Tuesday 28 December 2021

बीमारू न सही लेकिन स्वस्थ भी तो नहीं है म.प्र



2003 के विधानसभा चुनाव में म.प्र के बीमारू राज्य होने का मुद्दा बहुत तेजी से उठा था। भाजपा ने बिसपा (बिजली, सड़क और पानी) को लेकर तत्कालीन दिग्विजय सरकार को ऐसा घेरा कि वे सत्ता से बाहर हो गए। उसके बाद लगातार 15 साल तक भाजपा की सरकार रही और फिर 15 महीने के छोटे से कालखंड को छोड़कर शिवराज सिंह चौहान पुन: सत्तासीन हो गये। यद्यपि ये जनादेश की बजाय दलबदल की कृपा थी किन्तु सत्ता सँभालते ही लॉक डाउन रूपी अग्नि परीक्षा सामने आ खड़ी हुई। उस दौर के जैसे-तैसे बीतने पर राहत की सांस ली ही जा रही थी कि पहले से ज्यादा खतरनाक अंदाज में कोरोना लौटा और सर्वत्र मौत का मंजर नजर आने लगा। अस्पतालों में बिस्तर के लिए मारामारी मचने लगी, किसी तरह भर्ती भी हुए तो ऑक्सीजन और वेंटीलेटर की कमी ने न जाने कितनों की जान ले ली। श्मशान घाट में अंतिम संस्कार की जगह तक आसानी से नहीं मिल रही थी। अप्रैल और मई के महीने बहुत ही दर्दनाक यादें छोड़ गये। हालाँकि सरकार से उस दौरान जो और जैसा बन सका किया किन्तु ये बात खुलकर सामने आ गई कि आबादी के सात दशक बीत जाने के बाद भले ही भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया हो लेकिन 135 करोड़ की विशाल आबादी के स्वास्थ्य की रक्षा करने के मामले में हम वैश्विक मापदंडों के लिहाज से बहुत ही पीछे हैं। ये बात तो सत्य है कि विकसित देशों की तुलना में आबादी के आकार को देखते हुए हमारे देश में कोरोना से हुई मौतों का आंकड़ा कम रहा लेकिन उसके पीछे भी अनेक कारण हैं। टीके का उत्पादन जल्द शुरु कर टीकाकरण अभियान का संचालन भी छोटा काम नहीं था किन्तु अनेकानेक बाधाओं के बावजूद देश की बड़ी आबादी को कोरोना का टीका लगाया जा सका और तीसरी लहर की आशंका के चलते बुजुर्गों को बूस्टर डोज के अलावा अब बच्चों को टीका लगाये जाने की तैयारी भी चल रही है। म.प्र. ने भी इस कार्य में भरपूर योगदान दिया। आबादी के बड़े हिस्से को कोरोना के दोनों टीके लग जाने के कारण सामूहिक रोग प्रतिरोधक क्षमता में भी अपेक्षित वृद्धि हुई। कोरोना काल से सीख लेकर म.प्र. में सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं के उन्नयन की दिशा में यूँ तो काफी काम हुआ लेकिन नीति आयोग की जो ताजा रिपोर्ट आई उसके अनुसार देश के 19 बड़े राज्यों की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं में म.प्र का स्थान 17 वां है। इससे नीचे केवल बिहार और उ.प्र ही हैं। 2019-20 की इस रिपोर्ट में चिकित्सा सेवाओं के हर मापदंड पर प्रदेश पिछड़ा ही नहीं अपितु बदतर स्थिति में है। ये बात इसलिए भी विचारणीय है क्योंकि प्रदेश का स्वास्थ्य बजट लगभग 5 हजार करोड़ का है जिसमें चिकित्सा महाविद्यालय शामिल नहीं है। स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़े हर पहलू में प्रदेश की दयनीय स्थिति ये दर्शाती है कि या तो शासन-प्रशासन का ध्यान इस तरफ नहीं है या फिर बजट में दी जा रही राशि का दुरूपयोग हो रहा है। शर्म करने की बात ये भी है कि म.प्र की स्थिति लगातार 16 वें स्थान से नीचे ही रही जबकि कुछ राज्यों ने अपनी व्यवस्थाओं को सुधार कर ऊपर की पायदान में जगह बनाई है। शिवराज सरकार ने बिजली और सड़क के क्षेत्र में अच्छा काम किया है तथा ग्रामीण विकास का लक्ष्य भी काफी हद तक पूरा हुआ है। कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण प्रतिवर्ष राज्य को कृषि कर्मणा पुरस्कार भी मिलता है। गेंहूं के साथ धान और दलहन के उत्पादन में आगे बढऩे के साथ ही पर्यटन और उद्योग के मामलों में भी स्थिति पूर्वापेक्षा काफी बेहतर कही जा सकती है। शिवराज सरकार ने प्रदेश में आधा दर्जन से ज्यादा नये मेडिकल कालेज खोलने की जो पहल की वह भविष्य में चिकित्सकों की कमी दूर करने में सहायक होगी। लेकिन इसी के साथ सोचने वाली बात ये है कि पहले से कार्यरत चिकित्सा महाविद्यालयों में ही पढ़ाने हेतु पर्याप्त शिक्षक नहीं होने से मेडिकल काउन्सिल ऑफ इण्डिया के निरीक्षण में उनकी मान्यता पर खतरे की तलवार लटका करती है। राजधानी भोपाल के वीआईपी कहे जाने वाले हमीदिया मेडिकल कालेज की दुरावस्था भी किसी से छिपी नहीं है। जो जिला अस्पताल काम कर रहे हैं उनमें भी चिकित्सकों के साथ नर्सिंग स्टाफ और दवाओं का टोटा बना हुआ है। प्रधानमंत्री की आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत गरीबों को 5 लाख तक के मुफ्त इलाज की जो सुविधा दी गई वह निजी क्षेत्र के अस्पतालों के लिए तो रूपये छापने की मशीन साबित हुई लेकिन उससे भी जन स्वास्थ्य की स्थिति में गुणात्मक सुधार नहीं हो सका। म.प्र से हजारों की संख्या में नौजवान काम धंधे की तलाश में महानगरों का रुख करते हैं। लेकिन बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो अच्छे इलाज के लिए नागपुर, मुम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद अथवा अन्य किसी शहर में जाने मजबूर हैं। जबकि भोपाल में एम्स और इंदौर में पीजीआई जैसे संस्थान स्थापित हुए भी लंबा समय बीत चुका है। शिवराज सरकार के लिए नीति आयोग की ये रिपोर्ट वाकई शर्मिंदा करने वाली है। इसे झुठलाने का भी कोई आधार उसके पास नहीं है क्योंकि केंद्र में भी भाजपा की ही सरकार है। प्रश्न ये है कि ये हालात क्यों हैं और इसका सीधा-सपाट जवाब है शासन-प्रशासन और जनप्रतिनिधियों का जन स्वास्थ्य के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया। भोपाल के हमीदिया अस्पताल में दर्जन भर बच्चे आग में झुलसकर जान गंवा बैठे लेकिन उसका ठोस कारण आज तक कोई नहीं जानता। दो-चार निलम्बन और स्थानान्तरण करने के बाद सब पहले जैसी स्थिति में आ गया। सरकारी अस्पतालों में कार्यरत अधिकतर चिकित्सक मनमाफिक स्थान पर नियुक्ति के लिये मंत्रियों और अधिकारियों की गणेश परिक्रमा करते रहते हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते भी चिकित्सा व्यवस्था चरमराती है। रही-सही कसर पूरी कर देता है भ्रष्टाचार। इस सबके कारण पूरा ढांचा कमजोर हो चला है। शिवराज सिंह ने म.प्र में सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड बनाया है। उनके राज में प्रदेश अनेक क्षेत्रों में आगे आया है ये कहना भी पूरी तरह सही होगा। जनता के साथ उनका सम्पर्क और संवाद भी प्रभावशाली है। निजी तौर पर वे काफी सरल, मिलनसार और मितभाषी माने जाते हैं। भोपाल में बैठने की बजाय लगातर प्रदेश भर में दौरे करना उनकी विशेषता है। प्रशासनिक अनुभव के लिहाज से भी वे अब काफी समृद्ध हैं। ऐसे में ये अपेक्षा करना बेमानी नहीं है कि बीमारू राज्य के कलंक को धो डालने के बाद म.प्र की गिनती उन प्रदेशों में हो जो स्वास्थ्य सेवाओं की दृष्टि से उत्तम माने जाते हैं। सरकार के लिए ये सोचने वाली बात है कि आज भी तमाम वीआईपी सरकारी खर्च पर इलाज हेतु बाहर भेजे जाते हैं। नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट विपक्ष के लिए एक हथियार की तरह है लेकिन कांग्रेस भी चूँकि इस मामले में बराबर की कसूरवार है इसलिए वह तो ज्यादा कुछ न कह सकेगी किन्तु मुख्यमंत्री को इस रिपोर्ट को चुनौती की तरह लेना चाहिए। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार विकास की आधारभूत आवश्यकता है। उस दृष्टि से म.प्र भले ही बीमारू न रहा हो लेकिन स्वस्थ भी नहीं है जो विरोधाभास से कहीं ज्यादा विडंबना है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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