Wednesday 8 September 2021

अफगानिस्तान में आतंक का राज : बारूदी धमाके और खूनखराबा जारी रहेगा



अफगानिस्तान में अंतरिम सरकार बन गई | जो जानकारी आई उसके अनुसार  तालिबान के विभिन्न गुटों के बीच सामंजस्य स्थापित किये जाने की कोशिश हुई जिसका प्रमाण हक्कानी और मुल्ला बरादर दोनों की सरकार में मौजूदगी है अन्यथा दो दिन पहले तक दोनों के बीच खूनी संघर्ष की खबरें आ रही थीं | सरकार का मुखिया हसन अखुंद  को बनाया गया है जिनका नाम संरासंघ द्वारा तैयार की गई आतंकवादियों की  सूची में है | इसी तरह अब्दुल गनी , मुल्ला याकूब और सिराजुद्दीन हक्कानी भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आतंकवादियों की जमात में माने जाते हैं | महिलाओं को उनके अधिकार और सम्मान देने की घोषणा करने वाले तालिबान की कार्यवाहक सरकार में एक भी महिला को शामिल न किया जाना काफी कुछ कह जाता है | हालांकि शेर अब्बास स्टानकजई का उप विदेशमंत्री बनना भारत के लिए राहत की खबर है जिनसे हाल ही में कतर की राजधानी दोहा में भारतीय राजदूत की मुलाकात हुई थी | स्टानकजई भारत की सैन्य अकादमी में प्रशिक्षित हो चुके हैं | लेकिन उनके अलावा इस सरकार के अधिकतर मंत्री और प्रशासनिक मुखिया भारत विरोधी हैं | कुछ तो ऐलानिया तौर पर पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई से जुड़े हुए हैं | जैसी कि खबरें हैं पाकिस्तान ने पंजशीर पर हमले में अपनी सेना और ड्रोन का उपयोग किया जबकि तालिबान ये चेतावनी देता रहा है कि पाकिस्तान उनके देश के मामलों में दखलंदाजी न दे | दूसरी तरफ काबुल में महिलाओं ने बड़ा प्रदर्शन करते हुए पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे बुलंद किये | ये बात स्पष्ट नहीं हो सकी कि महिलाओं को घर से बाहर   आने से रोकने वाली तालिबानी सत्ता ने  इस प्रदर्शन की अनुमति कैसे दी ? हालांकि अफगानिस्तान के कुछ और बड़े शहरों में तालिबान के विरोध में महिलाओं ने सड़कों पर उतरकर अपने लिए शिक्षा और रोजगार की मांग की | तालिबानी सैनिक उनके सामने बंदूकें ताने दिखाई दिए लेकिन वे बेख़ौफ़ नजर आईं | इस सबके बीच उल्लेखनीय बात ये है कि सरकार के गठन हेतु विभिन्न गुटों में तालमेल बिठाने वाले पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई को सत्ता में किसी भी प्रकार की हैसियत नहीं दी गई | जैसी कि खबर आ  रही हुई उसके मुताबिक नई सरकार के गठन के जलसे में तालिबान ने रूस , चीन , पाकिस्तान , ईरान और कतर को विशेष तौर पर न्यौता  भेजा है | इनमें क़तर के  ही अमेरिका के साथ सामान्य सम्बन्ध हैं जबकि बाकी के साथ उसकी तनातनी है | जहां तक पाकिस्तान का सवाल है तो वह इस समूचे मामले में दोहरा रवैया अपनाता आया है | एक तरफ तो उसने तालिबान का खुलकर साथ दिया वहीं दूसरी ओर अफगानिस्तान से निकले अमेरिकी सैनिकों को इस्लामाबाद में रुकने की सुविधा प्रदान की जिसे लेकर इमरान खान की सरकार की जमकर आलोचना हो रही है | ये देखते हुए  भारत को  अफगानिस्तान  के नए शासकों से निकटता स्थापित करने में  जल्दबाजी से बचना चाहिए क्योंकि सरकार में जिस तरह के  कुख्यात आतंकवादी भरे हुए हैं उनसे  किसी सदाशयता की उम्मीद करना बेकार है | और जब जिम्मेदार तालिबान नेता खुलकर ये कह रहे हैं कि चीन उनका सबसे सच्चा साथी है जिसने अफगानिस्तान के पुनर्निमाण का जिम्मा लिया है तब तो भारत के लिए काबुल में पैठ बनाना मुश्किल ही नहीं अपितु खतरे से भरा होगा | लेकिन इस परिदृश्य से इतर एक खबर ये भी है कि प्रारम्भिक रूप से समूची अफगानी जनता को भयभीत करने के बावजूद तालिबानी  आतंक के विरुद्ध देश के विभिन्न हिस्सों से आवाजें उठना शुरू हो गया है | न सिर्फ महिलाऐं बल्कि युवा  भी  हथियारबंद तालिबानों के सामने आकर अपनी बात कहने का साहस दिखा रहे हैं | पंजशीर में भी तालिबान के कब्जे की पूरी तरह पुष्टि नहीं हो सकी है | अंतरिम सरकार के गठन से अनेक  कबीलाई नेता संतुष्ट नहीं हैं | आईएसआई के प्रमुख का सरकार के गठन के पहले तालिबान के विभिन्न नेताओं से मंत्रणा करना भी कुछ लोगों को नागवार गुजर रहा है | पाकिस्तान के विरोध में हुई नारेबाजी के पीछे यही कारण माना जा रहा है |  सबसे बड़ा पेंच ये है कि अगर इस सरकार को रूस और चीन जैसे बड़े देश मान्यता दे देंगे तब संरासंघ क्या करेगा जिसकी सूची में शामिल आतंकवादी अफगानिस्तान के शासक हैं | कल को यदि हसन अखुंद संरासंघ जाते हैं तब क्या विश्व संगठन उन्हें भाषण की इजाजत देगा ? सवाल और भी हैं क्योंकि ये सरकार अंतरिम है जिससे ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वहां राजनीतिक स्थिरता नहीं आई है | साथ  ही  तालिबान का देश पर कब्जा होने के बावजूद उसे सर्वमान्य नहीं कहा जा सकता | कुछ देशों द्वारा इस सरकार को मान्यता दिए जाने के बाद भी विश्व जनमत  विशुद्ध आतंकवादियों की  सरकार को किस तरह स्वीकार करेगा ये देखने वाली बात होगी | इसीलिये ये आशंका बरकरार है कि अफगानिस्तान की स्थिति आसमान से टपके और खजूर पर अटके वाली होने जा रही है | अमेरिका और उसके साथ जुड़े नाटो देश भले ही भौतिक रूप से अफगानिस्तान से निकल चुके हैं लेकिन उनकी रूचि अभी भी वहां बनी हुई है | दोहा में  अमेरिका और तालिबान के बीच क्या तय हुआ ये तो शायद ही सामने आये लेकिन अमेरिका को इस बात का अफ़सोस जरूर हो रहा होगा कि तालिबान ने मतलब निकल गया तो पहिचानते नहीं वाली प्रवृति जाहिर कर दी | जिस तेजी से वह चीन की गोद में  जा बैठा उससे वाशिंगटन खुद को ठगा महसूस कर रहा है | हालाँकि कूटनीति के जानकार ये भी कह रहे हैं कि अमेरिका , अफगानिस्तान में जो हथियार छोड़कर आया उनका उद्देश्य वहां अशांति बनाये रखना है जिसके संकेत मिलने भी लगे हैं | ये सब देखकर अफगानिस्तान के बारे में कोई ठोस निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी क्योंकि तालिबान अपनी असलियत पर उतर आये हैं और जिस तरह का आतंक उनके राज में देखने मिल रहा है उससे ये आशंका प्रबल हो रही है कि आने वाले दिनों में भी वहां बारूदी धमाके और खूनखराबा जारी रहेगा |

- रवीन्द्र वाजपेयी


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