Tuesday 4 January 2022

सत्यपाल मलिक के जहर बुझे तीर क्यों सहन कर रही भाजपा



मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक कृषि कानूनों के विरोध में हुए आन्दोलन के समर्थन में लगातार बयानबाजी करते आ रहे हैं | केंद्र सरकार पर किसान संगठनों से बातचीत कर न्यूनतम समर्थन मूल्य सहित उनकी बाकी मांगों को मंजूर किये जाने का दबाव जिस तरह से सार्वजनिक तौर पर  उनके द्वारा बनाया जाता रहा   वह आम तौर पर एक राज्यपाल से अपेक्षित नहीं होता | श्री मलिक मूलतः प. उप्र के हैं और जाट समुदाय से ताल्लुक रखते है | चौधरी चरण सिंह के साथ राजनीति में आने के बाद से लोकदल , कांग्रेस , जनता दल और भाजपा तक की यात्रा वे कर चुके हैं | लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य भी रहे | 2017 में बिहार के राज्यपाल बनकर सक्रिय राजनीति से दूर होने के बाद भी वे राजनीतिक मसलों पर यदाकदा अपनी बात रखते रहे | अभी तक वे अनेक राज्यों के राजभवनों की शोभा बढ़ा चुके हैं लेकिन जम्मू – कश्मीर के राज्यपाल के तौर पर उनका कार्यकाल ऐतिहासिक रहा क्योंकि उसी दौरान धारा 370 विलोपित कर पूर्ण राज्य का दर्जा छीनकर उसे भी दिल्ली और पुडुचेरी की तरह उप राज्य की श्रेणी प्रदान की  गयी जो  निर्वचित विधानसभा के बाद भी  केंद्र के अधीन रहेगा और संवैधानिक प्रमुख राज्यपाल की जगह उप राज्यपाल ( लेफ्टीनेंट गवर्नर ) होंगे | चूंकि श्री मलिक राज्यपाल थे इसलिए उनको पदावनत करना अनुचित था अतः उन्हें गोवा का राज्यपाल बना दिया गया परंतु  कुछ समय बाद वहां से वे मेघालय स्थानांतरित कर दिए गये | हालांकि अभी भी उनको राज्यपाल बनाकर ही रखा गया है किन्तु ऐसा लगता है वे गोवा और मेघालय जैसे राज्य के राजभवन में बिठाए जाने से असंतुष्ट हैं | बतौर राजनेता उनको लगता रहा होगा कि जम्मू –कश्मीर में हुए ऐतिहासिक परिवर्तन के समय उत्पन्न हालातों को उन्होंने जिस तरह संभाला उसके बाद उन्हें और बड़ा दायित्व् मिलना था | वहां आने से पहले चूँकि वे बिहार जैसे बड़े और राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण राज्य के राज्यपाल रहे इस कारण उनकी अपेक्षा किसी बड़े राज्य में भेजे जाने के अलावा राजनीति की  मुख्यधारा में आकर किसी बड़े पद पर आने की रही होगी | गोवा और मेघालय भले ही पूर्ण राज्य हों लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में उनका विशेष महत्व नहीं होने से श्री मलिक खुद को अलग – थलग महसूस कर  रहे होंगे और यही पीड़ा संभवतः किसान आन्दोलन के बहाने अभिव्यक्त होती रही | उन्होंने खुले तौर पर किसान आन्दोलन के नेताओं के साथ बातचीत में मध्यस्थता की पेशकश भी की | इसके पीछे उनके जाट होने और प. उ.प्र से जन्मजात सम्बन्धों के चलते राकेश टिकैत से नजदीकी थी | लेकिन ऐसा लगता है उनकी पहल को भाजपा और केंद्र सरकार ने भाव नहीं दिया | इसके अलावा एक वजह और भी है जिसने उन्हें राजभवन में रहते हुए भी प्रधानमंत्री से सीधे पंगा लेने को उकसाया और वह है  इसी  वर्ष जुलाई में बतौर राज्यपाल उनका पांच वर्षीय कार्यकाल पूरा होना  | भाजपा ने चूंकि 75 वर्ष की आयु सीमा पद पर बने रहने की बना रखी है अतः  श्री मलिक भी जुलाई में घर बिठा दिए जायेंगे | उल्लेखनीय है इसी  आधार पर कल्याण सिंह , कलराज मिश्र और नजमा हेपतुल्ला को राज्यपाल पद से निवृत्ति के बाद भी कोई पद नहीं दिया गया | श्री मलिक को लगता है  उनके भीतर अभी राजनीति में सक्रिय रहने की  क्षमता है | लेकिन राजभवन से विदाई के बाद नई पारी शुरू करना शायद आसान नहीं रहेगा इसलिए वे कुछ न कुछ ऐसा कर रहे हैं जिससे केंद्र सरकार उनको हटाने का मन बनाये और वे किसान आन्दोलन के लिए राज्यपाल पद की बलि देने का  ढिंढोरा पीटते हुए उ.प्र विधान सभा चुनाव में किस्मत आजमाएं या फिर सपा अथवा लोकदल की मदद से राज्यसभा का जुगाड़ कर लें | गौरतलब है प. उ.प्र में राजनीतिक दृष्टि से बेहद ताकतवर माने  जाने वाले जाट समुदाय में फिलहाल श्री  मलिक सबसे अनुभवी नेता हैं | मैदानी राजनीति के लम्बे अनुभव के साथ  ही उनकी पृष्ठभूमि किसान और समाजवादी रुझान की रही है | हालाँकि काफी समय से वे भाजपा में है और उसके राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तक रहे किन्त्तु उनको ये लगने लगा है कि इस पार्टी में उनको जो मिलना था वह हासिल होने के बाद अब और गुंजाईश  नजर नहीं आती | लेकिन घर बैठकर किताब लिखना शायद उनको पसंद नहीं आयेगा इसलिए उनकी जुबान से बिगड़े बोल निकल रहे हैं | लेकिन सवाल ये है कि उनके इस दुस्साहस पर भाजपा मौन क्यों है ? और जैसे संकेत हैं उसके अनुसार केंद्र सरकार और पार्टी दोनों उ.प्र चुनाव के पहले श्री मलिक को छेड़ने से बच रही हैं | दो दिन पहले उन्होंने प्रधानमंत्री के लिए घमंडी  शब्द इस्तेमाल करने की जुर्रत  कर डाली किन्तु भाजपा ने उस पर प्रतिक्रिया देने तक से परहेज किया | किसी राज्यपाल का प्रधानमंत्री से मिलना सामान्य बात होती है | मेघालय यूँ भी पूर्वोत्तर का राज्य है जहां की  समस्याएँ भी अलग हटकर हैं | लेकिन उस दौरान हुई बातों को पद पर रहते हुए  ही सार्वजनिक कर देना और प्रधानमंत्री के लिए घमंडी  समान  शब्द का प्रयोग असाधारण बात है जो श्री मलिक जैसे अनुभवी और अच्छी छवि के नेता से अपेक्षित नहीं थी | ज़ाहिर है वे जान - बूझकर और पूरे होशो – हवास में किसानों के पक्षधर बनकर राजनीतिक बलिदान देने की चाल चल रहे हैं |  चतुर राजनेता की तरह श्री मलिक ने ये भांप लिया है कि जाट समुदाय के वोट और किसान आन्दोलन उ.प्र और उत्तराखंड चुनाव तक भाजपा की  कमजोर नस है ,  जिसे दबाकर जो मांगोगे वही मिलेगा वाली स्थति पैदा की जा सकती है | इसीलिये उन्होंने किसानों पर मुकदमे हटाने , न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी देने जैसी मांगें पूरी होने तक आन्दोलन जारी रहने जैसी विशुद्ध नेतागिरी शैली की  बात कह डाली | हालाँकि प्रधानमंत्री के बारे में की गई टिप्पणी के बाद उन्होंने बात संभालने की कोशिश भी की किन्तु पहला तीर इतना जहर बुझा था कि उसके असर को कम करना आसान नहीं था | जब राजभवन में रहते हुए श्री मलिक ने किसान आन्दोलन के पक्ष में बयानबाजी की थी तब एकबारगी ये लगा था कि केंद्र सरकार उनको मध्यस्थ बनाकर इस मुसीबत से छुटकारा पाने का दांव खेल रही थी परन्तु  अब वह कयास हवा – हवाई होकर हो जाने  के बाद उन्हें भाजपा किस हद तक बर्दाश्त कर सकेगी ये बड़ा सवाल है | और सबसे बड़ी बात ये है कि प्रधानमंत्री अपने विरोधी को राजनीतिक तौर पर  किस तरह प्रभावहीन कर देते हैं ये भी सर्वविदित है | ये देखते हुए श्री मलिक का आक्रामक रवैया क्या मोड़ लेता है ये देखना रोचक होगा | यदि उ.प्र का चुनाव सिर पर न होता तब प्रधानमंत्री अभी तक कुछ न कुछ कर गुजरते किन्तु फिलहाल तो वे चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं | श्री मलिक ने  जो जुबानी तीर छोड़े हैं उनको वापिस लेना नामुमकिन है | इस पैंतरे से उनको क्या राजनीतिक लाभ होगा ये तो समय ही बताएगा लेकिन राजभवन में रहते हुए यदि कोई प्रधानमंत्री को घमंडी कहने का खतरा मोल ले रहा है तब उसे भी इतना तो मालूम होगा ही कि उसका अंजाम  राजनीति से जबरन  सेवा निवृत्ति  भी हो सकता है | और ये भी कि अखिलेश यादव , जयंत चौधरी और राकेश टिकैत अपनी जमी - जमाई दूकान में किसी और को भागीदार क्यों बनायेंगे ?

- रवीन्द्र वाजपेयी


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