Friday 10 December 2021

नेताओं का अहं तो संतुष्ट हुआ लेकिन किसान खाली हाथ ही रहे




आखिऱकार किसान आन्दोलन समाप्त हो ही गया। 11 दिसम्बर से दिल्ली में  धरना दे रहे जत्थे वापिस लौटने लगेंगे। किसान नेताओं के चेहरे पर जीत की खुशी है। एक साल से भी ज्यादा आन्दोलन को खींचना वाकई बड़ी बात थी। इतने लम्बे समय तक धरना स्थल पर भोजन-पानी और अन्य व्यवस्थाओं को देखकर ये तो पता चलता ही था कि किसानों के पीछे कुछ अदृश्य ताकतें भी रहीं  । वरना अपनी पैदावार का उचित मूल्य न मिलने से कर्ज में डूबा किसान काम-धंधा छोड़कर घर परिवार से दूर कैसे रहा ,ये सवाल भी उठना स्वाभाविक है। इसी के साथ  गौरतलब है कि समूचे विपक्ष के समर्थन और समाचार माध्यमों में बेतहाशा प्रचार के बावजूद आन्दोलन दिल्ली के निकटवर्ती तीन-चार राज्यों में ही क्यों सिमटा रहा ? निश्चित रूप से संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में एक बड़ी लड़ाई लड़ी गई। लेकिन उससे जो हासिल हुआ और अब उसका असर अन्य क्षेत्रों में होने वाले आन्दोनों पर किस तरह पड़ेगा ये गहन विश्लेषण का विषय है। गत दिवस एक चैनल के पत्रकार ने जब राकेश टिकैत से पूछा कि आन्दोलन की उपलब्धि क्या है, तब वे बड़ी ही मासूमियत से बोले कि देश का किसान आन्दोलन के तौर-तरीके सीख गया, सरकार के साथ बातचीत में आने वाले पेच भी उसे पता चले और सबसे बड़ी बात हुए किसान संगठनों का एकजुट होना। हालाँकि उन्होंने ये माना कि सरकार के साथ  आमने-सामने बैठकर फैसला करने की हसरत अधूरी रह गई। वस्तुत: प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा कृषि कानून वापिस लेने की घोषणा के बाद ही ये तय था कि आन्दोलन जल्द समेट लिया जाएगा। काफी किसान तो घोषणा के फ़ौरन बाद धरना स्थल से लौट भी गये किन्तु किसान नेताओं ने सरकार पर इस बात का दबाव बनाया कि आन्दोलन के दौरान जान गंवा बैठे किसानों के परिजनों को क्षतिपूर्ति, आपराधिक मुकदमे वापिस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ठोस निर्णय के बिना वे वापिस नहीं लौटेंगे। बिजली और पराली संबंधी आश्वासन तो पहले ही मिल चुका था। राकेश टिकैत चाह रहे थे कि सरकार उनको बैठक हेतु बुलाये किन्तु उसने फोन और चिट्ठियों से ही आन्दोलन समाप्त करने की परिस्थितियां बना दीं। सबसे बड़ा पेंच फंसा न्यूनतम समर्थन मूल्य का , लेकिन पंजाब और हरियाणा के किसान संगठन इस मुद्दे पर उदासीन रहे क्योंकि उनकी 90 फीसदी उपज सरकार खरीद लेती है। बाकी मुद्दों पर उनको ये एहसास था कि पंजाब की तरह अन्य राज्य  भी मौतों पर  मुआवजा और मुकदमे वापिस ले ही लेंगे। पराली और  बिजली संबंधी कानून भी सरकार ने वापिस लेने की बात कह दी थी। आन्दोलन शुरू होने के बरसों पहले से ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग उठती रही है। इस बारे में अनेक समितियों की रिपोर्ट भी सरकारी फाइलों में धूल  खा रही है। ऐसे में जब कृषि कानून आये तब जिन किसान संगठनों ने उनके विरोध में दिल्ली की सीमा पर धरना दिया वे प्रारम्भिक दौर में ही कानून रद्द करने की जिद पकड़ने की गलती कर गये । कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के साथ हुई दर्जन भर बैठकों में यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में भी किसानों का पक्ष रखते हुए बातचीत जारी रखी जाती तो बड़ी बात नहीं इस विषय पर अब तक कुछ न कुछ हो गया होता। लेकिन संयुक्त किसान मोर्चे में योगेन्द्र यादव जैसे  कुंठित सलहाकार घुसे थे जिनकी रूचि गतिरोध बनाये रखने में थी क्योंकि उनके पास सुर्खियों  में बने रहने का और कोई जरिया नहीं है। इसीलिए सरकार के साथ हुई वार्ता केवल एक मुद्दे पर आकर अटकती रही कि पहले तीनों कानून रद्द हों तब बात होगी। इसके कारण ही सरकार ने बातचीत करना बंद कर दिया जिसके बाद संयुक्त किसान मोर्चा टेबिल पर बैठकर बात करने की गुहार लगाता रहा लेकिन पिछली जनवरी के बाद सरकार ने उसको कोई तवज्जो नहीं दी। किसान संगठनों को इस बात का भी अफसोस रहा कि श्री मोदी ने उनसे चर्चा किये बिना ही कानून वापिस  लेने की इकतरफा घोषणा कर उनके हाथ से हथियार छीन लिया। आन्दोलन की शुरुवात चूँकि पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री  कैप्टन अमरिंदर सिंह ने करवाई थी इसलिए कानून वापिस होते ही उनके प्रभाव वाले पंजाब के 32 संगठनों ने बोरिया-बिस्तर समेटने की तैयारी कर ली। उससे घबराई टिकैत एंड कम्पनी ने मुक़दमे वापिस लेने और मृतकों के परिजनों को मुआवजे के ऐलान तक रुकने की अपील की जिसके संकेत सरकार संदेशों के जरिये दे ही चुकी थी। संयुक्त किसान  मोर्चे ने लखीमपुर खीरी कांड के आरोपी के पिता केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री को हटाये जाने का जो दबाव बनाया था उसे भी केंद्र सरकार ने कोई भाव नहीं  दिया। इसी तरह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानूनी गारंटी दिए बिना आंदोलन खत्म न करने वाली जिद भी पूरी नहीं हुई। प्रधानमंत्री ने इस हेतु समिति बनाने की घोषणा की जिस पर संयुक्त किसान मोर्चे ने इस शर्त पर सहमति दी कि उसमें केवल उनके मोर्चे के सदस्य रहेंगे लेकिन गत दिवस जिस पत्र के बाद आन्दोलन खत्म करने की घोषणा हुई उसमें साफ लिखा है कि राज्य सरकारों के अलावा अन्य किसान संगठनों के प्रतिनिधि और कृषि विशेषज्ञ भी उसमें होंगे। समिति निर्णय करने हेतु कितना समय लेगी और सरकार तथा किसान उसकी सिफारिशों को मान लेने बाध्य होंगे ये भी स्पष्ट नहीं है। ऐसे में  सोचने वाला मुद्दा है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीनों कानूनों के क्रियान्वयन  पर रोक लगा देने के बाद किसान नेता हठयोग का प्रदर्शन छोड़ आन्दोलन स्थगित करते हुए  सरकार के साथ सकारात्मक माहौल में बातचीत जारी रखते तब शायद वे इससे ज्यादा और जल्दी हासिल करने में सफल रहते। 700 से ज्यादा जिन किसानों की मौत आन्दोलन के दौरान बताई जा रही है उसके लिए सरकार से मुआवजा लेने की  मांग करने वाले किसान नेताओं को इस बात के लिए प्रायश्चियत करना चाहिए कि उनके द्वारा भावानाएं भड़काए जाने और धरना स्थल पर जरूरत से ज्यादा भीड़ जमा करने से हुई  बदइन्तजामी भी अनेक किसानों की जान ले बैठी। अब जबकि आन्दोलन औपचारिक तौर पर समाप्त हो गया है तब उसकी समीक्षा करने पर ये कहना गलत न होगा कि देश का किसान जहाँ एक साल पहले था वहीं आज भी खड़ा है और जो विजयोल्लास मनाया जा रहा है वह दरअसल राकेश टिकैत नुमा कुछ चेहरों के अहं की संतुष्टि बनकर रह गया। जैसा कि संयुक्त किसान मोर्चे के तमाम नेता स्वीकार कर रहे हैं कि असली मांग तो न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देने की थी। बाकी मांगें तो तात्कालिक तौर पर सामने आईं जिनका पूरा होना उतना कठिन नहीं था जितना  हल्ला मचाया गया। अनेक कृषि विशेषज्ञ भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि यदि किसान संगठन न्यूनतम समर्थन मूल्य पर इतनी लम्बी लड़ाई लड़कर सफलता हासिल करते तब शायद कृषि कानून लागू होने के बाद भी कारगर न हो पाते। लेकिन पंजाब में बिचौलियों के हाथ से कृषि उपज मंडियों का कारोबार छिन जाने के भय से कृषि कानूनों का विरोध शुरू हुआ। चूंकि राज्य के राजनेताओं को ये आढ़तिया आर्थिक मदद करते हैं इसलिए कांग्रेस और अकाली दल दोनों ने कानूनों के विरोध को प्रायोजित किया परन्तु  दिल्ली आने के बाद उसकी बागडोर राकेश टिकैत और योगेन्द्र यादव जैसों ने छीन ली। इसमें दो राय नहीं है कि पंजाब के गुरुद्वारे व्यवस्था अपने हाथ न लेते तब दिल्ली में धरना इतना लम्बा नहीं चलता। पंजाब-हरियाणा, उत्तराखंड, उ.प्र और राजस्थान के जो किसान धरना स्थल से जा रहे हैं उनसे आन्दोलन की उपलब्धि पूछने पर वे इधर-उधर देखने लगते हैं क्योंकि उनके पास उस प्रश्न का कोई जवाब नहीं है। इसी तरह श्री टिकैत अब कह रहे हैं कि उ.प्र के गन्ना किसानों के भुगतान और बिजली बिलों  की समस्या के लिए योगी सरकार से बात करेंगे। सवाल ये भी है कि इस आन्दोलन से दिल्ली के प्रवेश मार्ग पर अवरोध उत्पन्न होने के कारण प्रतिदिन लाखों लोगों को जो तकलीफ हुई और कारोबारियों को करोड़ों का नुकसान हुआ, उसकी भरपाई कौन करेगा? संयुक्त किसान मोर्चा को जीत का जश्न मनाने का पूरा अधिकार है लेकिन साथ ही उसको जनता और व्यापारियों से क्षमा याचना के साथ ही  पूरे देश से गणतंत्र दिवस पर लाल किले पर राष्ट्र ध्वज और स्वाधीनता के उत्सव के प्रतीक स्थल के अपमान के लिए खेद भी जताना चाहिए । केंद्र सरकार ने किसानों की मांगों के समक्ष झुकने की जो रणनीति अपनाई वह हालात से उत्पन्न मजबूरी थी या उसके पीछे कुछ और है ये तो बाद में पता चलेगा लेकिन इतना तो साफ़ है कि सरकार ने रणछोड़ दास की भूमिका का निर्वहन कर किसान नेताओं से बिना बात किये उनको धरना स्थल खाली करने राजी कर लिया। जहाँ तक न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात है तो उसके लिए बनी समिति कब और कितने समय में निर्णय तक पहुंचेगी इस बारे में कोई ठोस बात न होना ये साबित करता है कि कानून वापिस लिए जाते ही आन्दोलन अपना जोश खो चुका था। राकेश टिकैत यदि अब भी अड़े रहते तो बड़ी बात नहीं धरना स्थल पर केवल वे  और उनके साथी ही नजर आते।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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