Saturday 25 December 2021

जान से बड़ा नहीं मतदान : चुनाव पर भी फिलहाल लगे लॉक डाउन



म.प्र में पंचायत चुनावों को लेकर चल रही कानूनी और राजनीतिक रस्साकशी के बीच गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा का ये बयान काबिले गौर है कि चुनाव किसी की जिन्दगी से बड़ा नहीं है और कोरोना को देखते हुए वे टाले जाने चाहिये। इसी आशय की टिप्पणी करते हुए अलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक पीठ द्वारा केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को सलाह दी गई है कि कोरोना के नए हमले को देखते हुए रैलियों और सभाओं पर रोक लगाने के साथ जरूरी हो तो विधानसभा चुनाव ही रोक दिए जाएँ। श्री मिश्र और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश महोदय दोनों ने जान है तो जहान है जैसी प्रचलित कहावत को ही आधार बनाते हुए ये बात कही है। कुछ समय पहले इसी स्तम्भ में चुनाव जनता के लिए बने या जनता चुनाव के लिए, शीर्षक से लिखे आलेख पर अनेक पाठकों ने आलोचनात्मक टिप्पणियाँ करते हुए कहा था कि चुनाव रोकना लोकतंत्र के हित में नहीं होगा। उनकी बात एक हद तक सही होते हुए भी वर्तमान परिस्थितियों से मेल नहीं खाती। लोकतन्त्र दरअसल लोक अर्थात जनता के लिए बनाया गया तंत्र अथवा व्यवस्था है। जनता की राय से शासन चलाने के लिए ही चुनाव और मतदान रूपी प्रणाली अपनाई जाती है। चूंकि लोकतंत्र के अंतर्गत बहुमत का शासन होता है इसलिए हर प्रत्याशी और पार्टी ज्यादा से ज्यादा मत हासिल करने के लिए पूरा जोर लगाती है। घर-घर जाकर सम्पर्क करने के अलावा बड़े नेताओं की सभाएं, रैलियां और जुलूस भी चुनाव प्रचार का अभिन्न हिस्सा होते हैं जिनमें भीड़ जमा होती है। भारत सरीखे देश में चुनाव किसी उत्सव या मेले जैसा एहसास करवाते हैं। सामान्य समय में तो ये सब आनंदित करता है किन्तु जबसे कोरोना का कहर शुरू हुआ तबसे लोगों का जमावड़ा आनंदित करने की बजाय आतंकित करने लगा है। इसीलिये सरकार ने तरह-तरह के प्रतिबंध लगाकर कोरोना के संक्रमण को फैलने से रोकने के उपाय किये। लम्बे-लम्बे लॉक डाउन के पीछे भी वही कारण था। कोरोना के दो हमले झेल चुके देशवासी उसके दिल दहलाने वाले परिणामों को भूले नहीं हैं। इसीलिये तीसरी लहर की सुगबुगाहट शुरू होते ही दहशत बढऩे लगी और सरकार ने भी आगाह करना शुरू कर दिया। जिनको टीके की दोनों खुराक लग चुकी हैं उनको बूस्टर डोज लगाने की तैयारी के अलावा बच्चों के टीकाकरण की योजना भी बन रही है। अभी भी देश में ऐसे लोगों की काफी बढ़ी संख्या है जिन्हें कोरोना के टीके नही लग सके हैं। इसके पीछे सरकारी अव्यवस्था के साथ ही लोगों की उदासीनता भी है। लेकिन ये बात पूरी तरह सही है कि चाहे डेल्टा हो या ओमिक्रोन किन्तु किसी न किसी रूप में कोरोना या उस जैसा कई संक्रमण हमारे इर्द-गिर्द घूम रहा है। जब भी ये मान लिया गया कि महामारी अपनी मौत मर रही है तभी उसने पलटवार किया और ऐसी ही सम्भावना एक बार फिर दिखाई दे रही है। भले ही तीसरी लहर का संक्रमण अपेक्षाकृत कम खतरनाक माना जा रहा है लेकिन वह कब विकराल रूप धारण कर ले इस बारे में चिकित्सा विशेषज्ञ पूरी तरह से भ्रमित हैं। आये दिन नए-नए दावे और जानकरियां सुनाई दे जाती हैं। लेकिन इस दौरान ये बात सामने आई है कि खतरा दरवाजे पर आहट दे रहा है और जरा सी लापरवाही से वह भीतर आ धमकेगा। इसीलिये केंद्र और राज्य सरकारों ने विभिन्न प्रकार की रोक लगाई हैं। रात्रिकालीन कफ्र्यू के अलावा शादी और अन्य समारोहों में अतिथि संख्या सीमित की जा रही है। हवाई यात्रियों को कोरोना की ताजी जांच रिपोर्ट दिए बिना यात्रा नहीं करने दी जा रही। मास्क न लगाने वालों पर अर्थदंड लगाया जा रहा है। अर्थात वे सभी सावधानियां दोबारा अपेक्षित हैं जो कोरोना की पहली और दूसरी लहर के दौरान जरूरी मानी गईं थीं। हालाँकि बाजार, होट, रेस्टारेंट, शापिंग माल, सिनेमा, दफ्तर आदि खुल गये हैं और रेल तथा बस यात्रा भी चल रही है। दूसरी ओर इसी के साथ सार्वजनिक जलसों पर कसावट किये जाने की खबरें भी हैं। विद्यालय और महाविद्यालय खुलने के बाद भी उनमें उपस्थिति कम है। छोटे बच्चों को विद्यालय भेजने में अभिभावक हिचकिचा रहे हैं। ऐसे में चुनावी सभाओँ और रैलियों का औचित्य समझ से परे है। लोकसभा के चुनाव तो अभी दूर हैं परन्तु जिन राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव निकट भविष्य में होने जा रहे हैं उनको रोकना कठिन नहीं है। विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने के बाद चुनाव न होने पर राष्ट्रपति शासन लगाने का संवैधानिक प्रावधान है जिसका उपयोग दर्जनों मर्तबा किया भी जा चुका है। 1992 में बाबरी ढांचा गिरने के बाद भाजपा शासित राज्यों की सरकारों को बर्खास्त किया गया था और देश के तत्कालीन माहौल को देखते हुए उन राज्यों के चुनाव बजाय छह महीने के बजाय एक साल बाद करवाए गये थे। 1975 में आपातकाल लगाये जाने के बाद इंदिरा जी ने भी लोकसभा का कार्यकाल एक साल बढ़वाया था। ऐसे में आगामी वर्ष की शुरुवात में होने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव यदि टाल दिए जाएँ तो आसमान टूटकर नहीं गिर जाएगा। म.प्र के गृह मंत्री श्री मिश्र द्वारा पंचायत चुनाव रोकने संबंधी टिप्पणी के साथ अलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने भी चुनाव रोकने की जो सलाह दी उस पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए। सबसे बढ़ी जरूरत है राजनीति से ऊपर उठकर सोचने की। चुनाव में होने वाले खर्च से बढ़कर बात जनता के प्राणों की रक्षा करने की है। चुनाव संवैधानिक आवश्यकता हो सकती है लेकिन वह इंसानी जिन्दगी से ज्यादा मूल्यवान नहीं है। चुनाव प्रचार के प्रचलित तौर-तरीकों में जनता की भीड़ जमा होना अवश्यम्भावी है और उस दौरान संक्रमण का फैलाव रोकना बहुत कठिन है। ये सब देखते हुए जरूरी लगता है कि हाल-फिलहाल चुनाव जैसे गतिविधियों पर भी लॉक डाउन लगाया जाए। इस बारे में केवल एक वाक्य में ही कहें तो मतदान इंसानी जान से बड़ा नहीं हो सकता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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