Wednesday 12 January 2022

मायावती की चुप्पी के पीछे है सोची-समझी रणनीति : राजनीतिक भविष्य दांव पर



उ.प्र के विधानसभा चुनाव इस समय सबसे ज्यादा चर्चित हैं क्योंकि 80 लोकसभा सीटें देने वाले इस राज्य के बारे में ये  मशहूर है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता लखनऊ होते हुए जाता है। देश में अब तक जितने भी प्रधानमंत्री हुए उनमें से 9 इसी राज्य के रहे। भले ही स्व.अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी को पूरी तरह उ.प्र का न माना जाए लेकिन वे प्रधानमन्त्री तभी बन सके जब उन्होंने उ.प्र से लोकसभा चुनाव जीता। अटल जी तो कहते भी थे कि वे एमपी (सांसद) तो अनेक स्थानों से बने लेकिन पीएम (प्रधानमंत्री) उनको लखनऊ ने ही बनाया। 2014 में श्री मोदी का नाम जब भाजपा ने प्रधानमन्त्री पद हेतु आगे बढ़ाया तब वे भी गुजरात से निकलकर वाराणसी आये। इसके बाद की कहानी सभी को पता है। इसीलिए पूरे देश की निगाहें यदि इस राज्य के विधानसभा चुनाव पर टिकी हुई हैं तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जिन चार अन्य राज्यों में भी इसी के साथ चुनाव होने जा रहे हैं उनके बारे में भी चर्चा होती है लेकिन जितना ध्यान उ.प्र पर राजनीति में रूचि रखने वालों का है उतना बाकी पर नहीं। समीक्षक, विश्लेषक और सर्वेक्षण करने वाले भी उ.प्र पर ही निगाहें लगाये हुए हैं। इस राज्य में बीते पांच साल से भाजपा का शासन है। 2017 में पार्टी को पहली बार अपनी दम पर जबरदस्त बहुमत मिला था। अपने सहयोगियों सहित वह 325 तक जा पहुँची। उसके बाद 2019  के लोकसभा चुनाव में भी मोदी लहर के चलते उसे भारी सफलता हासिल हुई। उसके बाद से ये माना  जाने लगा था कि इस राज्य में भाजपा चुनौती विहीन हो चली है। उल्लेखनीय है 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव और राहुल गांधी के गठबंधन ने भाजपा को हराने की कोशिश की थी लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश ने मायावती के साथ गठजोड़ किया जिसे बुआ और बबुआ की जोड़ी कहकर वजनदार माना जा रहा था लेकिन नतीजा फुस्स रहा...। उस परिणाम से भाजपा को ये गुमान होने लगा कि वह अजेय हो चली है परन्तु बीते एक साल के भीतर ही माहौल में बदलाव आ गया। बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कानून व्यवस्था के साथ ही विकास के काफी काम किये लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के कहर और फिर किसान आन्दोलन की वजह से उ.प्र में भाजपा विरोधी मुखर होते हुए उत्साहित हुए और आज आलम ये है कि सभी ये मानकर चलने लगे कि मुकाबला कड़ा है। राममंदिर निर्माण की बाधाएं दूर होने और काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के साथ राजमार्गों के जबरदस्त विकास के कारण भाजपा का जो दबदबा अपेक्षित था वह काफी कुछ ठंडा पड़ता दिख रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने सोशल इंजीनियरिंग का जो तानाबाना बुना उसने न सिर्फ पिछड़ी अपितु दलित जातियों में भी उसका जनाधार बढ़ा दिया था। मंडल आन्दोलन से जुड़ी जातियों का मंदिर आन्दोलन के साथ जुड़ना बड़ा सामाजिक बदलाव माना गया। उसकी वजह से भाजपा को उच्च जातियों की पार्टी मानने  वालों को अपनी धारणा बदलना पड़ी। लेकिन इस चुनाव के आने से पहले ही पिछड़ी जातियों के कुछ नेताओं के भाजपा का साथ छोड़कर अखिलेश यादव से हाथ मिलाते ही ये अवधारणा फैलने लगी कि उ.प्र में भाजपा और अखिलेश के बीच सीधा मुकाबला है। अपने पिता  मुलायम सिंह यादव की अस्वस्थता के कारण अखिलेश ही सपा के सर्वेसर्वा बन बैठे हैं।  नाराज होकर अलग हो गये चाचा शिवपाल सिंह को भी वे मनाने में कामयाब हो गये। लेकिन श्री यादव को सबसे बड़ा लाभ मिला किसान आन्दोलन का जिसकी वजह से भाजपा को अपने सबसे मजबूत गढ़ पश्चिमी उ.प्र में जाट समुदाय की जबरदस्त नाराजगी झेलनी पड़ रही है जिसका देखते हुए अखिलेश ने स्व. चौ. चरण सिंह के पौत्र और स्व. अजीत सिंह के पुत्र रालोद नेता जयंत चौधरी से गठबंधन कर लिया। इस अंचल में काफी प्रभावशाली माने जाने वाले जाटों के नेता बनकर उभरे किसान नेता राकेश टिकैत के नेतृत्व में गाजीपुर में एक साल तक चले धरने के बाद किसानों में भाजपा के विरुद्ध जो गुस्सा खुलकर सामने आया उसने पूरे राज्य में योगी-मोदी की जोड़ी की इकतरफा जीत पर संशय उत्पन्न कर दिए। हर कोई ये मान रहा है कि अखिलेश ने भाजपा से पिछड़ी जातियों का थोक समर्थन छीन  लिया है। वहीं योगी जी के  कथित ठाकुर प्रेम के कारण ब्राह्मण भी भाजपा से छिटके हैं। यादव और मुसलमान तो सपा की जेब में ही माने जाते हैं। इसलिए ये कहने वाले काफी हैं कि अखिलेश सत्ता में लौट रहे हैं। यद्यपि प्रियंका वाड्रा की अगुआई में कांग्रेस उ.प्र में अपना खोया जनाधार वापिस प्राप्त करने के लिए काफी हाथ पाँव मार रही है और हैदराबाद से आकर असदुद्दीन ओवैसी भी मुस्लिम मतदाताओं को दूसरी पार्टियों का दुमछल्ला बनने की बजाय अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम करने के लिए उकसा रहे हैं किन्तु उसके बाद भी साधारण तौर पर ये मान लिया गया है कि अखिलेश ने भाजपा के सामने जबरदस्त मोर्चेबंदी करते हुए सत्ता परिवर्तन की सम्भावना को मजबूती प्रदान कर दी है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि जिस तरह 2017 में सपा-बसपा छोड़कर नेता भाजपा में आ रहे थे उसी तरह इस बार भाजपा में भगदड़ जारी है और सपा का ग्राफ ऊपर जाते देख सारे नेता अखिलेश में संभावनाएं देख रहे हैं। गत दिवस स्वामी प्रसाद मौर्य नामक पिछड़े नेता भी मंत्री पद छोड़कर सपा की ओर झुक गए। पिछली बार वे बसपा से भाजपा में आये थे। कहा जा रहा है कि अखिलेश ने राजभर, मौर्य, सैनी आदि पिछड़ी जातियों को अपनी तरफ खींचकर भाजपा की हवा निकाल दी है। कुछ और भाजपा विधायकों के पार्टी छोड़ने की अटकलें भी तेज हैं। लेकिन समूचे परिदृश्य में कांग्रेस की उपेक्षा तो एक बार सही भी लगती है क्योंकि उसका प्रदर्शन चुनाव दर चुनाव निराशाजनक ही रहा है किन्तु तमाम राजनीतिक समीक्षक बसपा को जिस तरह उपेक्षित कर रहे हैं वह आश्चर्यचकित करता है क्योंकि 2017 के चुनाव में जब उसे 19 सीटें मिली थीं तब भी उसका 22 फीसदी मत प्रतिशत बरकरार रहा था। दरअसल मायावती बीते कुछ समय से जिस तरह सार्वजनिक तौर पर कम दिखाई दीं उससे बसपा को कमजोर माना जाने लगा। अखिलेश और भाजपा बीते अनेक महीनों से चुनावी मैदान में सक्रिय हैं लेकिन मायावती ने न कोई रैली की और न ही अन्य आयोजन। गठबंधन के बारे में भी बसपा पूरी तरह से उदासीन नजर आ रही है। लेकिन हाल ही में मायावती ने पत्रकार वार्ता में सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने का संकेत देकर बसपा की उपस्थिति दर्ज करवा दी। उसके बाद से ही अब इस बात के कयास लगाये जाने लगे हैं कि बसपा की रणनीति क्या रहेगी और वह इतनी देर से सक्रिय क्यों हुई? चुनाव विश्लेषक ये मानने लगे हैं कि राज्य में भाजपा के अलावा किसी और के पास समर्पित और स्थायी कैडर है तो वह है बसपा के पास। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों में दलित वर्ग के जो लोग हैं वे बसपा को पर्दे के पीछे से समर्थन देते हैं। भले ही आर्थिक संसाधनों की कमी के नाम पर मायावती ने बड़े आयोजन न करने का ऐलान किया लेकिन उनके कार्यकर्ताओं का काम चुपचाप शुरू हो गया है। जैसी जानकारी मिल रही है उसके अनुसार बसपा की सोच ये है कि उ.प्र में त्रिशंकु विधानसभा बनने जा रही है और उस स्थिति में वह सौदेबाजी करने में कामयाब हो जायेगी। सबसे बड़ी बात ये है कि उसने यदि अपने परम्परागत जनाधार को बनये रखा तब अखिलेश के अरमानों पर पानी फिर सकता है। उल्लेखनीय है बसपा मुसलमानों को भी बड़ी संख्या में टिकिट देती है। मायावती ने जिस ठंडे अंदाज में चुनाव में उतरने की घोषणा की वह राजनीतिक विश्लेषकों को इसलिए हैरान कर रहा है क्योंकि वे तामझाम पसंद करने वाली नेता हैं। उनके शैली में आक्रामकता का अभाव रणनीति में बदलाव है या परदे के पीछे चल रहे किसी खेल का हिस्सा ये फि़लहाल कह पाना कठिन है किन्तु मायावती किसी भी सूरत में अखिलेश को दोबारा मुख्यमंत्री बनते नहीं देखना चाहेंगी क्योंकि वैसा होने पर उ.प्र में उनका भविष्य अंधकार मय हो जाएगा। भाजपा भी इसीलिये बसपा पर हमले करने से बच रही है। अभी टिकिटों की घोषणा नहीं हुई है इसलिए सारे अनुमान बौद्धिक विश्लेषण पर आधारित हैं। ज्योंही सभी पार्टियाँ उम्मीदवारों की सूची निकालेंगी त्योंही समीकरण भी  बदलेंगे। भाजपा से मची भगदड़ के पीछे बड़े पैमाने पर विधायकों की टिकिटें काटे जाने की आशंका है। सूची जारी होने के बाद सपा को भी दिक्कतें हो सकती हैं। और उस सूरत में बसपा अपनी जगह बनाने में जुटेगी क्योंकि योगी और अखिलेश के साथ ही ये चुनाव मायावती के राजनीतिक जीवन के लिए भी महत्वपूर्ण है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


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