Wednesday 29 September 2021

कन्हैया डूबती नाव छोड़कर डूबते जहाज पर आये



कन्हैया कुमार का  राजनीति में आकर  वामपंथी दल से जुड़ना तय था क्योंकि दिल्ली की जिस जेएनयू में वे शिक्षित हुए वह साम्यवाद की नर्सरी कहलाती है  | लेकिन कन्हैया तब चर्चा में आये जब संसद पर हमले के आरोपी अफज़ल गुरु की  फांसी के विरोध में फरवरी 2016  में जेएनयू प्रांगण में छात्रों की भीड़ में  देश विरोधी नारेबाजी हुई तथा कन्हैया ने भड़काऊ भाषण दिया | उनको देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार भी किया गया किन्तु बाद में वे दोषमुक्त हो गये | उस घटना के बाद जेएनयू विपक्षी  मोर्चेबंदी का अड्डा बन गया | राहुल गांधी सहित  सभी विपक्षी नेता उसका फेरा लगाने लगे | मोदी विरोधी  कतिपय पत्रकारों को भी कन्हैया में युवा ह्रदय सम्राट नजर आने लगा | गुजरात में हार्दिक पटेल को भी इसी तरह उभारा गया था किन्तु  कन्हैया को राजधानी दिल्ली में होने का लाभ मिला | डाक्टरेट की उपाधि ग्रहण करने के बाद  वे  उम्मीद के मुताबिक सीपीआई ( भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ) के सदस्य बने और जल्द ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उनको शामिल कर लिया गया | राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर खिसक चुकी सीपीआई को कन्हैया में अपना भविष्य नजर आने लगा था | उनके साक्षात्कार टीवी चैनलों और  सोशल मीडिया  पर छा  गए | देश भर में कन्हैया को युवाओं के जलसे में बुलाया जाने लगा |  सीपीआई को भी लगा कि उनकी डूबती नैया  को ये युवा कप्तान किनारे तक ले जाएगा | इसी वजह से उनको 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार की बेगुसराय सीट से उम्मीदवार बनाया गया |  उनके विरूद्ध भाजपा के केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह मैदान में थे | देश भर से साम्यवादी कार्यकर्ता , वामपंथी रुझान वाले एनजीओ , प्रगतिशील लेखक – विचारक ,  अभिनेता  और पत्रकार बेगुसराय में कन्हैया को जिताने पहुंचे किन्तु वे बुरी तरह हारे |  युवा नेता के तौर पर उनके तेज उभार पर अचानक विराम सा लग गया | और वे  केवल सीपीआई की संगठनात्मक गतिविधियों तक सीमित होकर रह गये | सीपीआई के राष्ट्रीय नेताओं के साथ बैठने का अवसर कन्हैया को वाकई बहुत जल्दी मिला | वरना ऐसे संगठनों में इतनी जल्दी  किसी  को प्रथम पंक्ति में शायद ही जगह दी जाती है  | दरअसल  सोवियत संघ के विघटन के बाद से सीपीआई अनाथ जैसी होती जा रही है | एक दौर था जब युवाओं में साम्यवाद के प्रति सहज आकर्षण होता था | लेकिन जब चीन भी पूंजीवादी व्यवस्था के मोहपाश में जकड़ गया तब युवाओं में भी साम्यवाद  का आकर्षण  घटने लगा  | ऐसे में कन्हैया को ये लगा कि जीवन भर संघर्ष करते रहने की बजाय वे उस धारा के साथ जुड़ें जिसमें प्रवाह हो |  भाजपा में वे जा नहीं सकते थे और क्षेत्रीय दलों में उन्हें प्रादेशिक नेताओं का दुमछल्ला बनकर रहना होता | ऐसे में उनको कांग्रेस में ही संभावनाएं नजर आईं जो इन दिनों युवा नेताओं के अभाव से ग्रसित है | पार्टी के वरिष्ठ नेता किनारे होते जा रहे हैं और नई पीढ़ी भी कांग्रेस को लेकर पहले जैसी उत्साहित नहीं है | राहुल गांधी ने शुरुवात तो युवा नेता के तौर पर की थी लेकिन सही समय पर निर्णय न ले पाने और पार्टी को परिवार के भीतर केन्द्रित रखने के कारण वे अपनी चमक खोते जा रहे है | बीते तकरीबन दो साल से कांग्रेस बिना पूर्णकालिक अध्यक्ष के ही चल रही है | राजस्थान , पंजाब और छत्तीसगढ़ में उसकी सत्ता होने के बाद भी अंदरूनी झगड़े समस्या बनते जा रहे हैं | ऐसे में कन्हैया जैसे आक्रामक व्यक्ति के कांग्रेस में प्रवेश से वैसी ही समस्या पैदा हो सकती है जैसी नवजोत सिंह सिद्धू के कारण पंजाब में बन गई है | पंजाब के कांग्रेसी सांसद मनीष तिवारी ने  जो प्रतिक्रिया दी वह इस बात का संकेत है कि कन्हैया का  आना स्थापित छत्रपों को रास नहीं आयेगा | सीपीआई के महासचिव डी. राजा ने कन्हैया के बारे में कहा कि वे मजदूर हित की नीतियों से विमुख हो चले थे और विचारधारा में उनका विश्वास नहीं रहा | वहीं कन्हैया ने कांग्रेस को सबसे पुरानी पार्टी बताते हुए कहा कि बड़ा जहाज डूब गया तो छोटी – छोटी किश्तियाँ भी नहीं बचेंगी | इस तरह उन्होंने कांग्रेस को डूबता जहाज माने जाने की अवधारणा को बल दे दिया | हालाँकि सीपीआई और कांग्रेस की राजनीतिक लिव इन रिलेशनशिप आजादी के बाद से ही  चली आ रही है | पंडित नेहरु के सोवियत संघ से प्रभावित होने के कारण वीके कृष्णा मेनन और डीपी धर जैसे साम्यवादी रुझान वाले उनके निकटस्थ रहे | सत्तर के दशक में इंदिरा जी जब राजनीतिक संकट में फंसी तब भी स्व. श्रीपाद अमृत डांगे की अगुआई में सीपीआई ने उनका खुलकर साथ दिया | बैंकों का  राष्ट्रीयकरण जैसे कदम भी उसी समय  उठाये गये थे | 1975 में इंदिरा जी द्वारा लगाये गये आपातकाल का जहाँ सीपीएम ने विरोध किया था वहीं  सीपीआई खुलकर उसके समर्थन में आई और इसीलिये उसे चमचा पार्टी आफ इण्डिया कहा जाने लगा | नब्बे के दशक में भाजपा के उभार  के बाद  सीपीएम भी मुद्दों पर कांग्रेस का साथ देने लगी | जिसका सबसे बड़ा उदाहरण 2003 में डा. मनमोहन  सिंह जैसे पूंजीवाद समर्थक प्रधानमंत्री की सरकार को टेका लगाने के लिए सीपीएम महसचिव स्व. हरिकिशन सुरजीत का आगे आना था | बहरहाल उसके बाद से कांग्रेस और वामपंथ के सम्बन्ध कभी नरम तो कभी गरम चलते रहे | बंगाल में दोनों मिलकर लड़ते हैं लेकिन केरल में एक दूसरे के खिलाफ  हैं | वैसे भी राहुल गांधी के कमान सँभालने के बाद से कांग्रेस वैचारिक भटकाव के शिखर पर जा पहुँची है | उसकी सैद्धांतिक पहिचान तो कभी की नष्ट हो चुकी थी | आज की स्थिति में वह तदर्थवाद के आधार पर चल रही है | उ.प्र  में  अखिलेश यादव और महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठजोड़ करना उसकी मजबूरी को दर्शाता है | राष्ट्रीय पार्टी होने के बाद भी उसकी मौजूदगी कुछ को छोड़कर शेष राज्यों में नाममात्र की रह गई है | सिद्धू , हार्दिक और अब कन्हैया जैसों को साथ लेकर उसने ये स्पष्ट  कर दिया कि पार्टी की ये दशा आखिर क्यों बन गई ? कन्हैया कहें कुछ भी किन्तु वे अपनी उन अतृप्त महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आये हैं जो सीपीआई में संभव नहीं थी | कहा जा रहा है है वे बिहार में कांग्रेस का चेहरा बनाये जाएंगे जहां पार्टी घुटनों के बल चल रही है | लेकिन क्या लालू पुत्र तेजस्वी  यादव , कन्हैया को बर्दाश्त करेंगे ? हो सकता है उ.प्र के आगामी चुनाव में भी कन्हैया को सितारा प्रचारक बनाया जाए | लेकिन उनके कांग्रेस में प्रवेश से पार्टी को लाभ  कम और हानि ज्यादा होने की सम्भावना है क्योंकि जेएनयू में आजादी का नारा लगाने वाले कन्हैया के  टुकड़े – टुकड़े गैंग से जुड़े होने की बात जनता भूली नहीं है | उससे तो अच्छा होता कांग्रेस  मिलिंद देवड़ा , सचिन पायलट , रणदीप हुड्डा और उन जैसे बाकी युवा नेताओं को नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में शामिल करती जिनको पार्टी की नीतियों का भलीभाँति ज्ञान है | कहना गलत न होगा कि कन्हैया का कांग्रेस में प्रवेश डूबती नाव के नाविक का डूबते जहाज में चढ़ आने जैसा ही है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment