Thursday 2 December 2021

राष्ट्रीय स्तर पर खेला करने के फेर में अपनी जमीन भी गंवा सकती हैं ममता



प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने 1997 में कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस बनाई थी। तब उनका आरोप था कि पार्टी बंगाल पर लम्बे समय से राज करने वाली सीपीएम की बी टीम बनकर रह गई है। इसमें दो राय नहीं हैं कि वाममोर्चे के विरुद्ध जितना संघर्ष उन्होंने किया उतना किसी और ने नहीं और यही वजह रही कि साम्यवाद का अभेद्य दुर्ग बन चुके इस राज्य में लगभग चार दशक के वामपंथी शासन को हटाने का कारनामा उन्हीं के नाम लिखा गया। इस वर्ष वे तीसरी बार भारी बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनी। जुझारूपन के साथ ही वे अपनी तुनुकमिजाजी के लिए भी जानी जाती हैं जिसके लिए उन्हें काफी हद तक मायावती, जयललिता और उमाश्री भारती जैसी महिला नेत्रियों की श्रेणी में रखा जा सकता है। कांग्रेस से अलग होने के बाद वे वाजपेयी सरकार में मंत्री भी रहीं लेकिन उस समय भी उनकी स्वभावगत अस्थिरता प्रधानमन्त्री के लिए मुसीबत पैदा करती रही। बाद में वे सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन का हिस्सा भी बनीं किन्तु उससे भी उनकी नहीं बनी। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले ममता ने कोलकाता में सभी विपक्षी दलों के नेताओं को एक मंच पर जमा करते हुए मोदी विरोधी गठजोड़ बनाने का प्रयास किया जिसमें सफलता नहीं मिली। कांग्रेस ने तृणमूल की बजाय वाममोर्चे का साथ पकड़ा जो पिछले विधानसभा चुनाव तक जारी रहा। इस चुनाव तक तृणमूल का फैलाव प. बंगाल के बाहर कुछ पूर्वोत्तर राज्यों तक ही रहा। लेकिन 2021 का विधानसभा चुनाव जीतने के साथ ही ममता ने राष्ट्रीय राजनीति में आने आने के संकेत ये कहते हुए दे डाले कि केंद्र में भाजपा को हराने की क्षमता उनमें ही है  और वे ही नरेंद्र मोदी का विकल्प बन सकती हैं। उनका वह बयान सीधे-सीधे कांग्रेस और गांधी परिवार की चौधराहट को चुनौती था। उसके बाद से ही उनके राजनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर को उन्होंने सक्रिय किया जिन्होंने मुम्बई जाकर रांकापा नेता शरद पवार से लम्बी मुलाकातें करते हुए कांग्रेस विहीन विपक्षी गठबंधन की रूपरेखा तैयार की। हालांकि इसी दौरान श्री किशोर ने राहुल गांधी से भी भेंट की जिससे ये खबर तेजी से फैली कि वे कांग्रेस में शामिल होने जा रहे हैं किन्तु ऐसा लगता है उन्हें वहां अपने लिए अनुकूलता नजर नहीं आई। लौटकर उन्होंने सुश्री बनर्जी को राष्ट्रीय राजनीति में कूदने के लिए प्रेरित किया। पिछले विधानसभा चुनाव में प्रशांत की व्यूहरचना के कारण ही ममता ने श्री मोदी और अमित शाह की तगड़ी मोर्चेबंदी को ध्वस्त किया था। इसीलिये वे उन पर भरोसा करते हुए आगे आईं और सबसे पहले गोवा में मोर्चा खोलते हुए वहां के वरिष्ठ कांग्रेस नेता को अपनी पार्टी में शामिल करते हुए विधान सभा चुनाव में तृणमूल को उतार दिया। उसके बाद दिल्ली आकर कांग्रेस सहित कुछ और दलों के नेताओं को अपनी पार्टी में जगह दी। खबर है कांग्रेस के कुछ असंतुष्ट नेता सुश्री बैनर्जी में संभावनाएं देखते हुए उनकी पार्टी में शामिल होने की सोचने लगे हैं। इसका जो कारण है वह उन्होंने मुम्बई में शरद पवार के साथ हुई मुलाक़ात के बाद कुछ विशिष्ट जनों के साथ संवाद के दौरान स्पष्ट कर दिया। यूपीए को खत्म बताते हुए उन्होंने बिना नाम लिये राहुल गांधी का ये कहते हुए मजाक उड़ाया कि अगर कोई कुछ करता नहीं है और विदेश में रहता है तो कैसे काम चलेगा? और इसीलिये उन्हें दूसरे राज्यों में जाना पड़ेगा। ऐसा कहते हुए उन्होंने देश भर के अनगिनत कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं को संदेश दे दिया। जी-23 नामक समूह में शामिल कांग्रेस के नेताओं की भी यही शिकायत है कि न तो राहुल कुछ करते हैं और न हटते हैं। ममता को ये बात अच्छी तरह समझ में आ चुकी है कि कांग्रेस उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में आने नही देगी और यूपीए में रहने का अर्थ गांधी परिवार के पीछे चलना है। कांग्रेस और वाममोर्चे का साथ भी उनको फूटी आंखों नहीं सुहाता। इसीलिये बजाय सोनिया गांधी के वे श्री पवार से मिलीं जो उन्हीं की तरह कांग्रेस छोड़कर रांकापा बनाये बैठे हैं। उल्लेखनीय है कुछ समय पहले श्री पवार द्वारा विपक्ष के नेताओं की जो आभासी बैठक बुलाई गई थी उसमें भी कांग्रेस को आमंत्रित नहीं किया गया था। ये बैठक भी प्रशांत किशोर और उनकी मुलाकात के बाद संपन्न हुई थी। कांग्रेस के तमाम नेताओं के मन में भी ये बात घर करती जा रही है कि गांधी परिवार के नेतृत्व में आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस कुछ ख़ास नहीं कर सकेगी। गुलाम नबी आजाद ने तो गत दिवस ये सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी कर लिया। ये सब देखते हुए सुश्री बैनर्जी अपनी महत्वाकांक्षाओं को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तृत करते हुए मैदान में कूद पड़ीं। इसके पीछे प्रशांत किशोर की ये सोच है कि भाजपा और प्रधानमंत्री से नाराज मतदाताओं की संख्या बहुत बड़ी है किन्तु वे कांग्रेस को बतौर विकल्प स्वीकार करने राजी नहीं हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उदय से एक बात साफ  हो गई कि भाजपा और कांग्रेस दोनों से हटकर कोई सक्षम विकल्प हो तो मतदाता उसे हाथों-हाथ उठाने तैयार हो जाते हैं। उड़ीसा में नवीन पटनायक, आंध्र में जगन मोहन रेड्डी, तेलंगाना में चंद्रशेखर राव, तमिलनाडु में द्रमुक-अद्रमुक, केरल में वाममोर्चा इसके उदाहरण हैं। इन राज्यों में भाजपा तेजी से पाँव पसारने में जुटी है परन्तु उसे सफलता नहीं मिल रही क्योंकि गैर कांग्रेसी मजबूत विकल्प मौजूद है। लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में ये सोच उतनी असरकारक नहीं रही। इसीलिये जिस क्षेत्रीय नेता ने प्रधानमन्त्री पद पाने के लिये अपने राज्य को छोड़ राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरने की कोशिश की वह अपनी जमीन भी गंवा बैठा। चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह और एचडी देवेगौड़ा भले ही प्रधानमन्त्री बन गये किन्तु उनका कार्यकाल बेहद संक्षिप्त रहा और वे कोई छाप भी नहीं छोड़ सके। चन्द्र शेखर और इंद्र कुमार गुजराल को हालात ने उस पद तक पहुंचा तो दिया लेकिन वे भी जैसे आये वैसे ही चले गये। देश के राजनीतिक इतिहास में इन सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों को सिवाय उल्लेख के और कोई महत्व नहीं मिलेगा क्योंकि उनके पीछे राष्ट्रीय स्तर का कोई दल या व्यक्तिगत जनाधार नहीं था। इस बारे में ये कहा जा सकता है कि नरेन्द्र मोदी भी तो राज्य से निकलकर राष्ट्रीय मंच पर छा गए किन्तु ऐसा कहने वालों को ये ध्यान भी रखना होगा कि वे एक विचारधारा के साथ स्थायी रूप से जुड़े रहे जो राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो चुकी थी। उस दृष्टि से ममता की ये कोशिश कांग्रेस को कमजोर करने में तो सफल हो जायगी किन्तु लोकसभा चुनाव में वे समूचे विपक्ष का चेहरा बने बिना श्री मोदी को टक्कर दे पायेंगी ये आशावाद पाल लेना उनकी भूल होगी। हो सकता है सुश्री बैनर्जी ऐसा कुछ कर जाएँ जिससे कांग्रेस का जी-23 जैसा कोई वर्ग टूटकर उनके साथ जुड़कर गांधी परिवार को अलग-थलग कर दे लेकिन ये भी उतना ही सही है कि सोनिया जी की अस्वस्थता और राहुल की निष्क्रियता के बावजूद कांग्रेस में काफी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो गांधी परिवार को कांग्रेस के लिए अपरिहार्य मानते हैं। और गैर भाजपाई क्षेत्रीय दलों के नेता इतनी आसानी से ममता को अपना रहनुमा मान लेंगे, ये नहीं लगता। भाजपा या एनडीए में प्रधानमन्त्री पद को लेकर कोई विवाद नहीं है। कांग्रेस में भी राहुल के अलावा और कोई नजर नहीं आ रहा। ऐसे में तीसरा मोर्चा बन भी जाए तो प्रधानमंत्री पद के लिए ममता और पवार में रस्साकशी हो सकती है। शिवसेना के बारे में अधिकतर लोगों का ये मानना है कि 2024 आते-आते वह फिर भाजपा के साथ आ जायेगी। ऐसे में ममता ने जो खेला प. बंगाल में कर दिखाया उसे राष्ट्रीय स्तर पर दोहराना आसमान  से तारे तोड़ने जैसा होगा। और बड़ी बात नहीं इसकी कीमत उन्हें अपने घर में चुकानी पड़ जाए। इस बारे में रोचक बात ये है कि ममता ने भले ही यूपीए खत्म होने का दम्भ भर दिया लेकिन श्री पवार ने इस बारे में कुछ नहीं कहा। वैसे भी इस मराठा नेता पर भरोसा करना ममता के लिए आत्मघाती होगा क्योंकि धोखा और पवार समानार्थी शब्द माने जाते हैं। और फिर ममता भी उनके साथ कितनी दूर चल सकेंगी ये कह पाना कठिन है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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