Monday 13 December 2021

राष्ट्रीय आंदोलन के शोर में राज्यों में किसानों की समस्याएँ दबकर रह गईं



संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा एक साल से चलाया जा रहा आन्दोलन औपचारिक तौर पर समाप्ति के बाद दिल्ली से  किसानों के जत्थे वापिस लौटने लगे हैं | इनमें  सबसे ज्यादा पंजाब के किसान हैं | गत दिवस आयोजित  विदाई सभा में राकेश टिकैत ने कहा कि बीते एक साल में किसानों को आन्दोलन का प्रशिक्षण मिल गया है | अब वे और अन्य किसान नेता देश के विभिन्न राज्यों में जाकर किसानों को आन्दोलन के तौर – तरीके सिखाएंगे | प्रति वर्ष आन्दोलन मेला लगाकर देश भर के किसानों को एकत्र कर उनमें सम्पर्क और एकता बनाये रखने का प्रयास भी होगा | श्री टिकैत के अनुसार मोर्चा हर माह अपनी बैठक कर भावी  रणनीति तय करेगा | लेकिन वे ये बताने से बचे कि उ.प्र , उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा चुनाव में किसान संगठन किसका समर्थन करेंगे , जबकि मोर्चे के प्रमुख नेताओं में से एक भारतीय किसान यूनियन के गुरनाम सिंह चढूनी ने पंजाब में किसान उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर दिया है | इसी के साथ ही पंजाब के कुछ किसान संगठनों ने अपनी मांगों को लेकर रेल रोकने का प्रयास भी किया | दिल्ली से लौटने के पहले ही पंजाब के किसान संगठनों ने राज्य सरकार को चेतावनी दे डाली कि वह पांच साल पहले किये गये वायदे के अनुसार किसानों के कर्जे माफ करें | उल्लेखनीय है 2017 के चुनावी  घोषणापत्र में कांग्रेस ने किसानों से कर्ज माफी का वायदा किया था | संयुक्त किसान मोर्चे के आन्दोलन में शामिल  40  संगठनों में से 32 पंजाब के थे | ये बात भी निकलकर आई है कि श्री टिकैत द्वारा आन्दोलन जारी रखने के सुझाव का पंजाब के संगठनों ने विरोध करते हुए दिल्ली से डेरा उठाने का दबाव बना दिया |  जबकि श्री टिकैत को लग रहा था कि कि जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुद्दे पर वे सरकार को झुकाना चाहते थे वह तो अभी भी उलझा रह गया | चूँकि पंजाब और हरियाणा के किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का भरपूर लाभ पहले से ही प्राप्त होता रहा है इसलिए उनमें  लड़ाई जारी रखने में रूचि नहीं थी | उनको ये भी लग रहा था कि राज्य सरकार से उनकी लम्बित मांगों को पूरा करवाने के लिए समय बहुत कम बचा है क्योंकि जनवरी में विधानसभा चुनाव के लिए आचार संहिता लग जायेगी | पंजाब से आ रहे संकेतों के अनुसार कांग्रेस सरकार की वापिसी की सम्भावना दिन ब दिन धूमिल होती जा रही है | किसान संगठनों को लग रहा है कि यही मौका है दबाव बनाकर कर्ज माफ़ करवाने का | ऐसी स्थिति में यदि श्री चढूनी की मंशानुसार किसानों के उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे तब श्री टिकैत और संयुक्त किसान मोर्चे के बाकी नेता उनका प्रचार करने आयेंगे या नहीं ये बड़ा सवाल है | उल्लेखनीय है अपने प्रभाव क्षेत्र पश्चिमी उ.प्र में किसानों का समर्थन किसे दिया जावेगा ये खुलासा भी  श्री टिकैत नहीं कर पा रहे हैं | ये देखते हुए किसान आन्दोलन अघोषित  बिखराव की और बढ़ रहा है | संयुक्त किसान मोर्चे के नेताओं को इस बात की खुन्नस है कि उनकी मेहनत पर श्री टिकैत महानायक बन बैठे | आन्दोलन  के दौरान और खत्म होने के ठीक पहले योगेन्द्र यादव द्वारा की गई टिप्पणी से ये साफ़ हो गया कि श्रेय लूटने के लिए हुई खींचातानी आखिर में खटास पैदा कर गयी | वैसे भी आंदोलन का केंद्र दिल्ली बन जाने से उस पर जाटों का कब्ज़ा हो गया | खाप पंचायतों के जरिये श्री टिकैत ने उ.प्र और हरियाणा में जाटों का ध्रुवीकरण करने का जो दांव चला उससे भी पंजाब के किसान नेता अपने को ठगा महसूस करते रहे | अपने बयानों में श्री टिकैत ने उ.प्र के गन्ना किसानों के भुगतान और बिजली बिलों की बात तो उठाई लेकिन पंजाब के किसानों की  कर्ज माफी पर वे कुछ नहीं बोले | इसीलिये अब ये आशंका व्यक्त की जा रही है कि दिल्ली से लौटे पंजाब के किसान अब अपने राज्य में मोर्चा खोलेंगे जिसकी बानगी गत दिवस रेल रोके जाने के रूप में सामने आ गई | श्री टिकैत ने विभिन्न राज्यों में जाकर सरकार से चर्चा कर किसानों की मांगें पूरी करने की जो बात कही वह उतनी आसान नहीं  जितनी वे समझ रहे हैं | दिल्ली में तो सिख और जाट किसानों ने आन्दोलन को मजबूती दे दी | लेकिन अन्य राज्यों में संयुक्त किसान मोर्चा और श्री टिकैत  का कोई आभामंडल नहीं है | गौरतलब है कि मोर्चे में शरीक 40  में से 32 संगठन तो पंजाब के ही थे | श्री टिकैत के अपने संगठन को भी मिला लें तो पूरे देश से कुल सात – आठ ही इस आन्दोलन के साथ खड़े हुए दिखे | इनमें से भी कुछ ऐसे हैं जिनके नेताओं का अपने राज्य में धेले भर का असर नहीं है | ये सब देखते हुए  कहना गलत न होगा कि इस आन्दोलन के बाद अब विभिन्न राज्यों में किसानों के नाम पर नेतागिरी चमकाने के लिए नए – नए संगठन उभरेंगे जिनके नेता अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए किसानों का उपयोग करेंगे | खुद श्री टिकैत के मन में चुनाव जीतने की लालसा है जो दो बार लड़कर अपनी जमानत जप्त करवा चुके हैं | इस आन्दोलन में राजनीतिक दलों को दूर रखने का प्रयास किया जाता रहा लेकिन राज्य स्तर पर किसान संगठन गैर राजनीतिक नहीं रह सकेंगे | पंजाब की भी जो 32 जत्थेबंदी आन्दोलन की असली ताकत बनीं वे भी  तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह द्वारा प्रायोजित थीं और तीन कानून वापिस होते ही पंजाब के किसानों के वापिस लौटने के फैसले के पीछे भी अमरिन्दर ही थे | इसी तरह पश्चिमी उ.प्र के जाट किसानों को दिल्ली में बिठाए रखने में सपा के अखिलेश यादव और रालोद के जयंत चौधरी का स्वार्थ था क्योंकि उन्हें इस बात का भय है कि आन्दोलन शांत होते ही जाट समुदाय के बीच भाजपा अपनी पैठ फिर बना लेगी | दिल्ली से लौटते हुए किसानों के चेहरों पर जीत की जो खुशी थी वह घर लौटते ही गायब हो जायेगी क्योंकि वहां जाते ही उनको ये एहसास होगा कि उनकी जो स्थानीय समस्या है उस पर तो संयुक्त किसान मोर्चा पूरी तरह उदासीन रहा |  तीनों कानूनों की वापिसी के बाद केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में समिति तो बना दी किन्तु वह कब तक निर्णय करेगी ये निश्चित नहीं है | जिन राज्यों में सरकारी खरीद होती है उनके किसानों को इसकी ज्यादा चिंता नहीं है | उनकी प्राथमिकता बिजली के बिल और कर्ज जैसे मुद्दे हैं | चूँकि संयुक्त किसान मोर्चा तीन कानूनों में उलझ गया इसलिए किसानों की बाकी मांगें उपेक्षित रह गईं | यही कारण है कि पंजाब के किसान संगठन  दिल्ली से लौटने की जल्दबाजी में थे | अब सवाल ये है कि कर्जमाफी सहित  उनकी मांगों के समर्थन में क्या श्री टिकैत और मोर्चे के बाकी नेता पंजाब सरकार के विरोध में रेल रोको और टोल नाकों पर कब्जे का समर्थन करने आयेंगे ? इसी तरह क्या पंजाब की 32 जत्थेबंदियां उ.प्र के गन्ना किसानों के बकाया भुगतानों के लिए लड़ने जायेंगी ? इस तरह के सवाल और भी हैं | श्री टिकैत गत दिवस कह रहे थे कि इस आन्दोलन पर शोध होंगे क्योंकि यह अपनी तरह का अनूठा प्रयोग था जिसमें एक साल तक किसान धरने पर बैठा  रहा | उनकी बात बिल्कुल सच है किन्तु इस शोध में ये बात भी उभरकर आयेगी कि आन्दोलन से किसानों की एक भी समस्या  स्थायी रूप से हल नहीं हुई | बिजली बिल और गन्ना के भुगतान की समस्या पूरी तरह राज्यों से सम्बंधित है | इसी तरह कर्ज माफी के पंजाब कांग्रेस के घोषणापत्र से हरियाणा और राजस्थान के किसान उदासीन हैं | देश के सभी राज्यों में तो अनाज की सरकारी खरीद तक नहीं होती | किसानों की कर्ज माफी की मांग भी राष्ट्रीय आन्दोलन का मुद्दा नहीं बन सकी |  श्री टिकैत का ये कहना यदि सही भी है कि एक वर्ष चले धरने  में किसानों को आन्दोलन का प्रशिक्षण मिल गया किन्तु उसी के साथ ये भी सही है कि इस दौरान  स्थानीय समस्याओं को केन्द्रीकृत करने में संयुक्त किसान मोर्चा असफल रहा क्योंकि उसका ध्यान एक ही मुद्दे पर जाकर ठहर गया | इसीलिये राष्ट्रीय स्तर पर जो छोटा और मध्यम श्रेणी का किसान है उसे इस आन्दोलन की  सफलता अथवा विफलता में कोई रूचि नहीं रही | चूंकि हमारे देश में अधिकतर जनांदोलनों की परिणिति चुनाव और सत्ता पाने के रूप में होती है इसलिए इस आन्दोलन का भविष्य भी फरवरी  में होने वाले उ.प्र , उत्तराखंड और पंजाब के चुनाव परिणामों के बाद तय होगा |

- रवीन्द्र वाजपेयी


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