवस्था बनाई वह भी बेहद संकीर्ण दायरे में कैद होकर रह गई है | जाति , भाषा , क्षेत्र और धर्म जैसे मुद्दे सरकार बनाने के आधार बन गये हैं | दर्जनों अपराधों के आरोपी  जनादेश हासिल कर  जब सांसद , विधायक अथवा मंत्रीपद की शपथ लेते समय विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान में सच्ची श्रदधा रखने की बात कहते हैं तब लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लोगों पर क्या बीतती होगी ये बताने की जरूरत नहीं है | ऐसे में संविधान की सालगिरह  सरकारी परेड और सजावट तक सीमित न रहकर उन विसंगतियों पर   चिंतन  - मनन  करने का अवसर है जिनके कारण लोकतंत्र की मर्यादाएं तार – तार हो रही हैं और संविधान  मजाक बनकर रह गया है | चुनाव लड़ना और न्याय हासिल करना यदि आम आदमी के बस के बाहर हो जाए तब उस संविधान का महत्व ही क्या रह जाता है जिसकी शुरुआत हम भारत के लोग से होती है | आशय ये है कि इस  दस्तावेज की पवित्रता बनाए रखना हम सभी का मौलिक कर्तव्य भी है | इस सम्बन्ध में एक बात हर देशवासी को जान और समझ लेनी चाहिए कि जो कौम अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाती है वह अधिकार भी खो बैठती है | इसलिये हम भारत के लोग एक साथ मिलकर उन प्रवृत्तियों के विरुद्ध एकजुट हों जो बीते 75 साल से लोकतंत्र को अपनी निजी मिल्कियत मानकर  संविधान की प्रस्तावना में  हम भारत के लोग की जगह भारत के कुछ लोग लिखवाने की कोशिश कर रही हैं |

गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment