Saturday 29 January 2022

आरक्षण : दवा असरकारक नहीं या फिर डाक्टर झोला छाप हैं



पदोन्नति में आरक्षण का मामला राज्यों पर टरकाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़ – साफ़ कह दिया है कि वे आरक्षित वर्ग के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाकर समय – समय पर इसकी समीक्षा करें | इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का मानक निश्चित करने से इंकार करते हुए उसने इसे राज्यों  का काम  बताते हुए निर्देश दिया कि वे इस बारे में आंकड़े जुटाकर पेश करें | स्मरणीय है केंद्र और विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा पदोन्नति में आरक्षण को लेकर उत्पन्न विवादों को सुलझाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से स्थायी व्यवस्था बनाने की मांग की थी किन्तु उसने गेंद राज्यों और केंद्र के पाले में  भेजते हुए उनसे आरक्षित समुदाय के प्रतिनिधित्व संबंधी जानकारी जुटाकर मसला सुलझाने का निर्देश दिया | अब वह केंद्र  और राज्यों द्वारा प्रस्तुत याचिकाओं पर अलग – अलग सुनवाई करते हुए उनकी संवैधानिकता तय करेगा | इस कानूनी पेचीदगी की वजह से म.प्र सहित पूरे देश में लाखों कर्मचारी और अधिकारी पदोन्नत हुए बिना सेवा निवृत्त हो गए | जो जानकारी मिल रही है उसके अनुसार तो निकट भविष्य में सेवा निवृत्त होने वाले भी इस लाभ से वंचित रह जायेंगे | सर्वोच्च न्यायालय भी चूँकि कानूनी पक्ष ही देखता है इसलिए वह अपने  दायरे में रहते हुए ही बात करता है |  लेकिन सही मायनों में ये मसला अब राजनीतिक ज्यादा हो गया है | यही वजह है कि किसी भी राजनीतिक दल में ये साहस नहीं है कि वह आरक्षण के बारे में गुणात्मक पहलुओं पर बात करे | दलितों और पिछड़ों का उत्थान निश्चित रूप से राष्ट्र हित में है | समाज के बहुसंख्यक वर्ग का  सामाजिक , आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर विकास की दौड़ में पीछे  रहना सबका साथ , सबका विकास के नारे को अर्थहीन सबित कर  देता है | आजादी की स्वर्ण जयन्ती मना रहे देश में आज तक इस तरह के मसलों का अनसुलझा रहना वाकई दुखद है क्योंकि इनकी वजह से सामाजिक विद्वेष बढ़ रहा है | उ.प्र विधानसभा चुनाव में जातिगत विभाजन जिस तरह से खुलकर सामने आया  है उससे ये बात साफ़ हो गई है कि आरक्षण चंद राजनीतिक नेताओं की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बनकर रह गया है | सरकारों में बैठे आरक्षित वर्ग के नेताओं ने अपने और  अपने परिवारों के उत्थान के लिये जितना कुछ किया उसकी जगह यदि वे ईमानदारी से ऐसे मुद्दों का स्थायी हल निकालने की चिंता करते तो ये  समस्या पैदा ही नहीं होती | सर्वोच्च न्यायालय समय – समय पर ऐसे विषयों पर अपनी टिप्पणियों से राजनेताओं को संकेत देता है किन्तु उनकी  मंशा मुद्दों को  उलझाने में ज्यादा रहती है | जब आरक्षण दिया गया था तभी  पदोन्नति में उसे लागू करने संबंधी विचार आ जाता तब इस तरह की समस्या सामने नहीं आती |  लेकिन  तदर्थ सोच रखने के कारण राजनीतिक नेता केवल वोटों के ठेकेदार बनकर रह गये हैं | जिन राज्यों में चुनाव होने वाले होते हैं वहां आरक्षण का मुद्दा गरमाता है  | नए – नये जाति समूह सक्रिय हो जाते हैं | दलितों में अति दलित और पिछड़ों में अति पिछड़े जैसे वर्ग उभरने लगते हैं | इसमें दो राय नहीं हैं कि यदि चुनावी राजनीति न हो तो आरक्षण का किसी को ख्याल तक न रहे | ये बात पूरी तरह से प्रमाणित है कि अपना राजनीतिक अस्तित्व  बनाये रखने के लिए तमाम ऐसे नेता राजनीतिक मंचों पर दिखते हैं जिन्होंने अपनी जाति को रक्षा कवच बना रखा है | यही वजह है कि सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से बेहतर स्थिति में माने जाने वाले जाट और गुर्जर भी आरक्षण  हेतु बवाल  करने में संकोच नहीं करते | किसी व्यक्ति या समुदाय को सदैव हाथ  फ़ैलाने के लिए बाध्य करते रहने से उसके भीतर की उद्यमशीलता नष्ट हो जाती है | सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय के परिप्रेक्ष्य  में विचारणीय मुद्दा ये है कि वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से अनु. जाति / जनजाति के अलावा अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण के बावजूद आर्थिक और सामाजिक तौर पर बराबरी हासिल नहीं हो सकी | कड़वा सच ये है कि इन समुदायों के नेता ही इनकी बदहाली के लिए जिम्मेदार हैं | स्व.  रामविलास पासवान की पार्टी के आधे से ज्यादा सांसद उनके अपने परिवार के हैं | इसीलिये उनकी मौत के बाद विरासत के लिए उनके भाई और बेटे में महाभारत छिड़ी | यही हाल लालू प्रसाद यादव का है जिनके बेटे – बेटी पिता की राजनीतिक कमाई में बंटवारे के लिए लड़ते देखे जा सकते हैं | उ.प्र में मुलायम सिंह यादव के कुनबे में होने वाला यादवी संघर्ष जगजाहिर है | स्वामी प्रसाद मौर्य बात पिछड़े और दलितों की करते हैं लेकिन अपनी बेटी को सांसद बनवाने के बाद बेटे को विधायक बनवाने के लिए उठापटक में जुटे हैं | केन्द्रीय मंत्री और अपना दल की नेत्री अनुप्रिया पटेल और उनकी माँ की बीच का विवाद भी सब  जानते हैं । पूरे देश पर नजर डालें तो जितने भी आरक्षित समुदाय के नेता हैं उनकी पूरी राजनीति  परिवार के भीतर ही सीमित है | कांशीराम ने जरूर मायावती को अपनी विरासत सौंपी किन्तु वे भी अपने भतीजे को ही आगे लाने में जुटी हैं | इस आधार पर ये कहना कदापि गलत न होगा कि आरक्षण के अंतर्गत नौकरियां और पदोन्नति जैसे मुद्दे असली उद्देश्य से भटककर वोट बैंक के दलदल में धंसते जा रहे हैं | ये कहना भले अटपटा लगे लेकिन न्यायपालिका ऐसे विषयों पर फैसला करते समय भी मानसिक तौर पर दबाव में नजर आती है | इसीलिए वह अपनी तरफ से फैसला करने की बजाय उनका हल चुनी हुई उन सरकारों पर छोड़ देती है जो खुद इनको उलझाने की दोषी हैं | दरअसल आरक्षण ऐसा मुद्दा बन गया है जिस पर खुलकर बोलने से हर कोई बचता है क्योंकि जरा सी बात का बतंगड़ बन जाता है | रास्वसंघ प्रमुख डा. मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की जरूरत बताई तो संघ और भाजपा को आरक्षण विरोधी बताने की मुहिम चल पड़ी | इसी तरह म.प्र के  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा  कोई माई का लाल आरक्षण नहीं  हटा सकता जैसा बयान  देक्र्र अपने लिए मुसीबत पैदा कर ली और 2018 के चुनाव में भाजपा को इसी कारण म.प्र की सत्ता गवानी पड़ी | पंजाब में 32 फीसदी दलित आबादी होने के बाद आज तक उसे नेतृत्व देने के बारे में नहीं सोचा गया किन्तु जब कांग्रेस को लगा कि कैप्टन अमरिंदर सिंह की बगावत नुकसान पहुंचा सकती है तब चरणजीत चन्नी को दलित चेहरा बनाकर सामने कर दिया गया | कांग्रेस से ये पूछा जाना चाहिए कि इतनी बड़ी आबादी के बावजूद आज तक उसने पंजाब में दलित समुदाय से मुख्यमंत्री क्यों  नहीं बनाया ?  आजादी के बाद नेहरु जी से लेकर इंदिरा जी तक की  सरकार में बाबू जगजीवन राम मंत्री रहे जिनकी  कार्यकुशलता का लोहा सभी ने माना  किन्तु उनका नाम प्रधानमन्त्री के लिए भूलकर भी चर्चा में नहीं लाया गया | भाजपा पर उ.प्र में ये आरोप लग रहा है कि  2017 का  चुनाव  पिछड़े वर्ग के नेता केशवदेव मौर्य के नेतृत्व में लड़कर जीतने के बाद भी उसने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बना दिया | इन सब उदाहरणों से ये स्पष्ट है कि आरक्षण प्राप्त वर्ग के जो नेता हैं वे ही उसकी प्रगति में बाधक हैं | दरअसल ये चाहते ही नहीं हैं कि दलित और पिछड़ों की दशा सुधरे | इसीलिये इनके द्वारा इस तरह के विवादस्पद सवाल उठाये जाते हैं जिससे इनकी रोटियां सिकती रहें | पदोन्नति में आरक्षण की गुत्थी सुलझना ही चाहिए लेकिन इस सवाल का उत्तर तलाशना भी तो समय की मांग है कि सरकारी नौकरियां जिस तरह से कम होती जा रही हैं और निजीकरण के साथ ही सेवाओं की आउट सोर्सिंग की जाने लगी है तब भविष्य में रोजगार और पदोन्नति के मुद्दों का क्या होगा ? सात दशक तक मिले आरक्षण के बावजूद हालातों में यदि सुधार नहीं हुआ तब देखने वाली बात है कि दवा असरकारक नहीं है या फिर बीमारी का इलाज करने वाले डाक्टर झोला छाप हैं | 


- रवीन्द्र वाजपेयी


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