Tuesday 7 December 2021

मध्यमवर्ग को घर की मुर्गी समझने की भूल भाजपा को भारी पड़ सकती है



गत दिवस एक छोटी सी खबर आई कि अर्थव्यवस्था कोरोना पूर्व के स्तर से भी बेहतर स्थिति में आ गई है। कृषि क्षेत्र तो लगातार अच्छा प्रदर्शन कर ही रहा था लेकिन अब औद्योगिक इकाईयोँ में भी उत्पादन बढ़ रहा है और जमीन-जायजाद के व्यवसाय में भी खरीद-फरोख्त बढ़ने के प्रमाण मिलने लगे हैं। ऑटोमोबाइल का व्यवसाय जरूर सेमी कंडक्टर की कमी की वजह से ठहरा हुआ है लेकिन उम्मीद जताई जा रही है कि संभवत: फरवरी तक ताइवान से आपूर्ति शुरू होने के बाद कारों और दोपहिया वाहनों के बाजार में भी रौनक आ जायेगी। अर्थव्यवस्था में मजबूती का सबसे बड़ा पैमाना है जीएसटी की वसूली जो बीते कुछ महीनों से निरंतर लक्ष्य से ज्यादा हो रही है और जिसके कारण मौजूदा वित्तीय वर्ष में अनुमानित राशि का 80 फीसदी नवम्बर तक सरकारी खजाने में जमा हो चुका था। इसी से उत्साहित होकर केंद्र और अनेक राज्यों द्वारा दीपावली पर पेट्रोल और डीजल सस्ता किया गया। इसके बाद कोरोना काल में शुरू की गई मुफ्त खाद्यान्न योजना को प्रधानमंत्री ने 31 मार्च 2022 तक बढ़ा दिया। सरकारी गोदामों में अन्न का भरपूर भण्डार होने के साथ ही विदेशी मुद्रा का खजाना भी लबालब है। जैसे संकेत आ रहे हैं उनके अनुसार वार्षिक विकास दर के अनुमान भी उत्साहवर्धक हैं और विदेशी निवेश भी उम्मीद के मुताबिक आ रहा है। विवाह का सीजन अच्छा – खासा चलने से बाजार में पैसे का आवागमन अपेक्षानुसार ही है। ये सब देखते हुए कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था पर छाया कोहरा छंटने लगा है। हालाँकि कोरोना की तीसरी लहर और ओमिक्रोन की आशंका से थोड़ी चिंता है लेकिन इस बार चिकित्सा व्यवस्था को चाक-चौबंद किये जाने और बड़े पैमाने पर हो रहे टीकाकरण के कारण नए संक्रमण की भयावहता पूर्वापेक्षा कम रहने का आत्मविश्वास भी कारोबारी जगत पर देखा जा रहा है। कोरोना कल में लगाये गए लॉक डाउन के दौरान ये मांग लगातार उठ रही थी कि सरकार को विकास योजनाओं पर ज्यादा खर्च करना चाहिए ताकि रोजगार बढ़े और जनता की जेब में पैसा आये। उस दृष्टि से देखें तो लॉक डाउन के दौरान भी भारतीय रेलवे ने अपनी विकास परियोजनाओं को जिस तेजी और कुशलता से पूरा किया वह समय के सदुपयोग का अच्छा उदाहरण है और ज्योंही हालात सामान्य हुए त्योंही अधो-संरचना के कार्यों में तेजी आने से औद्योगिक क्षेत्र को बढ़ी हुई मांग का सहारा मिला , वहीं श्रमिकों को भी काम मिलने से उनके हाथ में नगदी आने लगी। केंद्र सरकार ने बीते कुछ समय में राजमार्ग, पुल और फ्लायओवर जैसे प्रकल्पों में जिस तेजी से स्वीकृति प्रदान की उसकी वजह से भी आर्थिक जगत में छाई निराशा काफी हद तक दूर हुई है। लेकिन इस सबके बीच लाख टके का सवाल ये है कि जब सब कुछ अच्छा हो रहा है तब जनता के खाते में उसके लाभ क्यों नहीं पहुँच रहे? कहने का आशय ये है कि किसी भी सरकार का समूचा आर्थिक नियोजन देश के विकास के साथ ही जनता के कल्याण के लिए होता है। उस दृष्टि से देखें तो केंद्र सरकार को कोरोना के दौरान उत्पन्न हुई विषम परिस्थितियों से सफलतापूर्वक निपटने के बाद अब जनता द्वारा उस दौरान दिए गये सहयोग का प्रतिफल उसे देना चाहिए। देश के 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त खाद्यान्न देने की प्रधानमंत्री की दूरगामी सोच को पूरी दुनिया ने सराहा। ये कहना भी गलत न होगा कि यदि वह योजना लागू न की जाती तब लॉक डाउन के दौरान लूटपाट और अराजकता की स्थिति उत्पन्न होने से कोई नहीं रोक सकता था। लेकिन दूसरी तरफ ये बात भी सही है कि गरीबों के अलावा समाज के बहुत बड़े तबके ने लॉक डाउन के दौरान जो कुछ भी भोगा उसकी कड़वी यादें आज भी उसके मानस पटल पर ताजा हैं। सरकारी नौकरी के अतिरिक्त जो मध्यमवर्ग है उसने कोरोना काल में असहनीय परेशानियाँ झेलने के बाद भी सरकार से सहयोग किया। इसमें नौकरीपेशा और छोटे तथा मझोले किस्म के व्यापारी भी हैं। ये कहना पूरी तरह सच है कि इस वर्ग को सिवाय मुफ्त वैक्सीन के और कुछ नहीं मिला। आज जबकि स्थितियां पहले से बेहतर होने के दावे किये जा रहे हैं और उनके आधार पर नई उम्मीदें हिलोरें मारने लगी हैं तब इस बात की आवश्यकता है कि समाज का जो वर्ग दबाव समूह बनाने में असमर्थ है और जिसे वाकई राहत की जरूरत है उसकी तरफ भी सरकार देखे। ये बात सर्वविदित है कि कोरोना काल के बाद ज्योंहीं अर्थव्यवस्था ने गति पकड़ी त्योंही महंगाई भी उसके समानांतर दौड़ने लगी। इसका सबसे ज्यादा असर उस मध्यमवर्ग पर पड़ रहा है जिसके पास आय के सीमित साधन हैं और जिसे न मुफ्त या सस्ती बिजली मिलती है न ही राशन या अन्य सुविधाएँ। ये कहना कदापि गलत न होगा कि इस वर्ग के पास किसानों और सरकारी कर्मचारियों की तरह सरकार से लड़ने की संगठित शक्ति नहीं है और इसीलिए राजनेता भी इसकी समुचित चिंता नहीं करते। कोरोना काल के बाद अर्थव्यवस्था के रफ़्तार पकड़ने के साथ ही मध्यमवर्ग पर महंगाई का जो बोझ आया है उससे राहत दिलवाने की दिशा में सोचना समय की मांग है। सरकार ने जितनी भी कल्याणकारी योजनायें चला रखी हैं उनमें मध्यमवर्ग के लिए कुछ खास नहीं है जिससे सबका विकास का प्रधानमंत्री का नारा गलत साबित हो रहा है। पेट्रोल-डीजल के दामों में जो कमी की गई उससे निश्चित तौर पर राहत मिली है। लेकिन सरकार की सोच वाकई जनता को राहत देने की है तब उसे पेट्रोलियम वस्तुओं को अविलम्ब जीएसटी के दायरे में लाकर जनता के हित में अपनी प्रतिबद्धता साबित करनी चाहिए। भाजपा को ये भरोसा हो चला है कि प्रधानमंत्री की छवि के बलबूते भावी चुनावी वैतरणी पार कर ली जायेगी किन्तु उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक परिवर्तनों में मध्यमवर्ग की भूमिका बहुत ही निर्णायक होती है। ये वर्ग भले ही सड़क पर तम्बू गाड़कर न बैठता हो लेकिन सरकार के बारे में जनमत बनाने में इसकी महती भूमिका रहती है। भाजपा को याद रखना चाहिए कि उसे चरमोत्कर्ष तक पहुँचाने में इसी मध्यमवर्ग का सबसे ज्यादा योगदान है इसलिए प्रधानमंत्री को इस परम्परागत समर्थक वर्ग के कुशल क्षेम की चिंता भी करनी चाहिए , अन्यथा इसे घर की मुर्गी दाल बराबर समझने की भूल भारी पड़ सकती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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