Tuesday 18 January 2022

उ.प्र में 14 साल दलित और पिछड़ों के शासन के बाद भी उनकी हालत क्यों नहीं सुधरी



उ.प्र विधानसभा के चुनाव को अगड़े – पिछड़े के बीच मुकाबला कहा जा रहा है | विश्लेषकों के अनुसार सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पिछड़ी जातियों के नेताओं को अपने साथ मिलाकर जो गठबंधन बनाया है उसने भाजपा के लिए चिंता के कारण उत्पन्न कर दिए हैं | स्वामीप्रसाद मौर्य ने  योगी मंत्रीमंडल से त्यागपत्र देकर सपा में प्रवेश करते हुए योगी आदित्यनाथ पर पिछड़ों और दलितों की उपेक्षा करने का आरोप लगाकर  भाजपा छोड़ने के औचित्य को साबित करने की कोशिश की | अपने भाषण में उन्होंने ऐसा जताया मानों उ.प्र में पिछड़ी और दलित जातियों पर  बहुत अत्याचार होता है | हालाँकि  बसपा की सर्वेसर्वा मायावती ने स्वामीप्रसाद को फर्जी आम्बेडकरवादी बताते हुए सवाल उठाया कि वे यही बता दें कि मंत्री रहते हुए उन्होंने  दलित और पिछड़े वर्ग की तो छोड़ दें अपने मौर्य समुदाय के लिए भी क्या किया ? हालाँकि श्री मौर्य से मायावती की खुन्नस काफी हद तक सही है क्योंकि 2007 से 12 तक वे उनके मंत्रीमंडल में मंत्री रहे और उसके बाद 2012 से 17 तक बसपा की और से नेता प्रतिपक्ष | लेकिन गत विधानसभा चुनाव के समय वे भाजपाई हो गए और योगी सरकार में मंत्री रहने के बाद हाल ही में सपाई बन बैठे  | जाहिर है स्वामीप्रसाद का दलित और पिछड़ा प्रेम राजनीतिक अवसरवाद ही है वरना बीते पांच साल में उनके श्रीमुख से एक बार भी योगी सरकार और भाजपा के विरोध में कुछ नहीं निकला | उनके अलावा ओमप्रकाश राजभर नामक पिछड़ी जाति के नेता पहले ही योगी सरकार से किनारा कर चुके थे | उनका भी रोना यही है कि दलितों और पिछड़ों की घोर उपेक्षा हुई | लेकिन इसी के साथ ये भी प्रचारित किया जा रहा है कि मुख्यमंत्री ने अपने सजातीय ठाकुरों को आगे बढ़ाया और भाजपा के परम्परागत समर्थक ब्राह्मणों की उपेक्षा की | अपराधी सरगना विकास दुबे के एनकाऊंटर के बाद तो ये हवा और जमकर फैलाई गयी | उधर मुसलमान भी भाजपा से बेहद खफा हैं और जैसा कहा जा रहा है उनके मत थोक के भाव अखिलेश के मोर्चे को जायेंगे | उल्लेखनीय है अयोध्या में एकत्र हुए राम भक्तों पर गोली चलाने के कारण मुलायम सिंह यादव मुस्लिम समुदाय के चहेते बन गये थे जिससे  यादव – मुस्लिम समीकरण सपा का तगड़ा वोट बैंक बना | लेकिन इस सबसे हटकर एक प्रश्न ये है कि 2003 से 2007 तक मुलायम सिंह , उसके बाद पांच साल तक मायावती और फिर पांच वर्ष अखिलेश ने बतौर मुख्यमंत्री उ.प्र की कमान संभाली | मुलायम और माया उसके पहले भी थोड़े – थोड़े समय तक मुख्यमंत्री रह चुके थे | लेकिन 2003 से 2017 तक के 14 साल तो इस प्रदेश में पिछड़ी और दलित जाति के नेताओं की सरकार चली | कांग्रेस उस दौरान ढलान पर थी और भाजपा अपने पाँव जमाने की कोशिश में जुटी थी |  ऐसे में मुलायम सिंह , मायावती और अखिलेश के पास   पिछड़ी और दलित जातियों के लिए मनचाहा करने का अवसर था  | लेकिन उन पर अपनी निजी जाति पर ज्यादा मेहरबान रहने के आरोप  लगते रहे | हालाँकि ये कहना गलत न होगा कि वे 14 वर्ष उ.प्र में दलित और पिछड़ी जातियों के राजनीतिक प्रभुत्व के रहे | शासन और प्रशासन में भी उन्हीं  जातियों के लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किया गया | मुलायम सिंह और मायावती के बाद अखिलेश ने भी सरकार में रहते हुए जातिगत झुकाव  को कभी छिपाया नहीं | बावजूद इसके 2012 में मुलायम सिंह को उ.प्र की जनता ने सत्ता से हटाकर मायावती को पूर्ण बहुमत प्रदान कर दलित राजनीति को भरपूर अवसर दिया | कहते हैं मुलायम और उनकी बिरादरी के आतंक से रुष्ट सवर्ण जातियों ने भी बसपा को जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया | तिलक , तराजू और तालवार को जूते मारने वाला नारा हाथी नहीं गणेश है , ब्रह्मा , विष्णु , महेश है , में बदल गया | मायावती ने ब्राह्मण चेहरे सतीश चन्द्र मिश्र को बसपा महासचिव बनाकर पार्टी की ब्राहमण विरोधी छवि बदलने का दांव भी चला | लेकिन जल्द ही अगड़ी जातियों का मायावती से  मोहभंग होने लगा | चूंकि 2012 का चुनाव आते तक भाजपा और कांग्रेस इस प्रदेश में अपना आभामंडल नहीं फैला सके   इसीलिये जनता ने एक बार फिर सपा को सत्ता सौंप दी किन्तु मुलायम सिंह ने अपने दाहिने हाथ माने जाने वाले अनुज शिवपाल और अल्पसंख्यक चेहरे आजम खान को ठेंगा दिखाते हुए बेटे अखिलेश की ताजपोशी करवा दी | इसकी वजह से उनके परिवार में टूटन हुई और सपा का विभाजन हो गया | यही वजह रही कि 2017 में अखिलेश ने राहुल गांधी के साथ जोड़ी बनाई किन्तु मतदाता उनसे ऊब चुके थे और उन्होंने वह कर दिखाया जो 1992 में बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद के  चुनाव में भी नहीं हुआ | भाजपा को ऐतिहासिक बहुमत तो मिला लेकिन सबसे बड़ी बात ये रही कि उसे दलितों और पिछड़ों का भी जबरदस्त समर्थन हासिल हुआ | यद्यपि इसकी  शुरुआत 2014 के लोकसभा चुनाव में ही हो चुकी थी जब नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर ने सपा , बसपा और कांग्रेस का सफाया कर दिया | बावजूद उसके सपा और बसपा को उम्मीद थी कि विधानसभा चुनाव में उनका जातिगत जनाधार बरकरार रहेगा लेकिन 2017 में वह मिथक भी टूट गया | इसका साफ़ मतलब निकलता है कि 2003 से 2017 तक की लम्बी समयावधि में पिछड़ी और दलित जातियों के सबसे बड़े नेताओं की सरकार भी इन जातियों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी | स्वामीप्रसाद मौर्य ने मायावती की सरकार में मंत्रीपद संभाला और फिर नेता प्रतिपक्ष भी रहे | उन्हें ये स्पष्ट करना चाहिए कि बसपा सरकार 2012 में जनता द्वारा क्यों ठुकराई गई और अखिलेश यादव ने यदि पिछड़ी जातियों के हित में अच्छा काम किया था तो वे गत चुनाव में भाजपा की गोद में आकर क्यों बैठे ? आज अखिलेश और मायावती तथा उनके साथ जुड़े अन्य नेतागण दलितों और पिछड़ों की बदहाली का रोना रो रहे हैं लेकिन इनके लगातार 14 साल सत्ता  रहने के बाद भी यदि ये वर्ग दुर्दशा का शिकार है तब उसके असली दोषी तो ये नेता ही कहे जायेंगे | तमाम चुनाव विश्लेषक बेझिझक कहते हैं कि मायावती के पक्ष में उनका सजातीय जाटव मतदाता गोलबंद है वहीं यादवों की एकमात्र पसंद अखिलेश यादव हैं | ऐसे में प्रश्न ये है कि अनेक बार सत्ता में रहने के बाद  भी समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी क्रमशः सभी पिछड़ी और दलित जातियों का विश्वास नहीं जीत सकीं | यदि ऐसा हो जाता तब उन्हें चुनाव के समय स्वामीप्रसाद , ओमप्रकाश और  दारासिंह जैसों की जरूरत नहीं पड़ती | उ.प्र के मौजूदा चुनाव में जिस तरह से समाज को अगड़े , पिछड़े और दलित में बाँट दिया गया है वह भविष्य में बहुत बड़े खतरे का कारण बनेगा | ज्यादा समय नहीं बीता जब बिहार में जाति  आधारित निजी सेनाएं हुआ करती थी | टिकिट वितरण में भी जातिगत समीकरण हावी होने से क्षेत्रीय विकास और सामाजिक समरसता जैसे मुद्दे लुप्त हो रहे हैं | मुलायम और अखिलेश के साथ ही मायावती से भी ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि सत्ता में रहते हुए यदि उन्होंने पिछड़ी और दलित जातियों के कल्याण और उत्थान के लिए  बहुत अच्छा काम किया तब जनता ने  उनकी सरकार को क्यों हटाया और यदि उनके पास बताने के लिए कुछ नहीं  है तब उन्हें दोबारा सत्ता क्यों दी जाए ? सवाल भाजपा और कांग्रेस से भी पूछे जाने चाहिए जो इन पार्टियों के दबाव में मुख्य धारा से भटककर अगड़े – पिछड़े और दलितों जैसे मकड़जाल में उलझकर रह गये हैं | जनता द्वारा एक बार ठुकरा दिए गये नेता को मतदाताओं के सामने उन कारणों को स्पष्ट करना चाहिए जिनके आधार पर उनको दूसरी या तीसरी बार सत्ता सौंपी जाए | और जो नेता और पार्टी पहले अनेक बार सत्ता में रहने पर भी कुछ न कर सकी वह किस मुंह से नया जनादेश मांगती है इस पर भी बहस होनी चाहिए | चूँकि भारतीय प्रजातन्त्र पार्टी से आगे निकलकर परिवार के शिकंजे में आता जा रहा है इसलिए ये मुद्दा ज्यादा विचारणीय हो गया है | कई  बार सत्ता में रहने के बाद मतदाताओं द्वारा नकारे जाने वाले नेता की जगह नया चेहरा पेश न करना ये दर्शाता है कि राजनीतिक दल भी व्यक्ति अथवा परिवार विशेष की निजी जागीर बनकर रह गये हैं |

-रवीन्द्र वाजपेयी

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