राजनीति में स्पष्टवादिता या तो विवादित बना देती है या फिर अलोकप्रिय | उस दृष्टि से भाजपा के म.प्र प्रभारी पी. मुरलीधर राव ने बड़ा ही दुस्साहसी बयान दे डाला | गत दिवस भोपाल प्रवास के दौरान एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उनका ये कहना चर्चा का विषय बना हुआ है कि जिनको तीन – तीन , चार – चार बार सांसद – विधायक बनकर जनप्रतिनिधित्व करने का अवसर दिया , उन्हें और क्या चाहिए तथा ऐसे नेताओं के पास कहने को कुछ नहीं होना चाहिए | वे इसके आगे यहाँ तक बोल गए कि ऐसे नेता कहें कि उनको मौका नहीं मिला तो उनको किसी लायक नहीं समझा जाना चाहिए और उनको मौका मिलना भी नहीं चाहिए | एक दिन पहले श्री राव पार्टी संगठन के पदाधिकारियों को दौरे करने और कार्यकर्ताओं से संवाद करने की समझाइश के साथ चेतावनी दे चुके थे कि ऐसा न करने पर उन्हें पद से हटा दिया जावेगा | पता नहीं भाजपा के प्रादेशिक नेता और कार्यकर्ता उनकी बातों को कितनी गम्भीरता से लेते हैं लेकिन उन्होंने जो कुछ भी कहा वह ऐसा कड़वा सच है जिससे आज के राजनेता और कार्यकर्ता आम तौर पर सहमत होना तो दूर सुनना तक पसंद नहीं करते | हो सकता है उक्त तंज़ के पीछे म.प्र में राज्यसभा की एक सीट के लिए होने वाला उपचुनाव हो जिसके लिए पार्टी के ऐसे अनेक नेता टिकिटार्थी हैं जो कई बार सांसद – विधायक और महापौर जैसे पदों पर रह चुके हैं | इसी तरह संगठन में आजकल तमाम ऐसे लोग पदाधिकारी बन जाते हैं जिनका मकसद पार्टी की सेवा कम और खुद को महिमामंडित करना ज्यादा होता है | म.प्र में भाजपा के पितृपुरुष कहलाने वाले स्व. कुशाभाऊ ठाकरे का ये जन्म शताब्दि वर्ष है | इस दौरान उनकी सेवाओं का स्मरण करते हुए उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जावेगी | स्मरणीय है ठाकरे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति उनके वैचारिक राजनीतिक विरोधी भी सम्मान का भाव रखते थे | उस लिहाज से श्री राव द्वारा कही गईं उक्त बातें न सिर्फ भाजपा वरन समूचे राजनीतिक जगत पर लागू होती हैं क्योंकि अधिकांश पार्टियों में होने वाली टूटन और बगावत के पीछे सैद्धान्त्तिक मतभिन्नता कम , निजी स्वार्थों की पूर्ति न होना ज्यादा होता है | माना जाता है कि भाजपा और साम्यवादी पार्टी ही कैडर आधारित होने से किसी व्यक्ति या परिवार की बजाय विचारधारा से प्रेरित और निर्देशित होती हैं | इन दोनों में विचारधारा को व्यक्ति से महत्वपूर्ण माना जाता है | लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को रोके जाने पर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार से भाजपा द्वारा समर्थन वापिस ले लेना और 13 दिन की वाजपेयी सरकार गिरने के बाद माकपा द्वारा स्व. ज्योति बसु को प्रधानमन्त्री बनने से रोकने जैसे उदाहरणों से ये प्रमाणित हुआ कि पार्टी का हित निजी हितों की तुलना में महत्वपूर्ण होता है | उसी दौर में श्री आडवाणी ने भाजपा को पार्टी विथ डिफ़रेंस कहकर उसे सबसे अलग बताया था | लेकिन नब्बे का दशक बीतने के साथ ही भारतीय राजनीति में विचारधारा की स्थिति दिल्ली वाली यमुना नदी जैसी होकर रह गई है जिसकी पवित्रता के प्रति भावनात्मक सहमति के बावजूद शायद ही कोई उसके जल से स्नान अथवा आचमन करना चाहेगा | सत्ता के लिए सिद्धांतविहीन समझौते और पदों की लालच में पार्टी से बगावत जैसे कदम अब चौंकाते नहीं हैं | म.प्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया का सदलबल कांग्रेस छोड़ना , राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट तथा पंजाब में अमरिंदर – सिद्धू के झगड़े के पीछे कोई सैद्धांतिक मसला न होकर सीधे – सीधे पद और महत्व का विवाद ही है | चुनाव के समय टिकिट कटते ही ऐसे – ऐसे नेता कोप भवन में जा बैठते हैं जिनका ज्यादातर राजनीतिक जीवन संसद या विधानसभा में बीता हो | पार्टी द्वारा दशकों तक उपकृत किये जाने के बाद भी उनका मन नहीं भरता | माकपा अपने किसी भी नेता को दो से ज्यादा बार राज्यसभा में नहीं भेजती | वहीं भाजपा ने 75 साल की आयु सीमा तय कर रखी है जिसके अंतर्गत अनेक वरिष्ठ नेताओं को टिकिट और पदों से वंचित किया जा रहा है | ये परिपाटी जारी रहना चाहिए क्योंकि विचारधारा का प्रवाह निरंतर बनाये रखना तभी सम्भव है जब नई पीढ़ी भी उससे प्रेरित होकर प्रशिक्षित हो सके | कुछ अपवाद हो सकते हैं किन्त्तु किसी नेता को जीवन भर सांसद – विधायक या किसी पद पर बनाये रखना पार्टी की नेतृत्व संबंधी विपन्नता का परिचायक होता है | पंडित नेहरु के जीवनकाल में ही ये प्रश्न उठने लगा था कि उनके बाद कौन ? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ये अवधारणा बनाई जा चुकी थी कि उनके अलावा और कोई देश चला ही नहीं सकेगा | लेकिन शास्त्री जी और इंदिरा जी ने उनसे भी ज्यादा प्रभाव छोड़ा | इसी तरह अटल – आडवाणी की जोड़ी को भाजपा के लिए अपरिहार्य माना जाने लगा था किन्तु नरेंद्र मोदी ने उस मिथक को तोड़ दिया | ये कहना गलत न होगा कि कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी होने के बाद भी यदि आज बिखराव का शिकार है तो उसका प्रमुख कारण एक ही परिवार का उस पर कब्जा जमाये रखना है | तमाम क्षेत्रीय दल भी कमोबेश कांग्रेस जैसे हालातों से गुजर रहे हैं | ये देखते हुए श्री राव ने भाजपा के बहाने एक तरह से समूची राजनीतिक व्यवस्था को दिशा दिखाने का काम किया है | स्व. कुशाभाऊ ठाकरे एक बार खंडवा लोकसभा सीट का उपचुनाव जीतकर सांसद बने थे किन्तु कुछ ही दिनों बाद लोकसभा भंग हो गई | उसके बाद उन्हें पार्टी ने राज्यसभा में भेजना चाहा ताकि भ्रमण हेतु निःशुल्क रेलवे पास मिल जाये | उस समय पूर्व सांसदों को आज जैसी सुविधाएँ नहीं मिला करती थीं | लेकिन उन्होंने वह पेशकश ठुकरा दी | म.प्र में अनेक मुख्यमंत्री ठाकरे जी की कृपा से ही बने | मंत्री , सांसद , विधायक , राज्यपाल के अलावा सत्ता और संगठन में विभिन्न पदों हेतु उनका आशीर्वाद पाने वाले तो हजारों होंगे किन्तु पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाने के बावजूद वे किसी सदन में नहीं गए | ये कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि चाहते तो वे प्रदेश के मुख्यमंत्री या अटल जी की सरकार में मंत्री तो बन ही सकते थे | ऐसे उदहारण पहले तो प्रत्येक पार्टी में मिल जाया करते थे लेकिन अब ऐसे नेता दुर्लभ प्रजाति होते जा रहे हैं | उस दृष्टि से पी. मुरलीधर राव प्रशंसा के साथ ही अभिनंदन के भी पात्र हैं जिन्होंने उन नेताओं को आईना दिखाने का साहस किया जिनकी इच्छाओं का कोई अंत नहीं है |
- रवीन्द्र वाजपेयी
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