Tuesday 14 September 2021

हिन्दी की दुर्दशा के लिए हिन्दी भाषी ही ज्यादा दोषी



भाषा को लेकर कट्टर सोच का समर्थन तो नहीं किया जा सकता किन्तु ये भी सच है कि भाषा केवल संवाद का माध्यम ही नहीं अपितु संस्कृति और संस्कारों को भी अभिव्यक्त करती है | उस दृष्टि से यदि हिन्दी के प्रति आग्रह किया जाता है तो उसे सहज  और स्वाभाविक तरीके से लिया जाना चाहिए | सरकारी तौर पर उसे राजभाषा का दर्जा दिया गया है |  वह देश की एकमात्र भाषा है  जिसे सही मायनों में संपर्क भाषा के तौर पर स्वीकार्यता प्राप्त है | तमिलनाडु को छोड़कर और किसी भी राज्य में हिन्दी का विरोध नहीं सुनाई देता | दक्षिण भारत के पाँचों  राज्यों का सर्वेक्षण करने पर ये बात सामने आयेगी कि वहां से  निकलकर लाखों लोग उत्तर भारत के हिन्दी भाषी राज्यों में  स्थायी रूप से बस चुके हैं | उन्होंने अपनी सांस्कृतिक पहिचान को तो बचाए रखा लेकिन भाषा को लेकर न कोई आग्रह किया  और न आन्दोलन | केरल , कर्नाटक , आन्ध्र और तेलंगाना में भी स्थानीय भाषा का दबदबा है लेकिन हिन्दी का विरोध कभी – कभार ही देखने मिलता है , वह भी राजनीतिक कारणों से | लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि हिन्दी के प्रति उपेक्षा भाव हिन्दी भाषी राज्यों में भी कम नहीं है | इसे विडंबना ही  कहा जाएगा कि हिन्दी के बाहुल्य वाले प्रदेशों में उससे गौरवान्वित होने वाले घट रहे हैं | सवाल केवल अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा तक ही सीमित नहीं अपितु व्यवहार में हिन्दी के उपयोग का  भी  है |  एक जमाना था जब हिन्दी माध्यम में दी जाने वाली शिक्षा में भी  बतौर भाषा अंग्रेजी पढ़ने पर भी उतना ही जोर दिया जाता था जितना हिन्दी  पर | लेकिन जबसे हिन्दी भाषी इलाकों में अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा का चलन बढ़ा तबसे कुछ विद्यालयों को छोड़ दें तो बाकी के  विद्यार्थियों की अंग्रेजी तो माशा – अल्लाह है ही परन्तु  मातृभाषा होने के बाद भी हिन्दी का ज्ञान घटिया स्तर तक आता जा रहा है | इसके लिए विद्यार्थी और उसके शिक्षक जितने दोषी हैं उससे ज्यादा कसूरवार अभिभावक हैं जो घर में बच्चों से बातचीत में अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल करने को शान समझते हैं | हंसी तो तब आती है जब लोग अपने कुत्ते तक को अंग्रेजी में निर्देश देते हैं | वैसे ये अच्छी बात है कि सरकारी कार्यालयों में हिन्दी का प्रयोग बढ़ा है | राजभाषा अधिकारियों के जरिये कामकाजी हिन्दी का प्रशिक्षण भी दिया जाने लगा है जिसमें गैर हिन्दी भाषी अधिकारी और कर्मचारी भी रूचि लेते हैं |  हिन्दी भाषी राज्यों के  उच्च न्यायालयों में हिन्दी में बहस की अनुमति मिलने से भी माहौल बदला है | कुछ न्यायाधीश तो हिन्दी में फैसले भी लिखने लगे हैं | लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में अब तक हिन्दी को अपेक्षित सम्मान और स्थान नहीं मिल सका | आज हिन्दी  दिवस पर  देश और दुनिया के अनेक हिस्सों में हिन्दी का गुणगान हो रहा है | हिन्दी  दिवस , सप्ताह , पखवाड़ा और मास के आयोजन पर  सरकारी विभागों में  मोटी रकम खर्च होगी | हिन्दी की महानता का बखान भी जमकर होगा | लेकिन ये केवल वार्षिक कर्मकांड बनकर रह गया है | हिन्दी को यदि सही मायनों में उसकी सही जगह प्रतिष्ठित करना है तो हिन्दी भाषियों को अपने दैनिक व्यवहार में उसका प्रयोग बढ़ाना चाहिए | बच्चों को किसी भी माध्यम में पढ़ायें किन्तु उनके साथ  ज्यादा से ज्यादा आपसी बातचीत हिन्दी में किया जाना ही मातृभाषा के प्रति आपकी प्रतिबद्धता का पैमाना होगा | वैश्वीकरण के इस दौर में केवल हिन्दी तक सीमित रहकर हम आगे नहीं बढ़ सकते , ये अवधारणा  आंशिक तौर पर तो सही है | चीन में भी इसीलिये अंग्रेजी सीखने का चलन बढ़ा है किन्त्तु देखने वाली बात ये भी है कि 135 करोड़ से अधिक आबादी वाले भारत के  एक विशाल  उपभोक्ता बाजार होने से दुनिया भर में हिन्दी सीखने का आकर्षण  बढ़ रहा है | भारतीय आज एक वैश्विक समुदाय के रूप में स्थापित हो चुके हैं | उनकी वजह से हिन्दी साहित्य और  भारतीय संस्कृति का भी विश्वव्यापी फैलाव हो रहा है | ऐसे में हिन्दी के अपने घर में ही उसके प्रति सौतेलापन अखरता है | हिन्दी के अखबार जब शीर्षक में अंग्रेजी लिपि का उपयोग करते हैं तब  गुस्से के साथ दुःख भी होता है |  किसी अन्य भाषा के शब्दों को व्यवहार में लाना कोई अपराध नहीं है लेकिन जब अपनी भाषा में उनके लिए समुचित शब्द हैं  तब उनका प्रयोग न करना हमारी विपन्नता को दर्शाता है | अक्सर ये भी कहा जाता है कि हिन्दी बड़ी ही क्लिष्ट भाषा है इसलिए लोग अंग्रेजी का उपयोग करते हैं परन्तु  गैर हिन्दी भाषी लोगों से उनकी भाषा को लेकर  ये तर्क कम ही सुनने मिलता है | सबसे बड़ी बात ये है कि हिन्दी भाषियों को अपनी संतानों को यदि  संस्कृति , संस्कार , साहित्य और आध्यात्म आदि से अवगत कराना है तो उनको हिन्दी का समुचित ज्ञान देना ही होगा | लेकिन  ये संकल्प  केवल हिन्दी दिवस का बुद्धिविलास बनकर न रह जाए ये ध्यान रखना सर्वाधिक जरूरी है |  एक बात जरूर स्वागतयोग्य है कि किसी भी हिन्दी भाषी क्षेत्र में अन्य भारतीय भाषा का विरोध नहीं सुनाई देता | इससे स्पष्ट होता है कि हिन्दी में समायोजन की प्रवृत्ति है और इसीलिये वह सरकारी तौर पर भले ही  राष्ट्रभाषा न कहलाये लेकिन सही मायनों में हिंदुस्तान की तरह ही हिन्दी भी हमारी राष्ट्रीयता को प्रतिबिंबित करती है | ये बात निःसंदेह सच है कि सभी  हिन्दी भाषी अपनी मातृभाषा को दूसरों पर लादने का विचार त्यागकर यदि स्वयं  उसका अधिकतम प्रयोग आपसी संवाद में करने लगें तो वह  राष्ट्रभाषा के तौर अपने आप प्रतिष्ठित्त हो जायेगी | जब हम अपनी माँ को माँ कहने में नहीं  हिचकते तो फिर मातृभाषा के प्रति संकोच कैसा ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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