Tuesday 25 January 2022

उद्धव को कुछ समय और इंतजार करना था : जल्दबाजी महंगी पड़ सकती है



भले ही महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना के बीच राजनीतिक तौर पर जमकर रस्साकशी चला करती है लेकिन उसी के बीच में ये कयास भी लगाये जाते रहे कि देर-सवेर  दोनों फिर एक साथ आ जायेंगे। इसकी वजह महाराष्ट्र में चल रही मिली - जुली सरकार में कांग्रेस और राकांपा नामक दो घटक दलों के साथ शिवसेना का आधारभूत वैचारिक मतभेद है। अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिन पर कांग्रेस और राकांपा का रुख शिवसेना के विपरीत होता है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष तो अगले चुनाव में उनकी पार्टी के अकेले मैदान में उतरने की बात कई मर्तबा दोहरा भी चुके हैं। वीर सावरकर के बारे में उठे विवाद पर भी शिवसेना का इन पार्टियों से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। बीच-बीच में शिवसेना और भाजपा के कुछ नेताओं का मिलना-बैठना पुराने दिनों के लौटने के संकेत देता रहा। शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत और पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस के बीच होटल में घंटों चली बैठक के बाद तो ऐसा कहा जाने लगा था कि दोनों हिंदूवादी पार्टियाँ एक दूसरे से गले मिलने के लिए लालायित हैं। इसके पीछे एक वजह ये भी बताई जाती है कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे में प्रशासनिक अनुभव की कमी का लाभ उठकर राकांपा नेता शरद पवार परदे के पीछे से सरकार चला रहे हैं। उनके भतीजे अजीत तो उपमुख्यमंत्री हैं ही। प्रशासनिक अधिकारी भी श्री पवार को काफी अहमियत देते हैं। उधर संख्या में कम होते हुए भी कांग्रेस उद्धव और शिवसेना को अपेक्षित महत्व नहीं देती। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता भी महाराष्ट्र के राजनीतिक मामलों में मुख्यमंत्री की बजाय श्री पवार से ही संपर्क करते हैं। दरअसल कांग्रेस के मन में ये डर भी है कि शिवसेना के साथ नजदीकियां मुसलमानों में उसके जनाधार के लिए नुकसानदेह होंगी। कुछ समय पूर्व केन्द्रीय मंत्री और महाराष्ट्र की राजनीति में अच्छी पकड़ रखने वाले नितिन गड़करी की उद्धव के साथ हुई अंतरंग चर्चा के बाद भी आ अब लौट चलें का तराना बजा था। स्थानीय निकाय चुनाव में शिवसेना को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने से भी ऐसा सुनाई दिया था कि मनोहर जोशी जैसे पुराने शिवसेना नेता उद्धव को भाजपा के साथ फिर से गठबंधन करने की सलाह देने लगे हैं। ये चर्चा भी उड़ी कि उद्धव ने श्री गड़करी के सामने ये शर्त रखी कि श्री फड़नवीस को भाजपा केंन्द्र की राजनीति में ले जाये क्योंकि उन्हीं की वजह से महाराष्ट्र में दोनों के रिश्ते खराब होते-होते टूट गये। शिवसेना के भीतर इस बात की चिंता भी है कि कांग्रेस और रांकपा के मंत्री अपनी पार्टी के लिए जिस तरह धन बटोरने में लगे हुए हैं उससे उसके खाते में बदनामी आ रही है। लेकिन दो दिन पहले श्री ठाकरे ने ये कहते हुए उन सभी कयासों पर पानी फेर दिया कि भाजपा के साथ गठबंधन में शिवसेना ने 25 साल खराब कर दिए। कभी भाजपा को पूर्व और भविष्य का सहयोगी बताने वाले अपने बयान के विपरीत उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा का हिंदुत्व अवसरवादी और सत्ता के लिए है। उनके अनुसार शिवसेना ने भले ही भाजपा को छोड़ दिया लेकिन वह हिंदुत्व के रास्ते पर कायम है। अपने पिता और शिवसेना के संस्थापक स्व.बालासाहेब ठाकरे के जन्मदिवस पर पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए श्री ठाकरे ने याद दिलाया कि शिवसेना ने केंद्र में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनवाने में पूरा सहयोग दिया था । लेकिन महाराष्ट्र में उसने शिवसेना को कमजोर करने का प्रयास किया जो उसकी उपयोग करो और फेंक दो की नीति का परिचायक है। इसी के कारण एनडीए के दो सबसे पुराने सहयोगी शिवसेना और अकाली दल अलग जा बैठे। उनके इस बयान में अफ़सोस के साथ खिसियाहट भी नजर आई। लेकिन जिस अंदाज में उन्होंने भाजपा को कोसा उससे दोनों पार्टियों के दोबारा करीब आने की अटकलों पर विराम लग गया है। दरअसल बाल ठाकरे जैसे दबंग व्यक्ति को भाजपा के साथ जोड़ने का करिश्मा स्व. प्रमोद महाजन ने किया था। जब तक दोनों जीवित रहे तब तक भाजपा महाराष्ट्र में छोटे भाई की भूमिका में रही। बालासाहेब भी अपनी सीमाएं जानते थे और इसीलिये उन्होंने कभी महाराष्ट्र से बाहर हाथ-पैर नहीं मारे। यहाँ तक कि वे स्व. वाजपेयी के शपथ ग्रहण समारोह तक में नहीं शामिल हुए। लेकिन स्व. महाजन के बाद से भाजपा को शिवसेना बोझ लगने लगी थी। बालासाहेब की मृत्यु के बाद उसे महसूस हुआ  कि उद्धव में पिता जैसा दमखम और दूरंदेशी नहीं है। इसलिए ज्योंही अवसर मिला उसने राज्य सरकार को अपने हाथ में लेकर शिवसेना को छोटा भाई बनने मजबूर कर दिया। इस सबके लिए भाजपा जहां उद्धव को दोषी ठहराती है वहीं शिवसेना गृह मंत्री अमित शाह के साथ श्री फड़नवीस को। हालाँकि दोनों के बीच रिश्ते बनाये रखने के लिए यदि मनोहर जोशी और नितिन गड़करी जैसे नेता बात करते तो रास्ता निकल सकता था लेकिन संजय राउत जैसे मुंहफट प्रवक्ता दूध में नींबू निचोड़ने का काम करते रहे। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो शिवसेना और भाजपा स्वाभाविक सहयोगी हैं लेकिन बालासाहेब के रहते ही बजाय श्री जोशी सरीखे सुलझे व्यक्ति के श्री राउत को आगे किया जाने लगा। सुरेश प्रभु समान काबिल और ईमानदार नेता को भी शिवसेना छोड़ने मजबूर कर दिया गया। हालाँकि शिवसेना में अनंत गीते जैसे गंभीर और जिम्मेदार नेता भी थे लेकिन भाजपा के साथ टकराव बढ़ाने में श्री राउत जैसे विघ्नसंतोषियों का बड़ा हाथ है जिन्होंने अपनी नेतागिरी चमकाने के फेर में उद्धव को मुख्यमंत्री बनने के लिए उकसाते हुए श्री पवार और कांग्रेस की गोद में बिठा दिया। महाराष्ट्र की सत्ता से वंचित कांग्रेस और रांकपा को इस प्रयोग में दूरगामी लाभ नजर आया क्योंकि भाजपा और शिवसेना के साथ रहते उनको हराना कठिन था। महाराष्ट्र की वर्तमान सरकार और केंद्र के बीच के रिश्ते अब जिस तरह बिगड़े उसमें अनेक घटनाएँ सहयोगी बनती गईं। श्री ठाकरे के ताजा बयान के बाद से तो अब दोनों पार्टियों के दोबारा साथ आने की संभावनाओं पर फिर धूल जम गई है। हालाँकि 2024 के लोकसभा चुनाव की बिसात बिछना अभी बाकी है। भाजपा के विरोध में विपक्ष का एक गठबंधन बनेगा या नहीं और उसका नेतृत्व कौन करेगा ये उ.प्र विधानसभा चुनाव के परिणाम तय करेंगे क्योंकि जिस तरह के संकेत हैं उनके मुताबिक कांग्रेस वहां दहाई का आंकड़ा भी शायद ही छू सके और उस सूरत में ममता बैनर्जी खुद को नरेन्द्र मोदी के विकल्प के तौर पर पेश करने आगे आयेंगी। राहुल गांधी के नेतृत्व को वे पहले ही नकार चुकी हैं। गोवा में तृणमूल का मैदान में उतरना शिवसेना के लिए संकेत है। ऐसे में भले ही उद्धव शिवसेना को राष्ट्रीय राजनीति में उतारने का इरादा जता रहे हों किन्तु लोकसभा चुनाव में शिवसेना को साथ रखने का जोखिम न कांग्रेस उठाना चाहेगी औए न ही ममता और अखिलेश यादव। ये देखते हुए श्री ठाकरे का ताजा बयान उनकी राजनीतिक समझ पर सवाल उठाने का कारण बन रहा है। बेहतर होता वे पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने तक धैर्य रखते। उन्हें ये ध्यान रखना चाहिए कि कांग्रेस और शरद पवार के लिए उनकी अहमियत केवल सत्ता सुख लूटने के लिए है। लोकसभा चुनाव में सीटों का बंटवारा करते समय वे दोनों शिवसेना को कितना हिस्सा देंगी ये सोचा जा सकता है। राजनीति के जानकार भी बिना संकोच ये मानते हैं कि उद्धव में बाल ठाकरे जैसी चतुराई और बड़प्पन नहीं है। इसीलिए वे ऐसी पार्टियों के साथ गठबंधन कर बैठे जिनके साथ उनका लम्बे समय तक चल पाना असम्भव होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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