Monday 17 January 2022

ये तेवर कभी-कभार ही क्यों : मुख्यमंत्री इस शैली को स्थायित्व प्रदान करें



म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आम तौर पर शांत प्रकृति के व्यक्ति हैं किन्तु यदा-कदा उन्हें गुस्सा आता है और उस दौरान वे दो-चार सरकारी अफसरों अथवा कर्मियीं को निलम्बित या स्थानांतरित कर देते हैं। बीते कुछ दिनों में ऐसे अनेक वाकये हुए जब मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक जलसों में सरकारी अमले पर गाज गिराई। इसके पहले भी अनेक मर्तबा उन्होंने इसी तरह के तेवर दिखाए जिसे आम जनता में सिंघम अवतार कहा गया। उ.प्र में मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती भी ऐसे ही जनता के बीच खड़ी होकर प्रशासनिक अमले पर गुस्सा उतारती थीं। जिस तरह फिल्मों में नायक द्वारा खलनायक की पिटाई किये जाने पर दर्शक प्रसन्न होते हैं उसी तरह सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता द्वारा नौकरशाही पर इस तरह हंटर चलाये जाने से वहां मौजूद जनता खुश होती है। इसके साथ ही नेताजी का रुतबा भी कायम होता है। हालांकि बाद में दण्डित अधिकारी अथवा कर्मी कब बहाल हो जाता है ये किसी को पता ही नहीं चलता। शिवराज जी लम्बे समय से प्रदेश की सत्ता पर विराजमान हैं। इसीलिये नौकरशाही उनके स्वभाव और कार्यप्रणाली से अच्छी तरह वाकिफ है। सबसे बड़ी बात ये है कि वे सचिवालय में बैठकर राज करने वाले न होकर राज्य में निरंतर भ्रमण करने वाले मुख्यमंत्री के रूप में पहिचान बना चुके हैं। इस वजह से उनका चेहरा आम जनता में जाना-पहिचाना है। सत्ता में आने से पहिले उन्होंने पार्टी संगठन का भी काम किया जिसके कारण उनका दलीय कार्यकर्ताओं और नेताओं से आत्मीय सम्बन्ध है। यही वजह है कि सत्ता की दौड़ में प्रतिद्वंदी भी उनके विरुद्ध बोलने से बचते हैं। यहाँ तक कि विपक्ष के नेता भी सौजन्यता के निर्वहन में श्री चौहान की प्रशंसा करते हैं। लेकिन इसके साथ ही ये बात भी कही जाती है कि म.प्र में शासकीय अमला समूची व्यवस्था पर हावी है जिसकी वजह से भ्रष्टाचार चरम पर है। इसका प्रमाण समय-समय पर लोकायुक्त और आर्थिक अपराध विंग द्वारा मारे जाने वाले छापों में शासकीय अमले के पास से मिलने वाली अनाप-शनाप राशि के साथ ही चल-अचल सम्पत्ति का मिलना है। ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार की शुरुआत शिवराज सरकार के कार्यकाल में ही हुई हो लेकिन ये कहना जरा भी गलत नहीं होगा कि तमाम दावों के बाद भी सरकारी दफ्तरों में होने वाला लेन-देन और घूसखोरी रुकने की बजाय बढ़ गई। अनेक सेवाओं को ऑनलाइन करने के बाद भी प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़े लोग अपनी कमाई का रास्ता तलाश ही लेते हैं। इसमें दो मत नहीं हैं कि शिवराज सरकार ने म.प्र को बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर निकाला है। सड़क और बिजली के क्षेत्र में उसकी उपलब्धियाँ काबिले गौर हैं। कृषि उत्पादन में आगे बढऩे के साथ ही पर्यटन में भी अच्छी-खासी वृद्धि हुई है और अधो संरचना के काम भी खूब हो  रहे हैं। लेकिन इतना सब होते हुए भी प्रदेश में नौकरशाही की चाल और चरित्र में लेश मात्र भी सुधार देखने में नहीं मिलता। ऐसे में श्री चौहान द्वारा थोड़े-थोड़े अंतराल के उपरान्त दिखाया जाने वाला गुस्सा दूरगामी असर नहीं छोड़ पाता। इसके लिए उन्हें केवल सीएम हेल्पलाइन के अंतर्गत आने वाली शिकायतों के निराकरण की स्थिति का जायजा लेना होगा जिससे वे अच्छी तरह जान सकेंगे कि प्रदेश की पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी में मुख्यमंत्री का कितना खौफ है? भाजपा खुद को पार्टी विथ डिफऱेंस कहती है किन्तु म.प्र में सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भर्राशाही को रोकने में उसकी सरकार क्यों विफल है ये बात पार्टी के नेतृत्व को समझना होगी क्योंकि विकास सम्बन्धी बाकी बातें सरकारी अमले के भ्रष्टाचार के आगे बेमानी होकर रह जाती हैं। उस दृष्टि से मुख्यमंत्री यदि कड़ा रुख दिखा रहे हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए परन्तु उसका औचित्य तभी तक है जब वह स्थायी रूप ले सके। ये बात किसी से छिपी नहीं है कि सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भले ही प्रत्यक्ष तौर पर राजनीति न करते हों किन्तु उनमें से ज्यादातर की राजनेताओं के साथ अघोषित भागीदारी है। इसीलिए ये कहना कदापि गलत न होगा कि भ्रष्टाचार को सत्ता में बैठे कतिपय लोगों का संरक्षण मिलता है अन्यथा भ्रष्ट अधिकारी और कर्मचारी इतने निडर होकर जनता की मजबूरी का फायदा उठाने की हिम्मत न कर पाते। इस बारे में ध्यान रखने वाली बात ये है कि सत्ता के शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार का खात्मा कठिन हो गया है क्योंकि हमारे देश में हर समय चलने वाले चुनाव की वजह से सत्ता  में बैठे नेताओं को चंदे का जो जुगाड़ करना पड़ता है उसने भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप देते हुए स्थायित्व प्रदान कर दिया। चुनावी खर्च जिस तेजी से बढ़ता जा रहा है उसके कारण सरकार में बैठे लोगों पर भी दबाव बना रहता है। उद्योग और व्यापार जगत के अलावा नौकरशाही के चुनावी चंदे का बड़ा स्रोत बन जाने से भ्रष्टाचार रोकना किसी सरकार के बस में नहीं रहा। लेकिन आम जनता को उससे मुक्ति दिलवानी है तो सरकार को अपने घर से ही शुरूआत करनी होगी। इसके लिए सबसे बड़ी बात है इच्छा शक्ति। देश में अनेक ऐसे सत्ताधारी नेता हुए हैं जिन्होंने काजल की कोठरी में से बेदाग़ निकलने का कारनामा कर दिखाया। उनकी तारीफ़ तो समर्थक और विरोधी दोनों करते हैं लेकिन दुर्भाग्य से वे उनका आदर्श नहीं बन सके। आज देश में विश्वास का जो संकट है उसका सबसे बड़ा कारण सत्ताधारी नेताओं का भ्रष्टाचारी हो जाना है। जो व्यक्तिगत घूस नहीं लेता उसे भी पार्टी फंड के नाम पर उगाही करना होती है। प्रदेश में बैठे सत्ताधारियों से उनकी पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व उम्मीद करता है कि वे पार्टी के लिए पैसे का इंतजाम करें। ये चलन आजादी के बाद से ही चला आ रहा है। ऐसे में शिवराज सिंह द्वारा समय-समय पर सिंघम शैली का प्रदर्शन दो चार दिन की सुर्खियों से ज्यादा और कुछ नहीं रहेगा। यदि मुख्यमंत्री वाकई चाहते हैं कि उनके राज में नौकरशाही की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगे तो उन्हें संदर्भित सख्ती को स्थायी कार्यशैली बनाना होगा। वरना एक कदम आगे, दो कदम पीछे की स्थिति बनी रहेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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