Monday 27 December 2021

आरक्षण के नाम पर समाज को बाँटने में नेताओं को न शर्म है और न ही संकोच


म.प्र में पंचायत चुनाव फिलहाल टल गये हैं। पिछली कमलनाथ सरकार द्वारा की गई आरक्षण व्यवस्था को बदलने के लिए वर्तमान शिवराज सरकार ने जो अध्यादेश निकाला वह राजनीति के साथ ही कानूनी विवादों के पेंच में ऐसा फंसा कि समूची चुनाव प्रक्रिया झमेले में फंस गई। उच्च और सर्वोच्च न्यायालय तक चली लड़ाई के बाद विधानसभा में भी सत्ता और विपक्ष में जमकर आरोप-प्रत्यारोप देखने मिले। कांग्रेस और भाजपा दोनों ये साबित करने में जुटे रहे कि ओबीसी समुदाय के सबसे बढ़ी हितैषी वही हैं। विधानसभा में मुख्यमंत्री ने जोर देकर कहा कि बिना ओबीसी आरक्षण के पंचायत चुनाव नहीं होंगे। न्यायालय में आ रही कानूनी रुकावटों के बाद राज्य सरकार ने ओबीसी आरक्षित सीटों को छोड़ बाकी के चुनाव करवाने की घोषणा कर डाली जिसके बाद नामांकन भी शुरू हो गये। कांग्रेस ने तो इसके विरोध में हल्ला मचाया ही किन्तु खुद भाजपा के भीतर ओबीसी तबके ने अपनी ही सरकार के विरूद्ध मोर्चा खोल दिया 8 पूर्व मुख्यमंत्री उमाश्री भारती ने तो सीधे मुख्यमंत्री श्री चौहान को फोन पर ही बड़े राजनीतिक नुकसान की चेतावनी दे डाली। अदालतों में भी सरकार को तत्काल राहत नहीं मिल पाने से समूची चुनावी प्रक्रिया बच्चों का खेल बनकर रह गई थी। आखिरकार राज्य सरकार ने चुनाव रद्द करवाने का फैसला ले लिया। जिस अध्यादेश पर समूचा बवाल मचा उसे भी वापिस लिया गया। अब चुनाव कब करवाए जायेंगे इसे लेकर अनिश्चितता बनी हुई है। इस मामले में शिवराज सरकार को जिस फजीहत का सामना करना पड़ा उसे देखते हुए ये माना जा रहा है कि चुनाव करवाने को लेकर अब जल्दबाजी में कोई भी निर्णय न लेते हुए ऐसी व्यवस्था की जावेगी जिससे कि सरकार और पार्टी दोनों की छवि खराब न होने के साथ ही राजनीतिक लाभ भी मिले। दरअसल श्री चौहान को इस बात की चिंता सता रही है कि 2023 का विधानसभा चुनाव होने के पहले यदि पार्टी के निचले स्तर को सत्ता में हिस्सेदारी न मिली तो फिर चुनाव मैदान में उतरने वाली सेना तैयार नहीं हो सकेगी। 2020 में सरकार बनते ही कोरोना का हमला हो गया। उसके कारण सभी राजनीतिक गतिविधियों पर विराम लग गया। पहली लहर खत्म होने के बाद स्थानीय निकायों के चुनावों की घोषणा तो कर दी गई किन्तु तब तक दूसरी लहर की आहट सुनाई देने लगी जिससे वे चुनाव भी अधर में फंसकर रह गये। जाहिर है इसकी वजह से भाजपा के भीतर काफी नाराजगी व्याप्त है। दमोह और उसके बाद हुए उपचुनावों में मुख्यमंत्री को जिस तरह से जोर लगाना पड़ा उससे कार्यकर्ताओं की नाराजगी और उदासीनता का एहसास हो चला था। वैसे भी सिंधिया गुट के लोगों को समायोजित करने के कारण पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं और नेताओं में नाराजगी है। यही वजह रही कि पंचायत चुनाव रद्द करवाने का मन बनाने के साथ ही मुख्यमंत्री ने निगम-मंडलों में थोक के भाव नियुक्तियां कर डालीं। लेकिन इससे भी समस्या का हल नजर नहीं आ रहा क्योंकि निचले स्तर पर भाजपा कार्यकर्ताओं में जो निराशा है उसे दूर किये बिना आगामी विधानसभा चुनाव जीतना आसान नहीं होगा। मुख्यमंत्री भी 2018 में मिली पराजय के कारण बेहद सतर्क हैं। ऊपर से उनको हटाये जाने की अटकलें भी लगातार सुनाई देती रहती हैं। भाजपा के भीतर चलने वाली चर्चाओं का संज्ञान लेने पर ये संकेत मिलते हैं कि उ.प्र विधानसभा के चुनाव परिणामों के बाद श्री चौहान के भविष्य का फैसला भाजपा आलाकमान लेगा। यही वजह थी कि मुख्यमंत्री ने पंचायत चुनाव करवाने का दांव चला था। उसके पीछे उनकी सोच ये थी कि इन चुनावों में जीत हासिल कर पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को अपनी उपयोगिता और जिताऊ क्षमता से अवगत करवा सकेंगे और ग्रामीण इलाकों में भाजपा का प्रभाव नये सिरे से कायम होगा। लेकिन मुख्यमंत्री की वह कार्ययोजना आरक्षण के मकडज़ाल में उलझकर रह गई। चुनाव तो हुए नहीं लेकिन मुख्यमंत्री सहित उनकी सरकार के कुछ मंत्रियों ने जिस तरह आरक्षण के बिना चुनाव न करवाने की रट लगाई उससे पिछले विधानसभा चुनाव के पहले श्री चौहान द्वारा कोई माँ का लाल आरक्षण नहीं हटा सकता वाली घोषणा याद आ गई। जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप प्रदेश में भाजपा के परम्परागत सवर्ण मतदाताओं में जो नाराजगी फैली उसने भाजपा को 15 साल बाद सत्ता से बेदखल कर दिया। पंचायत चुनाव के लिए की गई आरक्षण व्यवस्था के विवादित होने के कारण प्रदेश सरकार के साथ ही भाजपा संगठन की निर्णय क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं। ओबीसी आरक्षण को लेकर प्रदेश सरकार ने अदालत और उसके बाहर जिस तरह से मोर्चेबंदी की उससे अनारक्षित तबके में एक बार फिर ये एहसास जागा कि समूचा राजनीतिक विमर्श केवल वोट बैंक के इर्द-गिर्द सिमटकर रह गया है। भाजपा की स्थायी समर्थक जातियों में ये भावना तेजी से फैलती जा रही है कि बुरे दिनों में वे उसके साथ रहीं लेकिन अच्छे दिन आते ही पार्टी नेतृत्व को सोशल इंजीनियरिंग दिखने लगी। चुनाव जीतने के लिए जतिवादी संतुलन आवश्यक हो गया है ये तो सब मानते हैं परन्तु कभी-कभी ऐसा लगता है जातिवादी नेताओं की देखा-सीखी भाजपा भी आरक्षण को ब्रह्मास्त्र मान बैठी है। इसकी प्रतिक्रिया फिलहाल उ.प्र में देखी जा सकती है जहाँ अटल जी के समय से भाजपा के साथ जुड़े ब्राह्मण मतदाता इस चुनाव में उससे नाराज बताये जाते हैं और उनको रिझाने के लिए पार्टी ने ब्राह्मण विधायकों और सांसदों से विचार-विमर्श शुरू कर दिया है। स्मरणीय है 2007 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण मतदाताओं द्वारा बसपा को समर्थन दिए जाने से मायावती को पूर्ण बहुमत हासिल हो गया था। 2017 में उ.प्र में भाजपा को मिली धमाकेदार जीत के बाद गुजरात विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी का हिन्दू प्रेम ऐसा जागा कि उनको जनेऊधारी साबित करने का अभियान चला और उनके सारस्वत गोत्रधारी कश्मीरी ब्राहमण होने का भी प्रचार किया जाने लगा। भाजपा तो सवर्णों और व्यापारियों की पार्टी ही मानी जाती रही है लेकिन बीते कुछ सालों में उसने भी जातिगत समीकरणों के महत्व को समझकर पिछड़ी जातियों के अलावा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बीच भी अपनी पैठ बढाने के लिए हाथ पैर मारे और केंद्र सहित अनेक राज्यों में बहुमत हासिल कर सरकारें बना लीं। बावजूद इसके पार्टी पर जातिवादी होने का ठप्पा नहीं लगा लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि भाजपा के अनेक बढ़े नेता अगड़े-पिछड़े, दलित और जनजाति की खेमेबाजी में लग गये हैं। उ.प्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सन्यासी हैं लेकिन सत्ता में आते ही उनके क्षत्रिय होने की बात उजागर की जाने लगी। माफिया सरगना विकास दुबे को पुलिस द्वारा मारे जाने के बाद योगी को ब्राह्मण विरोधी साबित करने की मुहिम के पीछे भाजपा का एक वर्ग भी बताया जाता है। विधानसभा चुनाव के ठीक पहले पिछले चुनाव में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे केशवदेव मौर्य की बजाय योगी को मुख्यमंत्री बना दिए जाने के फैसले को ओबीसी विरोधी बताकर दबाव बनाया जा रहा है। इन सब बातों से ये पता चलता है कि भाजपा कहे कुछ भी किन्तु आरक्षण के नाम पर समाज को बांटने के खेल में वह भी बढ़े खिलाड़ी के रूप में उतर चुकी है। महज वोट बैंक के लिए आजकल जनजातियों को खुश करने के लिए उठापटक चल रही है। सामाजिक समरसता और समूचे हिन्दू समाज को एकजुट करने की जो मुहिम रास्वसंघ द्वारा चलाई जाती है उसके विपरीत भाजपा में बढ़े कहलाने वाले अनेक नेता अपनी जाति को भुनाने के लिए जिस तरह के सियासती दाँव चलते हैं उससे संघ की कोशिशों को भी नुकसान पहुँचता है। पंचायत चुनाव के नाम पर एक बार फिर ये जाहिर हो गया कि आरक्षण और जातिगत समीकरणों ने समूचे राजनीतिक विमर्श पर अतिक्रमण कर लिया है। इसके कारण आरक्षित वर्ग को मुख्यधारा में लाने के प्रयासों को भी झटका लग रहा है। केवल सरकारी नौकरी और उच्च शिक्षा हेतु प्रवेश की सुविधा से ही आरक्षित वर्ग का उत्थान हुआ होता तब शायद आरक्षण की आज जरूरत ही नहीं रहती। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय भी अगड़े-पिछड़े और दलित-जनजाति के नाम पर की जाने वाली राजनीति समाज के विखंडन का कारण बन रही है। म.प्र के पंचायत चुनाव रद्द होने से ये बात साबित हो चुकी है कि चाहे कांग्रेस हो या भाजपा सभी सत्ता के पीछे पागल हैं और उसके लिए समाज को बांटने में उन्हें न कोई शर्म है न ही संकोच।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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