हालाँकि ये पहली मर्तबा नहीं हुआ जब कोई व्यक्ति पहली बार विधायक चुने जाने के बाद बिना मंत्री रहे सीधा मुख्यमन्त्री बन गया हो | प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी तो विधायक बाद में बने और मुख्यमंत्री पहले बन गये थे | पहली बार लोकसभा के लिए चुने जाते ही उन्हें प्रधानमन्त्री बनने का सौभाग्य भी हासिल हो गया | इसी तरह का प्रयोग हरियाणा में दोहराते हुए भाजपा ने अप्रत्याशित रूप से मानोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बना दिया | जाट बहुल इस राज्य में पंजाबी मुख्यमंत्री का वह प्रयोग अप्रत्याशित और जोखिम भरा था | लेकिन श्री खट्टर के नेतृत्व में भाजपा ने दुष्यंत चौटाला के समर्थन से ही सही किन्तु दोबारा सरकार बना ली | वैसे म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी विधायक – सांसद तो रहे लेकिन बतौर मंत्री प्रशासनिक अनुभव के बिना भी वे मुख्यमंत्री बनकर लम्बी पारी खेलने में सफल रहे | गुजरात में गत दिवस भाजपा ने मुख्यमंत्री विजय रूपाणी से इस्तीफा दिलवाकर जिन भूपेन्द्र पटेल को उनकी जगह सरकार सौंपी वे भी पहली बार के विधायक हैं जिन्हें सरकार में रहने का रत्ती भर अनुभव भी नहीं है | ये फैसला इसलिए चौंकाने वाला है क्योंकि आगामी वर्ष गुजरात विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं | पिछले बार भी भाजपा ने मुख्यमंत्री बदलकर चुनाव अपने पक्ष में कर लिया था | लेकिन भूपेन्द्र पटेल चूँकि सरकार के संचालन से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं इसलिए इस फैसले से राजनीतिक जगत में आश्चर्य है | जिन नेताओं का नाम श्री रूपाणी के उत्तराधिकारी के तौर पर चल रहा था उनमें श्री पटेल दूरदराज तक नहीं थे | 2017 में पटेल आन्दोलन के बाद जब आनंदी बेन पटेल को हटाकर गैर पटेल विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री बनाया गया तब वह खतरा उठाने वाला फैसला था | भाजपा उस चुनाव में हारते – हारते बची | उसके बाद पटेल आन्दोलन और उसके सूत्रधार हार्दिक पटेल की चमक फीकी पड़ गई और वे कांग्रेस की गोद में जा बैठे जिसने उन्हें प्रदेश कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया | भाजपा ने इस बात को गंभीरता से लिया | दूसरा अंदेशा उसे आम आदमी पार्टी की बढ़ती सक्रियता से होने लगा जो पटेल आन्दोलन की राख में दबी चिंगारी को आग में बदलने की फिराक में है | हालांकि भाजपा चाहती तो उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल को कमान सौंपकर पटेल समुदाय को संतुष्ट कर सकती थी किन्तु उसने पूरी तरह नए नाम को आगे लाने का काम किया जिससे कि सत्ता विरोधी भावना को सतह पर आने से पहले ही ठंडा किया जा सके | हालांकि श्री रूपाणी के विरुद्ध ऐसा कुछ भी नहीं था जिस वजह से उनको सत्ता से बाहर करना जरूरी हो जाता किन्तु ये बात भी सही है कि पांच साल के शासनकाल में वे वह असर नहीं छोड़ सके जिससे अगला चुनाव जीता जा सके | इसमें कोई दो मत नहीं है कि श्री मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद गुजरात में भाजपा के पास उन जैसा एक भी नेता नहीं होने से उसका प्रभाव घटा है | हालाँकि 2019 के लोकसभा और उसके बाद हुए स्थानीय निकायों में पार्टी को जबरदस्त सफलता मिली लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव का कटु अनुभव श्री मोदी और उनकी दाहिने हाथ गृहमंत्री अमित शाह भूले नहीं हैं | इसीलिये श्री रूपाणी को अगले चुनाव के सवा साल पहले ही हटा दिया गया | नये मुख्यमंत्री को केवल पटेल होने के कारण सत्ता सौंपी गयी हो ऐसा भी नहीं है | भाजपा रूपाणी मंत्रीमंडल के किसी और पटेल मंत्री को भी मुख्यमंत्री बना सकती थी जिसे शासन चलाने का अनुभव हो | लेकिन उसने राष्ट्रीय स्तर पर दूसरी पंक्ति के नेत्तृत्व को धीरे – धीरे आगे बढ़ाने की जो कार्ययोजना बनाई है ये उसी का हिस्सा माना जा रहा है | कर्नाटक में येदियुरप्पा की विदाई उसकी शुरुवात थी | राजनीतिक विश्लेषक इसके पीछे रास्वसंघ की सोच मान रहे हैं | जिन राज्यों में भाजपा की सत्ता है वहां समय रहते नया नेतृत्व उभारने के प्रति संघ काफी सक्रिय है | स्थापित नेताओं के खेमेबाजी में लिप्त होने से भाजपा विचारधारा के बजाय चंद नेताओं के इर्द गिर्द सिमटने लगी थी | 2018 में म.प्र ,राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता गंवाने के लिए मुख्यमंत्रियों के प्रति जनता के मन में नाराजगी को प्रमुख कारण माना गया था | यही वजह रही कि कुछ महीनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में उक्त तीनों राज्यों में उसने 2014 के प्रदर्शन को दोहराया | दरअसल संघ और भाजपा के रणनीतिकारों को ये बात अच्छी तरह समझ आ चुकी है कि विचारधारा के प्रति समर्थन के बावजूद राज्यों में जनता लम्बे समय तक एक ही चेहरा देखकर ऊब जाती है | प. बंगाल में वाममोर्चे ने ज्योति बसु के नाम पर लगभग चार दशक तक सरकार चलाई लेकिन उनके हटने के बाद जब किसी युवा नेता को मौका मिलने की जगह वयोवृद्ध बुद्धदेव भट्टाचार्य आ गए तो एक चुनाव बाद ही वामपंथ का वह किला कमजोर पड़ने लगा और आज की स्थिति में कोई उसका नामलेवा तक नहीं है | भाजपा भी चूँकि कैडर आधारित पार्टी है इसलिए उसके लिए जरूरी है वह अपने नेतृत्व में नयापन लाए जिससे नई पीढ़ी के मतदाता ऊबने से बचें | सुनने में आ रहा है कि भाजपा अपनी सत्ता वाले राज्यों में नए चेहरों को नेतृत्व प्रदान करने की रणनीति पर तेजी से काम कर रही है | ऐसा करने के पीछे उसकी सोच युवा नेताओं के मन में आस जगाये रखना है | म.प्र में विष्णुदत्त शर्मा को प्रदेश संगठन का अध्यक्ष बनाकर उसने पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं में उत्साह का जो संचार किया उसके सकारात्मक परिणाम देखने मिले हैं | गुजरात में किया गया ताजा प्रयोग यदि आगे भी दोहराया जा सके तो नेतृत्व की नई पौध विकसित हो सकती है | ये परम्परा अन्य पार्टियों में भी शुरू हो तो निश्चित तैर पर देश की राजनीति में ताजी हवा के झोके जैसा एहसास हो सकता है | हर क्षेत्र में जब नई पीढ़ी अच्छा काम करते हुए सफलता के झंडे फहरा रही है तब राजनीति के मैदान में भी नए खिलाड़ियों को अवसर दिया जाना समय की मांग है | भाजपा ने कर्नाटक के बाद गुजरात का मुख्यमंत्री यदि इसी सोच के वशीभूत बदला है तब ये बुद्धिमत्ता से भरा कदम है जिसका लाभ उसे आने वाले समय में मिलना तय है | इस बारे में एक बात याद रखने वाली है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भी यदि भाजपा ने 2009 की तरह लालकृष्ण आडवाणी को ही डा. मनमोहन सिंह के विकल्प के तौर पर पेश किया होता तब बड़ी बात नहीं वह अब तक विपक्ष में ही बैठी नजर आती | केंद्र सरकार में भी श्री मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में नितिन गडकरी जैसे नाम की चर्चा शुभ संकेत है |
- रवीन्द्र वाजपेयी
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