Wednesday 29 December 2021

अंग्रेजों ने हिन्दू – मुस्लिम में बाँटा अब नेता जातियों में बाँट रहे हैं



 म.प्र के पंचायत चुनाव कानूनी विवाद के चलते रद्द हो गये | ओबीसी आरक्षण के प्रतिशत को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक चली  कानूनी लड़ाई अनिर्णीत रहने के कारण उत्पन्न पेचीदगियों के चलते चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद रद्द करनी पड़ी | राज्य सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इस बात के पुख्ता प्रमाण  देने हैं कि म.प्र में ओबीसी आबादी और उसकी आर्थिक – सामाजिक स्थिति उसे 27 फीसदी आरक्षण देने का औचित्य साबित करने के लिए पर्याप्त है | इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय से समय मांगकर ओबीसी की गणना करवाए जाने की व्यवस्था भी की जा रही है | हालाँकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री उमाश्री भारती द्वारा सार्वजानिक तौर पर ओबीसी की जो जनसँख्या इशारों – इशारों में बताई गई वह तो 50 प्रतिशत से भी ज्यादा है | ऐसे में जाति आधारित जनगणना किये जाने के बाद यदि यह वर्ग 27 फीसदी से भी  ज्यादा आरक्षण मांगने लगे तब सरकार क्या करेगी ये सोचने वाली बात है | उल्लेखनीय है केंद्र सरकार तमाम दबावों के बाद भी जातिगत जनगणना करवाए जाने के लिए राजी नहीं है | सर्वोच्च न्यायालय इस प्रकरण में क्या फैसला करता है और उसके बाद पंचायत चुनाव का  क्या स्वरूप होगा इसके लिए अब कुछ महीनों तक प्रतीक्षा करनी होगी | चुनाव रद्द होने को लेकर भी राजनीतिक पैंतरेबाजी चल पड़ी है | कांग्रेस और भाजपा दोनों इसे अपने – अपने नजरिये से  देखते हुए खुद को ओबीसी हितैषी साबित करने के लिए वाक्युद्ध कर रहे हैं | लेकिन इससे अलग हटकर देखें तो प्रदेश में ओबीसी की आबादी का प्रतिशत उतना बड़ा मुद्दा नहीं है जितना ये कि क्या वाकई चुनाव में आरक्षण  देने मात्र से पिछड़ी जातियों का उत्थान हो जाएगा ? पंचायत और स्थानीय निकायों में अनु. जाति और जनजाति के अलावा ओबीसी के लिए आरक्षण काफी समय से चला  आ रहा है | ग्राम  , जनपद और  जिला पंचायत के अतिरिक्त नगर पालिका और निगमों में भी सदस्य , पार्षद , अध्यक्ष और महापौर आदि के पद उक्त वर्गों के लिए आरक्षित किये जाते रहे हैं | लेकिन उसका जैसा फायदा अपेक्षित था वह कहीं नजर नहीं आता | उलटे उसके नुकसान सबके सामने हैं | इसका कारण ये है कि चुनावी आरक्षण से इन वर्गों का उत्थान होना होता तो सत्तर साल बाद भी इसकी जरूरत न रहती | सरकारी नौकरियों की  मौजूदा और भावी दशा को देखते हुए ये माना जा रहा है कि आरक्षण रूपी रेवड़ी की मिठास बहुत लंबे समय तक कायम नहीं रखी जा सकेगी | सरकारी उद्यमों के विनिवेश , निजीकरण और निगमीकरण की वजह से आरक्षण अब नौकरी की गारंटी भी नहीं रह गया है | ले देकर चुनाव ही बच रहता है जिसमें आरक्षण नामक व्यवस्था कायम है और रहेगी | लेकिन इससे क्या हासिल हुआ और भविष्य में क्या होगा इस पर विचार नहीं किया गया तब आरक्षण नामक सुरक्षा के बावजूद भी अनु. जाति और जनजाति के साथ ही  ओबीसी समुदाय की शैक्षणिक , आर्थिक  और सामाजिक स्थिति में किसी सुधार की उम्मीद करना  व्यर्थ है जिसकी वजह है वंचित वर्गों के भीतर उत्पन्न वर्गभेद | भले ही इस बात को हवा में उड़ा दिया जाता हो किन्तु आरक्षण की बैसाखी का सहारा लेकर प्रगति कर गया वर्ग अपने ही समाज में अगड़े –  पिछड़े की  स्थिति बनाने में जुट गया है | सरकारी नौकरी अथवा राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त आरक्षित वर्ग के लोग अपने समाज के उत्थान की बजाय अपने परिवार का भविष्य संवारने में लगे हुए हैं | इसी कारण सर्वोच्च न्यायालय तक को क्रीमी लेयर जैसी बात कहनी पड़ी | लेकिन दिक्कत ये है कि आरक्षित वर्ग का नेतृत्व जिन लोगों के हाथ में है वे इस सुविधा को पात्र लोगों तक पहुँचने में बाधक बने हुए हैं | सरकारी नौकरियों में बैठे बड़े साहब और  राजनीति के माध्यम से सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बन चुके आरक्षित वर्ग के लोगों का अपने ही समाज के वंचित वर्ग के सर्वागींण विकास में क्या और कितना योगदान है , ये गहन विश्लेषण और अध्ययन का विषय है | यही वजह है कि दलितों में महा दलित और पिछड़ों में भी अति पिछड़े जैसे वर्ग उभरने लगे जिसकी वजह से आरक्षण का भी बंटवारा होने लगा | निश्चित तौर पर इसके पीछे राजनेताओं की चालाकी है लेकिन जिस सामाजिक भेदभाव को मिटाने के लिए आरक्षण नामक व्यवस्था की गई थी वह नए स्वरूप में सामने आ गया | वरना क्या कारण है कि बहुजन समाज का नेतृत्व करने निकलीं मायावती के साथ जाटव भले जुड़े हों  लेकिन बाकी दलित जातियां छिटकती जा रही हैं | यही हाल लालू और मुलायम के बाद उनके बेटों का हो गया जो यादवों के मुखिया बनकर मुस्लिम समुदाय के साथ मिलकर एम - वाई  समीकरण के बल पर राजनीति कर रहे हैं | उ.प्र के वर्तमान चुनाव में राजभर , निषाद , मौर्य , कुर्मी और इन जैसी अनेक पिछड़ी जातियों के नेताओं ने सौदेबाजी के लिए अपनी पार्टियाँ बना ली हैं | इसके पीछे भी किसी जाति विशेष के प्रभुत्व से खुद को आजाद करने की लालसा है |  बहुजन समाज और ओबीसी जैसे शब्द सही मायनों में अब केवल कागज पर रह गये हैं |  जाति के भीतर उपजाति का जो नया दौर चल पड़ा है उससे तो लगता है भविष्य में आरक्षण नामक व्यवस्था में भी बंटवारे का झगड़ा मचेगा | ये देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सबका विकास नामक जो नारा दिया गया उसको सही अर्थों में लागू करने का समय आ गया है | जिस तरह मुफ्त अनाज के वितरण के साथ ही आयुष्मान योजना , वृद्धावस्था और निराश्रित पेंशन , उज्ज्वला योजना आदि में जाति की बजाय आर्थिक आधार पर पात्रता तय की जाती है उसी तरह अब आरक्षण को भी मौजूदा ढांचे से निकालकर व्यवहारिक रूप दिया जाना चाहिए जिससे कि आर्थिक दृष्टि से कमजोर हर व्यक्ति या वर्ग के विकास का उद्देश्य पूरा हो सके | इस सुझाव को आरक्षण विरोधी कहा जा सकता है किन्तु मौजूदा स्वरूप में आरक्षण को जारी रखना लकीर का फ़कीर बने रहना होगा | ये सवाल केवल म.प्र के पंचायत चुनाव को लेकर पैदा हुए विवाद  तक सीमित न रहकर राष्ट्रीय स्तर पर विचार योग्य बन गया है | इस बारे में ये कहना भले ही कड़वा लगे लेकिन जिस तरह अंग्रेजों ने जाते – जाते भारत में हिन्दू और मुस्लिमों के बीच खाई पैदा की वही गलती हमारे राजनेता समाज को जातियों और उप जातियों में बाँटकर कर रहे हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


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