Friday 3 September 2021

आरक्षण का अर्थ केवल सरकारी नौकरी और शिक्षा हेतु प्रवेश का कोटा नहीं



म.प्र सरकार ने उच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाई गयी श्रेणियों को छोड़कर ओबीसी ( अन्य पिछड़ी जातियां ) के लिए भर्ती और परीक्षाओं में 27 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया | इस मुद्दे पर कांग्रेस  और भाजपा में आरोप – प्रत्यारोप के साथ ही श्रेय लूटने की प्रतिस्पर्धा चल रही थी | राज्य की पिछली कमलनाथ सरकार द्वारा ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने का जो निर्णय लिया उस पर उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी थी | बाद में वह सरकार भी चली गई और शिवराज सिंह चौहान दोबारा मुख्यमंत्री बन गये | उनकी सरकार ने उच्च  न्यायालय द्वारा लगाये गये स्थगन को हटवाने की काफी कोशिश की | सर्वोच्च न्यायालय तक की शरण ली गई किन्तु उच्च न्यायालय  द्वारा लगाई गई रोक हटवाने में कोई कामयाबी हाथ नहीं लगी | और कोई मामला होता तब शायद म.प्र सरकार इतनी उठापटक नहीं करती किन्तु एक तो कमलनाथ सहित पूरी कांग्रेस पार्टी भाजपा पर ओबीसी की उपेक्षा करने का आरोप लगाने में जुटी हुई है और दूसरा प्रदेश में होने जा रहे तीन विधानसभा और एक लोकसभा सीट के उपचुनाव हैं | हाल ही में जो जानकारी प्रकाश में आई उसके अनुसार म. प्र में अन्य पिछड़ी  जातियों की आबादी तकरीबन 60  प्रतिशत है | उस दृष्टि से देखें तो 27 फीसदी का आंकड़ा भी कम है परन्तु  सर्वोच्च न्यायालय ने चूँकि कुल आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर रखी है इसलिए राज्य सरकार मजबूर है | लेकिन राजनीतिक मुद्दा बन जाने के कारण न्यायालय के अंतिम निर्णय की प्रतीक्षा किये बिना ही महाधिवक्ता से कानूनी राय लेकर बीच का रास्ता निकालते हुए  अदालत द्वारा लगाई गई रोक के अलावा बाकी पदों के  लिए ओबीसी हेतु 27 फीसदी आरक्षण लागू कर  दिया गया | निर्णय की घोषणा होते ही भाजपा और कांग्रेस दोनों के बीच बयानों का मुकाबला फिर शुरू  हो गया | दोनों पार्टियाँ खुद को ओबीसी का हितचिन्तक और दूसरी को दुश्मन साबित करने पर तुली हुई हैं | शिवराज सरकार के ताजा फैसले के बाद म.प्र में आरक्षण का  कुल आंकड़ा 50 फीसदी से ज्यादा होने की खबर है | इसलिए ये आशंका बनी हुई है कि कहीं न्यायालय इस पर भी रोक न लगा दे | क्या होगा ये पक्के तौर पर कह पाना कठिन है लेकिन इस मुद्दे पर जो बात न केवल म.प्र वरन  समूचे देश से निकलकर आई है वह है आरक्षण के बारे में रवैये की | सैद्धांतिक तौर पर तो आरक्षण के विरोधी भी दबी जुबान ही सही  ये स्वीकार करते हैं कि समाज में आर्थिक , सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े लोगों के उन्नयन के लिए आरक्षण रूपी व्यवस्था आवश्यक है | लेकिन ये कब तक जारी रहेगी यह  अस्पष्ट होने से मतभेद पैदा हो रहे हैं | जब तक बात अनु. जाति और जनजाति तक सीमित थी तब तक विवाद पैदा नहीं हुए लेकिन जबसे ओबीसी को आरक्षण का लाभ दिया जाने लगा तबसे उससे वंचित वर्ग में असंतोष है | हाल ही में संसद द्वारा पारित संशोधन के बाद अब राज्य सरकारों को भी ये अधिकार मिल गया है कि वे ओबीसी की सूची में नई जातियों को शामिल कर सकती हैं | सभी पार्टियों ने उक्त संशोधन को समर्थन दिया | उसके बाद ये चर्चा चल रही है कि विभिन्न राज्यों की सरकारें वोट बैंक के मद्देनजर आरक्षण नामक रेवड़ी बांटने   में लग जायेंगीं | दूसरी तरफ मंडल समर्थक कही जाने वाली पार्टियों के नेताओं ने जाति आधारित जनसंख्या की गिनती करवाने का दबाव बनाना शुरू कर दिया है | उनका कहना है कि ओबीसी की संख्या चूँकि 60 फीसदी के लागभग है इसलिये जातिगत आधार पर जनगणना होने से आरक्षण का उचित  अनुपात तय किया जा सकेगा | इस बात का  दबाव भी बनाया जा रहा  है कि आरक्षण की  अधिकतम सीमा  को 50 प्रतिशत  से ज्यादा किया  जावे | लेकिन इस सबके बीच एक सवाल  रह – रहकर चर्चा में आता है कि आरक्षण समाज के वंचित वर्ग के उत्थान के  बजाय दलगत राजनीति के दलदल में फंसकर रह गया है | उसका लाभ ले रही  जातियों के बीच नेताओं और नौकरशाहों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो अपने कुनबे के विकास में जुटा हुआ है | इसे क्रीमी लेयर कहा जाता है | सर्वोच्च न्यायालय तक इस पर टिप्पणी कर चुका है लेकिन राजनीति के सौदागर सुनने को तैयार नहीं हैं | एक तरफ सरकारी नौकरियां सिमटती जा रही हैं वहीं  दूसरी तरफ ओबीसी की सूची लम्बी होती जा रही है | कुल मिलाकर बड़ी ही  विरोधाभासी स्थिति बन गई  है | जाति की जंजीरें तोड़कर समतावादी समाज की बजाय जाति  के नाम पर उसे टुकड़े – टुकड़े करने का षड्यंत्र हो  रहा है  | बेहतर होगा सरकार चाहे वह किसी भी पार्टी की हो इस बारे में व्यवहारिक आधार पर सोचकर निर्णय ले | तात्कालिक राजनीतिक फायदे के लिए इस तरह के कदम उठाने से जनता संतुष्ट होती तब न तो कांग्रेस आज इस दुर्दशा में पहुँचती और न ही लालू यादव , मुलायम सिंह यदव और  मायावती सत्ता से हटाये जाते | 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को  उ.प्र और बिहार जैसे जातिगत राजनीति के गढ़  में जो समर्थन मिला उससे साबित होता है कि जन अपेक्षा जाति की सियासत से अलग है | इस बात को राजनेताओं  को समझ लेना चाहिये | कोरोना की दो लहरों ने ये बात साफ कर दिया कि देश की सर्वोच्च प्राथमिकताएँ क्या होनी चाहिए ? समाज के प्रत्येक  वर्ग को विकास  के समान अवसर मिलना जरूरी है  लेकिन ये जाति के नाम पर राजनीति करने वाले  नेताओं के रहते संभव नहीं ,  जिनके लिए इस देश के वंचित लोग केवल मतदाता हैं |  आजादी के 75 साल बाद  भी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन  करने वाले करोड़ों लोग विकास के सारे आंकड़ों को झुठलाने के लिए पर्याप्त हैं | ये बात गम्भीरता से समझ लेनी चाहिए कि आरक्षण का अर्थ केवल सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थान में प्रवेश का कोटा नहीं अपितु उससे भी आगे बढ़कर बहुत कुछ है |

- रवीन्द्र वाजपेयी
 

 

 

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