म.प्र विधानसभा में गत दिवस एक संकल्प सर्वसम्मति से पारित हुआ कि पंचायत चुनाव ओबीसी ( अन्य पिछड़ा वर्ग ) आरक्षण के बिना नहीं कराये जायेंगे | इसे लेकर म.प्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय जा पहुँची जिसने शीतकालीन अवकाश के बाद तीन जनवरी को मामले की सुनवाई करने का निर्णय किया | बहरहाल इस मुद्दे पर प्रदेश की राजनीति बीते कुछ समय से गरमाई हुई है | सत्ता और विपक्ष दोनों एक दूसरे पर ओबीसी विरोधी होने का आरोप लगाते घूम रहे हैं | चूंकि मामले में कानूनी पेंच फंस गया है इसलिए प्रदेश सरकार की स्थिति एक कदम आगे , दो कदम पीछे की हो रही है | लेकिन इससे अलग हटकर देंखें तो आरक्षण नामक सुविधा जिन वर्गों को दी गई उसका उद्देश्य सामाजिक भेदभाव दूर करना था | महात्मा गांधी तो वर्ण व्यवस्था के लिहाज से वैश्य समुदाय के थे किन्तु उन्होंने आजादी के आन्दोलन के साथ ही अछूतोद्धार आन्दोलन चलाया | बहुत कम लोग जानते होंगे कि दक्षिण भारत में अछूतों को अधिकार दिलाने वाला वाइकोम नामक जो अभियान गांधी जी के कहने से शुरू हुआ उसका नेतृत्व पेरियार रामास्वामी ने किया था जो बाद में द्रविड़ आन्दोलन के प्रणेता बनकर ब्राह्मणवाद और आर्यवादी सोच के कट्टर विरोधी बने और कांग्रेस से अलग होकर जस्टिस पार्टी बना ली | इस प्रकार कहना गलत न होगा कि जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था में छुआछूत नामक जो अमानवीय प्रथा थी उसके विरुद्ध सबसे पहले राष्ट्रव्यापी आन्दोलन खड़ा करते हुए उसे जन स्वीकृति दिलवाने का काम गांधी जी ने ही किया | हालांकि दलित वर्ग को मुख्य धारा में लाने के लिए छोटे – छोटे प्रयास अनेक लोगों ने किये किन्तु उसे राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने का बापू का कारनामा ही कारगर हुआ | अन्यथा स्वाधीनता के उपरांत सवर्ण नेताओं के वर्चस्व वाली संविधान सभा में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण देने की व्यवस्था संभव न हो पाती | संविधान ड्राफ्ट समिति के प्रमुख होने के बावजूद डा.भीमराव आम्बेडकर इस बारे में ज्यादा कुछ न कर पाते यदि सभा सर्वसम्मति से आरक्षण मंजूर नहीं करती | यहाँ ये भी उल्लेखनीय है कि बनारस हिन्दू विवि के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय ने ही जगजीवन राम को अपने यहाँ प्रवेश दिलवाया था जो बाद में देश के सबसे बड़े दलित चेहरे बने | आजादी के बाद समाजवादी आन्दोलन भी राजनीति की प्रमुख धारा बना | इसका स्वरूप वामपंथी और कांग्रेसी विचारधारा के बीच का था | समाजवादी आन्दोलन का वैचारिक पक्ष जहाँ आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण से जुड़ा रहा वहीं उसके राजनीतिक प्रवक्ता बनकर उभरे डा. राममनोहर लोहिया | आज देश में ओबीसी के नाम पर पिछड़ा वर्ग की जो राजनीति चल रही है उसे सबसे पहले लोहिया जी ने ही मुखरित किया था | उनका नारा पिछड़ा पावें सौ में साठ बहुत चर्चित हुआ था | इस बारे में स्मरणीय है कि लोहिया जी खुद अगड़े वर्ग के थे | उनके राजनीतिक विचार इतने प्रभावी हुए कि समाजवादी खुद को लोहियावादी कहने लग गये | उनके न रहने पर मधु दंडवते , मधु लिमये , एस.एम . जोशी , हरिविष्णु कामथ , अशोक मेहता , चन्द्र शेखर , राजनारायण , जॉर्ज फर्नांडीज और जनेश्वर मिश्र जैसे जो प्रभावशाली समाजवादी नेता हुए वे भी पिछड़ी जाति के नहीं होने के बाद भी पिछड़ों को उनका हक़ दिलवाने की डा.लोहिया जी की इच्छा का सम्मान करते रहे | 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार के जमाने में बने मंडल आयोग ने ओबीसी आरक्षण की जो सिफारिशें कीं उनको बाद की कांग्रेस सरकारें दबाकर बैठ गई | लेकिन 1974 में जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन से उभरे युवा नेताओं की पौध में पिछड़ी जातियों के अनेक चेहरे सामने आये जो 1989 आते – आते राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने में सक्षम हो गये थे और इसीलिये विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार पर दबाव डालकर मंडल आयोग की सिफारिश लागू करते हुए ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया | उसके विरुद्ध देश भर में युवाओं के आन्दोलन हुए | जिनमें आत्मदाह जैसी दुखद घटनाएँ भी हुई | लेकिन जिस तरह अनु. जाति और जनजाति को मिलने वाले आरक्षण का विरोध करना राजनीतिक तौर पर आत्महत्या करने जैसा है वही स्थिति आखिरकार ओबीसी आरक्षण को लेकर निर्मित हो चुकी है | 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान रास्वसंघ प्रमुख डा. मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा किये जाने जैसा जो बयान दिया उसने भाजपा को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया | बाद में संघ प्रमुख को अनेक मर्तबा सार्वजानिक रूप से ये दोहराना पड़ा कि जब तक जरूरत है आरक्षण को जारी रखा जाना चाहिए | उस चुनाव में लालू – और नीतीश के गठबंधन की सफलता ने सवर्णों की पार्टी समझे जाने वाली भाजपा को भी सोशल इंजीनियरिंग जैसे फार्मूले पर ध्यान देने की जरूरत समझाई और उसने 2017 के उ.प्र विधानसभा चुनाव में ओबीसी जाति समूहों से बेहतर तालमेल कायम करते हुए समाजवादी पार्टी के वर्चस्व को तोड़ दिया | वहां फरवरी 2022 में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के बारे में जितने भी पूर्वानुमान लगाए जा रहे हैं वे जातिवादी समीकरण पर ही आधारित हैं | राजनीतिक नफे – नुकसान के लिये समाज को जातियों के बाद अब उप - जातियों में बांटने का प्रयास तेजी से चल रहा है | इस काम में केवल सपा और बसपा ही नहीं वरन कांग्रेस और भाजपा भी जुटी रहती हैं | प्रत्याशी चयन का आधार भी उसकी योग्यता से ज्यादा जाति हो गई है | आरक्षण का मुख्य उद्देश्य दलित और पिछड़े समुदाय को मुख्य धारा में लाना था लेकिन कड़वा सच ये ये है कि यह सुविधा सामाजिक उपाय से राजनीतिक औजार बन गया | सबसे बड़ी दुखद और खतरनाक बात ये देखने में मिल रही है कि इसकी वजह से सामाजिक सौहार्द्र बिगड़ने की स्थिति बनती जा रही है | कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के भीतर भी जातिवादी दबाव समूह बन गये हैं | इसकी वजह से समूचा राजनीतिक विमर्श असली मुद्दों से भटककर जातिगत दांव पेंच में फंसता जा रहा है | वैसे तो देश की एकता और अखंडता की रक्षा हर पार्टी और नेता की प्राथमिकता नजर आती है | उनकी देशभक्ति पर भी संदेह नहीं हें लेकिन जिन सामजिक बुराइयों के कारण देश सैकड़ों सालों तक परतंत्र रहा वे पहले से भी बड़ी मात्रा में समूचे परिदृश्य पर हावी हो चली हैं | इसके लिए कौन दोषी है इसका निर्णय करना आसान नहीं है क्योंकि जिनके कन्धों पर जातिवादी आग बुझाने की जिम्मेदारी है वही इसमें घी उड़ेलने पर आमादा है | आरक्षण का उद्देश्य बहुत ही पवित्र और राष्ट्रहित में था | लेकिन आजादी के सात दशक से ज्यादा बीतने के बाद भी उस उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो सकी क्योंकि जिस जातिगत विभाजन रेखा को मिटाने का सपना गांधी जी और डा. लोहिया ने देखा था वह उन्हीं के अनुयायियों द्वारा और गहरी होती जा रही है |
-रवीन्द्र वाजपेयी
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