Thursday 30 September 2021

कांग्रेस के हाथ से उड़ता पंजाब



 पंजाब ही नहीं बाकी और भी राज्यों में जो हो रहा है उससे कांग्रेस की अंतर्कलह  सामने आने के साथ ही शीर्ष नेतृत्व के घटते असर का भी अंदाज लग रहा है | पंजाब में नवजोत सिद्धू को जिस तरह खुला हाथ देकर राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा ने कैप्टेन अमरिंदर सिंह को हटवाया उसका दुष्परिणाम इतनी जल्दी सामने आने लगेगा ये किसी ने नहीं सोचा था | अमरिंदर द्वारा बगावत की आशंका तो स्वाभाविक ही थी लेकिन सिद्धू और उनके समर्थित मुख्यमंत्री चरनजीत सिंह चन्नी के बीच इतनी जल्दी तलवारें खिंच जायेंगी ये देखकर आश्चर्य हो रहा है | दो दिन पूर्व ज्योंहीं सिद्धू द्वारा प्रदेश अध्यक्ष पद छोड़ने की खबर आई त्योंही ये साफ़ हो गया कि पंजाब में मुख्यमंत्री बदलने का दांव उल्टा पड़ गया | इंदिरा गांधी के दौर में जब इस तरह कांग्रेस शासित  राज्यों में सत्ता परिवर्तन किया जाता था तब आलाकमान उसी तरह ताकतवर हुआ करता था जैसे आज भाजपा में है | लेकिन जब राहुल गांधी के नेतृत्व पर पार्टी के भीतर ही सवाल उठ रहे थे और पंजाब के ही वरिष्ठ नेता सिद्धू को जबरन लादे जाने के विरुद्ध खुलकर बोल चुके थे  तब उन्हें सर्वाधिकार संपन्न बनाने का निर्णय राजनीतिक अपरिपक्वता ही थी  | बतौर सांसद और विधायक भले ही उनका राजनीतिक जीवन दो दशक पुराना हो और वाकपटुता के कारण वे हर जगह छा जाते हों लेकिन संगठन चलाने का उनका अनुभव शून्य था | भाजपा से निकलने के बाद कांग्रेस ने उन्हें अपनी गोद  में बिठाकर एक तरह से उनका राजनीतिक पुनर्वास ही किया था |  उसके पहले वे अरविन्द केजरीवाल से सौदेबाजी करते रहे किन्तु मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बनाये जाने के कारण आम आदमी पार्टी में नहीं गये | कांग्रेस ने उनकी मंशा पहिचानने में  भूल की या उनकी क्षमता का जरूरत से ज्यादा आकलन कर लिया ये विश्लेषण का विषय हो सकता है लेकिन सिद्धू को गांधी परिवार ने जिस तरह आगे बढ़ाया वह राजनीतिक चातुर्य की दृष्टि से बहुत ही कमजोर  कदम था | कैप्टेन  अमरिंदर सिंह बहुत अच्छी सरकार चला रहे हों ऐसा नहीं था  किन्तु  वे राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी जरूर हैं |  उस आधार पर राहुल और प्रियंका को चाहिए था  कि विधानसभा चुनाव हो जाने के बाद मुख्यमंत्री पद का फैसला करवाते लेकिन  सिद्धू की महत्वाकांक्षा के सामने वे लाचार नजर आये |  उनको ये तक समझ नहीं आया कि अमरिंदर विरोधी खेमा भी सिद्धू को बतौर विकल्प स्वीकार नहीं करेगा | विधायक दल की बैठक में सिद्धू को खास समर्थन नहीं मिलने के बाद भी उनके दबाव में  दलित मुख्यमंत्री  के नाम पर चन्नी की ताजपोशी को भले ही राजनीतिक तौर पर तुरुप का पत्ता प्रचारित किया गया किन्तु चुनाव के ठीक पहले एक कमजोर मुख्यमंत्री को लादने का जो नुकसान आशंकित था वह चार दिनों में ही सामने आ गया | सिद्धू ने कठपुतली की तरह चन्नी को नचाना चाहा किन्तु राजनीति में जैसा होता आया है  उन्होंने सिद्धू को उनकी सीमाएं बता दीं | बाकी  कांग्रेस नेता भी नवजोत  को उनकी औकात बताने के लिए आपसी मतभेद भुलाकर एक साथ आ गये वरना चन्नी इतनी जल्दी सिद्धू से कन्नी नहीं काट पाते | सिद्धू द्वारा  दिए गए इस्तीफे के बाद वे पूरी तरह अकेले पड़ गये बताये जाते हैं | राहुल और प्रियंका भी उनकी  इस अप्रत्याशित हरकत से अपराधबोध से ग्रसित होकर चुप बैठ गये हैं | उनको मनाने का काम चन्नी पर छोड़ने का निर्णय दरअसल अपनी गलती पर पानी डालने जैसा है | पार्टी में उत्पन्न संकट के बीच राहुल का केरल के दौरे पर चला जाना उनके लापरवाह स्वभाव का ताजा उदाहरण  है | सिद्धू द्वारा आम आदमी पार्टी से सम्पर्क किये जाने की खबर भी आ रही है , वहीं कैप्टेन ने केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात कर राजनीतिक सरगर्मी बढ़ा दी | इन दोनों का अगला राजनीतिक कदम क्या होगा ये एक दो दिन में स्पष्ट हो जाएगा लेकिन कांग्रेस अमरिंदर की नाराजगी से होने वाले नुकसान का आकलन कर पाती उसके पूर्व ही सिद्धू रूपी नई मुसीबत गले पड़ गयी | हाल ही  में आये कुछ चुनाव सर्वेक्षण ये बता रहे थे कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस को जबरदस्त टक्कर तो देगी लेकिन उसके बाद भी वह अपनी  सरकार  बचा ले जायेगी | दलित मुख्यमंत्री के रूप में किया गया प्रयोग भी काम कर सकता था किन्तु बीते दो दिन में बाजी पूरी तरह पलटती दिखने लगी है | पहली नजर में तो ये लगता है कि कांग्रेस की अंतर्कलह का सीधा लाभ आम आदमी पार्टी के खाते में जाएगा लेकिन अमरिंदर यदि भाजपा के साथ आते हैं तब मामला त्रिशंकु का बन जाए तो आश्चर्य नहीं होना  चाहिए | लेकिन समूचे घटनाक्रम में कांग्रेस हाईकमान माने जाने वाले गांधी परिवार विशेष तौर पर राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता और कार्यप्रणाली को लेकर पार्टी के भीतर जो खींचातानी हो रही है उसका असर अन्य राज्यों पर भी साफ़ दिख रहा है | छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जैसी  टांग खिचौवल चल रही है उसे देखते हुए वहां भी पंजाब की पटकथा दोहराई जा सकती है  | स्मरणीय है 2017 में  विधानसभा चुनाव के पहले पंजाब में नशे के कारोबार का पर्दाफाश करने वाली  फिल्म उड़ता पंजाब प्रदर्शित हुई थी | उस फिल्म ने बादल सरकार की छवि बहुत खराब की और  वह सत्ता से बाहर हो गई | अमरिंदर सरकार पर वैसा कोई बड़ा आरोप नहीं था | सत्ता विरोधी रुझान को भी कैप्टेन ने किसान आन्दोलन को भड़काकर  ठंडा कर दिया था परन्तु सिद्धू को पंजाब में संगठन का मुखिया बनाकर बंदर के हाथ उस्तरा देने वाली कहावत चरितार्थ किये जाने के कारण कांग्रेस के हाथ से पंजाब उड़ता नजर आने लगा है | इस घटनाक्रम से मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों की उथली सोच का भी प्रमाण मिल रहा हैं जो नए नवेले प्रवासियों को घर की चाभी सौंप देती हैं | 


-रवीन्द्र वाजपेयी
 

Wednesday 29 September 2021

कन्हैया डूबती नाव छोड़कर डूबते जहाज पर आये



कन्हैया कुमार का  राजनीति में आकर  वामपंथी दल से जुड़ना तय था क्योंकि दिल्ली की जिस जेएनयू में वे शिक्षित हुए वह साम्यवाद की नर्सरी कहलाती है  | लेकिन कन्हैया तब चर्चा में आये जब संसद पर हमले के आरोपी अफज़ल गुरु की  फांसी के विरोध में फरवरी 2016  में जेएनयू प्रांगण में छात्रों की भीड़ में  देश विरोधी नारेबाजी हुई तथा कन्हैया ने भड़काऊ भाषण दिया | उनको देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार भी किया गया किन्तु बाद में वे दोषमुक्त हो गये | उस घटना के बाद जेएनयू विपक्षी  मोर्चेबंदी का अड्डा बन गया | राहुल गांधी सहित  सभी विपक्षी नेता उसका फेरा लगाने लगे | मोदी विरोधी  कतिपय पत्रकारों को भी कन्हैया में युवा ह्रदय सम्राट नजर आने लगा | गुजरात में हार्दिक पटेल को भी इसी तरह उभारा गया था किन्तु  कन्हैया को राजधानी दिल्ली में होने का लाभ मिला | डाक्टरेट की उपाधि ग्रहण करने के बाद  वे  उम्मीद के मुताबिक सीपीआई ( भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ) के सदस्य बने और जल्द ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उनको शामिल कर लिया गया | राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर खिसक चुकी सीपीआई को कन्हैया में अपना भविष्य नजर आने लगा था | उनके साक्षात्कार टीवी चैनलों और  सोशल मीडिया  पर छा  गए | देश भर में कन्हैया को युवाओं के जलसे में बुलाया जाने लगा |  सीपीआई को भी लगा कि उनकी डूबती नैया  को ये युवा कप्तान किनारे तक ले जाएगा | इसी वजह से उनको 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार की बेगुसराय सीट से उम्मीदवार बनाया गया |  उनके विरूद्ध भाजपा के केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह मैदान में थे | देश भर से साम्यवादी कार्यकर्ता , वामपंथी रुझान वाले एनजीओ , प्रगतिशील लेखक – विचारक ,  अभिनेता  और पत्रकार बेगुसराय में कन्हैया को जिताने पहुंचे किन्तु वे बुरी तरह हारे |  युवा नेता के तौर पर उनके तेज उभार पर अचानक विराम सा लग गया | और वे  केवल सीपीआई की संगठनात्मक गतिविधियों तक सीमित होकर रह गये | सीपीआई के राष्ट्रीय नेताओं के साथ बैठने का अवसर कन्हैया को वाकई बहुत जल्दी मिला | वरना ऐसे संगठनों में इतनी जल्दी  किसी  को प्रथम पंक्ति में शायद ही जगह दी जाती है  | दरअसल  सोवियत संघ के विघटन के बाद से सीपीआई अनाथ जैसी होती जा रही है | एक दौर था जब युवाओं में साम्यवाद के प्रति सहज आकर्षण होता था | लेकिन जब चीन भी पूंजीवादी व्यवस्था के मोहपाश में जकड़ गया तब युवाओं में भी साम्यवाद  का आकर्षण  घटने लगा  | ऐसे में कन्हैया को ये लगा कि जीवन भर संघर्ष करते रहने की बजाय वे उस धारा के साथ जुड़ें जिसमें प्रवाह हो |  भाजपा में वे जा नहीं सकते थे और क्षेत्रीय दलों में उन्हें प्रादेशिक नेताओं का दुमछल्ला बनकर रहना होता | ऐसे में उनको कांग्रेस में ही संभावनाएं नजर आईं जो इन दिनों युवा नेताओं के अभाव से ग्रसित है | पार्टी के वरिष्ठ नेता किनारे होते जा रहे हैं और नई पीढ़ी भी कांग्रेस को लेकर पहले जैसी उत्साहित नहीं है | राहुल गांधी ने शुरुवात तो युवा नेता के तौर पर की थी लेकिन सही समय पर निर्णय न ले पाने और पार्टी को परिवार के भीतर केन्द्रित रखने के कारण वे अपनी चमक खोते जा रहे है | बीते तकरीबन दो साल से कांग्रेस बिना पूर्णकालिक अध्यक्ष के ही चल रही है | राजस्थान , पंजाब और छत्तीसगढ़ में उसकी सत्ता होने के बाद भी अंदरूनी झगड़े समस्या बनते जा रहे हैं | ऐसे में कन्हैया जैसे आक्रामक व्यक्ति के कांग्रेस में प्रवेश से वैसी ही समस्या पैदा हो सकती है जैसी नवजोत सिंह सिद्धू के कारण पंजाब में बन गई है | पंजाब के कांग्रेसी सांसद मनीष तिवारी ने  जो प्रतिक्रिया दी वह इस बात का संकेत है कि कन्हैया का  आना स्थापित छत्रपों को रास नहीं आयेगा | सीपीआई के महासचिव डी. राजा ने कन्हैया के बारे में कहा कि वे मजदूर हित की नीतियों से विमुख हो चले थे और विचारधारा में उनका विश्वास नहीं रहा | वहीं कन्हैया ने कांग्रेस को सबसे पुरानी पार्टी बताते हुए कहा कि बड़ा जहाज डूब गया तो छोटी – छोटी किश्तियाँ भी नहीं बचेंगी | इस तरह उन्होंने कांग्रेस को डूबता जहाज माने जाने की अवधारणा को बल दे दिया | हालाँकि सीपीआई और कांग्रेस की राजनीतिक लिव इन रिलेशनशिप आजादी के बाद से ही  चली आ रही है | पंडित नेहरु के सोवियत संघ से प्रभावित होने के कारण वीके कृष्णा मेनन और डीपी धर जैसे साम्यवादी रुझान वाले उनके निकटस्थ रहे | सत्तर के दशक में इंदिरा जी जब राजनीतिक संकट में फंसी तब भी स्व. श्रीपाद अमृत डांगे की अगुआई में सीपीआई ने उनका खुलकर साथ दिया | बैंकों का  राष्ट्रीयकरण जैसे कदम भी उसी समय  उठाये गये थे | 1975 में इंदिरा जी द्वारा लगाये गये आपातकाल का जहाँ सीपीएम ने विरोध किया था वहीं  सीपीआई खुलकर उसके समर्थन में आई और इसीलिये उसे चमचा पार्टी आफ इण्डिया कहा जाने लगा | नब्बे के दशक में भाजपा के उभार  के बाद  सीपीएम भी मुद्दों पर कांग्रेस का साथ देने लगी | जिसका सबसे बड़ा उदाहरण 2003 में डा. मनमोहन  सिंह जैसे पूंजीवाद समर्थक प्रधानमंत्री की सरकार को टेका लगाने के लिए सीपीएम महसचिव स्व. हरिकिशन सुरजीत का आगे आना था | बहरहाल उसके बाद से कांग्रेस और वामपंथ के सम्बन्ध कभी नरम तो कभी गरम चलते रहे | बंगाल में दोनों मिलकर लड़ते हैं लेकिन केरल में एक दूसरे के खिलाफ  हैं | वैसे भी राहुल गांधी के कमान सँभालने के बाद से कांग्रेस वैचारिक भटकाव के शिखर पर जा पहुँची है | उसकी सैद्धांतिक पहिचान तो कभी की नष्ट हो चुकी थी | आज की स्थिति में वह तदर्थवाद के आधार पर चल रही है | उ.प्र  में  अखिलेश यादव और महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठजोड़ करना उसकी मजबूरी को दर्शाता है | राष्ट्रीय पार्टी होने के बाद भी उसकी मौजूदगी कुछ को छोड़कर शेष राज्यों में नाममात्र की रह गई है | सिद्धू , हार्दिक और अब कन्हैया जैसों को साथ लेकर उसने ये स्पष्ट  कर दिया कि पार्टी की ये दशा आखिर क्यों बन गई ? कन्हैया कहें कुछ भी किन्तु वे अपनी उन अतृप्त महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आये हैं जो सीपीआई में संभव नहीं थी | कहा जा रहा है है वे बिहार में कांग्रेस का चेहरा बनाये जाएंगे जहां पार्टी घुटनों के बल चल रही है | लेकिन क्या लालू पुत्र तेजस्वी  यादव , कन्हैया को बर्दाश्त करेंगे ? हो सकता है उ.प्र के आगामी चुनाव में भी कन्हैया को सितारा प्रचारक बनाया जाए | लेकिन उनके कांग्रेस में प्रवेश से पार्टी को लाभ  कम और हानि ज्यादा होने की सम्भावना है क्योंकि जेएनयू में आजादी का नारा लगाने वाले कन्हैया के  टुकड़े – टुकड़े गैंग से जुड़े होने की बात जनता भूली नहीं है | उससे तो अच्छा होता कांग्रेस  मिलिंद देवड़ा , सचिन पायलट , रणदीप हुड्डा और उन जैसे बाकी युवा नेताओं को नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में शामिल करती जिनको पार्टी की नीतियों का भलीभाँति ज्ञान है | कहना गलत न होगा कि कन्हैया का कांग्रेस में प्रवेश डूबती नाव के नाविक का डूबते जहाज में चढ़ आने जैसा ही है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 28 September 2021

किसान आन्दोलन में पहले वाली बात नहीं रही




 विगत दिवस संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा आयोजित भारत बंद को मौखिक समर्थन तो काफी मिला लेकिन सामने आकर लम्बे समय से चले आ रहे इस आन्दोलन को सहयोग करने वाले कम ही दिखे | भले ही  आन्दोलन को राजनीति से मुक्त  रखने के लिए राजनेताओं को उसके मंच से दूर रखने की नीति अपनाई जाती रही लेकिन कल के बंद में अनेक राज्यों में राजनीतिक दलों  ने अपनी हिस्सेदारी दिखाने में परहेज नहीं किया | बावजूद इसके बंद को वह समर्थन नहीं मिल सका जो कृषि प्रधान देश में अपेक्षित था | एक बात और जो ध्यान देने योग्य है कि आन्दोलन पर थकान का असर दिखने लगा है | किसान संयुक्त मोर्चा के नेता कुछ भी कहें लेकिन उनके साथ पहले जैसी   किसानों की भीड़ नजर नहीं आ रही | इसका मुख्य कारण उनकी दिशाहीन सोच है | संयुक्त मोर्चे में कुछ लोग हैं जो समझदारी   का परिचय देते हुए अपनी बात रखते हैं | लेकिन बाकी बिना वजह ऐंठ दिखाते हुए जिस तरह से पेश आते हैं उसकी वजह से बना हुआ  काम भी बिगड़ जाता है |  किसान आन्दोलन बेशक बहुत लम्बा खिंच गया | इसके लिए उसे संचालित कर रहे नेतागण  बधाई के हकदार हो सकते हैं किन्तु  इस बात के लिए उनकी आलोचना भी की जा सकती है कि वे अभी तक आन्दोलन के माध्यम से कुछ भी हासिल करने में असमर्थ रहे | यही वह कारण है जिससे आन्दोलन के प्रति उत्साह और सहानुभूति दोनों में कमी आई | इससे पहले आयोजित  भारत बंद को भी अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी जबकि उस समय आन्दोलन काफी गर्म था | सही बात ये भी है कि अभी तक ये आन्दोलन चूँकि अखिल भारतीय बन ही नहीं सका इसलिए भारत बंद करवाने लायक संगठन उसके पास नहीं है | गैर भाजपा शासित राज्यों में भले ही उसके पक्ष में आवाजें सुनाई दी हों लेकिन वे भी प्रभावशाली नहीं कही जा सकतीं | विगत दिवस हुए बंद को भी पंजाब , हरियाणा और  राजस्थान के अलावा उप्र  के पश्चिमी हिस्से में ही कुछ समर्थन मिला , वरना बंद जैसा कुछ अनुभव हुआ ही नहीं | संयुक्त किसान मोर्चा के लिए ये चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि जिस तरह से आन्दोलन घिसट रहा है उसमें उसके दीर्घजीवी होने की सम्भावना ज्यादा नजर नहीं आ रही | इसका बड़ा कारण फरवरी 2022 में होने वाले पंजाब और उ.प्र विधानसभा के चुनाव हैं | दीपावली के बाद इन राज्यों के नेता और उनके साथ जुड़े किसान चुनाव में जुट जायेंगे | खुद राकेश टिकैत भी हो सकता है अपने उम्मीदवार उतारें | चूँकि केंद्र सरकार ने आन्दोलन के प्रति पूरी तरह से मुंह फेर रखा है इसलिए निकट भविष्य में  किसी समाधान की सम्भावना नजर नहीं आ रही | हालाँकि उड़ती – उड़ती खबर है कि केंद्र सरकार गुपचुप तरीके से किसान आन्दोलन से जुड़ी मांगों में से कुछ को इस तरह से मंजूर करने जा रही है जिससे उसका श्रेय संयुक्त मोर्चा को न मिले | क्या होगा ये पक्के तौर पर कहना कठिन है किन्तु ये मान लेने में कुछ भी गलत नहीं है कि कल का बंद असर नहीं छोड़ सका और तो और इसने आन्दोलन की घटती ताकत को भी उजागर कर दिया |

-रवीन्द्र वाजपेयी

डिजिटल मिशन : पहले पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए



आयुष्मान भारत के बाद आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन  स्वस्थ भारत की दिशा में बड़ा कदम साबित हो सकती है | आधार कार्ड की तरह इसमें धारक का  स्वास्थ्य संबंधी सारा रिकॉर्ड दर्ज रहेगा | जब वह सरकारी या किसी अधिमान्य अस्पताल में इलाज हेतु  जायेगा तो उस कार्ड के माध्यम  से चिकित्सक उसकी पुरानी बीमारियों , जाँच रिपोर्ट , उपयोग की गईं दवाइयां तथा इलाज का विवरण आसानी से पता कर सकेगा | हालाँकि पुराना विवरण दर्ज नहीं होने पर भी भविष्य में किये जाने वाले इलाज की  जानकारी इस डिजिटल कार्ड में समाहित की जा सकेगी  | प्रधानमंत्री ने इसकी घोषणा करते हुए राशन  से प्रशासन तक सब कुछ डिजिटल होने की जो बात कही वह अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है | 21 वीं सदी के भारत में इस जैसी  वैश्विक स्तर की व्यवस्थाएं जन स्वास्थ्य के प्रति गम्भीरता का प्रमाण होने के साथ ही मरीजों को अनेक तरह की परेशानियों से बचाने के अलावा  चिकित्सक और अस्पताल दोनों के लिए मददगार बनेंगी  | मरीज की सहमति से उसका चिकित्सकीय रिकॉर्ड जांचने में समय के साथ ही हर बार अनावश्यक जांच में खर्च होने वाला पैसा भी  बचेगा | वैसे आजकल बड़े अस्पताल अपने मरीज का पुराना रिकॉर्ड सुरक्षित रखते हैं | एक बार इलाज करवा चुके मरीज के दोबारा आने पर अस्पताल उसके पिछले इलाज का ब्यौरा तत्काल पता कर लेते हैं  | प्रस्तावित आयुष्मान भारत डिजिटल कार्ड में हर व्यक्ति के स्वास्थ्य की विशद जानकारी विधिवत सहेजकर रखने से देश में स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार और उन्नयन में भी काफी  सुविधा हो जायेगी | हालाँकि इस महत्वाकांक्षी योजना को अमल में लाने में लम्बा समय और संसाधन के साथ ही आम जनता को इसके लिए जागरूक और जिम्मेदार भी बनाना होगा | इस बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात ये होगी कि सरकार आम जनता को इस योजना की उपयोगिता और अहमियत के प्रति किस हद तक आश्वस्त कर सकेगी | आधार कार्ड बनाने के काम में आईं  परेशानियाँ इसका उदाहरण हैं | यदि उसकी अनिवार्यता शासकीय सुविधाओं तथा  दस्तावेजों में पहिचान पत्र के तौर पर न की जाती तो उसे बनवाने हेतु  जनता गम्भीर नहीं हुई होती | और फिर उसमें दर्ज किया जाने वाला विवरण भी बहुत ही सीमित था | जबकि आयुष्मान डिजिटल कार्ड में समाहित जानकारी काफी बड़ी होगी | इस दृष्टि से इस योजना को लागू करने के पहले सरकार को पर्याप्त तैयारी के साथ अपने अमले को समुचित प्रशिक्षण देना होगा | चूँकि इस कार्य को राज्यों के जरिये ही संपन्न करवाया जा सकेगा इसलिए सम्बन्धित विभाग को भी इस महत्वपूर्ण अभियान के संचालन हेतु सिद्धहस्त बनाना जरूरी है | यद्यपि केन्द्रीय स्तर पर करोड़ों  लोगों का चिकित्सकीय रिकॉर्ड रखना  बेहद कठिन कार्य है परन्तु  भारत में डिजिटल तकनीक जिस तेजी से उपयोग में आ रही उसे देखते हुए विश्वास करना गलत न होगा कि ये योजना भारत में स्वास्थ्य सेवाओं  को उन मानडंडों के अनुरूप ढालने में सफल होगी जिसकी आवश्यकता लंबे अरसे से महसूस की जा  रही थी ।

- रवीन्द्र वाजपेयी
 

Monday 27 September 2021

महानता को जाति में कैद करना उसका अपमान है


कुछ दिनों पूर्व म.प्र के ग्वालियर नगर में सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा पर लगी नामपट्टिका में उनके साथ गुर्जर लिखे जाने पर बवाल मच गया | राजपूत संगठनों ने सम्राट को गुर्जर बताए जाने का विरोध शुरू कर दिया | दोनों गुटों के बीच  हिंसक संघर्ष  होने के बाद से प्रतिमा स्थल पर पुलिस बल तैनात है | उच्च न्यायालय ने विवाद हल होने तक नामपट्टिका ढांक देने का आदेश दिया है | ऐसी ही खबर उ.प्र के दादरी से आई | वहां  भी मिहिर भोज को गुर्जर सम्राट लिखे जाने पर बवाल मचा हुआ है | राजपूतों के संगठन करणी सेना ने भी सम्राट को राजपूत साबित करने के लिए उग्र तेवर दिखाने शुरु कर दिए हैं | इस बीच कुछ समझदार लोगों ने ये समझाने की कोशिश भी की है कि गुर्जर समाज भी राजपूतों की ही की शाखा है इसलिए सम्राट को लेकर हो रहा विवाद अनावश्यक और निरर्थक है | ये पहला प्रसंग नहीं है जब ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के जीवन से जुड़े निजी  प्रसंगों पर इस तरह के झगड़े खड़े किये गये हों | कभी  किसी फिल्म को लेकर तो कभी किसी लेख अथवा किताब पर हंगामा होता  रहा है | नेताओं के भाषणों और टिप्पणियों पर भी जाति समूहों के बीच शब्द बाण चलते -चलते तलवारें तक निकल आती हैं | इस बारे में ध्यान रखने वाली बात है कि सम्राट मिहिर भोज या उन जैसी अन्य ऐतिहासिक हस्ती के सम्मान से हंगामा कर रहे तबके  को कुछ लेना – देना नहीं होता | यदि इतिहासकार या शोधकर्ता ऐसे मामलों में कुछ कहें तो उसका संज्ञान तो लिया जा सकता है किन्तु जिन्हें अपने खानदान के अतीत तक का समुचित ज्ञान न हो , वे भी जब ऐसे विषयों  के  विशेषज्ञ बन जाते हैं तब हंसी आती है | ज़ाहिर है  राजनीति के दुकानदार ऐसे विवादों से भड़की आग में समझाइश रूपी पानी की जगह घी डालकर उसे बढ़ाने का काम करते हैं | इतिहास के तमाम चरित्र ऐसे हैं जिनके बारे में आज भी प्रामाणिक जानकारी नहीं है | अनेक ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों के निर्माताओं को लेकर भी भ्रम की स्थिति है | ये देखते हुए ऐसे मामलों में ठन्डे दिमाग और सुलझी हुई मानसिकता से काम किया जाए तो बजाय विवाद के सही  तथ्यों का पता लगाने की कोशिश किसी अंजाम तक पहुँच सकती है | उदाहरण के तौर पर ऐतिहासिक प्रसंगों या हस्तियों से जुड़े कथानक पर बनी फिल्मों को  लेकर जो विवाद पैदा हुए उनसे भयभीत होकर भले ही निर्माता ने पटकथा में संशोधन करते हुए कुछ दृश्य हटा दिए हों लेकिन फिल्म प्रदर्शित होकर परदे  से उतर जाने के बाद विरोध का झंडा उठाने वालों का काम खत्म सा हो जाता है | इन विवादों के चेहरे भले ही जातीय संगठन हों लेकिन ज्यादातर के पीछे  राजनीतिक नेता या पार्टी ही होती है | चूँकि जाति अब चुनावी जीत हार का आधार बन चुकी है इसलिए गलत बात का विरोध करने की हिम्मत भी किसी की नहीं होती | दुर्भाग्य इस बात का है कि  सम्राट मिहिर भोज के व्यक्तित्व से जुड़े गौरवशाली प्रसंगों की बजाय उनका उल्लेख जातीय पहिचान को लेकर हो रहा है | इसका कारण भी राजनीति ही है | गत दिवस उ.प्र में योगी मंत्रीमंडल में कुछ नए मंत्री शामिल किये जाने के साथ ही ये भी प्रचारित किया जाने लगा कि उनमें कौन किस जाति का है | देश के पहले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु को पंडित जी कहा जाता था | लेकिन न तो वे ब्राह्मण नेता थे  और न ही सरदार पटेल को किसी ने कुर्मी माना | लेकिन आज ऐसा नहीं है | सिख है तो जट या कुछ और ये भी सामने आने लगा है  | गुजरात के नए मुख्यमंत्री पटेल समुदाय से आते हैं | लेकिन उनकी ताजपोशी के पहले ही इस बात को प्रचारित किया जाने लगा कि वे पटेलों में भी  अमुक वर्ग के हैं | नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के पहले तक किसी को भी उनकी जाति का पता लगाने में रूचि नहीं थी लेकिन अब सबको पता है |  जातिवाद का दबाव इतना ज्यादा है कि विदेशों में पढ़े – लिखे राहुल गांधी को भी चिल्ला- चिल्लाकर अपने ब्राह्मण होने और यज्ञोपवीत  धारण करने जैसे दावे दोहराने पड़ रहे हैं | नौबत यहाँ तक आने लगी है कि भगवानों और पौराणिक विभूतियों तक को जातियों में बांटा जा रहा है | प्रश्न ये है कि धार्मिक और  ऐतिहासिक विरासत को लेकर हो रहे झगड़े आखिर कब तक चलते रहेंगे ? सम्राट मिहिर भोज गुर्जर थे या राजपूत इससे  आज की पीढ़ी को कोई लेना - देना नहीं | इतिहास में उनका नाम जिन गुणों और उपलब्धियों के लिए लिया जाता है वे पूरे देश के लिए गौरव का विषय होना चाहिए न कि किसी जाति या वर्ग विशेष के लिए | महाराणा प्रताप और महारानी लक्ष्मीबाई  को राजपूत या मराठा होने के कारण सम्मान नहीं मिलता ,अपितु उनकी वीरता और बलिदान के प्रति सैकड़ों  साल बाद भी  आदरभाव बना हुआ है | रानी दुर्गावती गोंड़ वंश से थीं  लेकिन उनकी स्मृति को केवल आदिवासी वर्ग तक सीमित कर देना  उनके बलिदान का अवमूल्यन होगा | दुर्भाग्य से हमारे देश में  श्रृद्धा भी जाति और उपजाति में बाँट दी गई है | भगवान , ऋषि – मुनि  और ऐतिहासिक हस्तियां समूचे राष्ट्र के  हैं | उनको भी जाति की चौखट में कैद करने का जो कुचक्र रचा जा रहा है वह खतरनाक है | जिनको गये हुए शताब्दियाँ बीत गईं , उनकी जाति के नाम पर समाज को बांटने की साजिश बहुत ही शर्मनाक है | उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर प्रामाणिक  जानकारी जुटाना निश्चित रूप से शोध का विषय होना चाहिए किन्तु उन्हें छोटे से दायरे में समेट देना उनके योगदान को झुठलाना है | मिहिर भोज गुर्जर थे या राजपूत इसका निर्धारण इतिहासवेत्ताओं पर छोड़ देना ही बुद्धिमत्ता है  |

 - रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 25 September 2021

संभावनाओं के देश के तौर पर उभर रहा भारत : शेयर बाजार की तेजी शुभ संकेत



भारतीय शेयर बाजार में इन दिनों रोज दीवाली जैसे धूम है | सूचकांक 60 हजार जा पहुंचा है यदि ये सिलसिला जारी रहा तो निवेशकों को अकल्पनीय लाभ होगा | शेयर बाजार की उछाल अर्थव्यवस्था की मजबूती का संकेत माना जाता है | देश और दुनिया भर के बाजारों में होने वाली आर्थिक गतिविधियों का  असर हमारे शेयर बाजार पर भी पड़ता है | भारत में विदेशी पूंजी जिस बड़ी मात्रा में आ रही है उससे सतही तौर पर ये अनुमान लगाया जाने लगा है कि वैश्विक स्तर पर निवेशकों को भारत में अच्छी संभावनाएं प्रतीत हो रही हैं | प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के समर्थक इसे उनकी नीतियों का प्रतिफल बताने में जुट गये है | आंकड़ों के आधार पर ये दावा भी किया  जा रहा है कि उनके शासनकाल में सूचकांक ने जितनी ऊँचाई छुई वह आजादी के बाद सबसे ज्यादा है | लेकिन इस बारे में ये बात भी ध्यान रखने वाली है कि कोरोना नामक महामारी के बाद दुनिया में नए  तरह का  शीत युद्ध शुरू हो गया है , जो सामरिक कम आर्थिक ज्यादा है | अधिकतर देश ये मान चुके हैं कि कोरोना का वायरस चीन की शरारत से ही दुनिया भर में फैला | द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कोरोना ऐसा पहला संकट था जिसने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया | भले ही किसी देश में कम और किसी में ज्यादा संक्रमण फैला हो लेकिन सभी की अर्थव्यवस्थाओं पर कोरोना की मार पड़ी | आवागमन अवरुद्ध होने से आयात – निर्यात के साथ ही पर्यटन व्यवसाय भी ठप्प होकर रह गया | आर्थिक विकास की बजाय सभी देश कोरोना से बचाव में लग गये | वायरस का प्रकोप कम होते ही निवेशक चीन से पिंड छुड़ाने के बारे में सोचने लगे | लेकिन उसके लिए ऐसे देश की जरूरत थी जिसके पास चीन जैसा मानव संसाधन हो | साथ ही जो विकसित देशों की तुलना में अपेक्षाकृत सस्ता होने के साथ ही वहां क़ानून का राज हो | इसीलिये भारत उनकी पसंद बना | कोरोना के कारण गत वर्ष जब लॉक डाउन की वजह से वैश्विक स्तर पर आर्थिक कारोबार में ठहराव था तब भी भारत के शेयर बाजार में विदेशी निवेशक बिना डरे अपना पैसा लगा रहे थे | हालाँकि वह समय भारी अनिश्चितता का था किन्तु चीन से दुनिया भर की नाराजगी भारत के लिए वरदान साबित हुई | इसका अंदाज लगते ही  भारत सरकार ने भी आत्मनिर्भर भारत का नारा देते हुए चीन  से आयातित होने वाली चीजों का उत्पादन देश में ही करने के लिए उद्योगपतियों और उद्यमियों को अनेक सुविधाओं के अलावा बैंकों से आसान ऋण उपलब्ध करवाने की व्यवस्था भी की जिसके सकारात्मक परिणाम नजर आने लगे हैं | आर्थिक सुधारों की दिशा में तेजी से कदम उठाए जाने के कारण भी चीन से निकलने के इच्छुक निवेशकों को भारत में लाभ की गुंजाईश नजर आने लगी | हाल ही में केंद्र सरकार ने निर्यात को बढ़ावा देने के लिए जो नीतिगत निर्णय लिए उनका अच्छा संदेश विश्व भर में गया  | देश में राजमार्गों का निर्माण जिस तेजी से हो रहा है उसकी वजह से ऑटोमोबाइल उद्योग में जबरदस्त मांग बढ़ी है | भारत में पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों का स्थान लेने के लिए बैटरी चलित वाहनों का उत्पादन भी शुरू हो गया है | इसके अलावा सौर उर्जा संयंत्रों में लगने वाले सामानों के निर्यात को रोकने के लिए भी निजी क्षेत्र के बड़े कारोबारियों ने कमर कस ली है | भारत में रक्षा उत्पादन को  निजी क्षेत्र के लिए खोल देने से आगामी कुछ सालों के भीतर ही हम रक्षा उत्पादनों का निर्यात करने के स्थिति में होंगे | यही सब कारण हैं जिनकी वजह से शेयर बाजार नित नई उछाल ले रहा है | घरेलू हवाई यातायात भी जिस तरह बढ़ने लगा है वह भी विदेशी निवेशकों को आकर्षित कर रहा है | कोरोना के बाद दुनिया की आर्थिक परिस्थितियों में भारत की अपरिहार्यता काफी बढ़ चली है | इसे नई  संभावनाओं का देश माना जाने लगा है | बीते कुछ महीनों से अफगानिस्तान के घटनाक्रम से पूरी दुनिया एक बार फिर चीन से छिटकने  लगी है |  तालिबान को उसका खुला समर्थन विकसित देशों को रास नहीं आ रहा | इसकी वजह से भी विदेशी पूंजी का भारत आना हो रहा है | लेकिन ये सिलसिला बना रहे इसके लिए हमें अपनी नौकरशाही को अधिक पेशेवर और कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाना होगा | पूंजी बाजार में जब कोई धन लगाता है तब उसके साथ वह अपने विश्वास का भी निवेश करता है | यदि उसके धन और विश्वास दोनों सुरक्षित रहें तब पूंजी स्थायी तौर पर बनी रहती है | हालांकि इस बारे में एक शुभ संकेत है कि बड़े  निवेशक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारतीय  उद्योगपतियों के साथ मिलकर संयुक्त उपक्रम लगा रही हैं | उसका लाभ ये है कि उन्हें शासकीय व्यवस्था से सीधे नहीं जूझना नहीं पड़ता | केंद्र सरकार जिस तेजी से आर्थिक सुधार और विनिवेश की प्रक्रिया चला रही है उसे देखते हुए कहना गलत न होगा कि शेयर बाजार में मची धूम में उसका भी बड़ा योगदान है | कोरोना की तीसरी लहर के कमजोर पड़ने के संकेत आने से ये माना जा रहा है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष में भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना पूर्व की स्थिति में आ जायेगी और विकास दर भी सम्मानजनक आंकड़े को छू सकेगी |  यदि शासकीय मशीनरी राजनीतिक नेतृत्व के नीतिगत निर्णयों का सही तरीके से क्रियान्वयन कर सके तो बड़ी बात नहीं भारत दुनिया का सबसे बड़ा पूंजी बाजार बन जाये |

- रवीन्द्र वाजपेयी
 

Friday 24 September 2021

सबका साथ , सबका विकास और सबका विश्वास के साथ सबका स्वास्थ्य भी प्राथमिकता बने



केंद्र सरकार द्वारा तीन साल पहले शुरू की गई आयुष्मान भारत योजना में अब तक 2 करोड़ लोगों का निःशुल्क इलाज किया गया | विभिन्न श्रेणियों के आर्थिक  दृष्टि से कमजोर लोगों के लिए यह योजना संजीवनी साबित हुई है | प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा जनकल्याण की जिन योजनाओं और कार्यक्रमों का शुभारम्भ किया गया उनमें आयुष्मान भारत बेहद महत्वपूर्ण है | ये बात अकाट्य सत्य है कि समृद्ध भारत की कल्पना आम जनता को स्वस्थ बनाए रखकर ही साकार हो सकेगी | दुर्भाग्य से हमारे देश में प्रारंभ से ही जन स्वास्थ्य की दिशा में आपराधिक उदासीनता बरती जाती रही | सरकारी अस्पताल तो काफी पहले से ही  अपर्याप्त साबित हो चले थे | उस कारण निजी क्षेत्र ने पूरे देश में अपना कारोबार तो फैलाया किन्तु उसमें बाजारवाद की भावना के वशीभूत मुनाफाखोरी का बोलबाला  हो गया | कोरोना काल में कुछ को छोड़कर अधिकतर निजी अस्पतालों ने मरीजों की मजबूरी का लाभ लेते हुए  लूटमार की  | हालांकि आज भी कुछ चिकित्सक  इस पेशे की पवित्रता को सहेजकर रखे हुए हैं | कहने को सरकार भी चिकित्सा सेवाओं और शिक्षा के विस्तार के लिए काफी जतन करती है लेकिन उनके पीछे राजनीति अधिक होने से अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाती | कोरोना काल में ये बात सामने आई कि जनसँख्या के अनुपात में स्वास्थ्य सेवाएँ अपर्याप्त हैं | हालाँकि महामारी जैसी परिस्थिति में ये स्थिति  तो विकसित देशों में भी सामने आई लेकिन हमारे यहाँ  सामान्य हालातों में भी सरकारी अस्पतालों में व्यवस्थाओं का टोटा बना रहता  है | अस्पताल है तो चिकित्सक और नर्सिंग कर्मचारी नहीं होते और होते भी हैं तो दवाइयां और जरूरी मशीनों का अभाव देखने मिलता है | इसीलिये केन्द्रीय कर्मचारियों के लिए बनाई गई सीजीएचएस व्यवस्था में निजी अस्पतालों को शामिल किया गया और अब आयुष्मान भारत के लिए भी निजी अस्पतालों को अधिसूचित करने की व्यवस्था की गई | इसके लिए बाकायदे सर्वेक्षण करने के उपरांत जो पात्र पाए गये उनको परिचय कार्ड दिए गये | जिनका रिकॉर्ड अधिमान्य अस्पतालों में होने से कार्डधारी को बिना भुगतान किये 5 लाख तक के इलाज की सुविधा मिल जाती है | निश्चित रूप से साधनहीन तबके को चिकित्सा का लाभ प्रदान करने की ये योजना क्रांतिकारी साबित हुई है | ये भी सही है कि इससे आकर्षित होकर निजी क्षेत्र में अस्पताल खोलने की होड़ सी लगी हुई है | अनेक निजी अस्पताल तो सीजीएचएस और आयुष्मान भारत के कारण ही पैसा बटोरने में सफल रहे हैं | चिकित्सा जगत से जुड़े विशेषज्ञों की मानें तो आगामी पांच वर्षों में निजी क्षेत्र नए अस्पतालों पर भारी निवेश करने वाला है और इसका कारण आयुष्मान भारत योजना ही है |  इसीलिए  महानगरों तक सीमित नामी ब्रांडेड अस्पतालों की शाखाएँ देश भर में खोलने का सिलसिला चल पड़ा है | लेकिन चिंता की बात ये है कि सीजीएचएस तथा आयुष्मान भारत योजना के अलावा  मुफ्त इलाज की सुविधा प्राप्त नेता और नौकरशाहों को छोड़कर शेष जनता के लिए निजी अस्पताल लूट का अड्डा बनते जा रहे हैं | जिनके पास चिकित्सा बीमा है वे तो फिर भी किसी हद तक सुरक्षित हैं किन्तु बाकी  लोगों के लिए चिकित्सा खर्च मोटे हाथी समान होता जा रहा है | सबसे बड़ी बात ये हैं कि देश में जनसंख्या के अनुपात में चिकित्सक तैयार नहीं हो रहे | सरकारी अस्पतालों में नौकरी करने का आकर्षण भी  पहले जैसा नहीं   रहा | अधिकतर नए चिकित्सक निजी अस्पताल में सेवाएँ देना पसंद करते हैं | हालत ये हैं कि एक विशेषज्ञ अनेक अस्पतालों से जुड़ जाता है | इसके कारण सरकारी चिकित्सा तंत्र खुद ही बीमार बनकर रह गया है | ऐसे में सरकार को ये देखना होगा कि जो वर्ग सरकारी खर्च से इलाज की सुविधा से वंचित है उसे निजी अस्पतालों के महंगे इलाज से कैसे बचाया जावे | चूँकि  चिकित्सा और चिकित्सकों के लिए कोई नियामक संस्था नहीं है इसलिए मनमर्जी चल रही है | आयुष्मान भारत योजना  के तहत जिन हितग्राहियों को इलाज की सुविधा मिल रही है उनमें तमाम ऐसे लोग भी शामिल हो गये हैं जो आर्थिक दृष्टि से संपन्न हैं | जिस तरह बीपीएल कार्डों में बड़ी संख्या में फर्जीबाड़ा हुआ , उसी तरह से आयुष्मान योजना के परिचय कार्ड बनवाने के लिए निजी अस्पतालों में दलालों के सक्रिय होने की जानकारी भी आई है | सरकार को इस बारे में सतर्क रहना होगा | लेकिन सबसे बड़ी जरूरत ये है कि निःशुल्क इलाज की न्यूनतम सुविधा से उन  निम्न मध्यमवर्गीय  परिवारों को भी लाभान्वित किया जावे जिनके पास चिकित्सा संबंधी आर्थिक सामर्थ्य और अन्य सुरक्षा नहीं है | सरकार को ये ध्यान रखना होगा कि इस देश का हर नागरिक उसकी जिम्मेदारी है | अच्छा स्वास्थ्य देश के विशाल मानव संसाधन को संबल प्रदान करता है | कोरोना नामक महामारी के दौरान ये विषय तेजी से उठा कि लोगों के इलाज की व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए थी | ऐसा नहीं है कि उसने कुछ न किया हो किन्तु असंख्य लोग केवल इसलिए जान गंवा बैठे क्योंकि उनके पास धनाभाव था | देश में स्वास्थ्य सेवाओं का बजट आबादी के अनुपात में बहुत कम है | आर्थिक विषमता के कारण समाज का बहुत बड़ा तबका   ठीक तरह से इलाज तो बड़ी बात है जांच तक करवाने में असमर्थ है | गरीबों को मुफ्त इलाज मिले ये स्वागतयोग्य है किन्तु गरीबी रेखा के अंतर्गत न  आने वाला हर व्यक्ति धनाड्य है ये अवधारणा भी सत्य से परे है | बेहतर हो सरकार देश में चिकित्सा क्रांति की दिशा में समयबद्ध कार्यक्रम लेकर  आगे बढ़े | शासकीय चिकित्सालयों की संख्या बढ़ाने के साथ उनको उन्नत किया जाना जरूरी है | कम से कम जन स्वास्थ्य के मामले में तो वोटबैंक की राजनीति से ऊपर उठकर सोचा जाना चाहिए | शेयर बाजार के सूचकांक द्वारा 60 हजार का आंकड़ा छू लेना या अर्थव्यवस्था को 5  ट्रिलियन डॉलर ( 5 लाख करोड़ डॉलर ) के स्तर तक ले जाने के बावजूद यदि देश में करोड़ों लोग अपना इलाज करवाने में असमर्थ रहें तो ऐसे विकास का क्या लाभ ? सबका साथ , सबका विकास  और सबका विश्वास के साथ सबका स्वास्थ्य भी सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिये |


 - रवीन्द्र वाजपेयी



Thursday 23 September 2021

कोरोना से मौत पर मुआवजा और बीमा दावों के निपटारे में शीघ्रता तथा पारदर्शिता जरूरी



सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद अंततः केंद्र सरकार ने गत दिवस हलफनामा पेश करते हुए अदालत को बताया कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने कोरोना से मरने वाले मरीजों तथा बचाव एवं राहत कार्यों से जुड़े लोगों की संक्रमण से हुई मृत्यु पर उनके परिजनों को 50  – 50 हजार का मुआवजा देने की सिफारिश की है | ये राशि राज्य आपदा प्रबंधन कोष से दी जायेगी | मृत्यु प्रमाणपत्र में कोरोना का उल्लेख न होने से लाखों प्रभावित परिवार मुआवजे से वंचित हो गये थे | सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर रोष व्यक्त किया था कि मृत्यु प्रमाणपत्र में कोरोना का उल्लेख करवाने में  देरी से लोग हलाकान हो रहे हैं | दरअसल ये बहुत बड़ी  विसंगति है कि कोरोना के इलाज हेतु भर्ती हुए मरीज की मौत पर सम्बंधित अस्पताल द्वारा मृत्यु का कारण स्पष्ट नहीं होने से मृतक के परिजन शासन द्वारा मिलने वाली किसी भी सहायता राशि से वंचित रह गये | जिन मरीजों को अस्पताल में कोरोना की दवाएं दी गईं और मृत्यु होने पर उनका अंतिम संस्कार भी कोरोना से  मारे गये लोगों के लिए निर्धारित श्मसान भूमि में किया गया , उनके मृत्यु प्रमाणपत्र में भी तत्संबंधी उल्लेख नहीं किया जाना निश्चित तौर पर अव्वल दर्जे की संवेदनहीनता का परिचायक था | सर्वोच्च  न्यायालय ने इस बारे में काफी सख्त रुख अपनाते हुए कोरोना से हुई मृत्यु पर मुआवजा देने के लिए सरकार को बाध्य किया | हालाँकि 50 हजार की राशि भी बेहद कम है | अनेक परिवार ऐसे हैं जिनका लालन – पालन करने वाला कोरोना की बलि चढ़ गया | कई में तो छोटे – छोटे बच्चे ही बचे हैं | यद्यपि इस बारे में एक समस्या ये भी है कि बहुत बड़ी संख्या उन मृतकों की है जिन्होंने बीमार होने पर  न तो कोरोना की जांच करवाई और न ही समुचित इलाज | ऐसे लोगों को कोरोना संक्रमित मानने में व्यवहारिक परेशानी सामने आना स्वाभाविक है क्योंकि हमारे देश में सरकारी तंत्र लकीर का फकीर बनकर कार्य करता है | बहरहाल सर्वोच्च न्यायालय के दबाव के बाद केंद्र सरकार ने जो शपथ पत्र पेश किया उससे थोड़ी राहत मिलेगी | लेकिन कोरोना संक्रमण से हुई मौत का प्रमाण पत्र हासिल करना भी आसान नहीं होगा क्योंकि जिस शासकीय अमले को इस काम की जिम्मेदारी दी जायेगी उसमें कितनी मानवीयता है ये पक्के तौर पर कह पाना मुश्किल है | कोरोना की दूसरी लहर के चरमोत्कर्ष के दौरान जब प्रतिदिन हजारों लोग मारे जा रहे थे तब उनके अंतिम संस्कार में जिस तरह की घूसखोरी  सुनने मिली वह अमानवीयता की पराकाष्ठा ही कही जायेगी | ये देखते हुए मुआवजे की समूची प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी बनाया जाना जरूरी होगा | केंद्र सरकार तो राज्यों को पैसा देकर अपना पिंड छुड़ा लेगी परन्तु  सरकारी अमला इस मुआवजे में भी घूस और कमीशन वसूलने में संकोच करेगा ये बात सोचना भी कठिन है | सबसे ज्यादा ध्यान रखने वाली  बात ये है कि सर्वोच्च न्यायालय में केंद्र द्वारा प्रस्तुत शपथ पत्र के बाद देश भर में कोरोना से हुई मौत के फर्जी प्रमाणपत्र बनाने का गोरखधंधा शुरू हो जाएगा | कोरोना से जुड़ा एक संवेदनशील विषय है चिकित्सा बीमा के दावों का भुगतान बीमा कंपनियों द्वारा न किया जाना | सरकार  को इस बारे में भी गम्भीरता के साथ  सख्त कदम उठाने चाहिए क्योंकि मोटी प्रीमियम वसूलने वाली सरकारी बीमा कम्पनियों तक ने मुसीबत के मारे पालिसी धारकों को धोखा दे दिया | निजी अस्पतालों ने लोगों की मजबूरी का फायदा उठाकर  भारी - भरकम अग्रिम राशि उन मरीजों से भी नगद में जमा करवाई जिनके पास नगदी रहित ( कैश लेस ) बीमा पालिसी थी | बाद में बीमा कम्पनियों ने तरह – तरह के बहाने बनाते हुए उनके चिकित्सा खर्च का भुगतान करने से इंकार कर दिया | जबसे बीमा व्यवसाय में निजी क्षेत्र को इजाजत मिल गयी है तबसे दर्जनों नई कम्पनियां आकर्षक योजनाओं का प्रलोभन देते हुए बाजार में आ टपकीं | उनकी तरफ से हुई बेईमानी तो अनपेक्षित नहीं थी किन्तु सरकारी नियन्त्रण वाली बीमा कम्पनियों ने जिस तरह का अमानवीय दृष्टिकोण कोरोना काल में दिखाया वह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता किन्तु लाखों शिकायतों के बावजूद एक भी कम्पनी पर शिकंजा नहीं कसा गया , उल्टे कोरोना के बहाने से वार्षिक प्रीमियम में लगभग दो गुना वृद्धि करते हुए बीमा धारकों के कन्धों पर जबरदस्त बोझ डाल दिया गया | ये देखते हुए कोरोना से हुई मौतों पर प्रभावित परिवार को मुआवजा देने के साथ ही अस्पतालों में भर्ती होकर स्वस्थ हो गये बीमा धारकों के दावों के भुगतान की तरफ भी सरकार को ध्यान देना चाहिए | इस बारे में बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण के साथ ही उपभोक्ता अदालतों में लाखों शिकायतें लंबित हैं | इनके जल्द निपटारे के बारे में भी समुचित व्यवस्था बनानी होगी  क्योंकि  सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की उसे ये ध्यान रखना चाहिए कि न्यायपालिका का काम दैनंदिन प्रशासन चलाना नहीं होता परंतु सरकारी उदासीनता उसे इस बात के लिए बाध्य  करती है | मरने वाले के परिजनों को मिलने वाले वाजिब मुआवजे को लेकर  सर्वोच्च न्यायालय को व्यवस्था देना पड़े ये सरकार के लिए  आत्मविश्लेषण का मुद्दा होना चाहिये |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 22 September 2021

अफगानिस्तान में किरकिरी के बाद अमेरिका को भी भारत की जरूरत



 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज अमेरिका जा रहे हैं | कोरोना के कारण लगभग डेढ़ साल बाद उनका भारत से बाहर जाना होगा | इस दौरान अनेक अंतर्राष्ट्रीय बैठकों और सम्मेलनों में उनकी उपस्थिति आभासी माध्यम से ही सम्भव हो सकी | बावजूद इसके कूटनीतिक मोर्चे पर उनकी सक्रियता में कमी नहीं आई | गत वर्ष गर्मियों में लद्दाख अंचल में चीन के साथ हुए सैन्य टकराव के समय वैश्विक जनमत को भारत के पक्ष में झुकाने के लिए उन्होंने सराहनीय प्रयास किये | उस समय एक तरफ तो कोरोना की मार से पूरा देश हलाकान था वहीं दूसरी तरफ चीन ने सीमा पर  सैन्य टकराव के हालात पैदा कर दिए | लेकिन भारत ने सैन्य मोर्चे पर  जिस मुस्तैदी से जवाब दिया उसके कारण पूरी दुनिया को ये लगा कि वह अब एक विश्वशक्ति की तरह व्यवहार करने लगा है |  सीमा पर माकूल जवाब देने के साथ ही आर्थिक मोर्चे पर आत्मनिर्भर भारत का जो नारा गूंजा ,  वह चीन पर  निर्भरता कम करने की दिशा में बड़ा कदम साबित हुआ | उसके बाद से ही औद्योगिक उत्पादन में लगने वाली अनेक वस्तुओं का उत्पादन देश में शुरू हो सका | लेकिन कोरोना की पहली लहर पूरी तरह समाप्त हो पाती उसके पूर्व ही दूसरी का हमला हो गया जो पहली से ज्यादा खतरनाक साबित हुआ |  ये कहना गलत न होगा कि तमाम विषमताओं और विसंगतियों के बावजूद भारत ने इस महामारी  के विरुद्ध जिस तरह लड़ाई लड़ी उसने पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया और यही वजह रही जब अनेक देशों की  अर्थव्यवस्था पर चिंता के बादल मंडरा रहे थे तब भारतीय बाजारों में विदेशी निवेशकों ने रिकॉर्ड तोड़ धन लगाया और वह सिलसिला आज तक जारी है | चीन के  विकल्प  के तौर पर भारत में निवेशकों  की बढ़ती रूचि के पीछे  एक बड़ा कारण प्रधानमंत्री की छवि भी है | भले ही विपक्षी दलों  के अलावा एक तबका उनका घोर विरोधी हो लेकिन हालिया अंतर्राष्ट्रीय  सर्वेक्षणों में सर्वाधिक ताकतवर और लोकप्रिय वैश्विक नेता के तौर पर श्री मोदी का उभरना देश  के लिए शुभ संकेत है | कोरोना की तीसरी लहर का भय कम होते जाने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था कुलांचे भरने के संकेत दे रही है | लेकिन इस बीच अफगानिस्तान में हुए सत्ता परिवर्तन से  एशिया सहित  समूचे विश्व की शांति और शक्ति संतुलन गड़बड़ा गया है | अफगानिस्तान का निकटस्थ पड़ोसी होने से भारत के लिए भी  चिंता के कारण बन गये हैं | विशेष तौर पर पाकिस्तान और चीन जिस तत्परता से तालिबानी सत्ता के मददगार बनकर सामने आये हैं उससे हमें  भविष्य में नये संकट का सामना करना पड़ सकता है | अमेरिका इस मामले में सबसे बड़ा पक्ष रहा है और अफगानिस्तान के मौजूदा सूरते हाल को देखते हुए ये कहा  जा सकता है कि उसे  चाहे – अनचाहे आगे भी  वहां हस्तक्षेप करना पड़ेगा | इसलिए भारत का उसके साथ अन्तरंग सम्पर्क में रहना जरूरी है | अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो.बाइडेन के बारे में ये धारणा थी कि वे बिल क्लिंटन , बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रम्प की तरह संभवतः खुलकर भारत का साथ नहीं  देंगे लेकिन अफगानिस्तान में उनके पांसे जिस तरह उलटे पड़े उसके बाद दक्षिण एशिया में एक मजबूत साझेदार के तौर पर भारत , अमेरिका के लिये अपरिहार्य बन गया | इसका प्रमाण तब मिला जब श्री बाइडेन ने श्री मोदी से तो फोन पर बातचीत की लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को नजरअंदाज कर  दिया जिसका रोना  वे आये दिन रोया करते हैं | ये सब देखते हुए श्री मोदी  की  ये अमेरिका यात्रा कूटनीतिक मोर्चे पर एक महत्वपूर्ण पहल कही जा सकती है | वैसे सितम्बर में हर साल संरासंघ की महासभा को संबोधित करने प्रधानमंत्री अमेरिका जाते रहे हैं लेकिन इस यात्रा में श्री मोदी प्रत्यक्ष रूप से पहली बार श्री बाइडेन से  मिलने के साथ - साथ  अमेरिका , जापान , भारत और आस्ट्रेलिया के क्वाड नामक गठबंधन के शिखर सम्मेलन में भी  हिस्सा लेंगे जो  दक्षिण एशिया और प्रशांत क्षेत्र में चीन की  जबरिया दखलंदाजी के विरुद्ध सशक्त  मंच बन गया है | हालाँकि श्री मोदी वहां की  उप राष्ट्रपति भारतीय मूल की कमला हैरिस के अलावा दुनिया की अनेक दिग्गज कम्पनियों के प्रमुखों से मिलंने के साथ ही  संरासंघ की महासभा को भी सम्बोधित करेंगे किन्तु यात्रा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग राष्ट्रपति बाइडेन से भेंट  और क्वाड देशों के शिखर सम्मलेन में शिरकत करना है | अफगानिस्तान मसले पर श्री बाइडेन से फोन पर तो उनकी  चर्चा हो चुकी है लेकिन आमने – सामने की बातचीत के अपने लाभ हैं  | नये अमेरिकी राष्ट्रपति महज 9 महीने के भीतर अपने देश में जिस तरह अलोकप्रिय हो रहे हैं उसके कारण उनको  एशिया में भारत जैसे देश  के साथ की जरूरत है जो अफगानिस्तान में पाकिस्तान और चीन की जुगलबंदी के विरुद्ध मुस्तैदी से खड़ा रह सके | आर्थिक दृष्टि से भी भारत बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए चीन का सशक्त विकल्प बनकर सामने आया है | बीते 7 साल में श्री मोदी ने राजनीतिक स्थिरता बनाए रखते हुए जो नीतिगत दृढ़ता दिखाई उससे भारत की साख और धाक में वृद्धि हुई है | चूँकि आगामी लोकसभा चुनाव में अभी तकरीबन तीन साल हैं इसलिए विदेशी निवेशक निःसंकोच यहाँ अपनी पूंजी लगाने के प्रति उत्साहित हैं | सबसे बड़ी बात ये है कि अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर चाहे डेमोक्रेट बैठे या रिपब्लिक , भारत के प्रति उसका नजरिया काफी सकारात्मक होता जा रहा  है | इसीलिये  अफगानिस्तान के ताजा  घटनाक्रम के बाद की परिस्थितियों में भारत की भूमिका पर विश्व समुदाय की निगाह लगी हुई है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 21 September 2021

काम न पूछो नेता का पूछ लीजिये जात



मोदी मंत्रीमंडल में हुए फेरबदल के बाद इस बात को जोरदारी से प्रचारित किया गया कि नए मंत्रियों में ज्यादातर पिछड़ी और अनु. जाति / जनजाति के हैं | शपथ ग्रहण के दौरान टीवी चैनलों के उद्घोषक  मंत्रियों की शिक्षा और प्रशासनिक अनुभव से ज्यादा उनकी जाति बताने पर जोर देते रहे | कहा गया कि प्रधानमन्त्री और भाजपा ने उ.प्र के आगामी विधानसभा  और 2024 के लोकसभा  चुनाव  हेतु अभी से जातीय समीकरण बिठाने  शुरू कर दिए हैं | कर्नाटक और गुजरात में मुख्यमंत्री बदलते समय भी ये बात योजनाबद्ध तरीके से बताई गई कि वे अमुक जाति के हैं | इसी तरह दो दिन पहले तक कम लोग ही जानते होंगे कि पंजाब के नए मुख्यमंत्री चरनजीत सिंह चन्नी दलित समुदाय से  हैं | जिस तरह गुजरात के  नये मुख्यमंत्री का नाम दौड़ में नहीं था ठीक वैसे ही श्री चन्नी के नाम की भनक किसी को नहीं थी | हालाँकि बाद में ये बात सामने आई कि सुखजिंदर सिंह रंधावा को कैप्टेन  अमरिंदर सिंह का उत्तराधिकारी बनाया जा रहा था लेकिन नवजोत सिंह सिद्धू ने टांग फंसा दी जिन्हें  इस बात का डर था कि वे उनके रास्ते का रोड़ा बन जायेंगे | उल्लेखनीय है उन्होंने सारा खेल स्वयं मुख्यमंत्री बनने के लिए रचा था लेकिन  पर्याप्त समर्थन नहीं मिला और तब उन्होंने जट सिख के बजाय दलित समुदाय के सिख के तौर पर श्री चन्नी को आगे कर दिया | वैसे पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ का नाम भी चर्चा में था किन्तु वे  सिख बहुल राज्य होने के नाम पर ठुकरा दिए गए | हालांकि  श्री सिद्धू कांग्रेस आलाकमान की पसंद थे लेकिन कैप्टेन ने जाते – जाते उनके पाकिस्तान प्रेम का बखेड़ा खड़ा कर होठों तक आया प्याला छीन  लिया | अब इस बात का ढोल पीटा जा रहा है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने अकाली दल और बसपा द्वारा दलित उपमुख्यमंत्री बनाये जाने के वायदे की हवा निकालने के लिए ये दांव चला है और इसका फैसला वे काफी पहले कर चुके थे जिसे अमली जामा पहिनाने के लिए सिद्धू – अमरिंदर विवाद को हवा दी गई | लगे हाथ ये बात भी  सामने आ गई कि पंजाब की कुल आबादी में 32 प्रतिशत दलित हैं और तकरीबन 24 विधानसभा सीटों पर उनके मत निर्णायक हैं | श्री चन्नी को मुख्यमंत्री बनाये जाने के निर्णय को उ.प्र के आगामी चुनाव से जोड़कर भी देखा जा रहा है जहां दलितों की संख्या काफी है किन्तु  वे कांग्रेस के हाथ से छिटक गये हैं | उल्लेखनीय है बसपा के संस्थापक कांशीराम मूलतः पंजाब के थे और वहां से लोकसभा के लिए चुने भी गये | लेकिन ज्यों – ज्यों मायावती का प्रभाव बढ़ा त्यों – त्यों बसपा का कार्यक्षेत्र उ.प्र होता गया और कालान्तर में वहीं उसकी पहली  सरकार भी बनी | भाजपा से अलग होने के बाद अकाली दल को भी पंजाब में सहयोगी चाहिए था और जब बसपा ने हाथ बढ़ाया तो उसने उसे थामकर  बिना देर किये  दलित उपमुख्यमंत्री के  वायदे के साथ चुनाव का बिगुल फूंक दिया  | रही बात भाजपा की तो पंजाब में वह फिलहाल तो दयनीय स्थिति में है | उसके प्रतिबद्ध हिन्दू मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए चन्नी मंत्रीमंडल में एक हिन्दू उपमुख्यमंत्री भी बनाया गया है | कुल मिलाकर समूचे घटनाक्रम का अंत इस बात पर जाकर हुआ कि पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री मिल गया जो 32 फीसदी दलित समुदाय को एकमुश्त कांग्रेस के पाले में खींचकर चुनावी जीत में सहायक होगा | ये उम्मीद भी जताई जा रही है कि इसके प्रभावस्वरूप उ.प्र के दलित समुदाय में भी कांग्रेस अपनी पकड़ एक बार फिर स्थापित कर सकेगी | लेकिन इस सबके बीच नए मुख्यमंत्री की योग्यता , क्षमता , अनुभव और अब तक किये गये उल्लेखनीय कार्यों की ज्यादा  चर्चा नहीं हुई | हालाँकि इसके लिए केवल कांग्रेस को कसूरवार ठहराना पक्षपात होगा | सच्चाई ये है कि राष्ट्रीय और  क्षेत्रीय दोनों ही पार्टियां जातिगत राजनीति के शिकंजे में फंस चुकी  हैं | भाजपा एक ज़माने में इससे दूर रहा करती थी किन्तु बाबरी ढांचा गिरने के एक साल बाद उ.प्र विधानसभा चुनाव में प्रचंड रामलहर पर जब सपा – बसपा गठबंधन भारी पड़ा तबसे उसे  भी ये लगने लगा कि हिन्दू ध्रुवीकरण तभी  कारगर होगा  जब उसके साथ जातिगत समीकरण भी  जुड़े | उ.प्र में पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भाजपा की  अभूतपूर्व सफलता में नरेंद्र मोदी की छवि और हिंदुत्व के साथ ही जातीय संतुलन को बनाए रखना भी बड़ा कारण रहा | दरअसल आज की भारतीय राजनीति में सुशासन से ज्यादा महत्व जातिगत समीकरण  का हो गया है | पंजाब में दलित कार्ड खेलने के पीछे उस समुदाय का कल्याण करने से ज्यादा भावनात्मक दोहन कर उसके मतों को थोक में हासिल करना उद्देश्य है | उल्लेखनीय है श्री चन्नी मंत्री रहते हुए मीटू के मामले में बदनाम हो  चुके थे  | ये दावा भी किया जा रहा है कि वे दलित सिख न होकर ईसाई हैं | उनके विरुद्ध और भी अनेक बातें सामने लाई जा रही हैं | लेकिन फ़िलहाल तो दलित होने से उनकी लॉटरी खुल गई है | कांग्रेस और भाजपा दोनों सही मायने में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त हैं | ऐसे में जब वे  ही जाति नामक मकड़जाल में फंसकर राजनीति करेंगी  तब छोटे – छोटे दलों से कुछ अपेक्षा करना बेकार है | हाल ही में जिन राज्यों के मुख्यमंत्री बदले गए उनकी पेशेवर दक्षता से अधिक इस बात को उजागर किया कि वे फलां – फलां जाति  के हैं जिसके राज्य में इतने प्रतिशत मत हैं | सही मायनों में लोकतंत्र की सफलता तभी है  जब समाज के हर वर्ग को विकास के समान अवसर मिलें | लेकिन ये भी साबित हो चुका है कि कठपुतली शासक बनकर बैठा व्यक्ति चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता | मसलन पंजाब के मुख्यमंत्री को दलित चेहरा बताकर सत्ता पर तो बिठा दिया गया लेकिन उन्हें पार्टी का चेहरा बनाने लायक नहीं  समझा गया | इसीलिये उनकी ताजपोशी  के साथ ही ये ऐलान भी कर दिया गया कि आगामी चुनाव में पार्टी का चेहरा श्री सिद्धू ही होंगे | इस घोषणा का पहला विरोध तो पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने ही कर दिया | 21 वीं सदी में भारत का लोकतंत्र और उसे चलाने वाले राजनीतिक नेताओं की योग्यता का मापदंड यदि  शिक्षा  और अनुभव की बजाय उनकी जाति और समुदाय ही माने जाते रहे तब ये आशंका गलत नहीं है कि समाज को टुकड़े – टुकड़े करने का षडयंत्र रचा जा रहा है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 20 September 2021

मुफ्तखोरी के चुनावी वायदे बढ़ा रहे निकम्मों की फौज



दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल उच्चशिक्षित राजनेता हैं | आयकर विभाग में बड़े अधिकारी के तौर पर कार्य करने का भी उन्हें अच्छा - खासा अनुभव है | राजनीति में आने से पहले वे विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों के जरिये जनहित के कार्यों में सक्रिय रहे | 2015 में दिल्ली की जनता ने नई नवेली आम आदमी पार्टी को जो ऐतिहासिक बहुमत दिया उसमें मुफ्त बिजली और पानी जैसे वायदों  का भी योगदान था | सत्ता मिलने के बाद उनकी सरकार ने मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी विद्यालयों के उन्नयन का जो कार्य किया , उसने  उसको एक उदाहरण  बना दिया | 2020 में भी श्री केजरीवाल ने उक्त कार्यों के  कारण दोबारा धमाकेदार जीत हासिल की | यद्यपि ऐसा   भी नहीं  है कि अरविन्द और उनके मंत्रीगण रामराज ले आये हों  | सत्ता का दुरुपयोग , भ्रष्टाचार , सादगी के दावों की धज्जियाँ उड़ाना  और महिला उत्पीड़न जैसे अनेक आरोप लगते रहने के  बाद भी चूंकि आम आदमी पार्टी की सरकार ने मुफ्त बिजली – पानी के अलावा  मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी विद्यालयों  के कायाकल्प जैसे  काम किये इसलिए मतदाताओं ने उनकी तमाम कमियों और गलतियों को नजरंदाज कर दिया | लेकिन ये सब इसलिए हो सका क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी  के कारण दिल्ली को विकास कार्यों के लिए केंद्र सरकार से भरपूर धन मिल जाता है | उसके अलावा  कर वसूली भी अनेक  राज्यों  से अधिक  होने से राज्य सरकार के पास काफी राजस्व आ जाता है | दिल्ली में मिले जनसमर्थन के कारण आम आदमी पार्टी का हौसला मजबूत हुआ और उसने लोकसभा के साथ  - साथ कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी हाथ आजमाया | पंजाब में जरूर उसको थोड़ी सफलता मिली लेकिन बाकी में वह  ख़ास न कर सकी | लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के लगातार कमजोर होते जाने से पार्टी की उम्मीदें माजबूत होती जा रही हैं | और इसीलिए उसने पंजाब और उत्तराखंड के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए मोर्चेबंदी शुरू कर दी है | हालाँकि वह  उ.प्र में भी हाथ आजमाने जा रही है लेकिन वहां ज्यादा संभावनाएं नजर नहीं आने से वह  पंजाब और उत्तराखंड पर निगाहें जमाये है | हाल ही में पंजाब में श्री केजरीवाल  ने किसानों को मुफ्त बिजली देने और  पुराने बिल माफ़ करने का वायदा किया था | गत दिवस उत्तराखंड के दौरे पर उन्होंने मुफ्त बिजली – पानी के अलावा बेरोजगारों को 5 हजार रूपये प्रति माह देने के साथ ही छः महीने में एक लाख सरकारी  नौकरियों का वायदा भी कर दिया | इस बारे में ये बात ध्यान देने वाली है कि केरल उच्च न्यायालय ने एक याचिका  पर हाल ही में चुनाव आयोग को नोटिस भेजकर 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा मतदाताओं के खाते में 72 हजार रु,  सालाना जमा किये जाने के वायदे पर जवाब माँगा है | याचिका में इसे जनप्रतिनिधित्व कानून का उल्लंघन मानकर घूस की श्रेणी में रखते हुए कार्रवाई करने कहा गया है | उस संदर्भ में देखें तो श्री केजरीवाल द्वारा युवकों को 5  हजार देने का वायदा भी  घूस ही कहलायेगी | जहां तक बात सरकारी  नौकरियां देने की है तो उससे बड़ा धोखा कुछ और नहीं है | विधानसभा और लोकसभा चुनाव में तकरीबन हर पार्टी सरकारी नौकरियों का वायदा करती है | लेकिन सत्ता में आने के बाद सांसद और विधायकों के वेतन – भत्ते तो बढ़ा दिए जाते हैं लेकिन नई नौकरियों के लिये आर्थिक संकट का रोना रोया जाता है | जहां तक बात मुफ्त या सस्ती बिजली की है तो इसी के कारण अधिकतर राज्यों के बिजली बोर्ड कंगाली की हालत में आ गये | उत्तराखंड छोटा सा पहाड़ी राज्य है | हालाँकि उ.प्र से अलग होने के बाद वहाँ विकास की गति तेज हुई है किन्तु उसके पास इतने आर्थिक संसाधन नहीं हैं जिनसे मुफ्त बिजली और 5 हजार रु. का मासिक भत्ता युवाओं को दिया जा सके | दिल्ली में जो काम आम आदमी पार्टी की सरकार ने कर दिखाया वह पंजाब और उत्तराखंड में संभव नहीं है क्योंकि वहां की परिस्थितियाँ और आर्थिक दशा अलग है | शिक्षा और स्वास्थ्य जरूर वे क्षेत्र हैं जहां सरकार को जनता की पूरी तरह मदद करनी चाहिए | मोदी सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई  5 लाख रु. तक के इलाज की  आयुष्मान योजना और प्रधानमन्त्री आवास योजना निश्चित तौर पर क्रन्तिकारी कही जा सकती हैं  |  इसी तरह दिल्ली सरकार के मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी विद्यालयों को विकसित किया जाना भी सकारात्मक राजनीति का ज्वलंत उदाहरण हैं | ऐसे में श्री केजरीवाल से ये अपेक्षा गलत न होगी कि वे अन्य राज्यों में भी  सुशासन के वायदे पर मतदाताओं का समर्थन हासिल करें न कि अव्यवहारिक वायदों की झड़ी लगाकर | उनको ये तो पता ही होगा कि दिल्ली में उत्तराखंड के लाखों लोग रोजगार के लिए  रहते हैं जो बड़ी बात नहीं यदि  5 हजार रु.  भत्ते की लालच में वहां से अपने घर लौटकर निकम्मे बन जायें | समय आ गया है  जब केंद्र और राज्य दोनों को मुफ्त संस्कृति पर लगाम कसनी होगी | मुफ्त बिजली , पानी और अनाज मिलने के कारण ही देश में  करोड़ों लोग बिना काम किये बैठे रहते हैं | आम आदमी पार्टी यदि वाकई राष्ट्रीय राजनीति में सक्षम विकल्प बनना चाह रही है तो उसे राजनीतिक स्टंटबाजी से अलग हटकर व्यवहारिक तौर - तरीके अपनाना चाहिए | मुफ्तखोरी की आदत डालकर देश में निकम्मों की फौज खड़ी करना लोगों को अफीमची बनाने जैसा ही है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 18 September 2021

बिना खेले इमरान को क्लीन बोल्ड कर दिया न्यूजीलेंड की टीम ने



पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान दुनिया के जाने माने क्रिकेटर रहे हैं जिनकी कप्तानी में उनके देश ने 1992 का विश्व कप जीता था | उनकी लोकप्रियता ने उन्हें प्रधानमन्त्री पद तक पहुंचाया | विदेश में शिक्षित होने से उनको आधुनिक ख्याल का व्यक्ति माना जाता था | विदेशी महिला से विवाह करने का उनका निर्णय पाकिस्तान के कट्टर इस्लामी तबके को नागवार गुजरा किन्तु इमरान ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठाते हुए  जनता के मन में अपनी जगह बनाई और राजनीतिक पार्टी बनाकर सत्ता के लिए अपनी  दावेदारी पेश कर दी | यहाँ तक पहुँचने के लिए यद्यपि उनको काफी पापड़ बेलने पड़े | अंततः वे सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा की मदद से प्रधानमन्त्री बनने में सफल हो गये | शुरुवात में उनके  एक सुलझे हुए राजनेता के तौर पर नजर आने से ये उम्मीद भी जागी थी कि भारत के साथ रिश्तों में सुधार आयेगा | भ्रष्टाचार और फिजूलखर्ची पर रोक लगाने की दिशा में उनकी सरकार ने अनेक कदम उठाये किन्तु धीरे – धीरे वे भी  फौज के हाथ की कठपुतली बनकर कट्टरपंथ की भाषा बोलने लगे |  इस वजह से पाकिस्तान पूरी दुनिया के निगाह में आतंकवाद का पालक – पोषक देश माना  जाने लगा | चीन और चंद इस्लामिक देशों को छोड़कर बाकी के मन में उसकी छवि बेहद खराब होती चली गयी | परिणाम ये हुआ कि जो अमेरिका और ब्रिटेन उसे दत्तक पुत्र समझकर भारत की अनदेखी करते हुए आर्थिक और सामरिक सहायता देने में बड़े  उदार थे , वे दूरी बनाने लगे | इस कारण उसकी आर्थिक हालत लगातार कमजोर होने लगी | हाल ही में जब अमेरिका की फौजें अफगानिस्तान छोड़कर गईं तब ये बात जगजाहिर हो गई कि वहां की सरकार को अस्थिर करने के लिए पकिस्तान की सेना ने तालिबान को भरपूर मदद की | इसका कारण मुख्यतः उसका भारत समर्थक होना था | जल्द ही ये बात भी सामने आने लगी कि तालिबान सहित आईएस जैसे ढेर सारे आतंकवादी संगठनों का कारोबार पाकिस्तान से ही चल रहा है | काबुल हवाई अड्डे के बाहर हुए विस्फोट का मास्टर माइंड भी पाकिस्तान में ही छिपा बैठा था | तालिबान सरकार के गठन में भी पाकिस्तान ने खुलकर दखल दिया | इमरान खान वे पहले विदेशी नेता थे जिन्होंने तालिबान की जीत पर खुशी जाहिर करते हुए पूरी दुनिया से उसे मान्यता देने की अपील की | इसकी वजह से पाकिस्तान की असलियत पूरी तरह सामने आ गई | और हालात यहाँ तक बन गये कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन उनसे बात तक नहीं कर रहे जिसका  दर्द वे सार्वजनिक तौर पर भी व्यक्त कर चुके हैं | अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम में इमरान ने जिस तरह बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना वाली भूमिका निभाई उससे तालिबान भी सतर्क हो गया और उसने भी पाकिस्तान को ज्यादा टांग अड़ाने से रोका | इसी तरह ईरान भी इमरान सरकार की वहां जरूरत से ज्यादा दखलंदाजी से नाराज है | जिस तरह इमरान सरकार ने तालिबान को दूध का धुला साबित करने का प्रयास किया उससे उसका अपना चेहरा काला हो गया | जो रूस चीन को अफगानिस्तान में पाँव जमाने से रोकने के लिए तालिबान को मान्यता देने आतुर था उसने भी फ़िलहाल अपने कदम रोक रखे हैं | इमरान ने तालिबान का आँख मूंदकर समर्थन कर अपने लिए ही गड्ढे खोद डाले जिससे  काबुल जैसे डराने वाले दृश्य पाकिस्तान में जगह – जगह दिखाई देने लगे | इमरान के अतीत और पृष्ठभूमि को देखते हुए ये  उम्मीद थी कि पाकिस्तान को ख्याली तौर पर तरक्कीपसंद देश बनाकर मुख्यधारा  की वैश्विक राजनीति में अपने लिए जगह बनायंगे | लेकिन ये कहना गलत नहीं है कि वे पिछले सभी प्रधानमंत्रियों की तुलना में सबसे कमजोर साबित हुए हैं | गत दिवस उनके गाल पर जबरदस्त चांटा मारा पाकिस्तान के दौरे पर आई न्यूजीलैंड की क्रिकेट टीम ने जब पहले टेस्ट मैच में टास के पहले उसने मैदान में उतरने से मना कर दिया | खबर यहाँ तक है कि इमरान ने दौरा बहाल करने के लिए न्यूजीलैंड की प्रधानमन्त्री तक से बात की किन्तु उसने भी अपने खिलाड़ियों  की सुरक्षा को ज्यादा महत्त्व दिया | इमरान की चिंता इसलिए और बढ़ गई क्योंकि इसके बाद  आने वाली इंग्लेंड टीम का दौरा भी रद्द होने की सम्भावना है | लगातार दो विदेशी टीमों का दौरा आतंकवाद के डर से रद्द होने से क्रिकेट जगत में पाकिस्तान की किरकिरी हो जायेगी और जब वहां की  क्रिकेट टीम का पूर्व कप्तान ही प्रधानमंत्री बना बैठा हो तब इस तरह के हालात बन जाना शर्मिन्दगी पैदा करने वाले हैं जिसके लिए इमरान खुद दोषी हैं जिन्होंने बजाय सुधार लाने के पाकिस्तान को उस रास्ते पर धकेल दिया जिसमें तबाही  ही तबाही है | तालिबान का खुला समर्थन कर पाकिस्तान ने अपने लिए जो मुसीबत पैदा कर ली वह इमरान की गद्दी ले डूबे तो आश्चर्य नहीं होगा | पाकिस्तान में जो बचे - खुचे समझदार लोग हैं वे खुलकर इमरान की अफगान नीति के नुकसान बता रहे हैं | ये आशंका दिन ब दिन मजबूत होती जा रही है कि जिस तालिबान के भरोसे इमरान कश्मीर को भारत से छीनने का ख्वाब देखने लगे है वही उनके पश्चिमी सीमान्त को हड़पने की मंशा पाले हुए बैठा है | इस बारे में ये बात ध्यान  रखनी चाहिए कि जिस तरह दर्शकों के बिना टोक्यो में ओलम्पिक सम्पन्न हो गया वैसा ही न्यूजीलैंड के साथ होने वाली क्रिकेट मैचों की श्रृंखला में हो सकता था किन्तु अमेरिकन गुट में माने जाने वाले न्यूजीलैंड ने इमरान सरकार पर भरोसा नहीं किया | देखने में बात छोटी सी है लेकिन इससे पाकिस्तान की खराब हो चुकी छवि एक बार फिर चर्चा में आ गई है | ये भी कहा जा सकता है कि न्यूजीलैंड की टीम ने बिना मैदान में उतरे ही इमरान को क्लीन बोल्ड कर दिया | वैसे भी लम्बे समय से पाकिस्तान के मैदान विदेशी टीमों को देखने तरस रहे हैं |

 -रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 17 September 2021

पेट्रोल – डीजल पर जीएसटी आर्थिक और राजनीतिक दोनों दृष्टियों से जरूरी



आज जीएसटी काउंसिल की 45 वीं बैठक लखनऊ में होने जा रही है | इसमें 50 से ज्यादा वस्तुओं पर जीएसटी लगाने या मौजूदा दर में बदलाव संबंधी निर्णय होगा | लेकिन देश के करोड़ों लोगों को इस बात में सबसे ज्यादा रूचि है कि पेट्रोल और डीजल को जीएसटी  में लाने पर फैसला होता है या नहीं ? उल्लेखनीय है जब जीएसटी लागू किया गया था तब आश्वासन मिला था कि एक देश , एक टेक्स के अंतर्गत पेट्रोल – डीजल भी उसमें शामिल होगा | लेकिन जब उस पर अमल शुरू हुआ तब आश्चर्यजनक तरीके से पेट्रोलियम पदार्थ उससे बाहर रख दिए गये | तर्क ये था कि प्रारंभिक तौर पर राज्यों के सामने राजस्व का संकट आएगा इसलिए पेट्रोल – डीजल और रसोई गैस  को भी शराब की तरह उन्हीं  के जिम्मे छोड़ दिया जावे ताकि वे अपनी वित्तीय जरूरतें पूरी कर सकें | परिणामस्वरूप  उनके दाम आसमान छूने लगे | पहले अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल के दाम बढ़ने से भारत में पेट्रोल – डीजल और साथ ही साथ रसोई  गैस महंगी होती गई | लेकिन वहाँ दाम गिरने के बावजूद  कोरोना के कारण केंद्र और राज्य सरकारों का खजाना खाली होने से उन्हें  इन चीजों से अपनी जरूरतें पूरी करना ही आसान प्रतीत हुआ |  नतीजतन म.प्र सहित कुछ राज्यों में तो पेट्रोल और डीजल बढ़कर 100 रु. प्रति लिटर से भी ज्यादा हो गये ,  वहीं रसोई गैस  900 रु. प्रति सिलेंडर के लगभग जा पहुँची है | यद्यपि इससे  केंद्र और राज्य सरकारों के पास तो जमकर पैसा आया लेकिन जनता की जेब खाली होने लगी | परिवहन महंगा होने से सभी चीजों के दाम बढ़े और  महंगाई का आँकड़ा भी ऊपर जाने लगा | लॉक डाउन के दौरान भले ही निजी वाहन कम चले हों लेकिन ज्योंही हालात सामान्य हुए त्योंही सड़कों पर उनकी कतारें नजर आने लगीं | और तो और कोरोना के संक्रमण से बचाव के लिए मध्यमवर्गीय व्यक्ति भी निजी वाहन से ही लम्बी दूरी की यात्राएं करने लगे | चार पहिया वाहनों की बिक्री में वृद्धि के आंकड़े उनके बढ़ते उपयोग का साक्षात प्रमाण हैं किन्तु पेट्रोल – डीजल की कीमतों में अकल्पनीय वृद्धि से हर वर्ग का नागरिक त्रस्त है | ये ऐसी चीजें हैं जिनके उपयोग के बिना काम नहीं चलता |  सरकार इस मजबूरी को समझती है और इसीलिये वह  पेट्रोल – डीजल के दाम नियमित आधार पर और रसोई गैस के थोड़े – थोड़े अन्तराल से बढ़ाती गई | इनको  जीएसटी में शामिल किये  जाने पर जैसी कि उम्मीद जताई जा रही है पेट्रोल – डीजल घटकर 65 से 75 रु. प्रति लिटर के लगभग आ जायेंगे वहीं रसोई गैस भी कम से कम 200 प्रति सिलेंडर सस्ती हो सकती है | वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण हाल ही में इस बारे में संकेत दे चुकी हैं | अड़चन  ये है कि कम से कम दो तिहाई या तीन चौथाई राज्यों की सहमति  इस बारे में होना चाहिए | केंद्र सरकार ये बहाना बनाकर अब तक बचती आई है कि राज्य इसके लिए राजी नहीं हैं | लेकिन ये तर्क इसलिए गले नहीं उतरता क्योंकि देश के अधिकतर राज्यों में भाजपा या उसके द्वारा समर्थित सरकारें हैं | कुछ क्षेत्रीय पार्टियाँ भी हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर केंद्र सरकार के साथ खड़ी रहती हैं | इस आधार पर ये सोचना  गलत न होगा कि  केंद्र सरकार चाह ले तो  पेट्रोल- डीजल और रसोई गैस को जीएसटी के अंतर्गत लाने का प्रस्ताव आज की बैठक में  स्वीकृत हो सकता है |  राजनीतिक कारणों से भी ऐसा करना भाजपा के लिए जरूरी है क्योंकि उ.प्र , उत्तराखंड , मणिपुर , गोवा और पंजाब के आगामी चुनाव में इन चीजों की कीमतें उसके लिए समस्या बन सकती हैं | डीजल महंगा होने से किसान भी बेहद त्रस्त हैं | अर्थव्यस्था तेजी से पटरी पर लौट रही है जिसका प्रमाण जीएसटी से प्रति माह होने वाली उगाही के आँकड़े हैं | कारखानों में उत्पादन बढ़ने की खबरें भी उत्साह जगाने वाली हैं | कोरोना काल में राजस्व की  कमी को पेट्रोल – डीजल से पूरा करने की बात तो चलो समझ में आती थी किन्तु अब तो सरकार के पास पर्याप्त कर आने लगा है | अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार से ये उम्मीद बलवती हो रही है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष में ही विकास दर में बीते साल आई गिरावट की भरपाई हो जावेगी | ऐसे में राजनीतिक और आर्थिक दोनों परिस्थितियाँ इस बात पर जोर दे रही हैं कि पेट्रोल- डीजल को फ़ौरन जीएसटी के अंतर्गत लाया जावे जिससे आम जनता को राहत मिलने के साथ ही उद्योग , व्यापार के अलावा  कृषि क्षेत्र में लागत कम होने से उत्पादकता बढ़े तथा महंगाई का आंकड़ा भी नीचे आये | भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है यहाँ का मध्यम वर्ग जिसके कारण बाजारों में रौनक आती है |  यदि  पेट्रोल – डीजल को जीएसटी के अंतर्गत लाकर उनके दाम घटा दिए गये तो उपभोक्ताओं को होने वाली बचत अंततः बाजार में ही जाएगी और घूम – फिरकर सरकार को उससे कर मिल जावेगा | इस बारे में उल्लेखनीय है कि पेट्रोल - डीजल   पर 28 फीसदी की दर से जीएसटी लागू होगा जो कि अधिकतम होने के बाद  भी उनके दामों में तकरीबन 40 फीसदी की कमी संभावित है | बशर्ते  अधिभार जैसा कोई जबराना शुल्क आरोपित न कर दिया जावे  | वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को चाहिए वे  भाजपा शासित और समर्थित राज्य सरकारों को इस बारे में राजी करें क्योंकि यदि वे सब एकमत हो जाएं तो बाकी दलों की सरकारें भी जनता की  नाराजगी से बचने के लिए साथ आने बाध्य हो जायेंगीं | संयोग से आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन भी है | यदि आज की बैठक में  पेट्रोल – डीजल और रसोई गैस को जीएसटी के तहत लाकर उनकी कीमतें कम की जा सकें  तो इससे अच्छा संयोग और क्या होगा ? भारत में चूंकि सरकार के अधिकतर फैसले राजनीतिक नफे – नुकसान के हिसाब से किये जाते हैं इसलिए उस दृष्टि से भी ऐसा करना भाजपा के लिए लाभकारी  होगा | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 16 September 2021

अगले दस साल में भारत चीन की बराबरी कर सकता है बशर्ते



हमारे देश में राजनीति कभी न खत्म होने वाला विषय है | केवल राजनीतिक नेता और  कार्यकर्ता ही नहीं वरन रोजमर्रे की समस्याओं से जूझता आम आदमी भी मौका पाते ही राजनीतिक मुद्दों पर अपने ज्ञान को प्रकट करना नहीं भूलता |  ये कहना भी गलत न होगा कि राजनीति पर होने वाली अधिकतर चर्चा का केंद्र चुनाव ही होते हैं | चूँकि चुनावी वायदों  में बौद्धिक  मुद्दों के अलावा आम जनता को सीधे मिलने वाले फायदों का जिक्र होता है इसलिए लोगों की नजर उन पर लगी रहती है क्योंकि  निःशुल्क शिक्षा, पानी और बिजली से शुरू होकर बात नगद राशि तक आ पहुँची है | वैसे  तो चुनाव सुधारों के अंतर्गत चुनाव आयोग ने बीते दो दशक में जबरदस्त सख्ती की लेकिन राजनीतिक दल उसका भी तोड़ निकाल ही लेते हैं | चुनाव के दौरान मतदाता को नगद राशि या कई उपहार देना भ्रष्टाचरण के अंतर्गत आता है | इसलिए नौकरी , साइकिल , टीवी  , लैपटॉप , मिक्सर और ,मंगल सूत्र जैसे वायदे घोषणापत्र में समाहित होने लगे | लेकिन बीते लोकसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा गरीबों के खाते में 6 हजार रु. प्रतिमाह जमा करने जैसा वायदा किया गया था | दिल्ली उच्च न्यायालय में इसके विरूद्ध एक याचिका पेश हुई  जिस पर गत दिवस उसने चुनाव आयोग और केंद्र सरकार से जवाब माँगते हुए   आयोग को इस बात के लिए लताड़ा भी कि आधिकार कोई आभूषण नहीं हैं | उनका उपयोग जनता की भलाई के लिए करें न कि नोटिस जारी करने और आदेश प्रसारित करने तक सीमित रहें | याचिकाकर्ताओं ने कांग्रेस के उक्त  वायदे को जन  प्रतिनिधित्व क़ानून का उल्लंघन मानते हुए कहा कि यदि सभी दल ऐसे वायदे करने लगेंगे तो मतदाताओं का बहुत बड़ा वर्ग श्रम करने से दूर होता जाएगा | आम तौर पर ऐसे मुद्दे समाचार माध्यमों के लिए उतना महत्व नहीं रखते जबकि इन्हें पर्याप्त प्रचार  दिया जाना चाहिए | जहाँ तक बात चुनाव की है  तो लोकतान्त्रिक प्रणाली में जनता द्वारा अपनी सरकार चुने जाने का मकसद महज किसी को जिताना या हराना नहीं बल्कि देश का विकास और भावी पीढ़ी के लिए सुखी और सुरक्षित भविष्य का निर्माण होता है | लेकिन हमारे देश में चुनावों को भी डिस्काउंट सेल का रूप दे दिया जाता  है | इसीलिये राजनीतिक पार्टियाँ तरह – तरह के प्रलोभन देते हुए रस्ते का माल सस्ते जैसे नारे लगाती हैं | विगत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने मतदाताओं को 72 हजार  रूपये सालाना उनके बैंक खाते में जमा करवाने का वायदा किया था लेकिन वह असर नहीं दिखा सका | उसके बाद गत वर्ष कोरोना के कारण  लॉक डाउन की घोषणा करते हुए  प्रधानमंत्री ने गरीबों को मुफ्त अनाज के साथ खातों में रु. 500  जमा करवाने का ऐलान कर दिया | चूँकि  वह आपातकालीन व्यवस्था थी इसीलिये उसका किसी ने विरोध नहीं किया किन्तु ये बात  हर किसी को पता है कि बहुत से लोगों  ने सरकार से मिला मुफ्त अनाज किराने के दुकानों पर बेच दिया | ये बात उजागर होने के बाद  सरकार की आलोचना भी होने लगी कि उसने करोड़ों लोगों को बिना काम किये पेट भरने की सुविधा देकर अकर्मण्य बना दिया | लॉक डाउन हटने के बाद जब कारोबार शुरू हुआ तब श्रमिकों की कमी के पीछे मुफ्त अनाज योजना को ही कारण माना गया | ऐसे में अगर लोगों के खातों में बिना कुछ किये एक निश्चित्त नगद राशि हर महीने जमा होने लगी और ऊपर से मुफ्त और सस्ता अनाज भी मिले तब जाहिर है उनके मन में कामचोरी की भावना तेज  होगी | भारत की 135 करोड़ आबादी यदि बोझ  बन गई तो उसका सबसे  बड़ा कारण वोटों की राजनीति के चलते लोगों को  अकर्मण्य बना देना ही है |  एक तरफ जहाँ बेरोजगारी के आंकड़े पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ने पर आमादा हैं वहीं दूसरी तरफ काम करने के लिए लोग नहीं मिलते | दिल्ली  उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन संदर्भित याचिका पर चुनाव आयोग और केंद्र सरकार क्या जवाब देते हैं ये देखने वाली बात होगी क्योंकि चुनावी घोषणापत्र में मतदाताओं को दिए जाने वाले उपहारों के वायदों पर  सर्वोच्च न्यायालय भी सवाल कर चुका है | वैसे  नगद राशि देना या उसका वायदा तो सीधे घूस के अंतर्गत माना जाना चाहिए | ये इसलिए भी जरूरी है क्योंकि राजनीतिक दलों को न देश की चिंता है और न ही अर्थव्यवस्था की | उनका जोर येन - केन - प्रकारेण चुनाव जीतने पर होता है  और उसके लिए वे सरकारी  खजाना लुटाने में लेश मात्र भी शर्म या संकोच नहीं करते  | इसीलिये सत्ता बदलने पर नई सरकार ये आरोप लगाया करती है कि पिछले लोग  खजाना खाली कर गयी | ऐसे में  सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए कि वह  दिल्ली उच्च न्यायालय में प्रस्तुत उक्त याचिका को स्वतः संज्ञान लेते हुए अपने पास बुला ले और इस बात को परिभाषित करे कि चुनाव घोषणापत्र में मतदाताओं को नगद राशि दिए जाने का वायदा  घूस देने की श्रेणी में है या  नहीं ? और जिन चीजों को बतौर मुफ्त उपहार देने की घोषणा की जाती है क्या वैसा करना चुनाव कानूनों का उल्लघन नहीं है ?  याचिकाकर्ताओं की ये चिंता पूरी तरह वाजिब और सामयिक है कि सभी दल  नगद राशि देने का वायदा करने लगे तो जनता के बड़े वर्ग में मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति बढ़ेगी जो देश के लिए बहुत नुकसानदेह होगी  |  बड़ी बात नहीं आगामी आम चुनाव में कोई पार्टी कांग्रेस से दो कदम आगे बढ़कर और बड़ी राशि नगद देने का लालच देने लगे | कुछ लोग इस बारे में ये तर्क भी देते हैं कि जब भ्रष्ट अधिकारी और राजनेता दोनों हाथों से लूटमार करने में जुटे हुए हैं तब गरीबों को दी जाने वाले सुविधा या धन पर ऐतराज क्यों किया जाता है ? उनकी बात कुछ हद तक सही भी है परन्तु मुफ्त में नगद दिये जाने की बजाय बेहतर हो लोगों का पारिश्रमिक बढ़ाने का वायदा चुनाव घोषणापत्र में हो जिससे बिना काम किये घर बैठे – बैठे खाने की मनोवृत्ति  को रोका जा सके | भारत को यदि विकसित देश बनाना है तो  हर नागरिक को काम करना होगा , फिर  चाहे वह संपन्न हो या फिर  मध्यम अथवा  निम्न आय  वर्ग  का  | यदि हम विशाल आबादी को  मानव संसाधन में परिवर्तित कर सकें तो निश्चित तौर पर  कुछ ही वर्षों में भारत भी चीन की बराबरी करने की स्थिति में आ जायेगा | लेकिन इसके लिए देश को ऐसे राजनेता चाहिए जो अगले चुनाव की बजाय अगली पीढ़ी के बारे में सोचें | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Wednesday 15 September 2021

टिकैत की हेकड़ी से किसान आन्दोलन कमजोर होने लगा

 

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर किसान संयुक्त मोर्चा दिल्ली की सिन्धु सीमा पर एक तरफ का राजमार्ग खाली करने सहमत हो गया है | हाल ही में हरियाणा के करनाल में भी किसानों ने यातायात को सुचारू  रखने के लिए रास्ता खाली किया था | दो दिन पूर्व ही पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने  किसानों से अपील की कि वे पंजाब में अपना आन्दोलन समेटकर हरियाणा या दिल्ली  ले जाएँ क्योंकि उसकी वजह से राज्य का विकास प्रभावित हो रहा है  | उनके इस बयान पर अकाली दल और आम आदमी पार्टी ने हमलावर रुख अपनाते हुए कहा कि अमरिंदर ने किसानों को मझधार में छोड़ दिया है | दूसरी तरफ हरियाणा के वरिष्ठ मंत्री अनिल विज ने आरोप लगाया कि कैप्टेन की अपील से साबित हो गया कि किसानों को आन्दोलन के लिए भड़काने का काम उन्हीं का था और जब वह उन्हीं के गले पड़ने लगा तब वे उससे छुटकारा पाना चाह रहे हैं | दूसरी तरफ आन्दोलन के शीर्ष नेताओं में राकेश टिकैत को लेकर भी मतभेद सतह  पर आ रहे हैं | पंजाब और हरियाणा के किसान नेता इस बात से नाराज हैं कि टिकैत समूचे आन्दोलन के स्वयंभू नेता बन बैठे हैं और उसे चुनावी राजनीति से जोड़ रहे हैं | कुछ दिन पहले प. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में आयोजित किसान महापंचायत में टिकैत द्वारा दिए गए भाषण से भी किसानों के कुछ संगठन रुष्ट हैं | यही वजह है कि दिल्ली की सिन्धु सीमा पर महीनों से  जमे किसान घर लौटने लगे  हैं | हरियाणा के किसान नेता भी चाह रहे हैं कि आन्दोलन का केंद्र टिकैत के प्रभावक्षेत्र से बाहर रखा जाए | उनकी आपत्ति इस बात पर भी है कि टिकैत आन्दोलन को जाटों के ध्रुवीकरण का जरिया बनाकर अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित करने का तानाबाना बुन रहे हैं | वैसे एक बात तो सच है कि टिकैत यदि न डटे होते तो दिल्ली की देहलीज पर पंजाब और हरियाणा के किसान इतने लम्बे समय तक नहीं रुक पाते | उ.प्र के आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर केंद्र सरकार ऐसा कुछ  भी नहीं करना चाह रही थी जिससे किसान भड़क जाएं और आन्दोलन हिंसक हो जाये | गणतंत्र दिवस पर दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले पर हुए उपद्रव ने किसान आन्दोलन के चेहरे  पर जो कालिमा पोती वह अब तक नहीं मिट सकी | सबसे  बड़ी बात ये हुई कि बड़ी – बड़ी डींगें हांकने के बाद भी आन्दोलन के नेता एक भी मांग सरकार से पूरी नहीं  करवा सके | उनके दावों के विपरीत पंजाब और हरियाणा में रबी फसल पर सरकारी खरीद के पिछले कीर्तिमान जहाँ टूटे वहीं किसानों को सीधे खाते में भुगतान की राशि मिलने से वे बिचौलियों से भी बच गए | चूँकि सरकार और किसान नेताओं के बीच संवाद पूरी तरह टूटा हुआ है इसलिए आन्दोलनरत किसानों में हताशा बढ़ रही है | उनकी मांगें कितनी सही हैं ये अब उतना बड़ा मुद्दा नहीं रहा जितना ये कि आन्दोलन की कोई दिशा  समझ में नहीं आ रही | किसानों के बीच भी ये चर्चा चल पड़ी है कि कानूनों को रद्द करने जैसी जिद न पकड़ी जाती तब शायद सरकार उनकी एक – दो मांगें मानकर बीच का रास्ता निकाल सकती थी |   लेकिन संयुक्त मोर्चा वार्ता की टेबिल पर बैठने से पहले ही ये शर्त रखता रहा कि पहले तीनों कानून वापिस लिए जाएं तब ही कोई बात होगी | चूँकि शुरुवात में ही ये साफ़ हो चला था कि कांग्रेस और वामपंथी संगठन इस आन्दोलन के पीछे हैं और भीड़ का लाभ लेकर कुछ खलिस्तान समर्थक भी  घुस आये हैं , इसीलिये बाकी विपक्षी दल खुलकर साथ नहीं आये | करनाल के बाद  सिन्धु सीमा पर एक तरफ का रास्ता खोलने पर सहमत होने से ये साफ़ हो गया है कि किसान नेता  भांप चुके हैं कि जिद न छोड़ने पर जनता उनके विरूद्ध हो जायेगी | अमरिंदर सिंह के ताजा बयान से भी ये लगने लगा है कि वे भी इस आन्दोलन से  पिंड छुड़ाना चाहते हैं जिसे उन्होंने ही प्रायोजित कर दिल्ली की सीमा तक भेजा था ताकि  उनके राज्य में शांति बनी रहे | लेकिन महीनों वहां पड़े रहने के बाद किसानों के जत्थे घर लौट आये और पंजाब में सैकड़ों स्थानों पर धरना दिए बैठे हैं | विधानसभा चुनाव सिर पर हैं और नवजोत सिद्धू कैप्टेन की नाक में दम किये हुए हैं | अकाली दल और आम आदमी पार्टी किसानों को ये समझाने में जुटी  हैं कि कांग्रेस के बहकावे में आकर वे न इधर के रहे न उधर के | ये बात बिलकुल सही है कि किसान आन्दोलन को दिल्ली के मुहाने तक ले जाने और उसे खाद - पानी देने में पंजाब की भूमिका जबरदस्त भूमिका रही | इसीलिये जब  सिख किसानों के जत्थे  दिल्ली से वापिस लौट आये तब धरना स्थल की रौनक भी फ़ीकी पड़ने लगी | मुजफ्फरनगर की महा पंचायत में टिकैत ने भीड़ तो काफी जुटाई लेकिन उनके द्वारा मंच से अल्ला हो अकबर का नारा लगाये जाने की विपरीत प्रतिक्रिया होने लगी  | हालांकि भाजपा विरोधी प्रचार लॉबी उस रैली से चमत्कारिक नतीजे हासिल होने की उम्मीदें व्यक्त करने में जुटी हुई है लेकिन अंदरखाने की बात ये है कि टिकैत की महत्वाकांक्षा से कांग्रेस भी सतर्क हो चली हैं | सपा और बसपा तो पहले से ही आन्दोलन से दूर बैठे रहे | लोकदल नेता जयंत हालाँकि जाट  हैं लेकिन टिकैत उनको भी मंच नहीं दे रहे | यदि यही हाल रहा तो आने वाले कुछ दिनों में पंजाब में किसान आन्दोलन की जड़ें काटने का काम अमरिंदर सिंह के हाथों शुरू हो सकता है | आम आदमी पार्टी ने इसीलिए अभी से उन पर भाजपा से मिले होने का आरोप लगाना शुरू कर दिया है |  एक  खबर ये भी  है कि केंद्र सरकार बिना किसान नेताओं से बात किये ही अपनी तरफ से कुछ ऐसी घोषणाएं कर सकती है  जिससे आन्दोलन की हवा निकल जाए | उ. प्र में  गन्ना किसानों के बकाया भुगतान  और रबी फसल के खरीदी मूल्य अभी से घोषित कर देना उसी दिशा में बढ़ाये कदम हैं | किसान आन्दोलन जिस जोश से शुरू हुआ था वह अब कहीं नहीं  दिखाई देता | इस वजह से ये आशंका प्रबल होती जा रही है कि कहीं  इसका हश्र भी 1974 की रेल हड़ताल जैसा न हो जाए | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 14 September 2021

हिन्दी की दुर्दशा के लिए हिन्दी भाषी ही ज्यादा दोषी



भाषा को लेकर कट्टर सोच का समर्थन तो नहीं किया जा सकता किन्तु ये भी सच है कि भाषा केवल संवाद का माध्यम ही नहीं अपितु संस्कृति और संस्कारों को भी अभिव्यक्त करती है | उस दृष्टि से यदि हिन्दी के प्रति आग्रह किया जाता है तो उसे सहज  और स्वाभाविक तरीके से लिया जाना चाहिए | सरकारी तौर पर उसे राजभाषा का दर्जा दिया गया है |  वह देश की एकमात्र भाषा है  जिसे सही मायनों में संपर्क भाषा के तौर पर स्वीकार्यता प्राप्त है | तमिलनाडु को छोड़कर और किसी भी राज्य में हिन्दी का विरोध नहीं सुनाई देता | दक्षिण भारत के पाँचों  राज्यों का सर्वेक्षण करने पर ये बात सामने आयेगी कि वहां से  निकलकर लाखों लोग उत्तर भारत के हिन्दी भाषी राज्यों में  स्थायी रूप से बस चुके हैं | उन्होंने अपनी सांस्कृतिक पहिचान को तो बचाए रखा लेकिन भाषा को लेकर न कोई आग्रह किया  और न आन्दोलन | केरल , कर्नाटक , आन्ध्र और तेलंगाना में भी स्थानीय भाषा का दबदबा है लेकिन हिन्दी का विरोध कभी – कभार ही देखने मिलता है , वह भी राजनीतिक कारणों से | लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि हिन्दी के प्रति उपेक्षा भाव हिन्दी भाषी राज्यों में भी कम नहीं है | इसे विडंबना ही  कहा जाएगा कि हिन्दी के बाहुल्य वाले प्रदेशों में उससे गौरवान्वित होने वाले घट रहे हैं | सवाल केवल अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा तक ही सीमित नहीं अपितु व्यवहार में हिन्दी के उपयोग का  भी  है |  एक जमाना था जब हिन्दी माध्यम में दी जाने वाली शिक्षा में भी  बतौर भाषा अंग्रेजी पढ़ने पर भी उतना ही जोर दिया जाता था जितना हिन्दी  पर | लेकिन जबसे हिन्दी भाषी इलाकों में अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा का चलन बढ़ा तबसे कुछ विद्यालयों को छोड़ दें तो बाकी के  विद्यार्थियों की अंग्रेजी तो माशा – अल्लाह है ही परन्तु  मातृभाषा होने के बाद भी हिन्दी का ज्ञान घटिया स्तर तक आता जा रहा है | इसके लिए विद्यार्थी और उसके शिक्षक जितने दोषी हैं उससे ज्यादा कसूरवार अभिभावक हैं जो घर में बच्चों से बातचीत में अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल करने को शान समझते हैं | हंसी तो तब आती है जब लोग अपने कुत्ते तक को अंग्रेजी में निर्देश देते हैं | वैसे ये अच्छी बात है कि सरकारी कार्यालयों में हिन्दी का प्रयोग बढ़ा है | राजभाषा अधिकारियों के जरिये कामकाजी हिन्दी का प्रशिक्षण भी दिया जाने लगा है जिसमें गैर हिन्दी भाषी अधिकारी और कर्मचारी भी रूचि लेते हैं |  हिन्दी भाषी राज्यों के  उच्च न्यायालयों में हिन्दी में बहस की अनुमति मिलने से भी माहौल बदला है | कुछ न्यायाधीश तो हिन्दी में फैसले भी लिखने लगे हैं | लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में अब तक हिन्दी को अपेक्षित सम्मान और स्थान नहीं मिल सका | आज हिन्दी  दिवस पर  देश और दुनिया के अनेक हिस्सों में हिन्दी का गुणगान हो रहा है | हिन्दी  दिवस , सप्ताह , पखवाड़ा और मास के आयोजन पर  सरकारी विभागों में  मोटी रकम खर्च होगी | हिन्दी की महानता का बखान भी जमकर होगा | लेकिन ये केवल वार्षिक कर्मकांड बनकर रह गया है | हिन्दी को यदि सही मायनों में उसकी सही जगह प्रतिष्ठित करना है तो हिन्दी भाषियों को अपने दैनिक व्यवहार में उसका प्रयोग बढ़ाना चाहिए | बच्चों को किसी भी माध्यम में पढ़ायें किन्तु उनके साथ  ज्यादा से ज्यादा आपसी बातचीत हिन्दी में किया जाना ही मातृभाषा के प्रति आपकी प्रतिबद्धता का पैमाना होगा | वैश्वीकरण के इस दौर में केवल हिन्दी तक सीमित रहकर हम आगे नहीं बढ़ सकते , ये अवधारणा  आंशिक तौर पर तो सही है | चीन में भी इसीलिये अंग्रेजी सीखने का चलन बढ़ा है किन्त्तु देखने वाली बात ये भी है कि 135 करोड़ से अधिक आबादी वाले भारत के  एक विशाल  उपभोक्ता बाजार होने से दुनिया भर में हिन्दी सीखने का आकर्षण  बढ़ रहा है | भारतीय आज एक वैश्विक समुदाय के रूप में स्थापित हो चुके हैं | उनकी वजह से हिन्दी साहित्य और  भारतीय संस्कृति का भी विश्वव्यापी फैलाव हो रहा है | ऐसे में हिन्दी के अपने घर में ही उसके प्रति सौतेलापन अखरता है | हिन्दी के अखबार जब शीर्षक में अंग्रेजी लिपि का उपयोग करते हैं तब  गुस्से के साथ दुःख भी होता है |  किसी अन्य भाषा के शब्दों को व्यवहार में लाना कोई अपराध नहीं है लेकिन जब अपनी भाषा में उनके लिए समुचित शब्द हैं  तब उनका प्रयोग न करना हमारी विपन्नता को दर्शाता है | अक्सर ये भी कहा जाता है कि हिन्दी बड़ी ही क्लिष्ट भाषा है इसलिए लोग अंग्रेजी का उपयोग करते हैं परन्तु  गैर हिन्दी भाषी लोगों से उनकी भाषा को लेकर  ये तर्क कम ही सुनने मिलता है | सबसे बड़ी बात ये है कि हिन्दी भाषियों को अपनी संतानों को यदि  संस्कृति , संस्कार , साहित्य और आध्यात्म आदि से अवगत कराना है तो उनको हिन्दी का समुचित ज्ञान देना ही होगा | लेकिन  ये संकल्प  केवल हिन्दी दिवस का बुद्धिविलास बनकर न रह जाए ये ध्यान रखना सर्वाधिक जरूरी है |  एक बात जरूर स्वागतयोग्य है कि किसी भी हिन्दी भाषी क्षेत्र में अन्य भारतीय भाषा का विरोध नहीं सुनाई देता | इससे स्पष्ट होता है कि हिन्दी में समायोजन की प्रवृत्ति है और इसीलिये वह सरकारी तौर पर भले ही  राष्ट्रभाषा न कहलाये लेकिन सही मायनों में हिंदुस्तान की तरह ही हिन्दी भी हमारी राष्ट्रीयता को प्रतिबिंबित करती है | ये बात निःसंदेह सच है कि सभी  हिन्दी भाषी अपनी मातृभाषा को दूसरों पर लादने का विचार त्यागकर यदि स्वयं  उसका अधिकतम प्रयोग आपसी संवाद में करने लगें तो वह  राष्ट्रभाषा के तौर अपने आप प्रतिष्ठित्त हो जायेगी | जब हम अपनी माँ को माँ कहने में नहीं  हिचकते तो फिर मातृभाषा के प्रति संकोच कैसा ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 13 September 2021

तो भाजपा अब तक विपक्ष में बैठी होती



हालाँकि ये पहली मर्तबा नहीं हुआ जब कोई व्यक्ति पहली बार विधायक चुने  जाने के बाद बिना मंत्री रहे सीधा मुख्यमन्त्री बन गया हो | प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी तो विधायक बाद में बने और मुख्यमंत्री पहले बन गये थे | पहली बार लोकसभा के लिए चुने जाते ही उन्हें प्रधानमन्त्री बनने का सौभाग्य  भी हासिल हो   गया | इसी तरह का प्रयोग हरियाणा में दोहराते हुए भाजपा ने अप्रत्याशित रूप से मानोहर लाल   खट्टर को मुख्यमंत्री बना दिया | जाट बहुल इस राज्य में पंजाबी मुख्यमंत्री का वह प्रयोग अप्रत्याशित और जोखिम भरा था | लेकिन श्री खट्टर के नेतृत्व में भाजपा ने दुष्यंत चौटाला के समर्थन से ही सही किन्तु दोबारा सरकार बना ली | वैसे म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी विधायक – सांसद तो रहे लेकिन बतौर मंत्री प्रशासनिक अनुभव के बिना भी वे मुख्यमंत्री बनकर  लम्बी पारी खेलने में सफल रहे | गुजरात में गत दिवस भाजपा ने मुख्यमंत्री विजय रूपाणी से इस्तीफा दिलवाकर जिन भूपेन्द्र पटेल को उनकी जगह  सरकार सौंपी वे भी पहली बार के विधायक हैं जिन्हें सरकार में रहने का रत्ती भर अनुभव भी नहीं है |  ये फैसला इसलिए चौंकाने वाला है क्योंकि आगामी वर्ष गुजरात विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं | पिछले बार भी   भाजपा ने मुख्यमंत्री बदलकर चुनाव अपने पक्ष में कर लिया था | लेकिन भूपेन्द्र पटेल चूँकि सरकार के संचालन से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं इसलिए इस फैसले से राजनीतिक जगत में आश्चर्य  है | जिन नेताओं का नाम श्री रूपाणी के उत्तराधिकारी के तौर पर चल रहा था उनमें श्री पटेल दूरदराज तक नहीं थे  | 2017 में पटेल आन्दोलन के बाद जब आनंदी बेन पटेल को  हटाकर गैर पटेल विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री बनाया गया तब वह खतरा उठाने वाला फैसला था | भाजपा उस चुनाव में हारते – हारते बची | उसके बाद पटेल आन्दोलन और उसके सूत्रधार हार्दिक पटेल की चमक फीकी पड़ गई और वे कांग्रेस की गोद में जा बैठे जिसने उन्हें प्रदेश कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया | भाजपा ने इस बात को गंभीरता से लिया | दूसरा अंदेशा उसे आम आदमी पार्टी की बढ़ती सक्रियता से होने लगा जो पटेल आन्दोलन की राख में दबी चिंगारी  को आग में बदलने की फिराक में है | हालांकि भाजपा चाहती तो उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल को कमान सौंपकर पटेल समुदाय को संतुष्ट कर सकती थी किन्तु उसने पूरी तरह नए नाम को आगे लाने का काम किया जिससे कि सत्ता विरोधी भावना को सतह  पर आने से पहले ही ठंडा किया जा सके | हालांकि श्री रूपाणी के विरुद्ध ऐसा कुछ भी नहीं था जिस वजह से उनको सत्ता से बाहर करना जरूरी हो जाता किन्तु ये बात भी सही है कि  पांच साल के शासनकाल  में वे वह असर नहीं छोड़ सके जिससे अगला चुनाव जीता जा सके | इसमें कोई  दो मत नहीं है कि श्री मोदी के  राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद गुजरात में भाजपा के पास उन जैसा एक भी नेता नहीं होने से उसका प्रभाव घटा है | हालाँकि 2019 के लोकसभा और उसके बाद हुए  स्थानीय निकायों में पार्टी को जबरदस्त सफलता मिली लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव का कटु अनुभव श्री मोदी और उनकी दाहिने हाथ गृहमंत्री अमित शाह भूले नहीं हैं |  इसीलिये श्री रूपाणी को अगले चुनाव के सवा साल पहले ही हटा दिया गया | नये मुख्यमंत्री को केवल पटेल होने के कारण सत्ता सौंपी गयी हो ऐसा भी नहीं है | भाजपा रूपाणी मंत्रीमंडल के किसी  और पटेल मंत्री को भी मुख्यमंत्री बना सकती थी जिसे शासन चलाने का अनुभव हो | लेकिन उसने  राष्ट्रीय स्तर पर दूसरी पंक्ति के नेत्तृत्व को धीरे – धीरे आगे बढ़ाने की जो कार्ययोजना बनाई है ये  उसी का हिस्सा माना  जा रहा है | कर्नाटक में येदियुरप्पा की विदाई उसकी शुरुवात थी  | राजनीतिक विश्लेषक इसके पीछे रास्वसंघ की  सोच मान रहे हैं | जिन राज्यों में भाजपा की सत्ता है वहां समय रहते नया नेतृत्व उभारने के प्रति संघ काफी सक्रिय है | स्थापित नेताओं के खेमेबाजी में लिप्त होने से भाजपा विचारधारा के बजाय चंद नेताओं के इर्द गिर्द सिमटने लगी थी | 2018 में म.प्र ,राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता गंवाने के लिए मुख्यमंत्रियों के प्रति जनता के मन में नाराजगी को प्रमुख कारण माना गया था | यही वजह रही कि कुछ महीनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में उक्त तीनों राज्यों में उसने 2014 के प्रदर्शन को दोहराया | दरअसल संघ और भाजपा के रणनीतिकारों को ये बात अच्छी तरह समझ आ चुकी है कि विचारधारा के प्रति समर्थन के बावजूद राज्यों में जनता लम्बे समय तक एक ही चेहरा देखकर ऊब जाती है | प. बंगाल में वाममोर्चे ने ज्योति बसु के नाम पर लगभग चार दशक तक सरकार चलाई लेकिन उनके हटने के बाद जब किसी युवा नेता को मौका मिलने की जगह वयोवृद्ध बुद्धदेव भट्टाचार्य आ गए तो एक चुनाव बाद ही वामपंथ का वह किला कमजोर पड़ने लगा और आज की स्थिति में कोई उसका नामलेवा तक नहीं है | भाजपा भी चूँकि कैडर आधारित पार्टी है इसलिए उसके लिए जरूरी है वह अपने नेतृत्व में नयापन लाए जिससे नई पीढ़ी के मतदाता ऊबने से बचें | सुनने में आ रहा है कि भाजपा अपनी सत्ता वाले राज्यों में नए चेहरों को नेतृत्व प्रदान करने की  रणनीति पर तेजी से काम कर रही है | ऐसा करने के पीछे उसकी सोच युवा नेताओं के मन में आस जगाये रखना है | म.प्र में विष्णुदत्त शर्मा को प्रदेश संगठन का अध्यक्ष बनाकर उसने पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं में उत्साह का जो संचार किया उसके सकारात्मक परिणाम देखने मिले हैं | गुजरात में किया गया ताजा प्रयोग यदि आगे भी दोहराया जा सके तो नेतृत्व की नई पौध विकसित हो सकती है | ये परम्परा अन्य पार्टियों में भी शुरू हो तो निश्चित तैर पर देश की राजनीति में ताजी हवा के झोके जैसा एहसास हो सकता है | हर क्षेत्र में जब नई पीढ़ी  अच्छा काम करते हुए सफलता के झंडे फहरा रही है तब राजनीति के मैदान में भी नए खिलाड़ियों को अवसर दिया जाना समय की मांग है | भाजपा ने कर्नाटक के बाद गुजरात का मुख्यमंत्री यदि इसी  सोच के वशीभूत बदला है  तब ये बुद्धिमत्ता से भरा  कदम है जिसका लाभ उसे आने वाले  समय में मिलना तय है | इस बारे में एक बात याद रखने वाली  है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भी  यदि भाजपा ने 2009 की तरह  लालकृष्ण आडवाणी को ही डा. मनमोहन सिंह के विकल्प के तौर पर पेश किया होता तब बड़ी बात नहीं वह  अब तक विपक्ष  में ही बैठी नजर आती | केंद्र सरकार में भी श्री मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में नितिन गडकरी जैसे नाम की चर्चा शुभ संकेत है |


- रवीन्द्र वाजपेयी 

 

Saturday 11 September 2021

9/11 के 20 साल बाद भी अफगानिस्तान फिर वहीं का वहीं



ये महज संयोग ही कहा जायेगा कि अमेरिका के न्यूयार्क शहर में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों पर आतंकवादी हमले के 20 साल बाद अफगानिस्तान में एक बार आतंकवाद की  पोषक तालिबानी सरकार सत्ता में लौट आई है | 11 सितम्बर 2001 को यात्री विमान का अपहरण कर दो गगनचुम्बी इमारतों से टकरा देने की वह घटना हैरतंगेज और दिल दहलाने वाली थी | हजारों लोग उसमें मारे गये थे | सबसे बड़ी बात ये रही कि जिस अमेरिका में दो – दो विश्वयुधों के दौरान एक गोली तक नहीं चली उस पर आतंकवादियों ने इतना बड़ा हमला कर दिया और विश्व की सबसे बड़ी सामरिक और आर्थिक महाशक्ति का गुप्तचर तंत्र और सुरक्षा व्यवस्था पूरी तरह बेअसर साबित हुई | उस घटना की जिम्मेदारी अल कायदा नामक संगठन द्वारा ली गई जिसके मुखिया ओसामा बिन लादेन की तलाश में अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमले करने शुरू किये और वहां तालिबान को हटाकर एक अंतिम सरकार बनाई | हालाँकि ओसामा को तलाशकर मारने में अमेरिका को 10 साल लग गये जो अफगान सीमा से कुछ दूर पाकिस्तान के एबटाबाद में छिपा हुआ था | लेकिन उस बहाने वह अफगानिस्तान में काबिज होकर तालिबान के सफाये में जुट गया | उसकी समर्थक जो सरकार काबुल में स्थापित हुई  उसके शासन में अफगानिस्तान कठमुल्लेपन से उबरकर आधुनिकता और विकास की ओर तो बढ़ चला परन्तु  तालिबान को समूल नष्ट करने में वह विफल रहा जो  छापामार शैली में अमेरिकी सेना से लड़ते रहे | 20 साल की इस लम्बी लड़ाई ने अमेरिकी जनता को ठीक उसी तरह नाराज किया जैसी वह वियतनाम युद्ध के दौरान हुई थी | दरअसल अमेरिकी जनमानस में ये बात बैठ गई थी कि ओसामा के मारे जाने के बाद अफगानिस्तान में करोड़ों डालर फूंकने और अपने सैनिक मरवाने का कोई मतलब नहीं  है | वैसे भी बीच में अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर मंदी का संकट मंडराने लगा था | ये देखते हुए पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने क़तर के जरिये तालिबान के साथ वार्ता का दौर शुरू करते हुए अफगानिस्तान से अपने सैनिक हटाने की योजना बनाई | उनके कार्यकाल में तो वह संभव नं हो सका लेकिन गत वर्ष जो बाइडन के सत्ता में आने के बाद  प्रक्रिया तेज हुई और 31 अगस्त की बजाय अमेरिका ने महीने भर पहले ही सेनाएं हटाना शुरू कर दिया | पहले ये उम्मीद थी कि अफगान सरकार की सेना तालिबान से मुकाबला करने में सक्षम है , जिसके पास अत्याधुनिक अमेरिकी हथियार थे |  लेकिन वह उम्मीद धरी रह गयी  और तालिबान लड़ाके टहलने के अंदाज में काबुल तक चले आये | राष्ट्रपति अशरफ गनी के देश छोड़ देने के बाद से तो उनको खुला मैदान मिल गया | और  देखते – देखते ही अफगानिस्तान फिर से तालिबान के जबड़ों में समा गया | यद्यपि पंजशीर नामक इलाके में अभी तक जंग जारी है लेकिन देर -  सवेर उस पर भी तालिबानी झंडा फहरा जाएगा | इस प्रकार बीते 20 साल तक अमेरिका ने हजारों मील दूर आकर आतंकवाद की जड़ों को काटने के लिए जो जंग लड़ी वह बेनतीजा साबित हुई और तालिबान पहले से ज्यादा ताकत के साथ सत्ता में लौटा |  सबसे बड़ी बात ये हुई कि इस बार रूस और चीन जैसी दो महाशक्तियां उसे गले लगाने बेताब हैं | चीन तो अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए एक टांग से तैयार खड़ा है | दूसरी तरफ उसके एकाधिकार को रोकने के लिए रूस भी वहां  अपने   पाँव ज़माने को लालायित है जबकि इसी तालिबान ने उसे भी अफगानिस्तान से वैसे ही खदेड़ा था जैसे हाल ही में अमेरिका को वहां से निकलना पड़ा | अमेरिका और तालिबान के बीच हुए समझौते का पूरा ब्यौरा तो अज्ञात है लेकिन एक बात बड़े  ही जोर  शोर से प्रचारित की गई थी कि इस बार तालिबान काफी बदले हुए हैं और बजाय  बर्बरता के वे मानवीय सम्वेदनाओं का परिचय देंगे | अपने प्रारम्भिक बयानों में तालिबान प्रवक्ताओं ने महिलाओं के अधिकार और सम्मान बरकरार रखने का आश्वासन भी दिया और भयभीत  लोगों से अफगानिस्तान न छोड़ने की अपील के साथ ये भरोसा दिलाया कि वे किसी के प्रति बदले की भावना न रखते हुए अपने सभी विरोधियों  को माफ कर देंगे | लेकिन काबुल कब्जाते ही उनकी राक्षसी प्रवृत्ति सामने आने लगी | नृशंस हत्याओं का दौर शुरू हो गया , महिलाओं को घरों में कैद रहने कह दिया गया | उनके अपहरण ,नीलामी और बलात्कार की घटनाएँ आम हो गईं | अमेरिका की सेना के अफगानिस्तान छोड़ने के पहले ही वहाँ तालिबान का जंगल राज लौट आया और अमेरिका की सरकार चुपचाप देखती रही | जाते – जाते अमेरिकी सेना वहां  जो लाखों हथियार और सैन्य साजो – सामान छोड़ गई वह तालिबान के हाथ लग गया | कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि घड़ी की सुइयां  घूम फिरकर 2001 की उसी  तारीख पर आकर रुक सी गईं हैं जब  न्यूयार्क पर हुए आतंकवादी हमले ने अमेरिका के सर्वशक्तिमान होने के गरूर को मिट्टी में मिला दिया था | आज जब उस घटना को ठीक 20 साल हो गये हैं तब काबुल में उसी आतंकवादी सत्ता की पुनर्स्थापना हो चुकी है जिसे अमेरिका ने जड़ से नष्ट करने का बीड़ा उठाया था | ओसामा को तलाशकर मारने के बाद  अमेरिका ने खुद को महाबली साबित करते हुए जो एहसास कराया था वह बीते  एक महीने में मिथ्या साबित होकर रह गया | तालिबानी सत्ता ने औपचारिक रूप से कार्यभार सँभालने के पहले ही जिस अमानवीय दृष्टिकोण का परिचय दिया उसके कारण ये देश तो एक झटके में दो दशक पीछे चला ही गया किन्तु लगे हाथ समूचे दक्षिण पूर्व और मध्य एशिया की शान्ति को खतरा उत्पन्न हो गया क्योंकि तालिबान इस्लाम की आड़ में आतंकवाद को प्रश्रय देने के प्रति बहुत ही उदार है | उसके काबुल में बैठते ही दुनिया भर के इस्लामिक आतंकवादी संगठनों ने अफगानिस्तान में अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी है |  काबुल हवाई  अड्डे के बाहर हुए आतंकवादी हमले में आईएस का हाथ होना इसका प्रमाण है | निश्चित रूप से आज का दिन एक दुखद संयोग बन गया है | भले ही तालिबान ने आज औपचारिक रूप से सत्तारूढ़ होने का जलसा टाल दिया हो लेकिन उसका शुरुवाती व्यवहार ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि बीते 20 साल में दुनिया चाहे कितनी भी बदल गई हो लेकिन तालिबान नहीं बदले | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 10 September 2021

मुरलीधर राव ने कहा तो सच लेकिन मानेगा कौन



राजनीति में स्पष्टवादिता या तो विवादित बना देती है या फिर अलोकप्रिय | उस दृष्टि से भाजपा के म.प्र प्रभारी पी. मुरलीधर राव ने बड़ा ही दुस्साहसी बयान दे डाला | गत दिवस भोपाल प्रवास के दौरान एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उनका ये कहना चर्चा का विषय बना हुआ है कि  जिनको तीन – तीन , चार – चार बार सांसद – विधायक बनकर जनप्रतिनिधित्व करने का अवसर दिया , उन्हें और क्या चाहिए तथा  ऐसे नेताओं के पास कहने को कुछ नहीं होना चाहिए | वे इसके आगे यहाँ तक बोल गए कि ऐसे नेता कहें कि उनको मौका नहीं  मिला तो उनको किसी लायक नहीं समझा जाना चाहिए और उनको मौका मिलना भी नहीं चाहिए | एक दिन पहले श्री राव पार्टी संगठन  के पदाधिकारियों को दौरे करने और कार्यकर्ताओं से संवाद करने की समझाइश के साथ चेतावनी दे चुके थे कि ऐसा न करने पर उन्हें पद से हटा दिया जावेगा | पता नहीं भाजपा के प्रादेशिक नेता और कार्यकर्ता उनकी बातों को कितनी  गम्भीरता से लेते हैं लेकिन उन्होंने जो कुछ भी कहा वह ऐसा कड़वा सच है जिससे आज के राजनेता और कार्यकर्ता आम तौर पर सहमत होना तो दूर  सुनना तक पसंद नहीं करते | हो सकता है उक्त तंज़ के पीछे म.प्र में राज्यसभा की एक सीट के लिए होने वाला उपचुनाव हो जिसके लिए पार्टी के  ऐसे अनेक नेता टिकिटार्थी हैं जो कई  बार सांसद – विधायक और महापौर जैसे पदों पर रह चुके हैं | इसी तरह संगठन में आजकल तमाम  ऐसे लोग पदाधिकारी बन जाते हैं जिनका मकसद पार्टी की सेवा कम और खुद को महिमामंडित करना ज्यादा होता है | म.प्र में भाजपा के पितृपुरुष कहलाने वाले स्व. कुशाभाऊ ठाकरे का ये जन्म शताब्दि वर्ष है | इस दौरान उनकी सेवाओं का स्मरण करते हुए उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जावेगी  | स्मरणीय है ठाकरे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति उनके वैचारिक राजनीतिक विरोधी भी सम्मान का भाव रखते थे | उस लिहाज से श्री राव द्वारा कही  गईं उक्त बातें न सिर्फ भाजपा वरन समूचे राजनीतिक जगत पर लागू होती हैं क्योंकि  अधिकांश पार्टियों में होने वाली  टूटन और बगावत  के पीछे सैद्धान्त्तिक मतभिन्नता कम ,  निजी  स्वार्थों की पूर्ति न होना ज्यादा होता है | माना जाता है कि भाजपा और साम्यवादी पार्टी  ही  कैडर आधारित होने से किसी  व्यक्ति या परिवार की बजाय विचारधारा से प्रेरित और निर्देशित होती हैं | इन दोनों में विचारधारा को व्यक्ति से महत्वपूर्ण माना जाता है | लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को रोके जाने पर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार से भाजपा द्वारा समर्थन वापिस ले लेना और 13 दिन की वाजपेयी सरकार गिरने के बाद माकपा द्वारा स्व. ज्योति बसु को प्रधानमन्त्री बनने से रोकने जैसे उदाहरणों से ये प्रमाणित हुआ कि पार्टी का हित निजी हितों की तुलना में महत्वपूर्ण होता है | उसी दौर में श्री आडवाणी ने भाजपा को पार्टी विथ डिफ़रेंस कहकर उसे सबसे अलग बताया था | लेकिन नब्बे का दशक बीतने के साथ ही भारतीय राजनीति में विचारधारा की स्थिति दिल्ली वाली यमुना नदी जैसी होकर रह गई है जिसकी पवित्रता के प्रति भावनात्मक सहमति के बावजूद शायद ही कोई उसके जल से स्नान अथवा आचमन करना चाहेगा | सत्ता के  लिए सिद्धांतविहीन समझौते और पदों की लालच में पार्टी से बगावत  जैसे कदम अब चौंकाते नहीं हैं | म.प्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया का  सदलबल कांग्रेस  छोड़ना , राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट तथा पंजाब में अमरिंदर – सिद्धू के झगड़े के पीछे कोई सैद्धांतिक मसला न होकर सीधे – सीधे पद और महत्व का विवाद ही है | चुनाव के समय टिकिट कटते ही ऐसे – ऐसे नेता कोप भवन में जा बैठते हैं जिनका ज्यादातर राजनीतिक जीवन संसद या विधानसभा में बीता हो | पार्टी द्वारा दशकों तक उपकृत किये जाने के बाद भी उनका मन नहीं भरता | माकपा अपने किसी भी नेता को दो से ज्यादा बार राज्यसभा में नहीं भेजती | वहीं भाजपा ने 75 साल की आयु सीमा तय कर रखी है जिसके अंतर्गत अनेक वरिष्ठ नेताओं को टिकिट और पदों से वंचित किया जा रहा है | ये परिपाटी जारी रहना चाहिए क्योंकि विचारधारा का प्रवाह निरंतर बनाये रखना तभी सम्भव है जब नई पीढ़ी भी उससे प्रेरित होकर प्रशिक्षित हो सके | कुछ अपवाद हो सकते हैं किन्त्तु किसी नेता को जीवन भर सांसद – विधायक या किसी पद पर बनाये रखना पार्टी की नेतृत्व संबंधी विपन्नता का परिचायक होता है | पंडित नेहरु के जीवनकाल में ही ये प्रश्न उठने लगा था कि उनके बाद कौन ? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ये अवधारणा बनाई जा चुकी थी कि उनके अलावा और कोई देश चला ही नहीं सकेगा | लेकिन शास्त्री जी और इंदिरा जी ने उनसे भी ज्यादा प्रभाव छोड़ा | इसी तरह अटल – आडवाणी की जोड़ी को भाजपा के लिए अपरिहार्य माना  जाने लगा था किन्तु नरेंद्र मोदी ने उस मिथक को तोड़ दिया | ये कहना गलत न होगा कि कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी होने के बाद भी यदि आज बिखराव का शिकार है तो उसका प्रमुख कारण एक ही परिवार का उस पर कब्जा जमाये रखना है | तमाम क्षेत्रीय दल भी कमोबेश कांग्रेस जैसे हालातों से गुजर रहे हैं | ये देखते हुए श्री राव ने भाजपा के बहाने एक तरह से समूची राजनीतिक व्यवस्था को दिशा दिखाने का काम किया है | स्व. कुशाभाऊ ठाकरे एक बार खंडवा लोकसभा सीट का उपचुनाव जीतकर सांसद बने थे किन्तु कुछ ही दिनों बाद लोकसभा भंग हो गई | उसके बाद उन्हें पार्टी ने राज्यसभा में भेजना चाहा ताकि भ्रमण हेतु निःशुल्क रेलवे पास मिल जाये | उस समय पूर्व सांसदों को आज जैसी सुविधाएँ नहीं मिला करती थीं | लेकिन उन्होंने वह पेशकश ठुकरा दी | म.प्र में अनेक मुख्यमंत्री ठाकरे जी की कृपा से ही बने | मंत्री  , सांसद , विधायक , राज्यपाल के अलावा सत्ता और संगठन में विभिन्न पदों हेतु  उनका आशीर्वाद पाने वाले तो हजारों होंगे किन्तु पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाने के बावजूद वे किसी सदन में नहीं गए | ये कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि चाहते तो वे प्रदेश के मुख्यमंत्री या अटल जी की सरकार में मंत्री तो बन ही सकते थे | ऐसे उदहारण पहले तो प्रत्येक पार्टी में  मिल जाया करते थे लेकिन अब ऐसे नेता दुर्लभ प्रजाति होते जा रहे हैं | उस दृष्टि से पी. मुरलीधर राव प्रशंसा के साथ ही अभिनंदन के भी पात्र हैं जिन्होंने उन नेताओं को आईना दिखाने का साहस किया जिनकी इच्छाओं का कोई अंत नहीं है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 9 September 2021

नेतृत्वविहीन मुस्लिम समुदाय के नेता बनने उ.प्र में कूदे ओवैसी



एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी उ.प्र के दौरे पर हैं | आगामी  विधानसभा चुनाव के मद्देनजर वे अपनी पार्टी की ज़मीन तैयार कर रहे हैं | हैदराबाद और महाराष्ट्र के मराठवाड़ा अंचल से बाहर आकर ओवैसी ने बिहार के मुस्लिम बहुल सीमांचल इलाके में  विधानसभा चुनाव के दौरान  अपने प्रत्याशी उतारे जिनमें  से चार – पांच जीते भी | उसके बाद उन पर आरोप लगा कि वे भाजपा – जद ( यू ) गठबंधन की जीत में सहायक बने क्योंकि मुस्लिम मतों में विभाजन होने से राजद को घाटा हो गया | उसके बाद उन्होंने बंगाल विधानसभा के चुनाव में भी हाथ आजमाना चाहा किन्तु वहां उन्हें ज्यादा भाव नहीं मिला क्योंकि फुरफुरा शरीफ के पीर द्वारा कांग्रेस और वामपंथियों से गठबंधन कर लिया गया  था | लेकिन वे निराश नहीं हुए और उ.प्र में पूरी ताकत से कूद पड़े जहाँ तकरीबन 20 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं जो तकरीबन 100 सीटों पर निर्णायक साबित हो सकते हैं | अभी तक ये माना जाता रहा है कि राज्य के मुस्लिम मतदाताओं का बहुमत समाजवादी पार्टी के पाले में जाता है | थोड़ा हिस्सा बसपा और बचा हुआ कांग्रेस का  समर्थक भी  है | भाजपा तो वैसे भी मुस्लिम मतों की उम्मीद नहीं करती | उ.प्र में सपा के  उत्थान  में मुस्लिम समुदाय का योगदान बहुत साफ़ है | उसके संस्थापक मुलायम सिंह को  मुस्लिम परस्ती के चलते  मुल्ला तक  कहा जाने लगा था | नब्बे के दशक में भाजपा ने मंदिर आन्दोलन के सहारे ऊँची छलांग लगाई  लेकिन बाद में वह लगातार पीछे होती गई | उसका लाभ लेकर उ.प्र की राजनीति सपा और बसपा के बीच सिमट गई | भाजपा तो फिर भी अपना वजूद बनाये रही किन्तु  कांग्रेस के  लिए तो नाम ज़िंदा रखना भी कठिन हो गया | लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव ने राजनीतिक तस्वीर का रंग ही बदल डाला | नरेंद्र मोदी की अभूतपूर्व लहर के सामने न सपा का यादव – मुस्लिम पत्ता चला और न ही बसपा का दलित दांव काम आया | कांग्रेस भी किसी तरह अपने दो टापू रायबरेली और अमेठी बचाकर रख सकी | उस चुनाव ने उ.प्र की राजनीति पर हावी मुस्लिम मिथक को तोड़ दिया | दलित और यादवों का बड़ा हिस्सा भी मोदी लहर में समाहित होकर रह गया | उसी के परिणामस्वरूप 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को अकल्पनीय सफलता मिली और वह 325 सीटें जीतने में कामयाब हो गई | उस चुनाव में सपा और कांग्रेस  मिलकर लड़ने के बावजूद फिसड्डी साबित हुईं | इससे भाजपा को एक बात समझ में आ गई कि बजाय मुस्लिम तुष्टीकरण के बाकी मतदाता समूहों पर ध्यान  दिया जाए तो राष्ट्रीय राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण राज्य पर कब्जा बनाये रखा जा सकता है | और इसीलिये उसने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाकर अपनी दूरगामी रणनीति साफ कर दी | इसका लाभ उसे 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मिला जिसमें सपा ने अपनी घोर विरोधी बसपा के साथ गठबंधन किया | मायावती और मुलायम सिंह एक मंच पर भी आये लेकिन दाल नहीं गली | संयोग से अदालती फैसला आने से राम मंदिर निर्माण का रास्ता भी  साफ़ हो गया | उधर सपा के मुस्लिम चेहरे आजम खान पुत्र सहित जेल चले गये जिससे  उनका बड़बोलापन और दादागिरी ठंडी पड़ गई | मुलायम सिंह की अस्वस्थता और सपा में विभाजन से मुस्लिम मतदाता खुद को नेतृत्वविहीन महसूस करने लगे थे | कांग्रेस अपनी दुर्दशा से ही नहीं उबर पा रही और बसपा भी समूचे दलित समाज को प्रभावित करने में असफल रही | ऐसे में उ.प्र की राजनीति में एक बड़ा शून्य आ गया है | अखिलेश यादव साक्रिय  तो हैं लेकिन वे  अपने पिता जैसी  राजनीतिक पैंतरेबाजी नहीं जानते | शिवपाल यादव  के अलग होने से भी सपा कमजोर हुई है | इस सबसे  मुसलमानों को ये लगने लगा है कि सपा , बसपा और कांग्रेस में से कोई भी उनका संरक्षक बनने लायक नहीं रहा और यही भांपकर ओवैसी ने  उ.प्र में  मुस्लिम ध्रुवीकरण का पांसा चला है | गत दिवस उन्होंने सपा और बसपा को तीखे शब्दों में लताड़ते हुए कहा कि उनकी वजह से ही श्री मोदी प्रधानमन्त्री बन गये | आशय ये था कि ये दोनों दल उ.प्र में मोदी लहर को थाम लेते तो भाजपा केंद्र की सत्ता हासिल न कर पाती |  समाचार माध्यमों से मिल रही जानकारी के अनुसार उनकी रैलियों में मुस्लिम युवा बड़ी संख्या में आने से सपा – बसपा दोनों परेशान हैं | बसपा तो इतना बौरा गई है कि दलितों को छोड़ ब्राह्मणों को रिझाने में जुटी है | सपा को भी इस बात की चिंता है कि यादवों के अलावा  पिछड़ी जातियां उससे दूर चली गईं हैं | ऐसे में यदि ओवैसी ने मुस्लिम मतों में थोड़ी सी भी सेंध लगा दी तब सपा का बचा – खुचा आधार भी खिसक सकता है | वैसे स्वाभाविक तौर पर सपा  और बसपा से नाराज मुस्लिम तथा पिछड़े भाजपा विरोधी मतदाताओं का झुकाव कांग्रेस की तरफ होना चाहिए किन्तु उसकी खराब स्थिति के चलते कोई उससे जुड़ना नहीं चाह रहा | यही वजह है कि मुस्लिम मतदाताओं को उनकी  बदहाली का ब्यौरा देते हुए ओवैसी बड़ी ही चतुराई से उनके बीच नेतृत्व के अभाव को दूर करने की पुरजोर कोशिश में जुट गये हैं |  सपा – बसपा ये प्रचारित कर रही हैं कि उ.प्र में ओवैसी की दखलंदाजी का मकसद  मुस्लिम मतों में बंटवारा करवाकर परोक्ष तौर पर भाजपा की राह आसान करना है | हालाँकि वे  इसका खंडन करते हुए ये सवाल पूछ रहे हैं कि सपा और बसपा के लंबे शासनकाल के बाद भी उ.प्र के मुसलमान हर क्षेत्र में पिछड़े क्यों हैं ? लोकसभा और विधानसभा में उनकी लगातार घटती संख्या भी ओवैसी के हमले का हिस्सा है | वे कितने कामयाब होते हैं ये तो चुनावी नतीजे ही बता  सकेंगे किन्तु एक बात तो सही है कि चाहे मुलायम सिंह और अखिलेश यादव की सत्ता रही या मायावती की किन्तु  मुस्लिम समुदाय का आर्थिक , सामाजिक और शैक्षणिक उत्थान नहीं हो सका | योगी राज में हिंदुत्व का पत्ता तो खुलकर खेला जाता रहा किन्तु मुसलमानों के पक्ष में खड़े होने का साहस न सपा कर पाई और न ही बसपा | कांग्रेस से तो वहां के मुसलमान राम  जन्मभूमि का ताला खोले जाने के दिन से ही नाराज हैं | तीन तलाक कानून बनाने और अयोध्या विवाद सुलझ जाने के बाद भाजपा द्वारा सामान नागरिक कानून लागू किये  जाने की तैयारी भी  की जा रही है | राजनीतिक क्षेत्रों में ये चर्चा आम है कि कोरोना न आता तब समान नागरिक संहिता और जनसँख्या नियन्त्रण कानून मोदी सरकार बनवा चुकी होती जिनको लेकर मुस्लिम समाज काफी चिंता में है | ओवैसी मुसलमानों के मन में ये बात बैठाने का प्रयास कर रहे हैं कि बजाय किसी के पिछलग्गू बनने के उनको अपना स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व बनाना चाहिए | उनकी एक बात तो सभी स्वीकार करेंगे कि उ.प्र के मुस्लिम समुदाय का अपना कोई ऐसा नेता नहीं है जिसका पूरे राज्य में प्रभाव हो | ये कहना भी गलत न होगा कि आजम खान को मुलायम सिंह यादव का करीबी  भले माना जाता रहा हो लेकिन  2012 में मुलायम ने उनको उपेक्षित करते हुए अपने बेटे अखिलेश को मुख्यमंत्री बनवा दिया | ओवैसी ने जो मुद्दे उठाए वे सामयिक भी हैं और सटीक भी क्योंकि पूरे देश के राजनीतिक माहौल को देखें तो मुस्लिम समुदाय कुछ नेताओं और पार्टियों के शिकंजे में फंसकर अपना स्वतंत्र आधार गंवाता जा रहा है | ममता , माया , अखिलेश और राहुल सभी मुसलमानों का वोट तो चाहते हैं लेकिन चुनाव के दौरान खुद को सबसे बड़ा हिन्दू साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते | ओवैसी इसी का लाभ उठाकर उ.प्र में भाग्य आजमा रहे हैं | यदि उनको 10  - 20 सीटें भीं हासिल हो गईं तब ये माना  जा सकेगा कि वे मुसलमानों के सबसे बड़े नेता बनने जा रहे हैं | अपने विवादास्पाद बयानों से वे युवा मुस्लिमों के पसंदीदा तो हैं ही  और उनका अपना स्वतंत्र राजनीतिक आधार भी है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 8 September 2021

अफगानिस्तान में आतंक का राज : बारूदी धमाके और खूनखराबा जारी रहेगा



अफगानिस्तान में अंतरिम सरकार बन गई | जो जानकारी आई उसके अनुसार  तालिबान के विभिन्न गुटों के बीच सामंजस्य स्थापित किये जाने की कोशिश हुई जिसका प्रमाण हक्कानी और मुल्ला बरादर दोनों की सरकार में मौजूदगी है अन्यथा दो दिन पहले तक दोनों के बीच खूनी संघर्ष की खबरें आ रही थीं | सरकार का मुखिया हसन अखुंद  को बनाया गया है जिनका नाम संरासंघ द्वारा तैयार की गई आतंकवादियों की  सूची में है | इसी तरह अब्दुल गनी , मुल्ला याकूब और सिराजुद्दीन हक्कानी भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आतंकवादियों की जमात में माने जाते हैं | महिलाओं को उनके अधिकार और सम्मान देने की घोषणा करने वाले तालिबान की कार्यवाहक सरकार में एक भी महिला को शामिल न किया जाना काफी कुछ कह जाता है | हालांकि शेर अब्बास स्टानकजई का उप विदेशमंत्री बनना भारत के लिए राहत की खबर है जिनसे हाल ही में कतर की राजधानी दोहा में भारतीय राजदूत की मुलाकात हुई थी | स्टानकजई भारत की सैन्य अकादमी में प्रशिक्षित हो चुके हैं | लेकिन उनके अलावा इस सरकार के अधिकतर मंत्री और प्रशासनिक मुखिया भारत विरोधी हैं | कुछ तो ऐलानिया तौर पर पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई से जुड़े हुए हैं | जैसी कि खबरें हैं पाकिस्तान ने पंजशीर पर हमले में अपनी सेना और ड्रोन का उपयोग किया जबकि तालिबान ये चेतावनी देता रहा है कि पाकिस्तान उनके देश के मामलों में दखलंदाजी न दे | दूसरी तरफ काबुल में महिलाओं ने बड़ा प्रदर्शन करते हुए पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे बुलंद किये | ये बात स्पष्ट नहीं हो सकी कि महिलाओं को घर से बाहर   आने से रोकने वाली तालिबानी सत्ता ने  इस प्रदर्शन की अनुमति कैसे दी ? हालांकि अफगानिस्तान के कुछ और बड़े शहरों में तालिबान के विरोध में महिलाओं ने सड़कों पर उतरकर अपने लिए शिक्षा और रोजगार की मांग की | तालिबानी सैनिक उनके सामने बंदूकें ताने दिखाई दिए लेकिन वे बेख़ौफ़ नजर आईं | इस सबके बीच उल्लेखनीय बात ये है कि सरकार के गठन हेतु विभिन्न गुटों में तालमेल बिठाने वाले पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई को सत्ता में किसी भी प्रकार की हैसियत नहीं दी गई | जैसी कि खबर आ  रही हुई उसके मुताबिक नई सरकार के गठन के जलसे में तालिबान ने रूस , चीन , पाकिस्तान , ईरान और कतर को विशेष तौर पर न्यौता  भेजा है | इनमें क़तर के  ही अमेरिका के साथ सामान्य सम्बन्ध हैं जबकि बाकी के साथ उसकी तनातनी है | जहां तक पाकिस्तान का सवाल है तो वह इस समूचे मामले में दोहरा रवैया अपनाता आया है | एक तरफ तो उसने तालिबान का खुलकर साथ दिया वहीं दूसरी ओर अफगानिस्तान से निकले अमेरिकी सैनिकों को इस्लामाबाद में रुकने की सुविधा प्रदान की जिसे लेकर इमरान खान की सरकार की जमकर आलोचना हो रही है | ये देखते हुए  भारत को  अफगानिस्तान  के नए शासकों से निकटता स्थापित करने में  जल्दबाजी से बचना चाहिए क्योंकि सरकार में जिस तरह के  कुख्यात आतंकवादी भरे हुए हैं उनसे  किसी सदाशयता की उम्मीद करना बेकार है | और जब जिम्मेदार तालिबान नेता खुलकर ये कह रहे हैं कि चीन उनका सबसे सच्चा साथी है जिसने अफगानिस्तान के पुनर्निमाण का जिम्मा लिया है तब तो भारत के लिए काबुल में पैठ बनाना मुश्किल ही नहीं अपितु खतरे से भरा होगा | लेकिन इस परिदृश्य से इतर एक खबर ये भी है कि प्रारम्भिक रूप से समूची अफगानी जनता को भयभीत करने के बावजूद तालिबानी  आतंक के विरुद्ध देश के विभिन्न हिस्सों से आवाजें उठना शुरू हो गया है | न सिर्फ महिलाऐं बल्कि युवा  भी  हथियारबंद तालिबानों के सामने आकर अपनी बात कहने का साहस दिखा रहे हैं | पंजशीर में भी तालिबान के कब्जे की पूरी तरह पुष्टि नहीं हो सकी है | अंतरिम सरकार के गठन से अनेक  कबीलाई नेता संतुष्ट नहीं हैं | आईएसआई के प्रमुख का सरकार के गठन के पहले तालिबान के विभिन्न नेताओं से मंत्रणा करना भी कुछ लोगों को नागवार गुजर रहा है | पाकिस्तान के विरोध में हुई नारेबाजी के पीछे यही कारण माना जा रहा है |  सबसे बड़ा पेंच ये है कि अगर इस सरकार को रूस और चीन जैसे बड़े देश मान्यता दे देंगे तब संरासंघ क्या करेगा जिसकी सूची में शामिल आतंकवादी अफगानिस्तान के शासक हैं | कल को यदि हसन अखुंद संरासंघ जाते हैं तब क्या विश्व संगठन उन्हें भाषण की इजाजत देगा ? सवाल और भी हैं क्योंकि ये सरकार अंतरिम है जिससे ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वहां राजनीतिक स्थिरता नहीं आई है | साथ  ही  तालिबान का देश पर कब्जा होने के बावजूद उसे सर्वमान्य नहीं कहा जा सकता | कुछ देशों द्वारा इस सरकार को मान्यता दिए जाने के बाद भी विश्व जनमत  विशुद्ध आतंकवादियों की  सरकार को किस तरह स्वीकार करेगा ये देखने वाली बात होगी | इसीलिये ये आशंका बरकरार है कि अफगानिस्तान की स्थिति आसमान से टपके और खजूर पर अटके वाली होने जा रही है | अमेरिका और उसके साथ जुड़े नाटो देश भले ही भौतिक रूप से अफगानिस्तान से निकल चुके हैं लेकिन उनकी रूचि अभी भी वहां बनी हुई है | दोहा में  अमेरिका और तालिबान के बीच क्या तय हुआ ये तो शायद ही सामने आये लेकिन अमेरिका को इस बात का अफ़सोस जरूर हो रहा होगा कि तालिबान ने मतलब निकल गया तो पहिचानते नहीं वाली प्रवृति जाहिर कर दी | जिस तेजी से वह चीन की गोद में  जा बैठा उससे वाशिंगटन खुद को ठगा महसूस कर रहा है | हालाँकि कूटनीति के जानकार ये भी कह रहे हैं कि अमेरिका , अफगानिस्तान में जो हथियार छोड़कर आया उनका उद्देश्य वहां अशांति बनाये रखना है जिसके संकेत मिलने भी लगे हैं | ये सब देखकर अफगानिस्तान के बारे में कोई ठोस निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी क्योंकि तालिबान अपनी असलियत पर उतर आये हैं और जिस तरह का आतंक उनके राज में देखने मिल रहा है उससे ये आशंका प्रबल हो रही है कि आने वाले दिनों में भी वहां बारूदी धमाके और खूनखराबा जारी रहेगा |

- रवीन्द्र वाजपेयी