Tuesday 21 December 2021

आरक्षण का असली लाभ तो नेताओं और उनके परिवारों को मिल रहा



 

म.प्र में पंचायत चुनाव ओबीसी आरक्षण के फेर में उलझा हुआ है | न्यायालयों में  याचिकाओं के  दौर के साथ राजनीतिक आरोप – प्रत्यारोप का अनवरत सिलसिला जारी है | कांग्रेस  आरोप लगा रही है कि भाजपा   ओबीसी विरोधी  है वहीं  भाजपा उसे इस बात के लिये  कठघरे में खड़ा कर रही है कि अदालत जाकर उसने चुनाव टलवाने की चाल चली | जहाँ तक बात न्यायपालिका की है तो उसे केवल इस बात से सरोकार है कि निर्वाचन प्रक्रिया कानून के दायरे के भीतर संचालित हो | इसी बीच म.प्र सरकार की मंशा पर चुनाव आयोग ने ओबीसी को छोड़कर बाकी सीटों के चुनाव करवाने की घोषणा कर दी  | वैसे भी चुनावों की अधिसूचना जारी होने के बाद उसे रद्द नहीं किया जाता |  ऐसे में  मप्र के पंचायत चुनाव दरअसल  उस दलदल में फंस गये हैं जिसे जाति कहा जाता है |  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद भी अन्य पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखते हैं किन्तु उन्हीं की पार्टी की नेता और पूर्व मुख्यमंत्री रहीं साध्वी उमाश्री भारती ने भी गत दिवस ओबीसी सीटों को छोड़कर शेष पर चुनाव करवाने के विरुद्ध मुख्यमंत्री को चेतावनी देते हुए कहा कि 70 फीसदी  आबादी को उपेक्षित नहीं किया जा सकता | उल्लेखनीय है सन्यास ग्रहण करने के बावजूद उमाश्री खुद को पिछड़े वर्ग की नेत्री के तौर पर ही पेश करने में तनिक भी संकोच नहीं करतीं | इस मुद्दे पर विधानसभा में कांग्रेस के स्थगन प्रस्ताव पर चर्चा होने वाली है जिसमें सत्ता और प्रतिपक्ष एक – दूसरे पर ओबीसी विरोधी होने का आरोप लगायेंगे , हंगामा होगा , स्थगन प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया जावेगा और  फिर विपक्ष नारे लगाते हुए सदन से बाहर निकलकर सरकार पर अलोकतांत्रिक होने का आरोप लगाएगा | ये पटकथा हमारे देश में रोजाना फ़िल्माई जाती है | सही बात ये है कि सभी पार्टियाँ  ओबीसी , अजा  और अजजा की हितचिन्तक न होकर केवल वोटों की लालची हैं  | वरना क्या कारण है कि स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती तक पहुंचने के बाद भी देश में  अगड़ा और पिछड़ा होने का आधार जाति ही बनी हुई है | अजा और अजजा को तो संविधान  बनते ही आरक्षण मिल गया था जबकि ओबीसी आरक्षण आया 1990 में | उसको लागू हुए भी तीन दशक बीत गये लेकिन आज भी ओबीसी वर्ग में आने वाली जातियों के पिछड़ेपन को दूर करने का लक्ष्य अधूरा है | इसका कारण ये है कि जिस तरह अजा और अजजा केवल मतदाता बनकर रह गये उसी तरह ओबीसी का आर्थिक उत्थान तो पृष्ठभूमि में चला गया और उसका राजनीतिक लाभ लेने की प्रवृत्ति हावी हो गयी | इस बारे में देखने वाली बात ये है कि  अजा , अजजा और ओबीसी को मिलने वाले आरक्षण से उस समुदाय के छोटे से तबके को तो  सरकारी नौकरी के अलावा और कुछ नहीं मिला | लेकिन उनके नेता बने लोगों का आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक उत्थान जरूर हो गया | यही वजह है कि जिस वर्ग को  आरक्षण रूपी लाभ  प्रदान किया गया वह समाज की मुख्यधारा में आने की बजाय और दूर होता जा रहा है | जिसका कारण इस वर्ग के  नेता हैं जो अजा , अजजा और ओबीसी के आर्थिक और सामाजिक उत्थान के बजाय अपने और अपने परिवार के सुख – समृद्धि और प्रभाव की वृद्धि में लिप्त हैं | इसी कारण ये सवाल स्वाभाविक रूप से उठता रहा है कि सात दशक के बाद भी  समाज का यह वर्ग वंचित क्यों बना  हुआ है ? उमाश्री , मायावती , मुलायम सिंह यादव , लालूप्रसाद  यादव , रामविलास पासवान , शिबू सोरेन आदि का नाम पूरे देश में जाना जाता है | इन सबके परिजनों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर इनके राजनीतिक प्रभाव का लाभ मिला | लेकिन जिस वर्ग के ये नेता  कहे जाते हैं उसकी जो  स्थिति है वह  देखने से लगता है कि उसे जानबूझकर कमजोर बनाकर रखा जा रहा है ताकि  उनका राजनीतिक दोहन किया जा सके | आरक्षण की प्रासंगिकता सरकारी नौकरियों के अलावा केवल चुनाव में ही है | इसीलिये इन  वर्गों में भी राजनीतिक आधार पर वर्ग भेद पैदा हो गया है | लेकिन   अजा , अजजा और ओबीसी समुदाय के सभी बड़े नेताओं का परिवार ही उनकी विरासत का हकदार बन गया है | यहाँ तक कि साध्वी होने के बावजूद उमाश्री जब मुख्यमंत्री बनीं तो उनके भाई और भतीजे राजनीतिक तौर पर ताकतवर होकर उभरे थे | उक्त सभी नेताओं के बेटी – बेटे , पत्नी , भाई और भतीजे ही उनकी राजनीतिक पूंजी के मालिक बन बैठे | ऐसे में जब वे वंचित वर्ग की आवाज उठाते हैं तब उसके पीछे  अपने महत्व को बनाये रखने की चिंता होती है | ये देश का दुर्भाग्य ही है कि 21 वीं सदी में भी जाति हमारी सोच पर हावी है | सैकड़ों साल से आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़े और प्रताड़ित रहे वर्ग को मुख्यधारा में लाने का विचार हमारे संविधान निर्माताओं की ईमानदार सोच का प्रमाण था | लेकिन धीरे – धीरे ऐसे नेता पैदा हो गये जिनके द्वारा  वंचित वर्ग का  भावनात्मक शोषण किया जाता रहा | जरूरत इस बात की थी कि अजा , अजजा और ओबीसी जातियों का नेतृत्व करने वाले नेता इस वर्ग में 100 फीसदी शिक्षा का लक्ष्य तय कर उस पर काम करते | लेकिन उनके अपने बेटे – बेटी तो शिक्षित हो जाते हैं परन्तु  उनका  समाज  अशिक्षित बना रहने से समय के साथ कदम मिलाकर चलने में असमर्थ बना हुआ है | पंचायत चुनाव को लेकर म.प्र में जो राजनीतिक रस्साकाशी  चल रही है उसका उद्देश्य अपना राजनीतिक स्वार्थ साधना ही है | राजनेताओं के मन में ये बात बैठ गई है कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग को बदहाली में ही रहने दिया जावे जिससे वे उनके इशारे पर नाचते रहें | ये सवाल इसलिए उठता है कि उक्त सभी नेताओं ने वंचित वर्ग के शैक्षणिक विकास हेतु कुछ भी नहीं किया | सरकारी नौकरी में अजा , अजजा और ओबीसी वर्ग के जो लोग  हैं उन्होंने भी जाति आधारित  संगठन  बना लिए हैं जबकि उम्मीद ये की जाती थी कि वे संकुचित सोच को त्यागेंगे  | कुल मिलाकर बात ये है कि अजा , अजजा और ओबीसी वर्ग का उत्थान राजनीतिक दांव – पेंच में उलझकर रह गया है | जब तक इस वर्ग के लोगों को वोट बैंक बनाकर रखा जायेगा तब तक इनका  उत्थान असम्भव है | इस बारे में मुस्लिम समुदाय का उदाहरण सामने है जिसके मत हासिल करने के लिए राजनीतिक दल धर्म निरपेक्षता का राग अलापते हुए उनका भयादोहन तो करते हैं किन्तु आज भी देश के अधिकांश मुसलमान यदि मुख्यधारा से अलग - थलग हैं तो उसका कारण उनमें शिक्षा का विकास  न होना है जिसकी वजह से वे राजनेताओं के शिकंजे में फंसे हुए हैं | पहले कांग्रेस ने उनका इस्तेमाल किया और अब लालू – मुलायम तथा ममता जैसे नेता उनका दोहन कर रहे हैं | आरक्षण नामक सुविधा हासिल करने के लिये नई – नई जातियां सामने आ रही हैं | इनमें वे भी हैं जो आर्थिक और सामाजिक तौर पर काफी अच्छी स्थिति में हैं | इसके पीछे  भी राजनीति ही है | उ.प्र के आगामी विधानसभा चुनाव का पूर्वानुमान इस बात पर ज्यादा लगाया जा रहा है कि कौन सी जाति किस पार्टी के साथ जायेगी | अजा और ओबीसी में शामिल जातियों के बीच भी राजनीति ने फूट पैदा कर दी है | यही वजह है कि सभी अजा मतदाता मायावती के साथ नहीं हैं | यही स्थिति ओबीसी की है जिनमें  यादव , निषाद , मौर्य , कुर्मी नामक जातियों के भी अलग नेता हैं जो अपनी राजनीतिक हैसियत बनाये रखने के लिए सौदेबाजी करने में नहीं शर्माते | चूँकि वंचित माने जाने वर्ग में शिक्षा का अभाव है इसलिए वे चंद नेताओं के पिछलग्गू बने रहते हैं | आरक्षण का उदेश्य  ऊंच - नीच का भेदभाव मिटाकर  सामाजिक समरसता की स्थापना करना था परन्तु हुआ उसका उल्टा जिससे  आज के भारत में जातिगत अलगाव और ईर्ष्या  अपने चरम पर है | इसे दूर करना बेहद जरूरी है लेकिन जिन नेताओं पर ये जिम्मेदारी है वे ही जाति को जिन्दा रखने पर आमादा हैं क्योंकि उनको देश  से ज्यादा अपनी  चिंता जो है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

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