Thursday 16 September 2021

अगले दस साल में भारत चीन की बराबरी कर सकता है बशर्ते



हमारे देश में राजनीति कभी न खत्म होने वाला विषय है | केवल राजनीतिक नेता और  कार्यकर्ता ही नहीं वरन रोजमर्रे की समस्याओं से जूझता आम आदमी भी मौका पाते ही राजनीतिक मुद्दों पर अपने ज्ञान को प्रकट करना नहीं भूलता |  ये कहना भी गलत न होगा कि राजनीति पर होने वाली अधिकतर चर्चा का केंद्र चुनाव ही होते हैं | चूँकि चुनावी वायदों  में बौद्धिक  मुद्दों के अलावा आम जनता को सीधे मिलने वाले फायदों का जिक्र होता है इसलिए लोगों की नजर उन पर लगी रहती है क्योंकि  निःशुल्क शिक्षा, पानी और बिजली से शुरू होकर बात नगद राशि तक आ पहुँची है | वैसे  तो चुनाव सुधारों के अंतर्गत चुनाव आयोग ने बीते दो दशक में जबरदस्त सख्ती की लेकिन राजनीतिक दल उसका भी तोड़ निकाल ही लेते हैं | चुनाव के दौरान मतदाता को नगद राशि या कई उपहार देना भ्रष्टाचरण के अंतर्गत आता है | इसलिए नौकरी , साइकिल , टीवी  , लैपटॉप , मिक्सर और ,मंगल सूत्र जैसे वायदे घोषणापत्र में समाहित होने लगे | लेकिन बीते लोकसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा गरीबों के खाते में 6 हजार रु. प्रतिमाह जमा करने जैसा वायदा किया गया था | दिल्ली उच्च न्यायालय में इसके विरूद्ध एक याचिका पेश हुई  जिस पर गत दिवस उसने चुनाव आयोग और केंद्र सरकार से जवाब माँगते हुए   आयोग को इस बात के लिए लताड़ा भी कि आधिकार कोई आभूषण नहीं हैं | उनका उपयोग जनता की भलाई के लिए करें न कि नोटिस जारी करने और आदेश प्रसारित करने तक सीमित रहें | याचिकाकर्ताओं ने कांग्रेस के उक्त  वायदे को जन  प्रतिनिधित्व क़ानून का उल्लंघन मानते हुए कहा कि यदि सभी दल ऐसे वायदे करने लगेंगे तो मतदाताओं का बहुत बड़ा वर्ग श्रम करने से दूर होता जाएगा | आम तौर पर ऐसे मुद्दे समाचार माध्यमों के लिए उतना महत्व नहीं रखते जबकि इन्हें पर्याप्त प्रचार  दिया जाना चाहिए | जहाँ तक बात चुनाव की है  तो लोकतान्त्रिक प्रणाली में जनता द्वारा अपनी सरकार चुने जाने का मकसद महज किसी को जिताना या हराना नहीं बल्कि देश का विकास और भावी पीढ़ी के लिए सुखी और सुरक्षित भविष्य का निर्माण होता है | लेकिन हमारे देश में चुनावों को भी डिस्काउंट सेल का रूप दे दिया जाता  है | इसीलिये राजनीतिक पार्टियाँ तरह – तरह के प्रलोभन देते हुए रस्ते का माल सस्ते जैसे नारे लगाती हैं | विगत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने मतदाताओं को 72 हजार  रूपये सालाना उनके बैंक खाते में जमा करवाने का वायदा किया था लेकिन वह असर नहीं दिखा सका | उसके बाद गत वर्ष कोरोना के कारण  लॉक डाउन की घोषणा करते हुए  प्रधानमंत्री ने गरीबों को मुफ्त अनाज के साथ खातों में रु. 500  जमा करवाने का ऐलान कर दिया | चूँकि  वह आपातकालीन व्यवस्था थी इसीलिये उसका किसी ने विरोध नहीं किया किन्तु ये बात  हर किसी को पता है कि बहुत से लोगों  ने सरकार से मिला मुफ्त अनाज किराने के दुकानों पर बेच दिया | ये बात उजागर होने के बाद  सरकार की आलोचना भी होने लगी कि उसने करोड़ों लोगों को बिना काम किये पेट भरने की सुविधा देकर अकर्मण्य बना दिया | लॉक डाउन हटने के बाद जब कारोबार शुरू हुआ तब श्रमिकों की कमी के पीछे मुफ्त अनाज योजना को ही कारण माना गया | ऐसे में अगर लोगों के खातों में बिना कुछ किये एक निश्चित्त नगद राशि हर महीने जमा होने लगी और ऊपर से मुफ्त और सस्ता अनाज भी मिले तब जाहिर है उनके मन में कामचोरी की भावना तेज  होगी | भारत की 135 करोड़ आबादी यदि बोझ  बन गई तो उसका सबसे  बड़ा कारण वोटों की राजनीति के चलते लोगों को  अकर्मण्य बना देना ही है |  एक तरफ जहाँ बेरोजगारी के आंकड़े पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ने पर आमादा हैं वहीं दूसरी तरफ काम करने के लिए लोग नहीं मिलते | दिल्ली  उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन संदर्भित याचिका पर चुनाव आयोग और केंद्र सरकार क्या जवाब देते हैं ये देखने वाली बात होगी क्योंकि चुनावी घोषणापत्र में मतदाताओं को दिए जाने वाले उपहारों के वायदों पर  सर्वोच्च न्यायालय भी सवाल कर चुका है | वैसे  नगद राशि देना या उसका वायदा तो सीधे घूस के अंतर्गत माना जाना चाहिए | ये इसलिए भी जरूरी है क्योंकि राजनीतिक दलों को न देश की चिंता है और न ही अर्थव्यवस्था की | उनका जोर येन - केन - प्रकारेण चुनाव जीतने पर होता है  और उसके लिए वे सरकारी  खजाना लुटाने में लेश मात्र भी शर्म या संकोच नहीं करते  | इसीलिये सत्ता बदलने पर नई सरकार ये आरोप लगाया करती है कि पिछले लोग  खजाना खाली कर गयी | ऐसे में  सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए कि वह  दिल्ली उच्च न्यायालय में प्रस्तुत उक्त याचिका को स्वतः संज्ञान लेते हुए अपने पास बुला ले और इस बात को परिभाषित करे कि चुनाव घोषणापत्र में मतदाताओं को नगद राशि दिए जाने का वायदा  घूस देने की श्रेणी में है या  नहीं ? और जिन चीजों को बतौर मुफ्त उपहार देने की घोषणा की जाती है क्या वैसा करना चुनाव कानूनों का उल्लघन नहीं है ?  याचिकाकर्ताओं की ये चिंता पूरी तरह वाजिब और सामयिक है कि सभी दल  नगद राशि देने का वायदा करने लगे तो जनता के बड़े वर्ग में मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति बढ़ेगी जो देश के लिए बहुत नुकसानदेह होगी  |  बड़ी बात नहीं आगामी आम चुनाव में कोई पार्टी कांग्रेस से दो कदम आगे बढ़कर और बड़ी राशि नगद देने का लालच देने लगे | कुछ लोग इस बारे में ये तर्क भी देते हैं कि जब भ्रष्ट अधिकारी और राजनेता दोनों हाथों से लूटमार करने में जुटे हुए हैं तब गरीबों को दी जाने वाले सुविधा या धन पर ऐतराज क्यों किया जाता है ? उनकी बात कुछ हद तक सही भी है परन्तु मुफ्त में नगद दिये जाने की बजाय बेहतर हो लोगों का पारिश्रमिक बढ़ाने का वायदा चुनाव घोषणापत्र में हो जिससे बिना काम किये घर बैठे – बैठे खाने की मनोवृत्ति  को रोका जा सके | भारत को यदि विकसित देश बनाना है तो  हर नागरिक को काम करना होगा , फिर  चाहे वह संपन्न हो या फिर  मध्यम अथवा  निम्न आय  वर्ग  का  | यदि हम विशाल आबादी को  मानव संसाधन में परिवर्तित कर सकें तो निश्चित तौर पर  कुछ ही वर्षों में भारत भी चीन की बराबरी करने की स्थिति में आ जायेगा | लेकिन इसके लिए देश को ऐसे राजनेता चाहिए जो अगले चुनाव की बजाय अगली पीढ़ी के बारे में सोचें | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



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