Friday 31 December 2021

जीएसटी सरकारी मुनाफाखोरी का जरिया बना : एक देश , एक कर , एक दर का सपना अधूरा



 जुलाई 2017 से लागू हुई जीएसटी नामक एकीकृत कर प्रणाली का कितना लाभ हुआ ये आकलन करना समय की मांग है | एक देश एक टेक्स के नारे से ओतप्रोत यह व्यवस्था  लागू किये जाने के बाद राज्यों को अनेक प्रकार के करों को रद्द करना पड़ा  | उसके एवज में उन्हें पाँच वर्ष तक केंद्र द्वारा क्षति पूर्ति किये जाने का निर्णय भी किया गया था | दरअसल इस प्रणाली को जमीन पर उतारने के लिए राज्यों  के वित्तमंत्रियों की  एक  काउन्सिल बनाई गई थी | उसने लम्बे विचार – विमर्श के बाद जो ढांचा बनाया उसी के अनुसार इस कर प्रणाली को लागू किया गया जिसका उद्देश्य विभिन्न राज्यों में करों के अंतर को खत्म कर उपभोक्ता को लाभान्वित करने के साथ ही पारदर्शिता लाना था | हालाँकि इसे अपनाने में व्यापारी और उद्योगपति वर्ग को अनेकानेक परेशानियां उठानी पड़ीं | सरकार द्वारा जिस तेजी से नियमों , शर्तों , तथा दरों में बदलाव किये गये  उससे जबरदस्त अनिश्चितता बनी रही | वैसे प्रारम्भिक तौर पर ऐसा होना लाजमी भी था लेकिन इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि जीएसटी की दरों के साथ ही उसमें शामिल होने या बाहर रखी जाने वाली वस्तुओं को लेकर आज तक उहापोह कायम है और  साढ़े चार साल बीत जाने के बाद भी  काउंसिल किसी ऐसे मुकाम पर नहीं पहुंच सकी  जिससे ये कहा जा सके कि अब लम्बे समय तक  दरों के अलावा उसे जुड़ी प्रक्रियाओं में कोई बदलाव नहीं होगा | आज फिर काऊंसिल की बैठक है जिसमें करों के चार स्तरों की बजाय तीन किये जाने के साथ ही कुछ वस्तुओं पर  दरों में घटा - बढ़ी की सम्भावना व्यक्त की गई है | ये कहना गलत न होगा कि इस प्रणाली से कर चोरी काफी हद तक रुकी है और केंद्र सरकार को अपेक्षित राजस्व भी मिल रहा है | विभिन्न राज्यों के करों में विभिन्नता समाप्त होने से उनकी सीमाओं पर बने नाकों में होने वाले भ्रष्टाचार में भी कमी आई है | यद्यपि सरकारी अमले और कर चोरों के बीच संगामित्ति की खबरें भी आने लगी हैं लेकिन प्रति माह के आंकड़ों से ये साबित हो गया है कि जीएसटी केंद्र सरकार के लिए तो फायदेमंद है परन्तु  इससे राज्यों की समस्या बढ़ गईं क्योंकि  उनको जिस क्षतिपूर्ति का वायदा किया गया था वह समय पर नहीं मिलती | गत दिवस वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के साथ बजट पूर्व चर्चा हेतु   जो बैठक हुई उसमें अधिकतर राज्यों के प्रतिनिधियों ने ये मांग कर डाली कि क्षति पूर्ति का प्रावधान पाँच साल और बढ़ाया जावे |इसके पीछे ये तर्क दिया गया कि कोरोना के कारण उत्पन्न हालातों के कारण अर्थव्यवस्था जिस तरह डगमगाई  उसकी वजह से उनकी आर्थिक स्थिति पर बुरा असर पड़ा है | उनकी मांग तर्कसंगत तो  है ही तथ्यपूर्ण भी है | आज हो रही  काउंसिल की बैठक में भी  इस बारे में  केंद्र की घेराबंदी होना तय है लेकिन मुख्य मुद्दा कुछ वस्तुओं पर कर बढ़ने और घटने के अलावा 5 फीसदी की दर समाप्त कर केवल 12 , 18 और 28 फीसदी रखना है | निष्पक्ष आकलन करने पर जीएसटी की तमाम अच्छाइयों के बीच जो सबसे बड़ी बुराई देखने में मिली वह है दरों की विभिन्न पायदानों के अलावा पेट्रोलियम पदार्थों को  जीएसटी से बाहर रखा जाना | जो राज्य काउंसिल की बैठक में अपने राजस्व के नुकसान का रोना रोते हैं वे जनता की परेशानियों के प्रति जिस तरह असंवेदनशील बने रहते हैं उसे  देखकर ये कहा जा सकता है कि सैद्धांतिक मतभेदों के बावजूद जनता के शोषण में  सब एक हैं | जिन देशों में जीएसटी काफी पहले से लागू है उनमें से अधिकतर ने करों की एक या अधिकतम दो दरें ही रखी हैं | विलासिता की चीजों पर अधिक करारोपण पर किसी को आपत्ति नहीं होती किन्तु आम जनता के दैनिक उपयोग की चीजों पर भी भारी - भरकम जीएसटी थोपना उसके प्रति अन्याय नहीं तो और क्या है ? यदि जीएसटी काउंसिल को जनता के प्रति जरा सी भी हमदर्दी है तो उसे एक देश एक कर और एक दर के सूत्र को लागू करने का साहस दिखाना चाहिए | बहरहाल विलासिता की वस्तुओं पर अधिभार लगाकर राजस्व बढ़ाया जा सकता है | इसी तरह पेट्रोल , डीजल सहित अन्य पेट्रोलियम वस्तुओं को जीएसटी के अंतर्गत लाकर आम जनता के कन्धों पर पड़ रहे बोझ को कम करना राष्ट्रीय अपेक्षा है | कोरोना काल के बाद अर्थव्यवस्था जिस तेजी से पटरी पर लौट रही है और उद्योग , व्यापार जगत के साथ ही उपभोक्ता बाजार में उत्साह नजर आ रहा है उसके चलते उक्त दोनों मांगों पर काउंसिल को विचार करना चाहिए क्योंकि कर प्रणाली में किया गया ये बदलाव सरकार का खजाना भरने के उद्देश्य के साथ ही आम उपभोक्ता को करों की विसंगतियों से बचाकर राहत देने के लिए  था | अभी तक जो देखने में आया है उसके अनुसार सरकार के खजाने में तो  अपेक्षित राजस्व आने लगा है  | कोरोना काल में सरकार के सामने जो आर्थिक संकट आ खड़ा हुआ उस दौरान जनता ने भी धैर्य रखते हुए कोई दबाव नहीं बनाया | लेकिन  अब जबकि खुद सरकार ये दावा करने में जुटी है कि आर्थिक मोर्चे पर भी कामयाबी के कारण विकास दर 9 फीसदी होने की संभावना बढ़ती जा रही है तब  आम उपभोक्ता उससे  ये उम्मीद करता है कि  आसमान छूती महंगाई से राहत दिलवाने के लिए जीएसटी की दरें घटाए जाने के साथ ही अधिकतम दो पायदानें ही रखी जावें | सबसे बड़ी मांग जनता के हर वर्ग की है पेट्रोल – डीजल आदि को जीएसटी के अंतर्गत लाने की क्योंकि महंगाई का सबसे बड़ा स्रोत यही है |  आज होने वाली बैठक केन्द्रीय बजट के पूर्व होने से उसके निर्णयों का असर श्रीमती सीतारमण द्वारा पेश किये जाने वाले आगामी बजट पर पड़ना स्वाभाविक ही है | रही बात काउंसिल की स्वायत्तता को बनाये रखने की तो लगभग डेढ़ दर्जन राज्यों में भाजपा या उसके अनुकूल सरकारें होने से यदि वह चाह ले तो जनहित के तमाम फैसले बहुमत से करवा सकती है | लेकिन इस बारे में अनेक तरह के विरोधाभास भाजपा शासित राज्यों के बीच भी देखने मिलते हैं | मसलन  उ.प्र और म.प्र में ही पेट्रोल – डीजल के दामों में 10 रु. प्रति लिटर का बड़ा अंतर है | स्मरणीय है केंद्र सरकार ने दीपावली के तोहफे के तौर पर इन दोनों पर करों में कमी की तो मजबूरन भाजपा राज्यों ने भी उसमें सहयोग दिया | देखा - सीखी अन्य दलों की राज्य सरकारों को भी  वैसा करना पड़ गया | उसके बाद से अर्थव्यवस्था में और सुधार हुआ है जिसे देखते हुए जीएसटी काउंसिल को कल से शुरू होने जा रहे नव वर्ष पर आम जनता को ऐसा उपहार देना चाहिए जिससे वह राहत अनुभव कर सके | पता नहीं सत्ता में बैठे राजनेताओं को ये बात कब समझ में आयेगी कि करों की कम दरें उनकी चोरी रोकती हैं वहीं महंगाई पर नियन्त्रण होने से उपभोक्ता की क्रय शक्ति में होने वाला इजाफा अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करता है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी



Thursday 30 December 2021

नेताओं के जलसों का बहिष्कार भी कोरोना से बचाव में सहायक होगा



 

वर्ष 2020 का अंत आते तक ये विश्वास हो चला था कि कोरोना विदा हो गया है | टीके की खोज होने के कारण लोगों का आत्मविश्वास भी बढ़ गया था | लॉक डाउन हटने के बाद  दीपावली के साथ  ब्याह – शादी पर बाजारों तथा जलसों में  भीड़ होने के बावजूद सब कुछ सामान्य लगने लगा था | ऐसा लग रहा था कि कोरोना नामक महामारी अलविदा कह चुकी है  किन्तु कुछ समय बाद ही वह दबे पाँव लौटी  और फिर ऐसा तांडव मचाया कि चारों तरफ मौत मंडराने लगी | लगभग 100 साल बाद मानव जाति के सामने महामारी की इतनी विशाल चुनौती आने से पूरी दुनिया हलाकान हो उठी | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि कोरोना ने न सिर्फ लोगों के स्वास्थ्य पर हमला किया अपितु पूरे विश्व की  अर्थव्यवस्था को भी हिलाकर रख दिया  | बीते कुछ महीने राहत के जरूर बीते लेकिन कोरोना के पीछे ओमिक्रोन नामक नया वायरस आ धमका | इसकी दहशत इतनी जबर्दस्त थी कि दक्षिण अफ्रीका में दो – चार मरीज मिलते ही दुनिया भर के शेयर बाजार गोते खाने लगे | इसकी संक्रमण क्षमता कोरोना से ज्यादा बताई गई | प्रारंभिक तौर पर ये भी कहा गया कि इसका इलाज फिलहाल उपलब्ध नहीं है और कोरोना का टीका लगवा चुके व्यक्ति को भी ये लपेटे में ले सकता है | इसी दौरान यूरोप के अनेक विकसित देशों में कोरोना की वापिसी हो गई | उल्लेखनीय है कुछ समय पहले ही अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें शुरू हुई थीं | जिनकी वजह से एक देश से दूसरे में लोगों का आना – जाना प्रारम्भ हो गया | भारत में चूंकि टीकाकरण जोरों से चल रहा था इसलिए ये विश्वास होने लगा था कि कोरोना विरोधी रोग प्रतिरोधक क्षमता का सामूहिक विस्तार होने से अब ये महामारी बेअसर हो जायेगी | लेकिन तमाम उम्मीदें और कयास संदेह के घेरे में आते जा रहे हैं | देश में ओमिक्रोन के मरीजों की संख्या में तो धीमी वृद्धि दिखाई दी तथा मृत्यु दर भी नहीं के बराबर देखी जा रही है | संक्रमित व्यक्ति की हालत भी ज्यादा गंभीर नहीं होती और न ही ऑक्सीजन की जरूरत ही पड़ती है | लेकिन ये संतोष ज्यादा समय तक बना नहीं रह सका क्योंकि बीते कुछ ही दिनों कोरोना के मरीजों की संख्या में तेजी से वृद्धि होने लगी | ताजे आंकड़ों के अनुसार लगभग एक महीने के बाद कोरोना के कुल मरीजों की संख्या 10 हजार हो गई | ये देखने के बाद टास्क फ़ोर्स ने तीसरी लहर आने का ऐलान भी कर दिया | अनेक राज्यों में  रात्रिकालीन कर्फ्यू पहले से ही लागू किया जा चुका है | यद्यपि सरकार लॉक डाउन जैसी किसी स्थिति के पुनरागमन से इंकार कर रही है किन्तु जैसी खबर मुंबई से गत दिवस मिली वह आगे भी जारी रही तब ये मान लेना पड़ेगा कि ओमिक्रोन के हल्ले के बीच कोरोना एक बार फिर आ धमका है  | ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है क्योंकि अभी तक पूरी आबादी को कोरोना का दूसरा टीका नहीं लग सका है | आने वाले साल में बच्चों के टीकाकरण का अभियान शुरू होने वाला है | बुजुर्गों को बूस्टर डोज लगाने की तैयारी भी सरकारी एजेंसियाँ कर रही हैं | ऐसे में तीसरी लहर के आ जाने से एक बार फिर देश संकट में फंस सकता है | नए साल के जश्न पर तो पहले से ही पाबंदियां लगा दी गई हैं लेकिन सबसे ज्यादा चिंता पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव को लेकर हैं | चुनाव आयोग ने तो उनको रद्द न करने का संकेत दे दिया है वहीं  नेताओं की सभाएं और रैलियां भी जारी हैं |  देश भर के पर्यटन स्थलों में सैलानियों की भीड़ बढ़ गई है | मकर संक्रांति के बाद विवाह शुरू हो जायेंगे | शालाएं और महाविद्यालय भी खोले जा चुके हैं | अनेक कम्पनियों ने वर्क फ्रॉम होम नमक व्यवस्था खत्म कर दी है | उद्योग - व्यापार भी लम्बे गच्चे के बाद पटरी पर लौट रहे हैं | आर्थिक विशेषज्ञ विकास दर के 9 फीसदी रहने का अनुमान लगाकर आशावादी बने हुए हैं | लेकिन क्या ये सब इतना आसान है जितना दिखाई दे रहा है क्योंकि कोरोना की तीसरी लहर की पदचाप सुनाई देने के बाद भी यदि जनता और सरकार दोनों सच्चाई से आँखें मूंदे  रहीं तो फिर 2021 के हालात दोहराए जा सकते हैं | भले ही चिकित्सा तंत्र पहले से ज्यादा सक्षम हो लेकिन ये बात बिलकुल सच है कि देश फ़िलहाल महामारी के तीसरे दौर को झेलने की हालत में नहीं है | दुर्भाग्य से वह आ गया तो भले ही मौतें कम हों और संक्रमण उतना गम्भीर न रहे लेकिन अर्थव्यवस्था के बढ़ते कदम न सिर्फ रुकने अपितु उनके पीछे लौटने का भी  अंदेशा है | ऐसे में अब जनता को चाहिए वह पिछले अनुभवों से सीखकर कोरोना , ओमिक्रोन अथवा इनसे जुड़े अन्य संक्रमणों से बचाव के प्रति पूरी सतर्कता बरते | देखने में आ रहा है कि मास्क के उपयोग जैसी सावधानी के प्रति भी लोगों  में अव्वल दर्जे का उपेक्षाभाव है | हमारे देश में  एक वर्ग ऐसा भी है  जो कोरोना को कपोल - कल्पित मानकर मास्क और  शारीरिक दूरी के प्रति तो लापरवाह है ही किन्तु टीका लगवाने को भी तैयार नहीं है | और की तो छोड़िये अखिलेश यादव जैसे सुशिक्षित नेता तक टीके का भी राजनीतिकरण करने में नहीं शर्माये | मुस्लिम समुदाय में भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो  कोरोना को सरकार द्वारा खड़ा किया गया  भय का भूत मानते हैं | बहुसंख्यक वर्ग में भी अशिक्षा के कारण कोरोना के प्रति सावधान रहने के प्रति हद दर्जे की लापरवाही है | ये कहने वाले भी मिल जाते हैं कि भारत में  आम आदमी जिस बदहाली में रहता है उसके कारण उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित देशों की तुलना में कहीं ज्यादा है | इस दावे की पुष्टि में ये तर्क दिया जाता है कि विशाल आबादी के बावजूद भारत में कोरोना से हुई मौतें अनेक यूरोपीय देशों से कम रहीं | इस बारे में विचारणीय बात ये है कि कोरोना के दो हमलों के बाद अब तीसरे के प्रति जन सामान्य में भी आवश्यक जागरूकता आ जानी चाहिए | आदर्श स्थिति तो वह होगी जब आम जनता नेताओं के जलसों का बहिष्कार करते हुए उनको ये एहसास करवाए कि उसे अपनी जान की कीमत समझ में आ गई है | कोरोना अब अपरिचित नहीं रहा | उसके खतरे से समाज का बड़ा वर्ग पूरी तरह परिचित है | करोड़ों लोग उसके संक्रमण का दंश भोग भी चुके हैं |  इसके बाद भी अगर लापरवाही दिखाई जाती है तब वह आत्मघाती होगी | कोरोना या उस जैसी महामारी केवल लोगों के स्वास्थ्य पर ही बुरा असर नहीं डालती अपितु उससे सामाजिक जीवन अस्त व्यस्त होने के अलावा अर्थव्यवस्था को भी बड़ा नुकसान होता है जो बमुश्किल रफ़्तार पकड़ रही है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 29 December 2021

अंग्रेजों ने हिन्दू – मुस्लिम में बाँटा अब नेता जातियों में बाँट रहे हैं



 म.प्र के पंचायत चुनाव कानूनी विवाद के चलते रद्द हो गये | ओबीसी आरक्षण के प्रतिशत को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक चली  कानूनी लड़ाई अनिर्णीत रहने के कारण उत्पन्न पेचीदगियों के चलते चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद रद्द करनी पड़ी | राज्य सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इस बात के पुख्ता प्रमाण  देने हैं कि म.प्र में ओबीसी आबादी और उसकी आर्थिक – सामाजिक स्थिति उसे 27 फीसदी आरक्षण देने का औचित्य साबित करने के लिए पर्याप्त है | इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय से समय मांगकर ओबीसी की गणना करवाए जाने की व्यवस्था भी की जा रही है | हालाँकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री उमाश्री भारती द्वारा सार्वजानिक तौर पर ओबीसी की जो जनसँख्या इशारों – इशारों में बताई गई वह तो 50 प्रतिशत से भी ज्यादा है | ऐसे में जाति आधारित जनगणना किये जाने के बाद यदि यह वर्ग 27 फीसदी से भी  ज्यादा आरक्षण मांगने लगे तब सरकार क्या करेगी ये सोचने वाली बात है | उल्लेखनीय है केंद्र सरकार तमाम दबावों के बाद भी जातिगत जनगणना करवाए जाने के लिए राजी नहीं है | सर्वोच्च न्यायालय इस प्रकरण में क्या फैसला करता है और उसके बाद पंचायत चुनाव का  क्या स्वरूप होगा इसके लिए अब कुछ महीनों तक प्रतीक्षा करनी होगी | चुनाव रद्द होने को लेकर भी राजनीतिक पैंतरेबाजी चल पड़ी है | कांग्रेस और भाजपा दोनों इसे अपने – अपने नजरिये से  देखते हुए खुद को ओबीसी हितैषी साबित करने के लिए वाक्युद्ध कर रहे हैं | लेकिन इससे अलग हटकर देखें तो प्रदेश में ओबीसी की आबादी का प्रतिशत उतना बड़ा मुद्दा नहीं है जितना ये कि क्या वाकई चुनाव में आरक्षण  देने मात्र से पिछड़ी जातियों का उत्थान हो जाएगा ? पंचायत और स्थानीय निकायों में अनु. जाति और जनजाति के अलावा ओबीसी के लिए आरक्षण काफी समय से चला  आ रहा है | ग्राम  , जनपद और  जिला पंचायत के अतिरिक्त नगर पालिका और निगमों में भी सदस्य , पार्षद , अध्यक्ष और महापौर आदि के पद उक्त वर्गों के लिए आरक्षित किये जाते रहे हैं | लेकिन उसका जैसा फायदा अपेक्षित था वह कहीं नजर नहीं आता | उलटे उसके नुकसान सबके सामने हैं | इसका कारण ये है कि चुनावी आरक्षण से इन वर्गों का उत्थान होना होता तो सत्तर साल बाद भी इसकी जरूरत न रहती | सरकारी नौकरियों की  मौजूदा और भावी दशा को देखते हुए ये माना जा रहा है कि आरक्षण रूपी रेवड़ी की मिठास बहुत लंबे समय तक कायम नहीं रखी जा सकेगी | सरकारी उद्यमों के विनिवेश , निजीकरण और निगमीकरण की वजह से आरक्षण अब नौकरी की गारंटी भी नहीं रह गया है | ले देकर चुनाव ही बच रहता है जिसमें आरक्षण नामक व्यवस्था कायम है और रहेगी | लेकिन इससे क्या हासिल हुआ और भविष्य में क्या होगा इस पर विचार नहीं किया गया तब आरक्षण नामक सुरक्षा के बावजूद भी अनु. जाति और जनजाति के साथ ही  ओबीसी समुदाय की शैक्षणिक , आर्थिक  और सामाजिक स्थिति में किसी सुधार की उम्मीद करना  व्यर्थ है जिसकी वजह है वंचित वर्गों के भीतर उत्पन्न वर्गभेद | भले ही इस बात को हवा में उड़ा दिया जाता हो किन्तु आरक्षण की बैसाखी का सहारा लेकर प्रगति कर गया वर्ग अपने ही समाज में अगड़े –  पिछड़े की  स्थिति बनाने में जुट गया है | सरकारी नौकरी अथवा राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त आरक्षित वर्ग के लोग अपने समाज के उत्थान की बजाय अपने परिवार का भविष्य संवारने में लगे हुए हैं | इसी कारण सर्वोच्च न्यायालय तक को क्रीमी लेयर जैसी बात कहनी पड़ी | लेकिन दिक्कत ये है कि आरक्षित वर्ग का नेतृत्व जिन लोगों के हाथ में है वे इस सुविधा को पात्र लोगों तक पहुँचने में बाधक बने हुए हैं | सरकारी नौकरियों में बैठे बड़े साहब और  राजनीति के माध्यम से सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बन चुके आरक्षित वर्ग के लोगों का अपने ही समाज के वंचित वर्ग के सर्वागींण विकास में क्या और कितना योगदान है , ये गहन विश्लेषण और अध्ययन का विषय है | यही वजह है कि दलितों में महा दलित और पिछड़ों में भी अति पिछड़े जैसे वर्ग उभरने लगे जिसकी वजह से आरक्षण का भी बंटवारा होने लगा | निश्चित तौर पर इसके पीछे राजनेताओं की चालाकी है लेकिन जिस सामाजिक भेदभाव को मिटाने के लिए आरक्षण नामक व्यवस्था की गई थी वह नए स्वरूप में सामने आ गया | वरना क्या कारण है कि बहुजन समाज का नेतृत्व करने निकलीं मायावती के साथ जाटव भले जुड़े हों  लेकिन बाकी दलित जातियां छिटकती जा रही हैं | यही हाल लालू और मुलायम के बाद उनके बेटों का हो गया जो यादवों के मुखिया बनकर मुस्लिम समुदाय के साथ मिलकर एम - वाई  समीकरण के बल पर राजनीति कर रहे हैं | उ.प्र के वर्तमान चुनाव में राजभर , निषाद , मौर्य , कुर्मी और इन जैसी अनेक पिछड़ी जातियों के नेताओं ने सौदेबाजी के लिए अपनी पार्टियाँ बना ली हैं | इसके पीछे भी किसी जाति विशेष के प्रभुत्व से खुद को आजाद करने की लालसा है |  बहुजन समाज और ओबीसी जैसे शब्द सही मायनों में अब केवल कागज पर रह गये हैं |  जाति के भीतर उपजाति का जो नया दौर चल पड़ा है उससे तो लगता है भविष्य में आरक्षण नामक व्यवस्था में भी बंटवारे का झगड़ा मचेगा | ये देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सबका विकास नामक जो नारा दिया गया उसको सही अर्थों में लागू करने का समय आ गया है | जिस तरह मुफ्त अनाज के वितरण के साथ ही आयुष्मान योजना , वृद्धावस्था और निराश्रित पेंशन , उज्ज्वला योजना आदि में जाति की बजाय आर्थिक आधार पर पात्रता तय की जाती है उसी तरह अब आरक्षण को भी मौजूदा ढांचे से निकालकर व्यवहारिक रूप दिया जाना चाहिए जिससे कि आर्थिक दृष्टि से कमजोर हर व्यक्ति या वर्ग के विकास का उद्देश्य पूरा हो सके | इस सुझाव को आरक्षण विरोधी कहा जा सकता है किन्तु मौजूदा स्वरूप में आरक्षण को जारी रखना लकीर का फ़कीर बने रहना होगा | ये सवाल केवल म.प्र के पंचायत चुनाव को लेकर पैदा हुए विवाद  तक सीमित न रहकर राष्ट्रीय स्तर पर विचार योग्य बन गया है | इस बारे में ये कहना भले ही कड़वा लगे लेकिन जिस तरह अंग्रेजों ने जाते – जाते भारत में हिन्दू और मुस्लिमों के बीच खाई पैदा की वही गलती हमारे राजनेता समाज को जातियों और उप जातियों में बाँटकर कर रहे हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 28 December 2021

बीमारू न सही लेकिन स्वस्थ भी तो नहीं है म.प्र



2003 के विधानसभा चुनाव में म.प्र के बीमारू राज्य होने का मुद्दा बहुत तेजी से उठा था। भाजपा ने बिसपा (बिजली, सड़क और पानी) को लेकर तत्कालीन दिग्विजय सरकार को ऐसा घेरा कि वे सत्ता से बाहर हो गए। उसके बाद लगातार 15 साल तक भाजपा की सरकार रही और फिर 15 महीने के छोटे से कालखंड को छोड़कर शिवराज सिंह चौहान पुन: सत्तासीन हो गये। यद्यपि ये जनादेश की बजाय दलबदल की कृपा थी किन्तु सत्ता सँभालते ही लॉक डाउन रूपी अग्नि परीक्षा सामने आ खड़ी हुई। उस दौर के जैसे-तैसे बीतने पर राहत की सांस ली ही जा रही थी कि पहले से ज्यादा खतरनाक अंदाज में कोरोना लौटा और सर्वत्र मौत का मंजर नजर आने लगा। अस्पतालों में बिस्तर के लिए मारामारी मचने लगी, किसी तरह भर्ती भी हुए तो ऑक्सीजन और वेंटीलेटर की कमी ने न जाने कितनों की जान ले ली। श्मशान घाट में अंतिम संस्कार की जगह तक आसानी से नहीं मिल रही थी। अप्रैल और मई के महीने बहुत ही दर्दनाक यादें छोड़ गये। हालाँकि सरकार से उस दौरान जो और जैसा बन सका किया किन्तु ये बात खुलकर सामने आ गई कि आबादी के सात दशक बीत जाने के बाद भले ही भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया हो लेकिन 135 करोड़ की विशाल आबादी के स्वास्थ्य की रक्षा करने के मामले में हम वैश्विक मापदंडों के लिहाज से बहुत ही पीछे हैं। ये बात तो सत्य है कि विकसित देशों की तुलना में आबादी के आकार को देखते हुए हमारे देश में कोरोना से हुई मौतों का आंकड़ा कम रहा लेकिन उसके पीछे भी अनेक कारण हैं। टीके का उत्पादन जल्द शुरु कर टीकाकरण अभियान का संचालन भी छोटा काम नहीं था किन्तु अनेकानेक बाधाओं के बावजूद देश की बड़ी आबादी को कोरोना का टीका लगाया जा सका और तीसरी लहर की आशंका के चलते बुजुर्गों को बूस्टर डोज के अलावा अब बच्चों को टीका लगाये जाने की तैयारी भी चल रही है। म.प्र. ने भी इस कार्य में भरपूर योगदान दिया। आबादी के बड़े हिस्से को कोरोना के दोनों टीके लग जाने के कारण सामूहिक रोग प्रतिरोधक क्षमता में भी अपेक्षित वृद्धि हुई। कोरोना काल से सीख लेकर म.प्र. में सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं के उन्नयन की दिशा में यूँ तो काफी काम हुआ लेकिन नीति आयोग की जो ताजा रिपोर्ट आई उसके अनुसार देश के 19 बड़े राज्यों की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं में म.प्र का स्थान 17 वां है। इससे नीचे केवल बिहार और उ.प्र ही हैं। 2019-20 की इस रिपोर्ट में चिकित्सा सेवाओं के हर मापदंड पर प्रदेश पिछड़ा ही नहीं अपितु बदतर स्थिति में है। ये बात इसलिए भी विचारणीय है क्योंकि प्रदेश का स्वास्थ्य बजट लगभग 5 हजार करोड़ का है जिसमें चिकित्सा महाविद्यालय शामिल नहीं है। स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़े हर पहलू में प्रदेश की दयनीय स्थिति ये दर्शाती है कि या तो शासन-प्रशासन का ध्यान इस तरफ नहीं है या फिर बजट में दी जा रही राशि का दुरूपयोग हो रहा है। शर्म करने की बात ये भी है कि म.प्र की स्थिति लगातार 16 वें स्थान से नीचे ही रही जबकि कुछ राज्यों ने अपनी व्यवस्थाओं को सुधार कर ऊपर की पायदान में जगह बनाई है। शिवराज सरकार ने बिजली और सड़क के क्षेत्र में अच्छा काम किया है तथा ग्रामीण विकास का लक्ष्य भी काफी हद तक पूरा हुआ है। कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण प्रतिवर्ष राज्य को कृषि कर्मणा पुरस्कार भी मिलता है। गेंहूं के साथ धान और दलहन के उत्पादन में आगे बढऩे के साथ ही पर्यटन और उद्योग के मामलों में भी स्थिति पूर्वापेक्षा काफी बेहतर कही जा सकती है। शिवराज सरकार ने प्रदेश में आधा दर्जन से ज्यादा नये मेडिकल कालेज खोलने की जो पहल की वह भविष्य में चिकित्सकों की कमी दूर करने में सहायक होगी। लेकिन इसी के साथ सोचने वाली बात ये है कि पहले से कार्यरत चिकित्सा महाविद्यालयों में ही पढ़ाने हेतु पर्याप्त शिक्षक नहीं होने से मेडिकल काउन्सिल ऑफ इण्डिया के निरीक्षण में उनकी मान्यता पर खतरे की तलवार लटका करती है। राजधानी भोपाल के वीआईपी कहे जाने वाले हमीदिया मेडिकल कालेज की दुरावस्था भी किसी से छिपी नहीं है। जो जिला अस्पताल काम कर रहे हैं उनमें भी चिकित्सकों के साथ नर्सिंग स्टाफ और दवाओं का टोटा बना हुआ है। प्रधानमंत्री की आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत गरीबों को 5 लाख तक के मुफ्त इलाज की जो सुविधा दी गई वह निजी क्षेत्र के अस्पतालों के लिए तो रूपये छापने की मशीन साबित हुई लेकिन उससे भी जन स्वास्थ्य की स्थिति में गुणात्मक सुधार नहीं हो सका। म.प्र से हजारों की संख्या में नौजवान काम धंधे की तलाश में महानगरों का रुख करते हैं। लेकिन बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो अच्छे इलाज के लिए नागपुर, मुम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद अथवा अन्य किसी शहर में जाने मजबूर हैं। जबकि भोपाल में एम्स और इंदौर में पीजीआई जैसे संस्थान स्थापित हुए भी लंबा समय बीत चुका है। शिवराज सरकार के लिए नीति आयोग की ये रिपोर्ट वाकई शर्मिंदा करने वाली है। इसे झुठलाने का भी कोई आधार उसके पास नहीं है क्योंकि केंद्र में भी भाजपा की ही सरकार है। प्रश्न ये है कि ये हालात क्यों हैं और इसका सीधा-सपाट जवाब है शासन-प्रशासन और जनप्रतिनिधियों का जन स्वास्थ्य के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया। भोपाल के हमीदिया अस्पताल में दर्जन भर बच्चे आग में झुलसकर जान गंवा बैठे लेकिन उसका ठोस कारण आज तक कोई नहीं जानता। दो-चार निलम्बन और स्थानान्तरण करने के बाद सब पहले जैसी स्थिति में आ गया। सरकारी अस्पतालों में कार्यरत अधिकतर चिकित्सक मनमाफिक स्थान पर नियुक्ति के लिये मंत्रियों और अधिकारियों की गणेश परिक्रमा करते रहते हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते भी चिकित्सा व्यवस्था चरमराती है। रही-सही कसर पूरी कर देता है भ्रष्टाचार। इस सबके कारण पूरा ढांचा कमजोर हो चला है। शिवराज सिंह ने म.प्र में सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड बनाया है। उनके राज में प्रदेश अनेक क्षेत्रों में आगे आया है ये कहना भी पूरी तरह सही होगा। जनता के साथ उनका सम्पर्क और संवाद भी प्रभावशाली है। निजी तौर पर वे काफी सरल, मिलनसार और मितभाषी माने जाते हैं। भोपाल में बैठने की बजाय लगातर प्रदेश भर में दौरे करना उनकी विशेषता है। प्रशासनिक अनुभव के लिहाज से भी वे अब काफी समृद्ध हैं। ऐसे में ये अपेक्षा करना बेमानी नहीं है कि बीमारू राज्य के कलंक को धो डालने के बाद म.प्र की गिनती उन प्रदेशों में हो जो स्वास्थ्य सेवाओं की दृष्टि से उत्तम माने जाते हैं। सरकार के लिए ये सोचने वाली बात है कि आज भी तमाम वीआईपी सरकारी खर्च पर इलाज हेतु बाहर भेजे जाते हैं। नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट विपक्ष के लिए एक हथियार की तरह है लेकिन कांग्रेस भी चूँकि इस मामले में बराबर की कसूरवार है इसलिए वह तो ज्यादा कुछ न कह सकेगी किन्तु मुख्यमंत्री को इस रिपोर्ट को चुनौती की तरह लेना चाहिए। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार विकास की आधारभूत आवश्यकता है। उस दृष्टि से म.प्र भले ही बीमारू न रहा हो लेकिन स्वस्थ भी नहीं है जो विरोधाभास से कहीं ज्यादा विडंबना है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 27 December 2021

आरक्षण के नाम पर समाज को बाँटने में नेताओं को न शर्म है और न ही संकोच


म.प्र में पंचायत चुनाव फिलहाल टल गये हैं। पिछली कमलनाथ सरकार द्वारा की गई आरक्षण व्यवस्था को बदलने के लिए वर्तमान शिवराज सरकार ने जो अध्यादेश निकाला वह राजनीति के साथ ही कानूनी विवादों के पेंच में ऐसा फंसा कि समूची चुनाव प्रक्रिया झमेले में फंस गई। उच्च और सर्वोच्च न्यायालय तक चली लड़ाई के बाद विधानसभा में भी सत्ता और विपक्ष में जमकर आरोप-प्रत्यारोप देखने मिले। कांग्रेस और भाजपा दोनों ये साबित करने में जुटे रहे कि ओबीसी समुदाय के सबसे बढ़ी हितैषी वही हैं। विधानसभा में मुख्यमंत्री ने जोर देकर कहा कि बिना ओबीसी आरक्षण के पंचायत चुनाव नहीं होंगे। न्यायालय में आ रही कानूनी रुकावटों के बाद राज्य सरकार ने ओबीसी आरक्षित सीटों को छोड़ बाकी के चुनाव करवाने की घोषणा कर डाली जिसके बाद नामांकन भी शुरू हो गये। कांग्रेस ने तो इसके विरोध में हल्ला मचाया ही किन्तु खुद भाजपा के भीतर ओबीसी तबके ने अपनी ही सरकार के विरूद्ध मोर्चा खोल दिया 8 पूर्व मुख्यमंत्री उमाश्री भारती ने तो सीधे मुख्यमंत्री श्री चौहान को फोन पर ही बड़े राजनीतिक नुकसान की चेतावनी दे डाली। अदालतों में भी सरकार को तत्काल राहत नहीं मिल पाने से समूची चुनावी प्रक्रिया बच्चों का खेल बनकर रह गई थी। आखिरकार राज्य सरकार ने चुनाव रद्द करवाने का फैसला ले लिया। जिस अध्यादेश पर समूचा बवाल मचा उसे भी वापिस लिया गया। अब चुनाव कब करवाए जायेंगे इसे लेकर अनिश्चितता बनी हुई है। इस मामले में शिवराज सरकार को जिस फजीहत का सामना करना पड़ा उसे देखते हुए ये माना जा रहा है कि चुनाव करवाने को लेकर अब जल्दबाजी में कोई भी निर्णय न लेते हुए ऐसी व्यवस्था की जावेगी जिससे कि सरकार और पार्टी दोनों की छवि खराब न होने के साथ ही राजनीतिक लाभ भी मिले। दरअसल श्री चौहान को इस बात की चिंता सता रही है कि 2023 का विधानसभा चुनाव होने के पहले यदि पार्टी के निचले स्तर को सत्ता में हिस्सेदारी न मिली तो फिर चुनाव मैदान में उतरने वाली सेना तैयार नहीं हो सकेगी। 2020 में सरकार बनते ही कोरोना का हमला हो गया। उसके कारण सभी राजनीतिक गतिविधियों पर विराम लग गया। पहली लहर खत्म होने के बाद स्थानीय निकायों के चुनावों की घोषणा तो कर दी गई किन्तु तब तक दूसरी लहर की आहट सुनाई देने लगी जिससे वे चुनाव भी अधर में फंसकर रह गये। जाहिर है इसकी वजह से भाजपा के भीतर काफी नाराजगी व्याप्त है। दमोह और उसके बाद हुए उपचुनावों में मुख्यमंत्री को जिस तरह से जोर लगाना पड़ा उससे कार्यकर्ताओं की नाराजगी और उदासीनता का एहसास हो चला था। वैसे भी सिंधिया गुट के लोगों को समायोजित करने के कारण पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं और नेताओं में नाराजगी है। यही वजह रही कि पंचायत चुनाव रद्द करवाने का मन बनाने के साथ ही मुख्यमंत्री ने निगम-मंडलों में थोक के भाव नियुक्तियां कर डालीं। लेकिन इससे भी समस्या का हल नजर नहीं आ रहा क्योंकि निचले स्तर पर भाजपा कार्यकर्ताओं में जो निराशा है उसे दूर किये बिना आगामी विधानसभा चुनाव जीतना आसान नहीं होगा। मुख्यमंत्री भी 2018 में मिली पराजय के कारण बेहद सतर्क हैं। ऊपर से उनको हटाये जाने की अटकलें भी लगातार सुनाई देती रहती हैं। भाजपा के भीतर चलने वाली चर्चाओं का संज्ञान लेने पर ये संकेत मिलते हैं कि उ.प्र विधानसभा के चुनाव परिणामों के बाद श्री चौहान के भविष्य का फैसला भाजपा आलाकमान लेगा। यही वजह थी कि मुख्यमंत्री ने पंचायत चुनाव करवाने का दांव चला था। उसके पीछे उनकी सोच ये थी कि इन चुनावों में जीत हासिल कर पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को अपनी उपयोगिता और जिताऊ क्षमता से अवगत करवा सकेंगे और ग्रामीण इलाकों में भाजपा का प्रभाव नये सिरे से कायम होगा। लेकिन मुख्यमंत्री की वह कार्ययोजना आरक्षण के मकडज़ाल में उलझकर रह गई। चुनाव तो हुए नहीं लेकिन मुख्यमंत्री सहित उनकी सरकार के कुछ मंत्रियों ने जिस तरह आरक्षण के बिना चुनाव न करवाने की रट लगाई उससे पिछले विधानसभा चुनाव के पहले श्री चौहान द्वारा कोई माँ का लाल आरक्षण नहीं हटा सकता वाली घोषणा याद आ गई। जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप प्रदेश में भाजपा के परम्परागत सवर्ण मतदाताओं में जो नाराजगी फैली उसने भाजपा को 15 साल बाद सत्ता से बेदखल कर दिया। पंचायत चुनाव के लिए की गई आरक्षण व्यवस्था के विवादित होने के कारण प्रदेश सरकार के साथ ही भाजपा संगठन की निर्णय क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं। ओबीसी आरक्षण को लेकर प्रदेश सरकार ने अदालत और उसके बाहर जिस तरह से मोर्चेबंदी की उससे अनारक्षित तबके में एक बार फिर ये एहसास जागा कि समूचा राजनीतिक विमर्श केवल वोट बैंक के इर्द-गिर्द सिमटकर रह गया है। भाजपा की स्थायी समर्थक जातियों में ये भावना तेजी से फैलती जा रही है कि बुरे दिनों में वे उसके साथ रहीं लेकिन अच्छे दिन आते ही पार्टी नेतृत्व को सोशल इंजीनियरिंग दिखने लगी। चुनाव जीतने के लिए जतिवादी संतुलन आवश्यक हो गया है ये तो सब मानते हैं परन्तु कभी-कभी ऐसा लगता है जातिवादी नेताओं की देखा-सीखी भाजपा भी आरक्षण को ब्रह्मास्त्र मान बैठी है। इसकी प्रतिक्रिया फिलहाल उ.प्र में देखी जा सकती है जहाँ अटल जी के समय से भाजपा के साथ जुड़े ब्राह्मण मतदाता इस चुनाव में उससे नाराज बताये जाते हैं और उनको रिझाने के लिए पार्टी ने ब्राह्मण विधायकों और सांसदों से विचार-विमर्श शुरू कर दिया है। स्मरणीय है 2007 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण मतदाताओं द्वारा बसपा को समर्थन दिए जाने से मायावती को पूर्ण बहुमत हासिल हो गया था। 2017 में उ.प्र में भाजपा को मिली धमाकेदार जीत के बाद गुजरात विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी का हिन्दू प्रेम ऐसा जागा कि उनको जनेऊधारी साबित करने का अभियान चला और उनके सारस्वत गोत्रधारी कश्मीरी ब्राहमण होने का भी प्रचार किया जाने लगा। भाजपा तो सवर्णों और व्यापारियों की पार्टी ही मानी जाती रही है लेकिन बीते कुछ सालों में उसने भी जातिगत समीकरणों के महत्व को समझकर पिछड़ी जातियों के अलावा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बीच भी अपनी पैठ बढाने के लिए हाथ पैर मारे और केंद्र सहित अनेक राज्यों में बहुमत हासिल कर सरकारें बना लीं। बावजूद इसके पार्टी पर जातिवादी होने का ठप्पा नहीं लगा लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि भाजपा के अनेक बढ़े नेता अगड़े-पिछड़े, दलित और जनजाति की खेमेबाजी में लग गये हैं। उ.प्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सन्यासी हैं लेकिन सत्ता में आते ही उनके क्षत्रिय होने की बात उजागर की जाने लगी। माफिया सरगना विकास दुबे को पुलिस द्वारा मारे जाने के बाद योगी को ब्राह्मण विरोधी साबित करने की मुहिम के पीछे भाजपा का एक वर्ग भी बताया जाता है। विधानसभा चुनाव के ठीक पहले पिछले चुनाव में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे केशवदेव मौर्य की बजाय योगी को मुख्यमंत्री बना दिए जाने के फैसले को ओबीसी विरोधी बताकर दबाव बनाया जा रहा है। इन सब बातों से ये पता चलता है कि भाजपा कहे कुछ भी किन्तु आरक्षण के नाम पर समाज को बांटने के खेल में वह भी बढ़े खिलाड़ी के रूप में उतर चुकी है। महज वोट बैंक के लिए आजकल जनजातियों को खुश करने के लिए उठापटक चल रही है। सामाजिक समरसता और समूचे हिन्दू समाज को एकजुट करने की जो मुहिम रास्वसंघ द्वारा चलाई जाती है उसके विपरीत भाजपा में बढ़े कहलाने वाले अनेक नेता अपनी जाति को भुनाने के लिए जिस तरह के सियासती दाँव चलते हैं उससे संघ की कोशिशों को भी नुकसान पहुँचता है। पंचायत चुनाव के नाम पर एक बार फिर ये जाहिर हो गया कि आरक्षण और जातिगत समीकरणों ने समूचे राजनीतिक विमर्श पर अतिक्रमण कर लिया है। इसके कारण आरक्षित वर्ग को मुख्यधारा में लाने के प्रयासों को भी झटका लग रहा है। केवल सरकारी नौकरी और उच्च शिक्षा हेतु प्रवेश की सुविधा से ही आरक्षित वर्ग का उत्थान हुआ होता तब शायद आरक्षण की आज जरूरत ही नहीं रहती। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय भी अगड़े-पिछड़े और दलित-जनजाति के नाम पर की जाने वाली राजनीति समाज के विखंडन का कारण बन रही है। म.प्र के पंचायत चुनाव रद्द होने से ये बात साबित हो चुकी है कि चाहे कांग्रेस हो या भाजपा सभी सत्ता के पीछे पागल हैं और उसके लिए समाज को बांटने में उन्हें न कोई शर्म है न ही संकोच।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 25 December 2021

जान से बड़ा नहीं मतदान : चुनाव पर भी फिलहाल लगे लॉक डाउन



म.प्र में पंचायत चुनावों को लेकर चल रही कानूनी और राजनीतिक रस्साकशी के बीच गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा का ये बयान काबिले गौर है कि चुनाव किसी की जिन्दगी से बड़ा नहीं है और कोरोना को देखते हुए वे टाले जाने चाहिये। इसी आशय की टिप्पणी करते हुए अलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक पीठ द्वारा केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को सलाह दी गई है कि कोरोना के नए हमले को देखते हुए रैलियों और सभाओं पर रोक लगाने के साथ जरूरी हो तो विधानसभा चुनाव ही रोक दिए जाएँ। श्री मिश्र और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश महोदय दोनों ने जान है तो जहान है जैसी प्रचलित कहावत को ही आधार बनाते हुए ये बात कही है। कुछ समय पहले इसी स्तम्भ में चुनाव जनता के लिए बने या जनता चुनाव के लिए, शीर्षक से लिखे आलेख पर अनेक पाठकों ने आलोचनात्मक टिप्पणियाँ करते हुए कहा था कि चुनाव रोकना लोकतंत्र के हित में नहीं होगा। उनकी बात एक हद तक सही होते हुए भी वर्तमान परिस्थितियों से मेल नहीं खाती। लोकतन्त्र दरअसल लोक अर्थात जनता के लिए बनाया गया तंत्र अथवा व्यवस्था है। जनता की राय से शासन चलाने के लिए ही चुनाव और मतदान रूपी प्रणाली अपनाई जाती है। चूंकि लोकतंत्र के अंतर्गत बहुमत का शासन होता है इसलिए हर प्रत्याशी और पार्टी ज्यादा से ज्यादा मत हासिल करने के लिए पूरा जोर लगाती है। घर-घर जाकर सम्पर्क करने के अलावा बड़े नेताओं की सभाएं, रैलियां और जुलूस भी चुनाव प्रचार का अभिन्न हिस्सा होते हैं जिनमें भीड़ जमा होती है। भारत सरीखे देश में चुनाव किसी उत्सव या मेले जैसा एहसास करवाते हैं। सामान्य समय में तो ये सब आनंदित करता है किन्तु जबसे कोरोना का कहर शुरू हुआ तबसे लोगों का जमावड़ा आनंदित करने की बजाय आतंकित करने लगा है। इसीलिये सरकार ने तरह-तरह के प्रतिबंध लगाकर कोरोना के संक्रमण को फैलने से रोकने के उपाय किये। लम्बे-लम्बे लॉक डाउन के पीछे भी वही कारण था। कोरोना के दो हमले झेल चुके देशवासी उसके दिल दहलाने वाले परिणामों को भूले नहीं हैं। इसीलिये तीसरी लहर की सुगबुगाहट शुरू होते ही दहशत बढऩे लगी और सरकार ने भी आगाह करना शुरू कर दिया। जिनको टीके की दोनों खुराक लग चुकी हैं उनको बूस्टर डोज लगाने की तैयारी के अलावा बच्चों के टीकाकरण की योजना भी बन रही है। अभी भी देश में ऐसे लोगों की काफी बढ़ी संख्या है जिन्हें कोरोना के टीके नही लग सके हैं। इसके पीछे सरकारी अव्यवस्था के साथ ही लोगों की उदासीनता भी है। लेकिन ये बात पूरी तरह सही है कि चाहे डेल्टा हो या ओमिक्रोन किन्तु किसी न किसी रूप में कोरोना या उस जैसा कई संक्रमण हमारे इर्द-गिर्द घूम रहा है। जब भी ये मान लिया गया कि महामारी अपनी मौत मर रही है तभी उसने पलटवार किया और ऐसी ही सम्भावना एक बार फिर दिखाई दे रही है। भले ही तीसरी लहर का संक्रमण अपेक्षाकृत कम खतरनाक माना जा रहा है लेकिन वह कब विकराल रूप धारण कर ले इस बारे में चिकित्सा विशेषज्ञ पूरी तरह से भ्रमित हैं। आये दिन नए-नए दावे और जानकरियां सुनाई दे जाती हैं। लेकिन इस दौरान ये बात सामने आई है कि खतरा दरवाजे पर आहट दे रहा है और जरा सी लापरवाही से वह भीतर आ धमकेगा। इसीलिये केंद्र और राज्य सरकारों ने विभिन्न प्रकार की रोक लगाई हैं। रात्रिकालीन कफ्र्यू के अलावा शादी और अन्य समारोहों में अतिथि संख्या सीमित की जा रही है। हवाई यात्रियों को कोरोना की ताजी जांच रिपोर्ट दिए बिना यात्रा नहीं करने दी जा रही। मास्क न लगाने वालों पर अर्थदंड लगाया जा रहा है। अर्थात वे सभी सावधानियां दोबारा अपेक्षित हैं जो कोरोना की पहली और दूसरी लहर के दौरान जरूरी मानी गईं थीं। हालाँकि बाजार, होट, रेस्टारेंट, शापिंग माल, सिनेमा, दफ्तर आदि खुल गये हैं और रेल तथा बस यात्रा भी चल रही है। दूसरी ओर इसी के साथ सार्वजनिक जलसों पर कसावट किये जाने की खबरें भी हैं। विद्यालय और महाविद्यालय खुलने के बाद भी उनमें उपस्थिति कम है। छोटे बच्चों को विद्यालय भेजने में अभिभावक हिचकिचा रहे हैं। ऐसे में चुनावी सभाओँ और रैलियों का औचित्य समझ से परे है। लोकसभा के चुनाव तो अभी दूर हैं परन्तु जिन राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव निकट भविष्य में होने जा रहे हैं उनको रोकना कठिन नहीं है। विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने के बाद चुनाव न होने पर राष्ट्रपति शासन लगाने का संवैधानिक प्रावधान है जिसका उपयोग दर्जनों मर्तबा किया भी जा चुका है। 1992 में बाबरी ढांचा गिरने के बाद भाजपा शासित राज्यों की सरकारों को बर्खास्त किया गया था और देश के तत्कालीन माहौल को देखते हुए उन राज्यों के चुनाव बजाय छह महीने के बजाय एक साल बाद करवाए गये थे। 1975 में आपातकाल लगाये जाने के बाद इंदिरा जी ने भी लोकसभा का कार्यकाल एक साल बढ़वाया था। ऐसे में आगामी वर्ष की शुरुवात में होने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव यदि टाल दिए जाएँ तो आसमान टूटकर नहीं गिर जाएगा। म.प्र के गृह मंत्री श्री मिश्र द्वारा पंचायत चुनाव रोकने संबंधी टिप्पणी के साथ अलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने भी चुनाव रोकने की जो सलाह दी उस पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए। सबसे बढ़ी जरूरत है राजनीति से ऊपर उठकर सोचने की। चुनाव में होने वाले खर्च से बढ़कर बात जनता के प्राणों की रक्षा करने की है। चुनाव संवैधानिक आवश्यकता हो सकती है लेकिन वह इंसानी जिन्दगी से ज्यादा मूल्यवान नहीं है। चुनाव प्रचार के प्रचलित तौर-तरीकों में जनता की भीड़ जमा होना अवश्यम्भावी है और उस दौरान संक्रमण का फैलाव रोकना बहुत कठिन है। ये सब देखते हुए जरूरी लगता है कि हाल-फिलहाल चुनाव जैसे गतिविधियों पर भी लॉक डाउन लगाया जाए। इस बारे में केवल एक वाक्य में ही कहें तो मतदान इंसानी जान से बड़ा नहीं हो सकता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 24 December 2021

अटल जी से अविस्मरणीय मुलाकात



जून 2003 में जबलपुर के डुमना हवाई अड्डे पर स्व. अटल जी के साथ कुछ समय बिताने का अवसर मिला था। प्रधानमंत्री की कड़ी सुरक्षा के बीच उन्होंने हमारे पूरे परिवार को 3 मिनिट के नियत समय की बजाय अपने विश्राम के 40 मिनिट भी दे दिए। पूरी भेंट विशुद्ध पारिवारिक माहौल और हास - परिहास से भरी रही। माताजी श्रीमती उर्मिला वाजपेयी और पिताश्री स्व. पं.भगवतीधर वाजपेयी से तो वे ग्वालियर के दिनों  की यादें ताजा करते रहे किन्तु हम सबसे भी बड़े ही आत्मीय भाव से पेश आये। अटल जी से अनगिनत मुलाकातें हुईं । वे हमारे निवास पर भी आते रहे किन्तु प्रधानमंत्री के रूप में उनसे हुई वह भेंट स्मरणीय बन गई। उनकी सहजता और अपनत्व में लेशमात्र बदलाव नहीं आया जो उन्हें राजनेता से बढ़कर एक श्रेष्ठ मानव की श्रेणी प्रदान करने पर्याप्त था।
आज उनके जन्मदिवस पर उनके साथ जुड़ी अनगिनत स्मृतियाँ सजीव हो उठीं।
भारतीय राजनीति में वे राष्ट्रीय नेताओं की अंतिम कड़ी थे।
पावन स्मृति में शत-शत नमन।

-रवीन्द्र वाजपेयी

मिटने की बजाय जाति की विभाजन रेखा और गहरी होती जा रही



म.प्र विधानसभा में गत दिवस एक संकल्प सर्वसम्मति से पारित हुआ कि पंचायत चुनाव ओबीसी ( अन्य पिछड़ा वर्ग ) आरक्षण के बिना नहीं कराये जायेंगे | इसे लेकर म.प्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय जा पहुँची जिसने शीतकालीन अवकाश के बाद तीन जनवरी को मामले की सुनवाई करने का निर्णय किया | बहरहाल इस मुद्दे पर प्रदेश की राजनीति बीते कुछ समय से गरमाई  हुई है | सत्ता और विपक्ष दोनों एक दूसरे पर ओबीसी विरोधी होने का आरोप लगाते घूम रहे हैं | चूंकि मामले में  कानूनी पेंच फंस गया है इसलिए प्रदेश सरकार की स्थिति एक कदम आगे , दो कदम पीछे की हो रही है | लेकिन इससे अलग हटकर देंखें तो आरक्षण नामक सुविधा जिन वर्गों  को दी गई  उसका उद्देश्य सामाजिक भेदभाव दूर करना था | महात्मा गांधी तो वर्ण व्यवस्था के लिहाज से वैश्य समुदाय के थे किन्तु उन्होंने आजादी के आन्दोलन के साथ ही अछूतोद्धार आन्दोलन चलाया | बहुत कम लोग जानते होंगे कि दक्षिण भारत में अछूतों को अधिकार दिलाने वाला  वाइकोम  नामक  जो अभियान गांधी जी के कहने से शुरू हुआ उसका नेतृत्व पेरियार रामास्वामी ने किया था जो बाद में द्रविड़ आन्दोलन के प्रणेता बनकर ब्राह्मणवाद और आर्यवादी सोच के कट्टर विरोधी बने और कांग्रेस से अलग होकर जस्टिस पार्टी बना ली | इस प्रकार कहना  गलत न होगा कि जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था में छुआछूत नामक जो अमानवीय प्रथा थी  उसके विरुद्ध सबसे पहले राष्ट्रव्यापी  आन्दोलन खड़ा करते हुए उसे जन स्वीकृति दिलवाने का काम गांधी जी ने ही किया | हालांकि दलित वर्ग को मुख्य धारा में लाने के लिए छोटे – छोटे प्रयास अनेक लोगों ने किये किन्तु उसे राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने का बापू का कारनामा ही कारगर हुआ | अन्यथा स्वाधीनता के उपरांत सवर्ण नेताओं के वर्चस्व वाली संविधान सभा में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण देने की व्यवस्था संभव  न हो पाती | संविधान  ड्राफ्ट समिति के प्रमुख होने के बावजूद डा.भीमराव आम्बेडकर इस बारे में ज्यादा कुछ न कर पाते यदि सभा सर्वसम्मति से आरक्षण मंजूर नहीं करती | यहाँ ये भी उल्लेखनीय है कि बनारस हिन्दू विवि के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय ने ही जगजीवन राम को अपने यहाँ प्रवेश दिलवाया था जो बाद में देश के सबसे बड़े  दलित चेहरे बने | आजादी के बाद समाजवादी आन्दोलन  भी राजनीति की प्रमुख धारा बना | इसका स्वरूप वामपंथी और कांग्रेसी विचारधारा के बीच का था | समाजवादी आन्दोलन का वैचारिक पक्ष जहाँ आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण से जुड़ा रहा वहीं उसके राजनीतिक प्रवक्ता बनकर उभरे डा. राममनोहर लोहिया | आज देश में ओबीसी के नाम पर पिछड़ा वर्ग की जो राजनीति चल रही है उसे सबसे पहले लोहिया जी ने ही मुखरित किया था | उनका नारा पिछड़ा पावें सौ में साठ बहुत चर्चित हुआ था | इस बारे में स्मरणीय है कि लोहिया जी खुद  अगड़े वर्ग के थे | उनके राजनीतिक विचार इतने प्रभावी हुए कि  समाजवादी खुद को लोहियावादी कहने लग गये | उनके न रहने पर मधु दंडवते , मधु लिमये , एस.एम . जोशी , हरिविष्णु कामथ , अशोक मेहता , चन्द्र शेखर , राजनारायण , जॉर्ज फर्नांडीज और जनेश्वर मिश्र जैसे जो प्रभावशाली समाजवादी नेता हुए वे  भी पिछड़ी जाति के नहीं होने के बाद भी पिछड़ों को उनका हक़ दिलवाने की डा.लोहिया जी की इच्छा का सम्मान करते रहे | 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार के जमाने में बने मंडल आयोग ने ओबीसी आरक्षण की जो सिफारिशें कीं उनको बाद की कांग्रेस सरकारें दबाकर बैठ गई | लेकिन 1974 में जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन से उभरे युवा नेताओं की पौध में पिछड़ी जातियों के अनेक चेहरे सामने आये जो 1989 आते – आते राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने में सक्षम हो गये थे और इसीलिये विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार पर दबाव डालकर मंडल आयोग की सिफारिश लागू करते हुए ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया | उसके विरुद्ध देश भर में युवाओं के आन्दोलन हुए | जिनमें आत्मदाह जैसी दुखद घटनाएँ भी हुई | लेकिन जिस तरह अनु. जाति और जनजाति को मिलने वाले आरक्षण का विरोध करना राजनीतिक तौर पर आत्महत्या करने जैसा है वही स्थिति  आखिरकार ओबीसी आरक्षण को लेकर निर्मित हो चुकी है | 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान रास्वसंघ प्रमुख डा. मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा किये जाने जैसा जो बयान दिया उसने भाजपा को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया | बाद में संघ प्रमुख को अनेक मर्तबा सार्वजानिक रूप से ये दोहराना पड़ा कि जब तक जरूरत है आरक्षण को जारी रखा जाना चाहिए | उस चुनाव में  लालू – और नीतीश के गठबंधन की सफलता ने सवर्णों की पार्टी समझे जाने वाली भाजपा को भी सोशल इंजीनियरिंग जैसे फार्मूले पर ध्यान देने की जरूरत समझाई और उसने 2017  के उ.प्र विधानसभा चुनाव में ओबीसी जाति समूहों से बेहतर  तालमेल कायम करते हुए समाजवादी पार्टी के वर्चस्व को तोड़ दिया | वहां फरवरी 2022 में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के बारे में जितने भी  पूर्वानुमान  लगाए जा रहे हैं वे जातिवादी समीकरण पर ही आधारित हैं | राजनीतिक नफे – नुकसान के लिये समाज को जातियों के बाद अब उप - जातियों में बांटने का प्रयास तेजी से चल रहा है | इस काम में केवल सपा और बसपा ही नहीं वरन कांग्रेस और भाजपा भी जुटी रहती हैं | प्रत्याशी चयन का आधार भी उसकी योग्यता से ज्यादा जाति हो गई है | आरक्षण का मुख्य उद्देश्य दलित और पिछड़े समुदाय को मुख्य धारा में लाना था लेकिन कड़वा सच ये ये है कि यह सुविधा सामाजिक उपाय से राजनीतिक औजार बन गया | सबसे बड़ी दुखद और खतरनाक बात  ये देखने में मिल रही है कि इसकी वजह से सामाजिक सौहार्द्र बिगड़ने की स्थिति बनती जा रही है | कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के भीतर भी जातिवादी दबाव समूह बन गये हैं | इसकी वजह से समूचा  राजनीतिक विमर्श असली मुद्दों से भटककर जातिगत दांव पेंच में फंसता जा रहा है | वैसे तो देश की एकता और अखंडता की रक्षा हर पार्टी और नेता की प्राथमिकता नजर आती है | उनकी देशभक्ति पर भी संदेह  नहीं हें लेकिन जिन सामजिक बुराइयों के कारण देश सैकड़ों सालों तक परतंत्र रहा वे पहले से भी बड़ी मात्रा में समूचे परिदृश्य पर हावी हो चली हैं | इसके लिए कौन दोषी है इसका निर्णय करना आसान नहीं है क्योंकि जिनके कन्धों पर जातिवादी आग बुझाने की जिम्मेदारी है वही इसमें घी उड़ेलने पर आमादा है | आरक्षण का उद्देश्य बहुत ही पवित्र और राष्ट्रहित में था | लेकिन आजादी के सात दशक से ज्यादा  बीतने के बाद भी उस उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो सकी क्योंकि जिस जातिगत विभाजन रेखा को मिटाने का सपना गांधी जी और डा. लोहिया ने देखा था वह उन्हीं के अनुयायियों द्वारा और गहरी होती जा रही है |

-रवीन्द्र वाजपेयी
 

Thursday 23 December 2021

राम धाम में लूट है, लूट सके तो लूट : अयोध्या से पहले अपने विकास की वासना




अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण जोरशोर से चल रहा है। इसी के साथ इस प्राचीन नगरी के चौतरफा विकास की परियोजना पर भी काम शुरू कर दिया गया है। वाराणसी में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर की तरह ही अयोध्या को भी वैश्विक स्तर का तीर्थ स्थल बनाने की महत्वाकांक्षा केंद्र सरकार की है। अयोध्या उ.प्र के सबसे पिछड़े इलाकों में रहा है। राम जन्मभूमि विवाद के कारण इसकी चर्चा भले ही दुनिया भर में हो गई और राष्ट्रीय राजनीति में ये मुद्दा बड़े बदलाव का आधार भी बना लेकिन सनातन धर्म के अनुयायियों के आराध्य भगवान राम की ये नगरी विकास की दृष्टि से आज भी पिछड़ी हुई ही है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राम जन्मभूमि प्रकरण का फैसला किये जाने के बाद विवादित भूमि हिन्दुओं को मिलते ही अनिश्चितता खत्म हो गई और मंदिर निर्माण का काम भी जोरशोर से शुरू हो गया। इसी के साथ अयोध्या में वे सभी सुविधाएं उपलब्ध करवाने की योजना भी बनी जिनसे धार्मिक पर्यटन बढ़े। हवाई अड्डा, रेलवे स्टेशन, चारों तरफ  उच्चस्तरीय राजमार्गों का निर्माण, होटल आदि इसमें शामिल हैं। राम जन्मभूमि मुद्दे ने दुनिया भर में फैले हिन्दुओं के मन में अयोध्या आने की जो उत्कंठा पैदा की उसके मद्देनजर आने वाले कुछ सालों के भीतर ये शहर दुनिया भर के सैलानियों की पसंद बनना निश्चित है। इस कारण से देश भर के होटल व्यवसायी और बिल्डरों ने अयोध्या में जमीनें खरीदने में रूचि दिखाई जो नितांत स्वाभाविक है। लेकिन ऐसा हो पाता उसके पहले ही स्थानीय राजनेताओं के अलावा प्रशासन और पुलिस के तमाम अधिकारियों ने बिना देर लगाये सस्त्ती दरों पर जमीनें खरीद लीं। चूँकि यही वह वर्ग है जिसकी जानकारी में किसी क्षेत्र की विकास परियोजना का खाका सबसे पहले आता है इसलिए नेताओं और नौकरशाहों के पास मौके की जमीनें सस्ते दामों पर खरीदने का भरपूर अवसर रहता है। उस दृष्टि से अयोध्या में जो हुआ उसमें अनपेक्षित कुछ भी नहीं है। व्यवसाय करना हर किसी का मौलिक अधिकार है लेकिन राम जन्मभूमि से पहले अपना विकास करने की वासना निश्चित रूप से पद का दुरूपयोग है। उ.प्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस मामले की जांच करते हुए एक सप्ताह में रिपोर्ट माँगी है। जो जानकारी आई है उसके अनुसार अयोध्या के महापौर सहित एक विधायक और ओबीसी आयोग के सदस्य ने अपने नाम से महत्वपूर्ण स्थलों पर जमीनें खरीद डालीं , वहीं संभागायुक्त, डीआईजी, सूचना आयुक्त और एक विधायक के अलावा कुछ सेवा निवृत्त नौकरशाहों ने अपने रिश्तेदारों के नाम से भी जमीनों में भारी-भरकम निवेश किया है। मुख्यमंत्री के आदेश पर होने वाली जांच में यदि इसकी पुष्टि हो जाती है तब भी जमीनें खरीदने वालों के विरुद्ध कौन सा अपराध साबित होगा ये बड़ा सवाल है। यदि उनके द्वारा अपनी वैध कमाई से भूमि की खरीदी की गयी तब उसमें कुछ भी गलत नहीं कहा जा सकता। हालांकि रिश्तेदारों के नाम पर जमीनें खरीदने का मकसद काले को सफेद करना ही होता है। यदि निजी जमीनें खरीदी गईं तब उसमें किसी भी प्रकार की गलती शायद ही मिले लेकिन सरकारी भूमि का क्रय हुआ तब जरूर ये देखा जाना चाहिए कि समूची प्रक्रिया विधि सम्मत और निष्पक्ष थी या नहीं? वैसे इस समाचार से किसी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ होगा क्योंकि ये चलन पूरे देश में एक समान है। जमीन हथियाने के मामले में सभी राजनीतिक दलों के नेता और विभिन्न राज्यों के नौकरशाहों में जबरदस्त समानता है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है जैसा नारा ऐसे प्रकरणों में सटीक साबित होता है। देश की राजधानी दिल्ली के चारों तरफ  बने आलीशान फॉर्म हाउसों का सर्वेक्षण करने पर ये बात सामने आना तय है कि उनके मालिकों में बड़ी संख्या नेताओं और नौकरशाहों की ही है। आजकल शहरों के बाहर रिसॉर्ट और मैरिज गार्डन बनाने का व्यवसाय भी जोरों पर है। नेता और नौकरशाह इस बात को समय रहते जान लेते हैं कि शहर के बाहर किस इलाके का विकास होना है। इसके पहले कि विकास परियोजना सार्वजानिक हो वहां की महत्वपूर्ण जमीनों का सौदा हो चुका होता है। चूँकि जमीन ही वह चीज है जिसकी खरीद में काले धन का निवेश आसानी से संभव है इसलिए भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों की जुगलबंदी बिना शोर मचाये पीढ़ियों का इंतजाम कर लेती है। उस दृष्टि से अयोध्या में भी जमीनों की खरीदी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नेताओं और नौकरशाहों द्वारा की गई तो उसमें नया कुछ भी नहीं है। कटु सत्य ये है कि जमींदारी प्रथा भले ही कानूनी तौर पर समाप्त हो गई हो लेकिन जमीनी सच्चाई ये है कि जमींदारी मिटाने का दावा करने वाले ही नये जमींदार बन बैठे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 22 December 2021

पंजाब के किसानों को अकेला छोड़ दिया टिकैत एंड कं. ने



संयुक्त किसान मोर्चा के नेता गण इन दिनों विश्राम की मुद्रा में हैं। मोर्चे की इस शांति के पीछे उ.प्र, उत्तराखंड और पंजाब के आगामी विधानसभा चुनाव भी माने जा रहे हैं। किसान आन्दोलन की दिशा चूँकि भाजपा विरोधी हो गई थी इसलिए ये धारणा तेजी से फ़ैली कि पश्चिमी उ.प्र के जाट और उत्तराखंड के तराई वाले सिख बहुल इलाकों में किसान भाजपा को हरवाने के लिए कटिबद्ध हैं। हालाँकि श्री टिकैत ने खुद चुनाव न लडऩे और मोर्चा द्वारा किसी पार्टी का समर्थन नहीं करने का ऐलान कर रखा है। इसके पीछे की सोच ये हो सकती है कि किसान आन्दोलन को चूंकि समूचे विपक्ष का समर्थन मिलता रहा इसलिए एक को समर्थन देकर किसान नेता बाकी को नाराज नहीं करना चाहते। लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी दुविधा आ खड़ी हुई है पंजाब में। किसान आन्दोलन की शुरुआत इसी राज्य से हुई थी और पंजाब के किसानों ने ही दिल्ली में साल भर से ज्यादा चले धरने को सफल बनाया। लेकिन इतने लम्बे आन्दोलन के बाद भी पंजाब के किसानों की समस्या यथावत है। दिल्ली के मोर्चे से लौटने के बाद उनको ये महसूस हुआ कि संयुक्त किसान मोर्चा को ताकतवर बनाने के फेर में वे कमजोर हो गये और उनकी जो मांगें पंजाब सरकार के पास लंबित थीं वे जस की तस रह गईं। किसान आन्दोलन को प्रारम्भिक स्तर पर शक्ति और संसाधन उपलब्ध करवाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री पद से हटा दिये गये और उसके बाद से सत्तारूढ़ कांग्रेस की अंतर्कलह से पंजाब में जबरदस्त राजनीतिक अनिश्चितता है। ऐसे में वहां के किसान अधीर हो उठे और बिना संयुक्त किसान मोर्चा के ही आन्दोलन करने लगे। रेल रोकने के साथ ही प्रशासनिक मुख्यालयों पर धरना भी दिया जा रहा है। आश्चर्य की बात ये है कि अभी तक किसी भी किसान नेता या राष्ट्रीय स्तर के संगठन ने पंजाब के किसान आन्दोलन को समर्थन देने की जरूरत नहीं समझी। श्री टिकैत भी उससे दूरी बनाये हुए हैं। शायद इसका कारण ये है कि पंजाब में कांग्रेस की सरकार है जिसका विरोध करने से संयुक्त किसान मोर्चे पर कांग्रेस विरोधी होने की छाप लग जायेगी। दिल्ली में चले आन्दोलन को समर्थन देने वाले राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा ने अब तक पंजाब के किसानों के आन्दोलन पर एक शब्द भी नहीं कहा जबकि उसमें वही सब कुछ है जिसका वायदा कांग्रेस ने 2017 के चुनाव घोषणापत्र में किया था। ऐसे में राहुल और प्रियंका से अपेक्षा थी कि वे जिस तरह से दिल्ली के किसान आन्दोलन का समर्थन करते रहे वैसा ही किसान प्रेम पंजाब में आकर दिखाएं। इस राज्य के किसानों की मांगें भी लगभग वही हैं जिनकी चर्चा दिल्ली धरने के दौरान सुनाई देती रही। पंजाब के किसानों ने घर लौटकर आन्दोलन शुरू किया तब उन्हें अकेला छोड़ देना एहसान फरामोशी के साथ ही किसान संगठनों की एकता पर भी सवाल खड़े करने के लिए पर्याप्त है। श्री गांधी और श्रीमती वाड्रा दोनों केंद्र सरकार को किसान विरोधी ठहराने में आगे-आगे रहे लेकिन अब अपनी ही पार्टी की राज्य सरकार द्वारा किसानों से किये गये वायदे निभाने में की जा रही बेईमानी पर मौन धारण किये रहने से ये साफ़ हो गया है कि किसानों से उनकी सहानुभूति घडिय़ाली आंसू थे। पंजाब के किसान ये समझ रहे हैं कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के पहले यदि उनके मांगें पूरी नहीं हुईं तो फिर वे खाली हाथ रह जायेंगे। लेकिन संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा उन्हें जिस तरह अकेला छोड़ दिया गया उसके कारण किसान आन्दोलन में दरार आये बिना नहीं रहेगी। उ.प्र, उत्तराखंड और हरियाणा में किसान पंचायतें करने वाली टिकैत एंड कम्पनी पंजाब के किसानों के पक्ष में आकर खड़े होने से पीछे क्यों हट रही है, ये बड़ा सवाल है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

उच्च सदन में निम्न स्तरीय आचरण शर्मिंदा करता है



राज्यसभा से 12 विपक्षी सांसदों के निलम्बन का विवाद चल ही रहा था कि गत दिवस तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ सदस्य डेरेक ओ ब्रायन द्वारा आसंदी की तरफ नियम पुस्तिका फेंके जाने के बाद उन्हें भी इस सत्र की शेष अवधि के लिए निलम्बित कर दिया गया। श्री ब्रायन तृणमूल के प्रवक्ता हैं। सदन के भीतर उनकी सक्रियता और संसदीय ज्ञान प्रभावित्त करता हैं। आयरिश मूल के परिवार से होने की वजह से वे एंग्लो इन्डियन समुदाय के अंतर्गत आते हैं। उनका संसदीय ज्ञान और बहस करने की क्षमता काफी अच्छी है। राजनीति में आने से पहले वे विज्ञापन पेशेवर रहे और बाद में क्विज मास्टर के तौर पर बहुत सफल और लोकप्रिय हुए। उनके द्वारा संचालित क्विज शो देश-विदेश में सराहे गये। संसद का उच्च सदन दरअसल बना ही ऐसे लोगों के लिए है। उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस प. बंगाल में लगातार तीसरी बार सरकार बनाने के बाद आत्मविश्वास से भरपूर है। उसकी नेत्री ममता बैनर्जी स्वयं को प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी का विकल्प मानकर कांग्रेस को तोडऩे में लगी हैं। बंगाल की सीमा से निकलकर सुदूर गोवा के विधानसभा चुनावों में तृणमूल ने कूदने के साथ ही जिस तरह से कांग्रेस में तोडफ़ोड़ मचाई हुई है उससे पार्टी की तेज चाल का एहसास होने लगा है। इसी कारण से वह संसद में भी आक्रामक दिखना चाहती है। जिन राज्यसभा सदस्यों को पिछले सत्र में आपत्तिजनक आचरण के कारण पूरे शीतकालीन सत्र के लिए निलम्बित किया गया उनमें दो तृणमूल के भी हैं। समूचा विपक्ष सभापति वेंकैया नायडू पर निलबंन वापिस लेने का दबाव बनाता रहा किन्तु वे टस से मस नहीं हुए। विपक्ष का कहना है कि ऐसा करने से उच्च सदन में सरकार के पास बहुमत हो गया जिसके बल पर वह अपने सभी प्रस्ताव पारित कराने में सफल हो रही है। वैसे भी मौजूदा सत्र किसी भी समय समाप्त किया जा सकता है। ऐसे में श्री ब्रायन जैसे सदस्य का सदन में न होना अच्छा नहीं है। संसदीय प्रणाली में सदन का बड़ा महत्व है और उस पर भी विपक्ष का जागरूक और सक्रिय होना निहायत जरूरी। लेकिन ये उसका भी दायित्व है कि अपनी उपयोगिता के साथ ही दायित्व को भी समझे। लोकसभा में न सही लेकिन राज्यसभा में विपक्ष की अच्छी-खासी संख्या है लेकिन वह इसका सही उपयोग सत्ता पक्ष पर दबाव बनाने में नहीं कर पा रहा जिसके लिए वह किसी और को दोष नहीं दे सकता। उसका सदैव ये आरोप रहता है कि सत्ता पक्ष उसे अपनी बात रखने का अवसर नहीं देता और आसंदी से उसे जो संरक्षण मिलना चाहिए वह भी नहीं मिल पाता। पिछले सत्र में जिन सदस्यों को उपद्रव के आरोप में निलम्बित किया गया वे आसंदी के रवैये को पक्षपातपूर्ण मानते हैं। हालाँकि अतीत में भी इस तरह के टकराव होते रहे हैं। लेकिन विपक्ष को अपनी भूमिका पर भी आत्मावलोकन करना चाहिए। मसलन श्री ब्रायन द्वारा उप सभापति के किसी निर्णय पर नाराज होकर सदन से चला जाना तो संसदीय विरोध का प्रचलित तरीका है किन्तु जाते-जाते नियमावली की पुस्तिका आसंदी की तरफ उछालना बहुत ही अशोभनीय कार्य था। ऐसा आचरण किसी अल्पशिक्षित सदस्य द्वारा किया जाए तो भी उसे उपेक्षित कर दिया जाता लेकिन डेरेक जैसे पढ़े-लिखे और अनुभवी सांसद से ये अपेक्षा की जाती है कि वे न सिर्फ स्वयं संसदीय मर्यादाओं का पालन करेंगे अपितु अन्य सदस्यों को भी इस हेतु प्रेरित करेंगे। ये देखते हुए उनके द्वारा नियम पुस्तिका को फेंकना अक्षम्य कार्य था जिसके लिए निलम्बन जैसी कार्रवाई सर्वथा उचित है। राज्यसभा के सभापति पद को देश के उपराष्ट्रपति सुशोभित करते हैं। अत: सदस्यों को उनकी संवैधानिक हैसियत का सम्मान करना चाहिए। और फिर उच्च सदन के सदस्यों का व्यवहार भी उच्च स्तर का होना चाहिए। उस दृष्टि से श्री ब्रायन ने जो कुछ किया उसके लिए उन्हें दण्डित किया जाना जरूरी था। नव निर्वाचित सदस्यों को संसदीय गरिमा का पाठ पढ़ाने के लिए वरिष्ठ सदस्यों की सेवाएँ ली जाती हैं। भविष्य में श्री ब्रायन भी वरिष्ठ होने के नाते नए सांसदों के शिक्षक बन सकते है और तब क्या वे उन्हें यही सीख देंगे कि सदन के नियमों का पालन करने की बजाय नियम पुस्तिका आसंदी की तरफ फेंकते हुए सदन से चले जाएँ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 21 December 2021

आरक्षण का असली लाभ तो नेताओं और उनके परिवारों को मिल रहा



 

म.प्र में पंचायत चुनाव ओबीसी आरक्षण के फेर में उलझा हुआ है | न्यायालयों में  याचिकाओं के  दौर के साथ राजनीतिक आरोप – प्रत्यारोप का अनवरत सिलसिला जारी है | कांग्रेस  आरोप लगा रही है कि भाजपा   ओबीसी विरोधी  है वहीं  भाजपा उसे इस बात के लिये  कठघरे में खड़ा कर रही है कि अदालत जाकर उसने चुनाव टलवाने की चाल चली | जहाँ तक बात न्यायपालिका की है तो उसे केवल इस बात से सरोकार है कि निर्वाचन प्रक्रिया कानून के दायरे के भीतर संचालित हो | इसी बीच म.प्र सरकार की मंशा पर चुनाव आयोग ने ओबीसी को छोड़कर बाकी सीटों के चुनाव करवाने की घोषणा कर दी  | वैसे भी चुनावों की अधिसूचना जारी होने के बाद उसे रद्द नहीं किया जाता |  ऐसे में  मप्र के पंचायत चुनाव दरअसल  उस दलदल में फंस गये हैं जिसे जाति कहा जाता है |  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद भी अन्य पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखते हैं किन्तु उन्हीं की पार्टी की नेता और पूर्व मुख्यमंत्री रहीं साध्वी उमाश्री भारती ने भी गत दिवस ओबीसी सीटों को छोड़कर शेष पर चुनाव करवाने के विरुद्ध मुख्यमंत्री को चेतावनी देते हुए कहा कि 70 फीसदी  आबादी को उपेक्षित नहीं किया जा सकता | उल्लेखनीय है सन्यास ग्रहण करने के बावजूद उमाश्री खुद को पिछड़े वर्ग की नेत्री के तौर पर ही पेश करने में तनिक भी संकोच नहीं करतीं | इस मुद्दे पर विधानसभा में कांग्रेस के स्थगन प्रस्ताव पर चर्चा होने वाली है जिसमें सत्ता और प्रतिपक्ष एक – दूसरे पर ओबीसी विरोधी होने का आरोप लगायेंगे , हंगामा होगा , स्थगन प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया जावेगा और  फिर विपक्ष नारे लगाते हुए सदन से बाहर निकलकर सरकार पर अलोकतांत्रिक होने का आरोप लगाएगा | ये पटकथा हमारे देश में रोजाना फ़िल्माई जाती है | सही बात ये है कि सभी पार्टियाँ  ओबीसी , अजा  और अजजा की हितचिन्तक न होकर केवल वोटों की लालची हैं  | वरना क्या कारण है कि स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती तक पहुंचने के बाद भी देश में  अगड़ा और पिछड़ा होने का आधार जाति ही बनी हुई है | अजा और अजजा को तो संविधान  बनते ही आरक्षण मिल गया था जबकि ओबीसी आरक्षण आया 1990 में | उसको लागू हुए भी तीन दशक बीत गये लेकिन आज भी ओबीसी वर्ग में आने वाली जातियों के पिछड़ेपन को दूर करने का लक्ष्य अधूरा है | इसका कारण ये है कि जिस तरह अजा और अजजा केवल मतदाता बनकर रह गये उसी तरह ओबीसी का आर्थिक उत्थान तो पृष्ठभूमि में चला गया और उसका राजनीतिक लाभ लेने की प्रवृत्ति हावी हो गयी | इस बारे में देखने वाली बात ये है कि  अजा , अजजा और ओबीसी को मिलने वाले आरक्षण से उस समुदाय के छोटे से तबके को तो  सरकारी नौकरी के अलावा और कुछ नहीं मिला | लेकिन उनके नेता बने लोगों का आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक उत्थान जरूर हो गया | यही वजह है कि जिस वर्ग को  आरक्षण रूपी लाभ  प्रदान किया गया वह समाज की मुख्यधारा में आने की बजाय और दूर होता जा रहा है | जिसका कारण इस वर्ग के  नेता हैं जो अजा , अजजा और ओबीसी के आर्थिक और सामाजिक उत्थान के बजाय अपने और अपने परिवार के सुख – समृद्धि और प्रभाव की वृद्धि में लिप्त हैं | इसी कारण ये सवाल स्वाभाविक रूप से उठता रहा है कि सात दशक के बाद भी  समाज का यह वर्ग वंचित क्यों बना  हुआ है ? उमाश्री , मायावती , मुलायम सिंह यादव , लालूप्रसाद  यादव , रामविलास पासवान , शिबू सोरेन आदि का नाम पूरे देश में जाना जाता है | इन सबके परिजनों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर इनके राजनीतिक प्रभाव का लाभ मिला | लेकिन जिस वर्ग के ये नेता  कहे जाते हैं उसकी जो  स्थिति है वह  देखने से लगता है कि उसे जानबूझकर कमजोर बनाकर रखा जा रहा है ताकि  उनका राजनीतिक दोहन किया जा सके | आरक्षण की प्रासंगिकता सरकारी नौकरियों के अलावा केवल चुनाव में ही है | इसीलिये इन  वर्गों में भी राजनीतिक आधार पर वर्ग भेद पैदा हो गया है | लेकिन   अजा , अजजा और ओबीसी समुदाय के सभी बड़े नेताओं का परिवार ही उनकी विरासत का हकदार बन गया है | यहाँ तक कि साध्वी होने के बावजूद उमाश्री जब मुख्यमंत्री बनीं तो उनके भाई और भतीजे राजनीतिक तौर पर ताकतवर होकर उभरे थे | उक्त सभी नेताओं के बेटी – बेटे , पत्नी , भाई और भतीजे ही उनकी राजनीतिक पूंजी के मालिक बन बैठे | ऐसे में जब वे वंचित वर्ग की आवाज उठाते हैं तब उसके पीछे  अपने महत्व को बनाये रखने की चिंता होती है | ये देश का दुर्भाग्य ही है कि 21 वीं सदी में भी जाति हमारी सोच पर हावी है | सैकड़ों साल से आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़े और प्रताड़ित रहे वर्ग को मुख्यधारा में लाने का विचार हमारे संविधान निर्माताओं की ईमानदार सोच का प्रमाण था | लेकिन धीरे – धीरे ऐसे नेता पैदा हो गये जिनके द्वारा  वंचित वर्ग का  भावनात्मक शोषण किया जाता रहा | जरूरत इस बात की थी कि अजा , अजजा और ओबीसी जातियों का नेतृत्व करने वाले नेता इस वर्ग में 100 फीसदी शिक्षा का लक्ष्य तय कर उस पर काम करते | लेकिन उनके अपने बेटे – बेटी तो शिक्षित हो जाते हैं परन्तु  उनका  समाज  अशिक्षित बना रहने से समय के साथ कदम मिलाकर चलने में असमर्थ बना हुआ है | पंचायत चुनाव को लेकर म.प्र में जो राजनीतिक रस्साकाशी  चल रही है उसका उद्देश्य अपना राजनीतिक स्वार्थ साधना ही है | राजनेताओं के मन में ये बात बैठ गई है कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग को बदहाली में ही रहने दिया जावे जिससे वे उनके इशारे पर नाचते रहें | ये सवाल इसलिए उठता है कि उक्त सभी नेताओं ने वंचित वर्ग के शैक्षणिक विकास हेतु कुछ भी नहीं किया | सरकारी नौकरी में अजा , अजजा और ओबीसी वर्ग के जो लोग  हैं उन्होंने भी जाति आधारित  संगठन  बना लिए हैं जबकि उम्मीद ये की जाती थी कि वे संकुचित सोच को त्यागेंगे  | कुल मिलाकर बात ये है कि अजा , अजजा और ओबीसी वर्ग का उत्थान राजनीतिक दांव – पेंच में उलझकर रह गया है | जब तक इस वर्ग के लोगों को वोट बैंक बनाकर रखा जायेगा तब तक इनका  उत्थान असम्भव है | इस बारे में मुस्लिम समुदाय का उदाहरण सामने है जिसके मत हासिल करने के लिए राजनीतिक दल धर्म निरपेक्षता का राग अलापते हुए उनका भयादोहन तो करते हैं किन्तु आज भी देश के अधिकांश मुसलमान यदि मुख्यधारा से अलग - थलग हैं तो उसका कारण उनमें शिक्षा का विकास  न होना है जिसकी वजह से वे राजनेताओं के शिकंजे में फंसे हुए हैं | पहले कांग्रेस ने उनका इस्तेमाल किया और अब लालू – मुलायम तथा ममता जैसे नेता उनका दोहन कर रहे हैं | आरक्षण नामक सुविधा हासिल करने के लिये नई – नई जातियां सामने आ रही हैं | इनमें वे भी हैं जो आर्थिक और सामाजिक तौर पर काफी अच्छी स्थिति में हैं | इसके पीछे  भी राजनीति ही है | उ.प्र के आगामी विधानसभा चुनाव का पूर्वानुमान इस बात पर ज्यादा लगाया जा रहा है कि कौन सी जाति किस पार्टी के साथ जायेगी | अजा और ओबीसी में शामिल जातियों के बीच भी राजनीति ने फूट पैदा कर दी है | यही वजह है कि सभी अजा मतदाता मायावती के साथ नहीं हैं | यही स्थिति ओबीसी की है जिनमें  यादव , निषाद , मौर्य , कुर्मी नामक जातियों के भी अलग नेता हैं जो अपनी राजनीतिक हैसियत बनाये रखने के लिए सौदेबाजी करने में नहीं शर्माते | चूँकि वंचित माने जाने वर्ग में शिक्षा का अभाव है इसलिए वे चंद नेताओं के पिछलग्गू बने रहते हैं | आरक्षण का उदेश्य  ऊंच - नीच का भेदभाव मिटाकर  सामाजिक समरसता की स्थापना करना था परन्तु हुआ उसका उल्टा जिससे  आज के भारत में जातिगत अलगाव और ईर्ष्या  अपने चरम पर है | इसे दूर करना बेहद जरूरी है लेकिन जिन नेताओं पर ये जिम्मेदारी है वे ही जाति को जिन्दा रखने पर आमादा हैं क्योंकि उनको देश  से ज्यादा अपनी  चिंता जो है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 20 December 2021

पंजाब में खालिस्तानी आतंक के लौटने का खतरा



 जो लोग पंजाब की राजनीति के बारे में जानते हैं उन्होंने ये भी सुना होगा कि नब्बे के दशक में वहां जरनैल सिंह भिंडरावाले नामक जो व्यक्ति  उग्रवाद का प्रवक्ता बन गया था उसे तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने ही ज्ञानी जैल सिंह की राजनीतिक वजनदारी कम करने  के लिए बढ़ावा दिया था किन्तु बाद में वही उनके लिए समस्या बन गया जिसकी दुखद परिणिति अंततः श्रीमती गांधी की नृशंस हत्या के तौर पर सामने आई | उल्लेखनीय है अमृतसर के विश्व प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर में घुसे बैठे भिंडरावाले को ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार नामक फौजी कार्रवाई में मार गिराया गया था जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप ही श्रीमती गांधी को उनके दो सिख अंगरक्षकों ने ही मार दिया और तब दिल्ली में हुए दंगों में हजारों सिखों की हत्या कर दी गई | धीरे –  धीरे  पंजाब में शांति लौट आई और ऐसा लगने  लगा कि उस दौर को भुला दिया गया है | जिस कांग्रेस से सिख समुदाय बेहद नाराज था उसी की सरकार भी कालान्तर में बनीं और खालिस्तान नामक देश विरोधी आन्दोलन पर भी विस्मृति की धूल जम गई | लेकिन ऐसा लग रहा है राख के नीचे दबी चिंगारी फिर  भड़क सकती है | इसके अनेक संकेत बीते कुछ समय से मिल रहे हैं | 13 अप्रैल 2020 को पटियाला के सनौर नामक स्थान में कोरोना के कारण लगाये गये कर्फ्यू का उल्लंघन कर रहे निहंगों ने उनको रोकने वाले पुलिस इंस्पेक्टर  का हाथ तलवार से काट दिया  और भागकर समीपवर्ती गुरूद्वारे में जा घुसे | बाद में किसी तरह उन्हें पकड़ा जा सका | उनके पास से जो चीजें मिलीं वे किसी धार्मिक व्यक्ति से अपेक्षित नहीं थीं |  उस घटना को साधारण अपराध मानकर भुला देने की जो गलती की गई उसके दुष्परिणाम जल्द सामने आने लगे | तीन कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब  की जत्थेदारियों ने जो आन्दोलन शुरू किया उसका केंद्र बाद में दिल्ली बन गया  |  धरना देने वालों में  चूँकि सिख किसान ज्यादा थे  इसलिए उनके भोजन की व्यवस्था हेतु जो लंगर शुरू हुए उनके जरिये सिखों के बीच घुसे अलगाववादी तत्व भी आन्दोलन का हिस्सा बन बैठे | धरनास्थल पर भिंडरावाले के पोस्टर और खलिस्तानी झंडे जैसे सबूतों की आन्दोलन के नेताओं द्वारा की गई  उपेक्षा के  कारण ही 26 जनवरी 2021 को लाल किले पर निहंग द्वारा शस्त्र प्रदर्शन  का दुस्साहस किया गया |राष्ट्रध्वज के अपमान और धार्मिक ध्वज फहराए जाने के दृश्य भी पूरे देश ने देखे | किसान नेताओं ने उस घटना की निंदा तो की लेकिन वे उपद्रवी तत्वों को धरना स्थल से हटाने का साहस नहीं जुटा सके | उस आन्दोलन के समर्थन में कैनेडा और ब्रिटेन में जो प्रदर्शन हुए उनमें भी खालिस्तानी नारे लगे | लेकिन जब भी इस बारे  में किसान नेताओं का ध्यान आकर्षित किया गया तो वे बहकी – बहकी  बातें करने लगे | जिससे उपद्रवी तत्वों का हौसला मजबूत हुआ और आन्दोलन के  अंतिम चरण में कुछ निहंगों द्वारा  धार्मिक प्रतीक के अपमान के आरोप में एक व्यक्ति की बेरहमी से हत्या कर दी गयी । उनकी गिरफ्तारी भी बड़ी मुश्किल से हो सकी | उस घटना के बाद योगेन्द्र यादव ने  निहंगों से धरना स्थल खाली  करने की मांग की जिसे  ठुकरा दिया गया  | खैर , किसान आन्दोलन तो खत्म हो गया लेकिन उसकी आड़ में नये सिरे से सिख उग्रवाद का जो बीज पनपा उसका असर सामने आने लगा है | विगत दो दिनों में पंजाब से निहंगों द्वारा बेअदबी के नाम पर की गई हत्याओं की जो खबरें आईं वे इस राज्य में पुराना दौर लौटने की आशंका को मजबूत कर रही हैं | कुछ महीनों बाद  विधानसभा चुनाव होने वाले हैं |  फिलहाल वहां जबरदस्त  राजनीतिक अनिश्चितता है | किसान आन्दोलन के जरिये सक्रिय हुई कुछ जत्थेदारियां राजनीतिक महत्वाकांक्षा के संकेत दे रही हैं | उनके एक नेता ने तो बाकायदे अपने उम्मीदवार उतारने  का ऐलान कर दिया है | सत्ताधारी कांग्रेस अपनी अंतर्कलह से जूझने के काण इस सम्वेदनशील मुद्दे पर ध्यान नहीं दे रही | उसके प्रदेश अध्यक्ष नवजोत  सिंह सिद्धू  और मुख्यमंत्री के बीच खींचातानी की वजह से  प्रशासनिक व्यवस्था चौपट हो रही है | निहंगों द्वारा बेअदबी के नाम पर की जा रही हत्याओं को केवल धार्मिक कट्टरवाद से जोड़कर देखना गलत होगा क्योंकि अतीत में जो कुछ हो चुका है उसके मद्देनजर इन घटनाओं की उपेक्षा पंजाब को एक बार फिर अलगाववाद की  आग में झोंकने का कारण बन सकती है | आश्चर्य की  बात है लिंचिंग  के मामले में चिल्लाने वाली कांग्रेस अपने शासन वाले राज्य में धार्मिक उन्माद के विरुद्ध बोलने से डर रही है | ये कहना भी गलत न होगा कि किसान आन्दोलन का सहारा लेकर पंजाब में धार्मिक कट्टरवादी गुटों और अलगाववादी ताकतों का अघोषित गठबंधन आंतरिक शान्ति के लिए बड़ा खतरा बनने जा रहा है | चुनाव तो आते – जाते रहेंगे लेकिन पंजाब देश का सीमावर्ती राज्य होने से बेहद संवेदनशील है |  खालिस्तानी आतंक को प्रश्रय और प्रशिक्षण देने में पाकिस्तान की  सक्रिय भूमिका किसी से छिपी नहीं है | ये भी ध्यान देने योग्य है कि भारत के विरुद्ध छद्म युद्ध लड़ने की जो रणनीति बांग्लादेश बनने के बाद पाकिस्तान ने बनाई थी उसी के तहत अस्सी और नब्बे के दशक में पंजाब में आतंकवाद की शुरुवात हुई थी | जिसके  नियंत्रण में आते ही पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी में आतंकवाद को बढ़ावा देने की योजना पर अमल किया | धारा 370 हटने के बाद बीते दो वर्ष में वहां के  हालात पर काफी हद तक काबू किया जा सका  , जिससे पाकिस्तान परेशान हो उठा | ऐसा लगता है उसने उसके बदले पंजाब की धरती में दबे पड़े खालिस्तान के बीज को पुनः दाना - पानी देने की कार्ययोजना बनाई है | निहंगों का अचानक बदला व्यवहार बेअदबी के नाम पर किया जाने वाला उन्माद न होकर किसी बड़े षडयंत्र का सूत्रपात हो तो आश्चर्य नहीं होगा | इसके जरिये पंजाब में सिख और हिन्दुओं के बीच खाई पैदा करने का खतरनाक खेल भी हो सकता है | निहंग  , सिखों के संघर्षशील इतिहास का प्रतीक हैं  | लेकिन हाल  की  घटनाओं में उनमें से कुछ का आचरण ये साबित कर रहा है कि वे   सिख गुरुओं के बताये रास्ते से भटककर आतंक  और स्वेच्छाचरिता के प्रतीक बन बैठे हैं | सिख समुदाय में जो विवेकशील लोग हैं उनको निहंगों के इस आतंक के विरूद्ध आवाज उठानी चाहिए | गुरूद्वारों को उनकी पवित्रता और सिख समाज को उसकी  सेवा भावना के लिए पूरी दुनिया में सम्मान की नजर से देखा जाता है | ऐसे में कतिपय निहंगों द्वारा की जा रही हत्याओं से सिख कौम की  छवि पर आंच न आये ये देखा जाना जरूरी है | राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि वे अपने क्षणिक स्वार्थवश इस आग को भड़काने से बाज आयें वरना  उनके हाथ भी जले बिना नहीं रहेंगे | अतीत की गलतियों की मंहगी कीमत चुकाने के बाद भी  उसे दोहराना किसी दल या नेता से ज्यादा इस देश के लिए हानिकारक होगा |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 16 December 2021

मंत्री का त्यागपत्र : सरकार और भाजपा दोनों चूक गये



केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे पर लखीमपुर खीरी में चार किसानों को अपने वाहन से कुचलकर मार देने के मामले में विशेष जाँच दल की रिपोर्ट पर गैर इरादतन हत्या को बदलकर इरादतन हत्या का आरोप लगाये जाने के बाद मंत्री के त्यागपत्र की मांग तेज हो गई है। अभी तक तो किसान आन्दोलन में ही ये मुद्दा शामिल था लेकिन अब संसद के भीतर विपक्ष इसे लेकर आक्रामक हो चला है। खबर है श्री मिश्र को दिल्ली आने का निर्देश दिया गया है जिससे लगता है सरकार के साथ ही भाजपा का नेतृत्व उनके पद पर बने रहने से होने वाले नफे-नुकसान का हिसाब लगाकर कोई निर्णय लेने वाला है। इस विवाद के छींटे मंत्री पर न पड़े होते यदि वे घटना के बाद अपने पुत्र के बचाव में आकर ये न कहते कि वह तो घटनास्थल पर था ही नहीं। इसके बदले यदि उनके द्वारा कहा गया होता कि जो भी दोषी हो उसे दंड मिलना चाहिए चाहे वो मेरा बेटा ही क्यों न हो तो वे प्रशंसा के पात्र बन जाते। उनके पुत्र की गिरफ्तारी में भी उ.प्र पुलिस ने जो समय लगाया उससे भी मंत्री और पार्टी दोनों बदनाम हुए। इस घटना को राजनीतिक चश्मा उतारकर देखा जाना ही सही होगा। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री के रूप में श्री मिश्र की जिम्मेदारी देश में कानून व्यवस्था बनाये रखने की है। लेकिन उनके अपने क्षेत्र में उनके बेटे द्वारा चार किसानों की निर्दयता पूर्वक हत्या कर देना उनके लिए दोहरी शर्म का विषय था। लेकिन उन्होंने पुत्र मोह में आकर त्यागपत्र देना तो दूर एक अपराधी का बचाव करने की हिमाकत कर डाली। कहा जाता है भाजपा नेतृत्व भी उनको मंत्रीपद से हटाने का निर्णय करने में इसलिए आगे-पीछे होता रहा क्योंकि उसे डर था कि वैसा करने से उस इलाके के ब्राह्मण मतदाता नाराज हो जायेंगे। घटना के फौरन बाद अनेक ब्राह्मण संगठनों ने मंत्री के पक्ष में पोस्टरबाजी भी की। लेकिन जब वीडियो में उनके बेटे की वहां मौजूदगी प्रमाणित हो गई जिसके द्वारा चार किसानों को कुचला गया तब उसकी गिरफ्तारी के सिवाय कोई चारा नहीं बचा था। श्री मिश्र द्वारा पद पर बने रहने का सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि कुचलकर मारे गए चार किसानों की मौत के बाद आक्रोशित भीड़ ने प्रतिहिंसा में जिन चार भाजपा कार्यकर्ताओं को पीट-पीटकर मार डाला उनकी मौत पर उपेक्षा का पर्दा पड़ गया। जबकि जितना बड़ा अपराध चार किसानों की हत्या थी उतनी ही जघन्यता चार भाजपा कार्यकर्ताओं की ह्त्या में बरती गई। लेकिन किसान आन्दोलन के शोर में उन चारों की मौत पर न किसान नेता रोये और न ही भाजपा नेतृत्व उसे मुद्दा बना पाया। और इसका कारण अपने पुत्र की निर्दयता के बाद भी श्री मिश्र का पद पर बने रहने से उपजा अपराधबोध ही था। अब जबकि किसान आन्दोलन मैदानी रूप से खत्म हो चुका है और मंत्री पुत्र पर जानबूझकर हत्या की धारा भी लग चुकी है तब होना तो ये चाहिये था कि श्री मिश्र खुद आगे आकर ये कहते कि वे अदालत के फैसले तक मंत्री नहीं रहेंगे किन्तु जैसा ज्ञात हुआ है वे असंतुलित होकर अमर्यादित व्यवहार करने लगे हैं। भाजपा नेतृत्व ने उनको दिल्ली बुलाया है तो जाहिर तौर पर बात उनको मंत्री पद से हटाये जाने से ही जुड़ी हुई होगी। संसद में विपक्ष के हंगामे से भी सरकार की छवि पर आंच आ रही है। हो सकता है अभी तक विशेष जांच दल की रिपोर्ट का इंतजार किया जा रहा हो किन्तु अब जबकि मंत्री पुत्र पर इरादतन हत्या की धारा भी लगा दी गई तब किसी असमंजस की गुंजाईश ही नहीं रही। ये बात बिलकुल सही है कि आरोप लग जाने मात्र से अपराध प्रमाणित नहीं हो जाता, जब तक न्यायालय उसकी पुष्टि करते हुए आरोपी को दण्डित न कर दे। लेकिन लोकतान्त्रिक व्यवस्था क़ानून के अलावा परम्पराओं पर भी आधारित होती है और उसमें नियमों के समानांतर नैतिकता को भी बराबर का महत्व दिया जाता है। ऐसे में श्री मिश्र को तत्काल पद त्याग देना चाहिये था क्योंकि वे जिस विभाग के राज्य मंत्री हैं उसके अंतर्गत पुलिस भी आती है और केंद्र के साथ ही राज्य में भी उन्हीं की पार्टी का शासन है। उल्लेखनीय है भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे बंगारू लक्षमण किसी से नगदी लेते कैमरे में कैद हो गये थे। ज्योंही वह वीडियो सार्वजनिक हुआ पार्टी ने उनको हटा दिया। केन्द्रीय मंत्री एम. जे. अकबर पर भी एक महिला ने बरसों पहले उनके साथ आपत्तिजनक व्यवहार का आरोप लगाया तो उनको सरकार से हटा दिया गया। यद्यपि वे बाद में निर्दोष साबित हुए। ऐसे फैसले पार्टी और सरकार के साथ ही संदर्भित व्यक्ति की छवि सुधारने में सहायक बनते हैं। उस दृष्टि से श्री मिश्र और भाजपा दोनों ने गलती कर दी। अब विपक्ष के दबाव में वे पद से हटाये जाते हैं तो भी जो नुकसान उन्हें और पार्टी को हो चुका उसकी भरपाई आसानी से नहीं हो सकेगी। किसान आन्दोलन के दबाव में प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि कानून वापिस ले लिए और अन्य मांगें भी मंजूर कर लीं। श्री मिश्र के त्यागपत्र की मांग भी किसान नेताओं द्वारा की गई थी। हालांकि बाद में वे ठन्डे पड़ गए लेकिन अब विपक्ष ने संसद में मोर्चा सम्भाल लिया है। संसद का कामकाज भी इससे प्रभावित हो रहा है। बेहतर होगा प्रधानमंत्री और भाजपा नेतृत्व इस बारे में तुरंत निर्णय लेकर श्री मिश्र को मंत्री पद से हटायें। ऐसे मामलों में राजनीति से परे नैतिकता के आधार पर फैसले लिए जाने चहिये। पार्टी विथ डिफरेंस का दावा करने वालों से तो कम से कम ये अपेक्षा की ही जा सकती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 15 December 2021

सऊदी अरब के बाद अब किसी और के प्रमाणपत्र की क्या जरूरत



सऊदी अरब को इस्लाम का संरक्षक देश माना जाता है। दुनिया भर के मुसलमान जिस मक्का में हज करने जाते हैं वह यहीं स्थित है। इस देश की अर्थव्यवस्था में हज यात्रियों से होने वाली करोड़ों रु. की सालाना आय का बड़ा योगदान है। कच्चे तेल के अकूत भंडारों के कारण ये अरब जगत के सबसे समृद्ध मुल्कों में से एक है। यहाँ अभी भी राजतन्त्र है और शाही परिवार का ही देश पर शासन है। इस्लामी परम्पराओं और कानूनों का कड़ाई से पालन करने वाले इस देश में महिलाओं पर तरह-तरह की पाबंदियां थीं। हाल ही में सऊदी अरब सरकार ने 18 साल से ऊपर की लड़कियों को अकेले विदेश यात्रा करने, बिना अभिभावक की अनुमति के शादी करने, कार चलाने और महिला फ़ुटबाल लीग शुरु करने जैसी आजादी दी है। इसे इस्लामिक जगत में आये बड़े बदलाव के तौर  पर देखा जा रहा है क्योंकि इस्लाम के नाम पर सबसे कट्टर शासन इसी देश में  है। ये बात भी जगजाहिर है कि दुनिया भर में मस्जिदों के नवीनीकरण के साथ इस्लाम के फैलाव के लिए सऊदी अरब से बड़ी मात्रा  में जो आर्थिक सहायता आती है उसका उपयोग आतंकवादी संगठनों द्वारा होता है। ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकवादी को पैदा करने का काम सऊदी अरब द्वारा ही किया गया था। उसके अलावा और भी इस्लामी आतंकवादी गुट उसकी मदद से पलते रहे हैं। दूसरी तरफ अरब जगत में सऊदी अरब ही वह देश है जिसके अमेरिका से बहुत करीबी रिश्ते रहे हैं। शाही परिवार के अरबों डालर अमेरिकन कम्पनियों  में निवेश होने की बात भी सर्वविदित है। इसे लेकर प. एशिया के अनेक कट्टर  इस्लामी देश सऊदी अरब के विरोध में भी आवाज उठाते  रहे है।  फिलिस्तीन का समर्थन करने के बावजूद सऊदी अरब ने इजरायल से रिश्ते सुधारने की पहल की जिसे बाद में यूएई (संयुक्त अरब अमीरात) ने भी अपनाया। दरअसल बीते कुछ समय से सऊदी अरब अपनी कट्टर छवि को सुधारकर उदारवादी चेहरा दुनिया के सामने पेश करने की कोशिश में जुटा हुआ है। महिलाओं को दी जा रही छूट के पीछे भी यही वजह मानी जा रही है। इस बारे में एक बात और जो सुनने मिली है वह है आगामी दस सालों में कच्चे तेल की मांग में आने वाली गिरावट। दुनिया भर में जिस तेजी से बैटरी चलित वाहनों का चलन बढ़ रहा है और पर्यावरण के संरक्षण पर जोर दिया जा रहा है उसे देखते हुए सऊदी शासकों को भी ये लगने लगा है कि धरती के भीतर से निकलने वाले कच्चे तेल रूपी जिस सोने  के बलबूते बीती एक सदी में उनका देश मालामाल हो गया उसकी मांग घटने के पहले ही आय के वैकल्पिक स्रोत तैयार कर लिए जावें। यूएई का उदाहरण उसके सामने है जिसने कच्चे तेल की बिक्री के अलावा अपने देश को पर्यटन और विदेशी निवेश के लिए खोलकर अनाप – शनाप कमाई से भविष्य के लिए मजबूत बुनियाद तैयार कर डाली। महिलाओं को सामाजिक तौर पर अनेक तरह की पाबंदियों से मुक्ति  देने के बाद सऊदी सरकार ने तबलीगी जमात नामक वहाबी संगठन को शुक्रवार की नमाज के पहले मस्जिदों से हट जाने का हुक्म देते हुए उसको आतंकवाद का द्वार निरूपित कर दिया। उल्लेखनीय है खुद सऊदी अरब इस्लाम में वहाबी धारा का पालक-पोषक माना जाता है। तबलीगी जमात की शुरुवात 1927 में भारत से हुई और आज भी इसका मुख्यालय भारत में ही है। गत वर्ष कोरोना के फैलाव के आरोप में इसके दिल्ली स्थित मुख्यालय पर छापा मारकर पूरे देश में जमातियों की धरपकड़ की गई थी। उन पर आरोप था कि दिल्ली स्थित मरकज में देश-विदेश के हजारों वहाबियों के जमा रहने से कोरोना फैला। बहरहाल सऊदी अरब का फैसला चौंकाने वाला है। तबलीगी जमात का काम पूरे विश्व में फैला हुआ है। यह एक तरह से इसाई मिशनरियों जैसा संगठन है जिसके सदस्य घूम – घूमकर इस्लाम का प्रचार करते हैं। इस संगठन की गतिविधियाँ  संदिग्ध मानी जाती रही हैं। लेकिन सऊदी अरब के समर्थन का ही नतीजा रहा कि भारत सरकार अब तक इस संगठन के मुखिया को पकड़ने  से बचती आ रही है। लेकिन अब जबकि सऊदी अरब जैसे कट्टर इस्लामिक देश ने ही तबलीगी जमात को मस्जिदें खाली करने का निर्देश देते हुए उसे आतंकवाद का द्वार बता दिया तब फिर किसी और प्रमाणपत्र की गुंजाईश ही कहाँ  बचती है। भारत में देवबंद नामक इस्लामिक केंद्र ने सऊदी सरकार के निर्णय को अमेरिका के दबाव का परिणाम बताते हुए कहा कि इस फैसले को वापिस लिया जाना चाहिए। लेकिन दूसरी तरफ खबर तो ये भी है कि अफगानिस्तान पर काबिज तालिबान ने भी तबलीगी जमात का विरोध किया है। अब जहाँ तक भारत का सम्बन्ध है तो तबलीगी जमात पर शिकंजा कसने का यही सबसे सही अवसर है। इस संगठन की गतिवधियों को लेकर समर्थन और विरोध दोनों सामने आये हैं। भले ही ये अपने को शांतिप्रिय बताते हों लेकिन दिल्ली स्थित मरकज में पकड़े गये जमातियों ने जिस तरह का उत्पात मचाया और गिरफ्तारी से बचने यहाँ-वहां छिपते फिरे उसके कारण भी इस संगठन को लेकर आशंकाएं पैदा हुईं। सऊदी अरब द्वारा तबलीगी जमात को आतंकवाद का द्वार कहा जाना मामूली बात नहीं है। भारत सरकार को चाहिए वह सऊदी प्रशासन से तबलीगी जमात के विरोध में ऊठाये गए कदमों की वजह पता करे। इस्लाम के सबसे प्रमुख देश द्वारा ही जब तबलीगी जमात को आतंकवाद का द्वार बताते हुए मस्जिदों से हकाला जा रहा है तब भारत सरकार को भी सतर्क हो जाना चाहिये क्योंकि सऊदी अरब किसी वहाबी संगठन को आतंकवाद से जुड़ा बताये तो ये बात मायने रखती  है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 14 December 2021

काशी विश्वनाथ कॉरिडोर एक नई यात्रा की शुरुआत



 काशी या वाराणसी को विश्व की प्राचीनतम नगरी कहा जाता है | भगवान शंकर का ज्योतिर्लिंग यहाँ स्थित है जिसे बाबा विश्वनाथ कहा जाता है | काशी भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा का केंद्र रही  है | यहाँ के  आध्यात्मिक वातावरण में भक्ति , वैराग्य , कला , संगीत , साहित्य , संस्कृति , शिल्प , शिक्षा , उद्योग  सभी का अद्भुत समावेश है | ये नगरी भारतीय संस्कृति के लगभग सभी रंगों को अपने आँचल में समाहित किये हुए है | यहाँ का खान – पान , गान और तो और श्मसान तक ख्यातलब्ध है | काशी अध्ययन , आराधना और साधना का विश्वप्रसिद्ध केंद्र है | भगवान बुद्ध ने यहीं सारनाथ में सबसे पहले अपने ज्ञान का प्रकाश बिखेरा था | लेकिन काशी विरोधाभासों का भी  शहर है | पूर्वी भारत का यह प्रवेश द्वार अपनी विलक्षणताओं के साथ ही अव्यवस्थाओं के लिए भी जाना जाता रहा है | भीड़ , गंदगी , संकरी  गलियाँ , बेतरतीब यातायात और सबसे बढ़कर तो शिव के गणों जैसा लोक व्यवहार | जिन बाबा विश्वनाथ की वजह से वाराणसी पूरे भारत में आस्था का केंद्र  होने के साथ ही वैश्विक आकर्षण का केंद्र है , उनके ऐतिहासिक मंदिर के आस पास का समूचा क्षेत्र  अव्यवस्था का साक्षात अनुभव करवाने वाला था | मंदिर जाने के लिए आने वाले श्रृद्धालुओं को घनी बस्ती के अलावा संकरी गलियों से गुजरना होता था | जिनमें शिव के वाहन का निर्बाध आवागमन  आने – जाने वालों को भयभीत कर देता था | अवैध निर्माण और अतिक्रमणों के कारण विश्वनाथ  मंदिर के चारों तरफ बने दर्जनों मंदिर पूरी  तरह छिप गये थे | लेकिन गत दिवस पूरी दुनिया ने काशी के कायाकल्प को देखा | काशी विश्वनाथ कॉरिडोर नामक परियोजना का प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने लोकार्पण कर काशी को क्योटो बना देने के वायदे को पूरा करने के सिलसिले को और आगे बढ़ा दिया |  2014 में वाराणसी से उनका लोकसभा चुनाव लड़ना विशुद्ध रूप से राजनीतिक रणनीति का हिस्सा था | भाजपा का वह दांव कारगर साबित हुआ | वाराणसी से श्री मोदी तो जीते ही वहीं  उ.प्र में भी भाजपा को  अभूतपूर्व सफलता हासिल हुई | जैसी कि उम्मीद थी श्री मोदी प्रधानमंत्री  बन गये और उसके बाद उन्होंने वाराणसी की तस्वीर बदलने का बीड़ा उठाया | उ.प्र ने उसके पहले भी देश को आधा दर्जन प्रधानमंत्री  दिए | उन सभी के निर्वाचन क्षेत्र अति विशिष्ट ( वीआईपी ) कहलाये | लेकिन फूलपुर , रायबरेली और अमेठी की दशा देखकर कोई नहीं कहेगा कि यहाँ से जीतने वाले   देश के प्रधानमंत्री  रहे | लेकिन श्री मोदी ने वाराणसी से चुनाव जीतने के तत्काल बाद ही वहां के विकास पर ध्यान दिया  | बीते सात  साल के भीतर ही वहां ये विश्वास पैदा हो गया है कि  इच्छा शक्ति हो तो बदरंग तस्वीर को भी  संवारा जा सकता है |  प्रधानमंत्री  जाहिर तौर पर एक  राजनेता हैं |  उनके कन्धों पर भाजपा को जिताने  की भी जिम्मेदारी है | उ.प्र में दो – ढ़ाई महीने  बाद विधानसभा चुनाव हैं  जिसमें भाजपा को कड़ी चुनौती मिलने की बात कही जा रही है | उस दृष्टि से पूर्वांचल का प्रमुख केंद्र होने से वाराणसी बहुत ही महत्वपूर्ण है | ये भी कहा जा रहा है कि चुनावी फायदे के लिए काशी  विश्वनाथ कॉरिडोर का विकास कार्य  समय से पहले करवा लिया गया | प्रधानमंत्री  चूँकि हर आयोजन में भव्यता और सुव्यवस्था के लिए जाने जाते हैं इसलिए गत दिवस काशी में जो हुआ वह भव्यता   और दिव्यता दोनों लिहाज से बेमिसाल था | राजनीति से अलग हटकर देखें तो वाराणसी से अतीत में भी  अनेक दिग्गज लोकसभा चुनाव जीतकर जाते रहे |  उनके द्वारा भी इस प्राचीन नगरी के विकास के लिए काफी कुछ किया गया | मसलन स्व. कमलापति  त्रिपाठी ने रेलमंत्री रहते हुए  रेल सुविधाओं के विकास के लिए उल्लेखनीय कार्य किये | लेकिन ये कहने में लेश मात्र भी संकोच नहीं होना चाहिए कि  श्री मोदी ने बीते सात साल में ही वाराणसी को उसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप विकसित करने का जो प्रयास किया वह वाकई प्रशंसनीय  है | दुनिया भर से बौद्ध धर्मावलम्बी वाराणसी के उपनगरीय क्षेत्र सारनाथ आते हैं | श्री मोदी ने जापान के प्रधानमंत्री  को वाराणसी की  गंगा आरती में शामिल करवाकर  जापान के धार्मिक शहर क्योटो की तरह से ही काशी को भी विकसित करने का इरादा जताया | उसे लेकर प्रधानमन्त्री का उपहास भी किया  जाता रहा किन्तु उन्होने   अपने संकल्प को न सिर्फ याद रखा अपितु उसे कार्यरूप में परिणित भी कर दिखाया | काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के विकास को केवल धार्मिक  दृष्टि से देखा  जाना उचित न होगा | यह हिन्दू तीर्थों की अव्यवस्था को दूर कर उन्हें साफ़ - सुथरा , सुंदर और सुविधासंपन्न बनाने की दिशा में एक दिशा निर्देशक बन सकता है | काशी विश्वनाथ के दर्शन करने आये महात्मा गांधी ने भी वहां की गंदगी और अव्यवस्थाओं  पर असंतोष  व्यक्त किया था | देश में हिन्दू धर्म के अधिकतर धार्मिक केंद्र और तीर्थ स्थल इसी तरह की हालत में हैं | श्री मोदी ने वाराणसी के प्राचीन गौरव के अनुरूप उसके विकास का जो उदाहरण पेश किया वह पर्यटन और उससे उत्पन्न होने वाले रोजगार को बढ़ावा देने वाला साबित होगा इसमें कोई संदेह नहीं है | इसे सुखद  संयोग ही कहा जायेगा कि उ.प्र में ही अयोध्या में विकास का महा अभियान जोर – शोर से जारी है और यदि कार्य योजनानुसार ही चलता रहा तो आगामी दो वर्ष के भीतर अयोध्या भी विश्व के  मानचित्र पर उसी तरह स्थापित हो जायेगी जैसे वेटिकन और मक्का हैं | ये कहना कदापि गलत न होगा कि राममंदिर विवाद के बाद अयोध्या को लेकर पूरे विश्व से  हिन्दू  धर्मावलम्बी वहां आने के लिए लालायित हैं लेकिन पर्याप्त व्यवस्था के अभाव में अपनी इच्छा दबाकर रह जाते हैं | अयोध्या में राम मंदिर के साथ ही उसे विश्व के सबसे प्रमुख धार्मिक केंद्र में परिवर्तित करने के लिए जिस तरह की सुविधाओं  का विकास किया जा रहा है उसे देखते हुए आगामी कुछ सालों बाद पूरी दुनिया से लोग अयोध्या आएंगे | वाराणसी में भी काशी विश्वनाथ कॉरिडोर  बन जाने से पर्यटकों के लिए दोहरा आकर्षण रहेगा  | स्मरणीय है आजादी के बाद सरदार पटेल की पहल पर गुजरात में सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण कराया गया था | उसके लोकार्पण में पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद गये थे | लेकिन तब के प्रधानमंत्री  पं. जवाहर लाल नेहरु ने उनसे ये कहते न जाने का आग्रह किया कि उससे  देश  की धर्म निरपेक्ष छवि प्रभावित होगी | राजेन्द्र बाबू ने नेहरू जी की आपत्ति को दरकिनार कर दिया और कहा कि सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार राष्ट्रीय गौरव की पुनर्स्थापना होने से उनका वहां जाना सही रहेगा | काशी  विश्वनाथ परिसर का जो रूप निखरकर सामने आया है वह दिव्यता और भव्यता का सुंदर समन्वय है | याद  रखने वाली बात ये है कि भारत रत्न स्व. बिस्मिल्लाह खान भी बाबा विश्वनाथ के परम भक्त थे और अक्सर भोर की बेला में मंदिर प्रांगण में शहनाई बजाने पहुंच जाया करते थे | काशी के इस कायाकल्प से प्रेरित होकर अन्य ज्योतिर्लिंगों और शक्तिपीठों को भी इसी तरह विकसित और व्यवस्थित किया जावे तो देश ही नहीं अपितु विदेशों तक से श्रद्धालुजन इनकी यात्रा  करने आयेंगे | विश्वनाथ मंदिर के इर्द गिर्द हुए अतिक्रमण हटा दिए जाने के बाद से गंगा जी से ही मंदिर का दर्शन होना वाकई सुखद अनुभूतिदायक होगा | भारत विविधताओं से भरा देश है | लेकिन संस्कृति और धर्म सदियों से उसे एकता के सूत्र में बांधकर रखे हुए है | हमारे तीर्थ और धार्मिक केंद्र इस एकता को बनाये  रखने के सशक्त माध्यम हैं | उस दृष्टि से काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का विकास और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के साथ समूचे क्षेत्र में मूलभूत ढांचा खडा करने का जो अभियान चल पड़ा है उससे उ.प्र के पिछड़े कहे जाने वाले क्षेत्रों का भाग्योदय होना तय है | वैसे भी  भारत में धार्मिक पर्यटन का इतिहास बहुत पुराना है | उसे और सुविधा सम्पन्न बनाने से देशी और विदेशी पर्यटक ज्यादा संख्या में आकर्षित हो सकेंगे जिससे आसपास के इलाके में रोजगार  तथा  व्यवसाय में भी उल्लेखनीय वृद्धि होगी | गुजरात में सरदार पटेल की जो मूर्ति लगाई गई वह विश्व में सबसे ऊंची है | उसके निर्माण पर हुए खर्च को लेकर प्रधानमंत्री की आलोचना भी हुई लेकिन कुछ सालों के भीतर ही उस क्षेत्र में पर्यटकों के रिकार्डतोड़ आवागमन ने उस प्रकल्प की सार्थकता साबित कर दी | उस दृष्टि से  काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के विकास को एक नई यात्रा की शुरुआत माना जा सकता है  |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 13 December 2021

राष्ट्रीय आंदोलन के शोर में राज्यों में किसानों की समस्याएँ दबकर रह गईं



संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा एक साल से चलाया जा रहा आन्दोलन औपचारिक तौर पर समाप्ति के बाद दिल्ली से  किसानों के जत्थे वापिस लौटने लगे हैं | इनमें  सबसे ज्यादा पंजाब के किसान हैं | गत दिवस आयोजित  विदाई सभा में राकेश टिकैत ने कहा कि बीते एक साल में किसानों को आन्दोलन का प्रशिक्षण मिल गया है | अब वे और अन्य किसान नेता देश के विभिन्न राज्यों में जाकर किसानों को आन्दोलन के तौर – तरीके सिखाएंगे | प्रति वर्ष आन्दोलन मेला लगाकर देश भर के किसानों को एकत्र कर उनमें सम्पर्क और एकता बनाये रखने का प्रयास भी होगा | श्री टिकैत के अनुसार मोर्चा हर माह अपनी बैठक कर भावी  रणनीति तय करेगा | लेकिन वे ये बताने से बचे कि उ.प्र , उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा चुनाव में किसान संगठन किसका समर्थन करेंगे , जबकि मोर्चे के प्रमुख नेताओं में से एक भारतीय किसान यूनियन के गुरनाम सिंह चढूनी ने पंजाब में किसान उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर दिया है | इसी के साथ ही पंजाब के कुछ किसान संगठनों ने अपनी मांगों को लेकर रेल रोकने का प्रयास भी किया | दिल्ली से लौटने के पहले ही पंजाब के किसान संगठनों ने राज्य सरकार को चेतावनी दे डाली कि वह पांच साल पहले किये गये वायदे के अनुसार किसानों के कर्जे माफ करें | उल्लेखनीय है 2017 के चुनावी  घोषणापत्र में कांग्रेस ने किसानों से कर्ज माफी का वायदा किया था | संयुक्त किसान मोर्चे के आन्दोलन में शामिल  40  संगठनों में से 32 पंजाब के थे | ये बात भी निकलकर आई है कि श्री टिकैत द्वारा आन्दोलन जारी रखने के सुझाव का पंजाब के संगठनों ने विरोध करते हुए दिल्ली से डेरा उठाने का दबाव बना दिया |  जबकि श्री टिकैत को लग रहा था कि कि जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुद्दे पर वे सरकार को झुकाना चाहते थे वह तो अभी भी उलझा रह गया | चूँकि पंजाब और हरियाणा के किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का भरपूर लाभ पहले से ही प्राप्त होता रहा है इसलिए उनमें  लड़ाई जारी रखने में रूचि नहीं थी | उनको ये भी लग रहा था कि राज्य सरकार से उनकी लम्बित मांगों को पूरा करवाने के लिए समय बहुत कम बचा है क्योंकि जनवरी में विधानसभा चुनाव के लिए आचार संहिता लग जायेगी | पंजाब से आ रहे संकेतों के अनुसार कांग्रेस सरकार की वापिसी की सम्भावना दिन ब दिन धूमिल होती जा रही है | किसान संगठनों को लग रहा है कि यही मौका है दबाव बनाकर कर्ज माफ़ करवाने का | ऐसी स्थिति में यदि श्री चढूनी की मंशानुसार किसानों के उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे तब श्री टिकैत और संयुक्त किसान मोर्चे के बाकी नेता उनका प्रचार करने आयेंगे या नहीं ये बड़ा सवाल है | उल्लेखनीय है अपने प्रभाव क्षेत्र पश्चिमी उ.प्र में किसानों का समर्थन किसे दिया जावेगा ये खुलासा भी  श्री टिकैत नहीं कर पा रहे हैं | ये देखते हुए किसान आन्दोलन अघोषित  बिखराव की और बढ़ रहा है | संयुक्त किसान मोर्चे के नेताओं को इस बात की खुन्नस है कि उनकी मेहनत पर श्री टिकैत महानायक बन बैठे | आन्दोलन  के दौरान और खत्म होने के ठीक पहले योगेन्द्र यादव द्वारा की गई टिप्पणी से ये साफ़ हो गया कि श्रेय लूटने के लिए हुई खींचातानी आखिर में खटास पैदा कर गयी | वैसे भी आंदोलन का केंद्र दिल्ली बन जाने से उस पर जाटों का कब्ज़ा हो गया | खाप पंचायतों के जरिये श्री टिकैत ने उ.प्र और हरियाणा में जाटों का ध्रुवीकरण करने का जो दांव चला उससे भी पंजाब के किसान नेता अपने को ठगा महसूस करते रहे | अपने बयानों में श्री टिकैत ने उ.प्र के गन्ना किसानों के भुगतान और बिजली बिलों की बात तो उठाई लेकिन पंजाब के किसानों की  कर्ज माफी पर वे कुछ नहीं बोले | इसीलिये अब ये आशंका व्यक्त की जा रही है कि दिल्ली से लौटे पंजाब के किसान अब अपने राज्य में मोर्चा खोलेंगे जिसकी बानगी गत दिवस रेल रोके जाने के रूप में सामने आ गई | श्री टिकैत ने विभिन्न राज्यों में जाकर सरकार से चर्चा कर किसानों की मांगें पूरी करने की जो बात कही वह उतनी आसान नहीं  जितनी वे समझ रहे हैं | दिल्ली में तो सिख और जाट किसानों ने आन्दोलन को मजबूती दे दी | लेकिन अन्य राज्यों में संयुक्त किसान मोर्चा और श्री टिकैत  का कोई आभामंडल नहीं है | गौरतलब है कि मोर्चे में शरीक 40  में से 32 संगठन तो पंजाब के ही थे | श्री टिकैत के अपने संगठन को भी मिला लें तो पूरे देश से कुल सात – आठ ही इस आन्दोलन के साथ खड़े हुए दिखे | इनमें से भी कुछ ऐसे हैं जिनके नेताओं का अपने राज्य में धेले भर का असर नहीं है | ये सब देखते हुए  कहना गलत न होगा कि इस आन्दोलन के बाद अब विभिन्न राज्यों में किसानों के नाम पर नेतागिरी चमकाने के लिए नए – नए संगठन उभरेंगे जिनके नेता अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए किसानों का उपयोग करेंगे | खुद श्री टिकैत के मन में चुनाव जीतने की लालसा है जो दो बार लड़कर अपनी जमानत जप्त करवा चुके हैं | इस आन्दोलन में राजनीतिक दलों को दूर रखने का प्रयास किया जाता रहा लेकिन राज्य स्तर पर किसान संगठन गैर राजनीतिक नहीं रह सकेंगे | पंजाब की भी जो 32 जत्थेबंदी आन्दोलन की असली ताकत बनीं वे भी  तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह द्वारा प्रायोजित थीं और तीन कानून वापिस होते ही पंजाब के किसानों के वापिस लौटने के फैसले के पीछे भी अमरिन्दर ही थे | इसी तरह पश्चिमी उ.प्र के जाट किसानों को दिल्ली में बिठाए रखने में सपा के अखिलेश यादव और रालोद के जयंत चौधरी का स्वार्थ था क्योंकि उन्हें इस बात का भय है कि आन्दोलन शांत होते ही जाट समुदाय के बीच भाजपा अपनी पैठ फिर बना लेगी | दिल्ली से लौटते हुए किसानों के चेहरों पर जीत की जो खुशी थी वह घर लौटते ही गायब हो जायेगी क्योंकि वहां जाते ही उनको ये एहसास होगा कि उनकी जो स्थानीय समस्या है उस पर तो संयुक्त किसान मोर्चा पूरी तरह उदासीन रहा |  तीनों कानूनों की वापिसी के बाद केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में समिति तो बना दी किन्तु वह कब तक निर्णय करेगी ये निश्चित नहीं है | जिन राज्यों में सरकारी खरीद होती है उनके किसानों को इसकी ज्यादा चिंता नहीं है | उनकी प्राथमिकता बिजली के बिल और कर्ज जैसे मुद्दे हैं | चूँकि संयुक्त किसान मोर्चा तीन कानूनों में उलझ गया इसलिए किसानों की बाकी मांगें उपेक्षित रह गईं | यही कारण है कि पंजाब के किसान संगठन  दिल्ली से लौटने की जल्दबाजी में थे | अब सवाल ये है कि कर्जमाफी सहित  उनकी मांगों के समर्थन में क्या श्री टिकैत और मोर्चे के बाकी नेता पंजाब सरकार के विरोध में रेल रोको और टोल नाकों पर कब्जे का समर्थन करने आयेंगे ? इसी तरह क्या पंजाब की 32 जत्थेबंदियां उ.प्र के गन्ना किसानों के बकाया भुगतानों के लिए लड़ने जायेंगी ? इस तरह के सवाल और भी हैं | श्री टिकैत गत दिवस कह रहे थे कि इस आन्दोलन पर शोध होंगे क्योंकि यह अपनी तरह का अनूठा प्रयोग था जिसमें एक साल तक किसान धरने पर बैठा  रहा | उनकी बात बिल्कुल सच है किन्तु इस शोध में ये बात भी उभरकर आयेगी कि आन्दोलन से किसानों की एक भी समस्या  स्थायी रूप से हल नहीं हुई | बिजली बिल और गन्ना के भुगतान की समस्या पूरी तरह राज्यों से सम्बंधित है | इसी तरह कर्ज माफी के पंजाब कांग्रेस के घोषणापत्र से हरियाणा और राजस्थान के किसान उदासीन हैं | देश के सभी राज्यों में तो अनाज की सरकारी खरीद तक नहीं होती | किसानों की कर्ज माफी की मांग भी राष्ट्रीय आन्दोलन का मुद्दा नहीं बन सकी |  श्री टिकैत का ये कहना यदि सही भी है कि एक वर्ष चले धरने  में किसानों को आन्दोलन का प्रशिक्षण मिल गया किन्तु उसी के साथ ये भी सही है कि इस दौरान  स्थानीय समस्याओं को केन्द्रीकृत करने में संयुक्त किसान मोर्चा असफल रहा क्योंकि उसका ध्यान एक ही मुद्दे पर जाकर ठहर गया | इसीलिये राष्ट्रीय स्तर पर जो छोटा और मध्यम श्रेणी का किसान है उसे इस आन्दोलन की  सफलता अथवा विफलता में कोई रूचि नहीं रही | चूंकि हमारे देश में अधिकतर जनांदोलनों की परिणिति चुनाव और सत्ता पाने के रूप में होती है इसलिए इस आन्दोलन का भविष्य भी फरवरी  में होने वाले उ.प्र , उत्तराखंड और पंजाब के चुनाव परिणामों के बाद तय होगा |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 11 December 2021

हेलीकाप्टर दुर्घटना पर निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी ठीक नहीं



हेलीकाप्टर दुर्घटना में चीफ ऑफ डिफेन्स स्टाफ जनरल बिपिन रावत और दर्जन भर लोगों की मौत के बाद दुर्घटना के कारणों को लेकर कुछ लोग जिस तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर रहे हैं उनसे लगता है जैसे वे ऐसे मामलों के जन्मजात विशेषज्ञ हों। इनमें कुछ राजनेता, पत्रकार और सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले वे लोग हैं जिन्हें हर मामले में टांग अड़ाने की आदत है। कुछ लोगों को इस बात का भी दर्द है कि समाचार माध्यमों में उक्त दुर्घटना को लेकर वैसी चर्चा नहीं हो रही जैसी सुशांत राजपूत और आर्यन खान के मामले में हुई थी। सांसद डा. सुब्रमण्यम स्वामी ने इस घटना में षडयंत्र की आशंका जताते हुए सर्वोच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त न्यायाधीश से जांच कराये जाने की मांग कर डाली ताकि किसी तरह का दबाव न आये। उनके अलावा अनेक लोगों का कहना है कि हादसे के पीछे चीन, पाकिस्तान और श्री लंका के तमिल उग्रवादी संगठन लिट्टे का हाथ हो सकता है जो दोबारा जीवित हो रहा है। कुछ लोगों ने ताईवान में हुई इसी तरह की दुर्घटना के तार इससे जोड़ते हुए अपना निष्कर्ष निकाल लिया। रूस के राष्ट्रपति पुतिन के संक्षिप्त भारत दौरे के फौरन बाद हुई उक्त दुर्घटना को हथियारों के सौदों में चल रही प्रतिद्वंदिता से जोड़कर भी देखा जा रहा है। उल्लेखनीय है भारत ने रूस से हाल ही में रक्षा प्रणाली खरीदने का जो सौदा किया उससे अमेरिका बहुत नाराज है। साथ ही चीन को भी ये डर है कि भारत इसका उपयोग उसके विरुद्ध करेगा। स्व. रावत द्वारा पाकिस्तान के विरुद्ध की गई जमीनी सर्जिकल स्ट्राइक से उत्पन्न उसकी नाराजगी को भी इस दुर्घटना की वजह मानने वाले कम नहीं है। सबसे नया कयास लेसर तकनीक से हेलीकाप्टर गिराये जाने के तौर पर लगाया जा रहा है। तीनों सेनाओं के प्रमुख के तौर पर स्व. जनरल रावत सेना के आधुनिकीकरण के अभियान से करीबी से जुड़े रहे। रक्षा उपकरणों के सौदों में भी उनकी सलाह काफी महत्वपूर्ण मानी जाती थी। सबसे प्रमुख बात ये है कि उनके सरकार के साथ काफी नजदीकी सम्बन्ध होने से रक्षा मामलों में निर्णय प्रक्रिया तेज हुई थी। गत वर्ष गर्मियों में चीन द्वारा लद्दाख क्षेत्र की गलवान घाटी में की गई घुसपैठ का भारतीय सेना ने दबंगी से जवाब देने के बाद पूरे इलाके में जबरदस्त मोर्चेबंदी की उसकी वजह से चीन को काफी शर्मिन्दगी झेलनी पड़ी और वह बजाय अकड़े रहने के वार्ता करने राजी हुआ जिसका सिलसिला अभी भी जारी है। केंद्र सरकार द्वारा तीनों सेनाओं का एक स्थायी प्रमुख (सीडीएस) नियुक्त करने से सेना के तीनों अंगों में तालमेल और अच्छा हुआ जिसके कारण ही लद्दाख जैसे दुर्गम इलाके में हवाई पट्टी बनाकर आधुनिक लड़ाकू विमान और मिसाइलें लगाई जा सकीं। जाहिर है शत्रु राष्ट्र इससे परेशान होकर ऐसा कुछ करने की ताक में रहते हैं जिससे हमारी सैन्य तैयारियों में व्यवधान आये। जनरल रावत बीते कुछ समय से भारत की रक्षा नीति में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहे थे और उस लिहाज से उनका दुश्मनों की नजर में खटकना स्वाभाविक ही था। दुनिया भर में सक्रिय आतंकवादी संगठनों के पास आजकल अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्र और तकनीक आ गयी है। अफगानिस्तान जैसे गरीब देश में सड़क चलते लोगों के कन्धों पर रखे रॉकेट लांचर इसके जीवंत सबूत है। ऐसे में ये सोचना पूरी तरह निराधार नहीं है कि जनरल रावत के हेलीकाप्टर की दुर्घटना के पीछे कोई शत्रु देश अथवा ऐसा आतंकवादी संगठन हो सकता है जो भारत की रक्षा तैयारियों में खलल डालने के साथ देश को आन्तरिक तौर पर कमजोर करना चाहता हो। लेकिन ऐसे मामलों में सार्वजनिक चर्चा और अनधिकृत टिप्पणियों से बचा जाना चाहिए। जिस हेलीकाप्टर में स्व. रावत और उनका दल सवार था वह अपनी गुणवत्ता और विश्वसनीयता के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। युद्ध के अलावा अति विशिष्ट व्यक्तियों के आवागमन के लिए भी उसका उपयोग किया जाता है। हालाँकि वह अनेक बार दुर्घटना का शिकार हो चुका है किन्तु तकनीकी श्रेष्ठता और सुरक्षा मानकों पर खरा साबित होने के कारण उसकी साख पर असर नहीं पड़ा। दुर्घटना के फौरन बाद सरकार और वायुसेना ने जांच शुरू कर दी। चूँकि हादसे में सीडीएस भी जान से हाथ धो बैठे और हेलीकाप्टर भी उच्च कोटि का था इसलिये जांच भी उसी स्तर की होगी। ये देखते हुए अनुमानों के दिशाहीन तीर छोड़ना जल्दबाजी के साथ ही गैर जिम्मेदार रवैया ही है। किसी तोड़फ़ोड़ या आतंकवादी हरकत की आशंका अपनी जगह स्वाभाविक है लेकिन जिस जगह और मौसम में हादसा हुआ उन्हें देखते हुए यही सम्भावना ज्यादा है कि पायलट हेलीकाप्टर को सामान्य ऊंचाई से भी कम पर उड़ाने बाध्य हुआ और वही जानलेवा बना। उड़ान का समय यद्यपि बहुत ही संक्षिप्त था किन्तु हवाई यातायात का नियन्त्रण बहुत ही सावधानी से किया जाता है। और फिर जब जिस उड़ान में देश की सुरक्षा से जुड़ा बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति बैठा हो तब सतर्कता और भी ज्यादा रखी जाती है। जिस इलाके में दुर्घटना घटित हुई वह घने जंगलों वाला है। इस तरह की उड़ान का जो मार्ग है वह सार्वजानिक भी नहीं किया जाता। ऐसे में बेहतर यही होगा कि वायुसेना द्वारा की जा रही जाँच के परिणामों का इंतजार किया जावे। उससे निकलने वाले निष्कर्षों का विश्लेषण जरूर किया जा सकता है। बहरहाल किसी के पास या उसके दिमाग में ऐसी कोई बात हो जो दुर्घटना के कारणों को पता लगाने में सहायक हो सकती है तब उसे जाँच एजेंसियीं तक पहुंचाना समझदारी होगी। लेकिन बैठे-बैठे अन्दाजिया तीर छोड़ते रहने से हासिल तो कुछ होता नहीं, उलटे जांच करने वाले दबाव में आ जाते हैं। इस बारे में ये भी ध्यान रखना चाहिए कि हादसे का शिकार हुआ हेलीकाप्टर वायुसेना का था जिसमें तीनों सेनाओं के प्रमुख सवार थे। सेना, सुरक्षा और सेनापति से जुड़े इस घटनाक्रम में बहुत सी बातें ऐसी हैं जिन्हें सार्वजनिक करना देशहित में नहीं होगा। ये देखते हुए अति उत्साह में अपनी काल्पनिकता का उपयोग करने की बजाय जिम्मेदारी के साथ धैर्य रखने में ही बुद्धिमत्ता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 10 December 2021

नेताओं का अहं तो संतुष्ट हुआ लेकिन किसान खाली हाथ ही रहे




आखिऱकार किसान आन्दोलन समाप्त हो ही गया। 11 दिसम्बर से दिल्ली में  धरना दे रहे जत्थे वापिस लौटने लगेंगे। किसान नेताओं के चेहरे पर जीत की खुशी है। एक साल से भी ज्यादा आन्दोलन को खींचना वाकई बड़ी बात थी। इतने लम्बे समय तक धरना स्थल पर भोजन-पानी और अन्य व्यवस्थाओं को देखकर ये तो पता चलता ही था कि किसानों के पीछे कुछ अदृश्य ताकतें भी रहीं  । वरना अपनी पैदावार का उचित मूल्य न मिलने से कर्ज में डूबा किसान काम-धंधा छोड़कर घर परिवार से दूर कैसे रहा ,ये सवाल भी उठना स्वाभाविक है। इसी के साथ  गौरतलब है कि समूचे विपक्ष के समर्थन और समाचार माध्यमों में बेतहाशा प्रचार के बावजूद आन्दोलन दिल्ली के निकटवर्ती तीन-चार राज्यों में ही क्यों सिमटा रहा ? निश्चित रूप से संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में एक बड़ी लड़ाई लड़ी गई। लेकिन उससे जो हासिल हुआ और अब उसका असर अन्य क्षेत्रों में होने वाले आन्दोनों पर किस तरह पड़ेगा ये गहन विश्लेषण का विषय है। गत दिवस एक चैनल के पत्रकार ने जब राकेश टिकैत से पूछा कि आन्दोलन की उपलब्धि क्या है, तब वे बड़ी ही मासूमियत से बोले कि देश का किसान आन्दोलन के तौर-तरीके सीख गया, सरकार के साथ बातचीत में आने वाले पेच भी उसे पता चले और सबसे बड़ी बात हुए किसान संगठनों का एकजुट होना। हालाँकि उन्होंने ये माना कि सरकार के साथ  आमने-सामने बैठकर फैसला करने की हसरत अधूरी रह गई। वस्तुत: प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा कृषि कानून वापिस लेने की घोषणा के बाद ही ये तय था कि आन्दोलन जल्द समेट लिया जाएगा। काफी किसान तो घोषणा के फ़ौरन बाद धरना स्थल से लौट भी गये किन्तु किसान नेताओं ने सरकार पर इस बात का दबाव बनाया कि आन्दोलन के दौरान जान गंवा बैठे किसानों के परिजनों को क्षतिपूर्ति, आपराधिक मुकदमे वापिस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ठोस निर्णय के बिना वे वापिस नहीं लौटेंगे। बिजली और पराली संबंधी आश्वासन तो पहले ही मिल चुका था। राकेश टिकैत चाह रहे थे कि सरकार उनको बैठक हेतु बुलाये किन्तु उसने फोन और चिट्ठियों से ही आन्दोलन समाप्त करने की परिस्थितियां बना दीं। सबसे बड़ा पेंच फंसा न्यूनतम समर्थन मूल्य का , लेकिन पंजाब और हरियाणा के किसान संगठन इस मुद्दे पर उदासीन रहे क्योंकि उनकी 90 फीसदी उपज सरकार खरीद लेती है। बाकी मुद्दों पर उनको ये एहसास था कि पंजाब की तरह अन्य राज्य  भी मौतों पर  मुआवजा और मुकदमे वापिस ले ही लेंगे। पराली और  बिजली संबंधी कानून भी सरकार ने वापिस लेने की बात कह दी थी। आन्दोलन शुरू होने के बरसों पहले से ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग उठती रही है। इस बारे में अनेक समितियों की रिपोर्ट भी सरकारी फाइलों में धूल  खा रही है। ऐसे में जब कृषि कानून आये तब जिन किसान संगठनों ने उनके विरोध में दिल्ली की सीमा पर धरना दिया वे प्रारम्भिक दौर में ही कानून रद्द करने की जिद पकड़ने की गलती कर गये । कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के साथ हुई दर्जन भर बैठकों में यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में भी किसानों का पक्ष रखते हुए बातचीत जारी रखी जाती तो बड़ी बात नहीं इस विषय पर अब तक कुछ न कुछ हो गया होता। लेकिन संयुक्त किसान मोर्चे में योगेन्द्र यादव जैसे  कुंठित सलहाकार घुसे थे जिनकी रूचि गतिरोध बनाये रखने में थी क्योंकि उनके पास सुर्खियों  में बने रहने का और कोई जरिया नहीं है। इसीलिए सरकार के साथ हुई वार्ता केवल एक मुद्दे पर आकर अटकती रही कि पहले तीनों कानून रद्द हों तब बात होगी। इसके कारण ही सरकार ने बातचीत करना बंद कर दिया जिसके बाद संयुक्त किसान मोर्चा टेबिल पर बैठकर बात करने की गुहार लगाता रहा लेकिन पिछली जनवरी के बाद सरकार ने उसको कोई तवज्जो नहीं दी। किसान संगठनों को इस बात का भी अफसोस रहा कि श्री मोदी ने उनसे चर्चा किये बिना ही कानून वापिस  लेने की इकतरफा घोषणा कर उनके हाथ से हथियार छीन लिया। आन्दोलन की शुरुवात चूँकि पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री  कैप्टन अमरिंदर सिंह ने करवाई थी इसलिए कानून वापिस होते ही उनके प्रभाव वाले पंजाब के 32 संगठनों ने बोरिया-बिस्तर समेटने की तैयारी कर ली। उससे घबराई टिकैत एंड कम्पनी ने मुक़दमे वापिस लेने और मृतकों के परिजनों को मुआवजे के ऐलान तक रुकने की अपील की जिसके संकेत सरकार संदेशों के जरिये दे ही चुकी थी। संयुक्त किसान  मोर्चे ने लखीमपुर खीरी कांड के आरोपी के पिता केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री को हटाये जाने का जो दबाव बनाया था उसे भी केंद्र सरकार ने कोई भाव नहीं  दिया। इसी तरह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानूनी गारंटी दिए बिना आंदोलन खत्म न करने वाली जिद भी पूरी नहीं हुई। प्रधानमंत्री ने इस हेतु समिति बनाने की घोषणा की जिस पर संयुक्त किसान मोर्चे ने इस शर्त पर सहमति दी कि उसमें केवल उनके मोर्चे के सदस्य रहेंगे लेकिन गत दिवस जिस पत्र के बाद आन्दोलन खत्म करने की घोषणा हुई उसमें साफ लिखा है कि राज्य सरकारों के अलावा अन्य किसान संगठनों के प्रतिनिधि और कृषि विशेषज्ञ भी उसमें होंगे। समिति निर्णय करने हेतु कितना समय लेगी और सरकार तथा किसान उसकी सिफारिशों को मान लेने बाध्य होंगे ये भी स्पष्ट नहीं है। ऐसे में  सोचने वाला मुद्दा है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीनों कानूनों के क्रियान्वयन  पर रोक लगा देने के बाद किसान नेता हठयोग का प्रदर्शन छोड़ आन्दोलन स्थगित करते हुए  सरकार के साथ सकारात्मक माहौल में बातचीत जारी रखते तब शायद वे इससे ज्यादा और जल्दी हासिल करने में सफल रहते। 700 से ज्यादा जिन किसानों की मौत आन्दोलन के दौरान बताई जा रही है उसके लिए सरकार से मुआवजा लेने की  मांग करने वाले किसान नेताओं को इस बात के लिए प्रायश्चियत करना चाहिए कि उनके द्वारा भावानाएं भड़काए जाने और धरना स्थल पर जरूरत से ज्यादा भीड़ जमा करने से हुई  बदइन्तजामी भी अनेक किसानों की जान ले बैठी। अब जबकि आन्दोलन औपचारिक तौर पर समाप्त हो गया है तब उसकी समीक्षा करने पर ये कहना गलत न होगा कि देश का किसान जहाँ एक साल पहले था वहीं आज भी खड़ा है और जो विजयोल्लास मनाया जा रहा है वह दरअसल राकेश टिकैत नुमा कुछ चेहरों के अहं की संतुष्टि बनकर रह गया। जैसा कि संयुक्त किसान मोर्चे के तमाम नेता स्वीकार कर रहे हैं कि असली मांग तो न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देने की थी। बाकी मांगें तो तात्कालिक तौर पर सामने आईं जिनका पूरा होना उतना कठिन नहीं था जितना  हल्ला मचाया गया। अनेक कृषि विशेषज्ञ भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि यदि किसान संगठन न्यूनतम समर्थन मूल्य पर इतनी लम्बी लड़ाई लड़कर सफलता हासिल करते तब शायद कृषि कानून लागू होने के बाद भी कारगर न हो पाते। लेकिन पंजाब में बिचौलियों के हाथ से कृषि उपज मंडियों का कारोबार छिन जाने के भय से कृषि कानूनों का विरोध शुरू हुआ। चूंकि राज्य के राजनेताओं को ये आढ़तिया आर्थिक मदद करते हैं इसलिए कांग्रेस और अकाली दल दोनों ने कानूनों के विरोध को प्रायोजित किया परन्तु  दिल्ली आने के बाद उसकी बागडोर राकेश टिकैत और योगेन्द्र यादव जैसों ने छीन ली। इसमें दो राय नहीं है कि पंजाब के गुरुद्वारे व्यवस्था अपने हाथ न लेते तब दिल्ली में धरना इतना लम्बा नहीं चलता। पंजाब-हरियाणा, उत्तराखंड, उ.प्र और राजस्थान के जो किसान धरना स्थल से जा रहे हैं उनसे आन्दोलन की उपलब्धि पूछने पर वे इधर-उधर देखने लगते हैं क्योंकि उनके पास उस प्रश्न का कोई जवाब नहीं है। इसी तरह श्री टिकैत अब कह रहे हैं कि उ.प्र के गन्ना किसानों के भुगतान और बिजली बिलों  की समस्या के लिए योगी सरकार से बात करेंगे। सवाल ये भी है कि इस आन्दोलन से दिल्ली के प्रवेश मार्ग पर अवरोध उत्पन्न होने के कारण प्रतिदिन लाखों लोगों को जो तकलीफ हुई और कारोबारियों को करोड़ों का नुकसान हुआ, उसकी भरपाई कौन करेगा? संयुक्त किसान मोर्चा को जीत का जश्न मनाने का पूरा अधिकार है लेकिन साथ ही उसको जनता और व्यापारियों से क्षमा याचना के साथ ही  पूरे देश से गणतंत्र दिवस पर लाल किले पर राष्ट्र ध्वज और स्वाधीनता के उत्सव के प्रतीक स्थल के अपमान के लिए खेद भी जताना चाहिए । केंद्र सरकार ने किसानों की मांगों के समक्ष झुकने की जो रणनीति अपनाई वह हालात से उत्पन्न मजबूरी थी या उसके पीछे कुछ और है ये तो बाद में पता चलेगा लेकिन इतना तो साफ़ है कि सरकार ने रणछोड़ दास की भूमिका का निर्वहन कर किसान नेताओं से बिना बात किये उनको धरना स्थल खाली करने राजी कर लिया। जहाँ तक न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात है तो उसके लिए बनी समिति कब और कितने समय में निर्णय तक पहुंचेगी इस बारे में कोई ठोस बात न होना ये साबित करता है कि कानून वापिस लिए जाते ही आन्दोलन अपना जोश खो चुका था। राकेश टिकैत यदि अब भी अड़े रहते तो बड़ी बात नहीं धरना स्थल पर केवल वे  और उनके साथी ही नजर आते।

-रवीन्द्र वाजपेयी