Wednesday 30 June 2021

एक वर्ग को राहत दूसरे की आफत न बने



दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने पंजाब की जनता को आश्वासन दिया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में  आम आदमी पार्टी को बहुमत मिला तब हर परिवार को 300 यूनिट तक बिजली मुफ्त दिए जाने के साथ ही पुराने बिल माफ़ होंगे | दिल्ली में इसी फॉर्मूले को आजमाकर  आम आदमी पार्टी ने  परचम लहरा दिया था |  2018 में कांग्रेस ने भी पंजाब , मप्र और छत्तीसगढ़ में किसानों के 2 लाख रु. तक के  कर्जे माफ़ करने का वायदा करते हुए चुनावी  सफलता हासिल की | कमलनाथ सरकार ने मप्र में  100 रु. में 100 यूनिट तक बिजली देने का इंतजाम किया था | मप्र में स्व. अर्जुन सिंह गरीबों को एक बत्ती कनेक्शन निःशुल्क देकर गरीबों  के मसीहा बन बैठे थे | दक्षिण भारत विशेष रूप से तमिलनाडु में तो चुनाव के दौरान लगता है जैसे  मुकाबला राजनीतिक दलों की बजाय उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करने वालों के बीच हो रहा हो | धीरे - धीरे ये चलन हर राज्य में बढ़ता गया |  हालाँकि मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य के अलावा लड्कियों को सायकिल , गरीबों को सस्ता राशन जैसी योजनाएं लोक कल्याणकारी शासन  के प्राथमिक दायित्वों में आती हैं लेकिन इसके साथ ये  भी देखा जाना चाहिए कि उनका सरकार के खजाने पर क्या असर होता है | दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने  बिजली - पानी , शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए जो योजनायें प्रारम्भ कीं उनकी सफलता का सबसे बड़ा कारण दिल्ली  सरकार के पास आने वाले राजस्व की मात्रा है | उद्योग और व्यापार के अलावा हजारों कंपनियों के मुख्यालय दिल्ली में होने से राज्य सरकार को कर के रूप में जबरदस्त आय होती है | भौगोलिक क्षेत्र भी महानगर तक ही सीमित है | ऐसे में जो काम वहां की सरकार करने में सक्षम है वैसा बड़े राज्य नहीं कर सकते | उदहारण के लिए मप्र का विद्युत् मंडल एक ज़माने में देश  का सबसे सम्पन्न मंडल हुआ करता था | अर्जुन सिंह जी द्वारा बांटे गये एक बत्ती कनेक्शन की आड़ में बिजली चोरी की जो संस्कृति शुरू हुई उसने मंडल का भट्टा बिठा दिया | ये बात केवल मप्र तक ही सीमित नहीं रही अपितु  देश के सबसे  समृद्ध राज्य  कहे जाने वाले महाराष्ट्र और  पंजाब तक आर्थिक बदहाली के कगार पर आ गये | कोरोना काल में गरीबों को दिए गये मुफ्त राशन की योजना का उद्देश्य निश्चित रूप से बड़ा पवित्र था किन्तु वही राशन किराना दुकानों को बेचे जाने की खबरें भी आती रहीं | केजरीवाल जी या उन जैसे बाकी नेता  मुफ्त उपहार योजना के जरिये चुनावी सफलता तो हासिल कर लेते हैं  लेकिन सरकार का आर्थिक प्रबंधन गड़बड़ा जाता है |  सबसे बड़ी बात ये है कि राजनेताओं की ये  दरियादिली समाज के बाकी वर्गों पर बोझ बन जाती है | एक वर्ग को सस्ती बिजली देने के बाद शेष उपभोक्ताओं को दी जाने वाली बिजली के दाम लगातार बढाते जाना एक तरह की ठगी है | गत दिवस मप्र सरकार के एक मंत्री ने स्वीकारा कि किसानों को विभिन्न योजनाओं में 93 प्रतिशत तक सब्सिडी दी जाती है | बोझ ज्यादा हो जाने के बाद अब उसमें कमी  किये जाने की बात मंत्रीमंडल के भीतर से ही उठ रही है लेकिन किसानों की नाराजगी मोल लेने की हिम्मत किसी में नहीं है | सवाल ये है कि ईमानदारी से  कर देने वालों पर बोझ बढाकर  वोटों का इंतजाम क्या न्यायसंगत है | ये बात सही है कि  कल्याणकारी योजनायें  करों अथवा शुल्कों से ही संचालित होती हैं | लेकिन इनका उपयोग युक्तियुक्तपूर्ण होना चाहिए | इनसे यदि समाज में वर्गभेद और ईर्ष्या बढ़े तब इनका मूल उद्देश्य ही जाता रहता है | भारतीय सामज  में परोपकार बतौर संस्कार  है | कोरोना काल में गरीब और वंचित वर्ग की मदद करने के लिए व्यक्तिगत और संस्थागत दोनों स्तरों पर सराहनीय कार्य हुए | लेकिन सरकार जो कल्याणकारी योजनायें चलाती है उनके पीछे राजनीतिक स्वार्थ होता है इसलिए वह लाभान्वितों के अलावा बाकी लोगों को नाराज करती है | अर्थव्यवस्था जिस संकट से गुजर रही है उसमें राहत की जरूरत उद्योगपति , व्यापारी , नौकरीपेशा , किसान , मजदूर से लेकर बेरोजगार युवाओं तक को है | इसलिए श्री केजरीवाल सहित अन्य सत्ताधीशों को चाहिये कि वे सरकारी कृपा की बरसात समाज के सभी वर्गों पर न्यायोचित तरीके से करें और ऐसा करते समय ये भी देखा जावे कि इससे प्रदेश और देश की आर्थिक सेहत पर क्या असर पडेगा ? कोरोना काल  में राजनेताओं और राजनीतिक दलों द्वारा कितने परोपकारी प्रकल्प  चलाये गये इन पर भी एक श्वेत पत्र आ जाए तो उनकी दानशीलता का भांडा फूटते देर नहीं  लगेगी | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 29 June 2021

आसमान में मंडराते मशीनी शत्रु नए खतरे का संकेत



पौराणिक प्रसंगों में मायावी युद्ध के अनेक प्रसंग मिलते हैं जिनमें हमलावर नजर आये बिना जोरदार आक्रमण करता था | महाभारत में भी  भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच द्वारा मायावी युद्ध से कौरव सेना में हाहाकार मचाने का वर्णन है  | बीते तीन दिनों से जम्मू सेक्टर में  स्थित सैन्य ठिकानों पर ड्रोन  से हमले की कोशिशों ने सैन्य बलों की चिंत्ता बढ़ा दी है | पहले ड्रोन ने वायुसेना के एक अड्डे पर विस्फोटक गिराए जिससे एक भवन को क्षति पहुंचने के साथ ही कुछ सैनिक घायल हुए | गत दिवस फिर एक ड्रोन दिखा  और आज भी ऐसी ही खबर है | अभी तक इस यंत्र का उपयोग जासूसी के लिये होता रहा | चूंकि यह  मानव रहित होता है इसलिए पायलट के शत्रुओं के हाथ पड़ने की सम्भावना नहीं होती | इसे दूर से भी नियंत्रित किया जा सकता है | आम तौर पर किसी सार्वजानिक कार्यक्रम में  फोटोग्राफी अथवा शरारती तत्वों की  पतासाजी हेतु ड्रोन का उपयोग देखा गया है | लेकिन सैन्य उद्देश्य से काम लाये जाने वाले ड्रोन 100 किमी तक भेजे जा सकते हैं | इनके जरिये सीमित मात्र में विस्फोटक  गिराने की सुविधा भी  है | बहुत नीचे उड़ने की वजह से ये रडार की निगाह से बच जाता है | हालाँकि इसकी विस्फोटक ढोने की क्षमता लड़ाकू विमान से  बहुत कम होती है लेकिन बेहद  सस्ता होने से शत्रु को छकाने के लिए उपयोगी है | पहले ड्रोन हमले के फौरन बाद सुरक्षा बलों ने जो घेराबंदी की उसकी वजह से कुछ  आतंकवादी पकड में आये हैं जिनके पास बड़ी मात्रा में विस्फोटक बरामद हुआ | एनकाउन्टर की भी खबर है | ये सब तब शुरू हुआ जब प्रधानमंत्री द्वारा जम्मू - कश्मीर में विधानसभा चुनाव करवाने को लेकर बीते सप्ताह राज्य के विभिन्न दलों की बैठक दिल्ली में आयोजित की गयी थी | इसी के साथ ऐसा लगने लगा था कि आतंकवाद ढलान पर है किन्तु ड्रोन हमले  ने नई शैली का  संकट  उत्पन्न कर दिया हैं | माना जा रहा है कि ये  ड्रोन चीन में निर्मित हैं और उनका संचालन सीमा के उस पार से पाकिस्तान द्वारा किया जा रहा है | वैसे एक शंका स्थानीय आतंकवादियों की बारे में भी है | लेकिन सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि शत्रु के युद्धक विमान का पता लगाने वाली रडार प्रणाली तो हमारे पास है लेकिन कम ऊँचाई पर उडकर सीमा पार करने में सक्षम ड्रोन का पता लगाने वाला रडार नहीं होने से चीन और पाकिस्तान दोनों अब इस तकनीकी  छापामार का उपयोग कर सकेंगे | खबर है कि सरकार ने इजरायल से ड्रोन का पता लगाने में सक्षम रडार की आपातकालीन आपूर्ति हेतु संपर्क साधा है | दूसरी तरफ ये भी जानकारी  है कि अमेरिका सहित अन्य विकसित देश युद्ध में उपयोग किये जाने वाले ड्रोन तैयार करने में जुट गये हैं क्योंकि ये सस्ते और  मानवरहित होने के कारण कम नुकसानदेह हैं | भारत के लिए ये वाकई खतरे की घंटी है क्योंकि ड्रोन के जरिये पाकिस्तान युद्धविराम होने के बावजूद सैन्य ठिकानों को निशाना बना रहा  है |  ऐसे में वह चीन की मदद से इस तरह के छद्म युद्ध का सहारा ले सकता है क्योंकि  उसे एक बात समझ आ चुकी है कि सैनिक  ठिकानों पर आतंकवादियों के जरिये हमले करवाने का परिणाम बालाकोट जैसी सर्जिकल स्ट्राइक हो सकती है | इसलिए वह ऐसे हमले  करने की तैयारी में है जिसमें उसका हाथ होने की बात को साबित करना संभव न हो सके | बहरहाल हमारी सुरक्षा एजेंसियां किसी भी स्थिति से निपटने के प्रति सतर्क भी हैं और सक्षम भी किन्तु  हमें अपनी प्रतिरक्षा मजबूत करने के साथ ही  आक्रामकता भी बढ़ानी होगी | कश्मीर में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की बहाली के प्रयासों से पाकिस्तान के साथ ही चीन के पेट में भी मरोड़ होने लगा है |  ये भी सही है कि धारा 370 हटने और केंद्र शासित राज्य बनने के बाद से घाटी में आतंकवाद का जोर कम हुआ है | हाल ही में एक पुलिस कर्मी की आतंकवादियों द्वारा हत्या किये जाने के बाद उसके जनाजे में जिस बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए वह घाटी की बदलती फिजा का संकेत है लेकिन इससे निश्चिन्त होकर बैठ जाना आत्मघाती होगा | अब तक तो गोली का जवाब गोले से देने की हुंकार सुनाई देती थी परन्तु अब देखने वाली बात ये होगी कि ड्रोन का जवाब काहे से दिया जाता है ?

-रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 28 June 2021

दीपिका को भी क्रिकेटरों जैसी प्रशंसा मिलनी चाहिए



भारत में क्रिकेट को जितना महत्व मिलता है उतना ही  दूसरे खेलों को मिले तो ओलम्पिक  में भी हमारा स्थान पहले पांच में न सही किन्तु दस अग्रणी देशों में आना बड़ी बात नहीं होगी | लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि समाचार माध्यमों के अलावा प्रायोजकों की रूचि भी क्रिकेट में ही ज्यादा रहती है | हालाँकि बीते कुछ सालों में टेनिस , बैडमिन्टन , फ़ुटबाल और कबड्डी जैसे खेलों को भी समर्थन मिलने लगा है लेकिन अब भी क्रिकेट ही सब खेलों का सरताज है | हाल ही में विश्व टेस्ट चैम्पियनशिप में भारत न्यूजीलैंड से हार गया | टीवी चैनलों ने उस हार पर चर्चा में ही लम्बा समय खर्च कर  दिया | लेकिन बीते दिन  तीरंदाजी विश्वकप  में दीपिका कुमारी नामक झारखंड की तीरंदाज द्वारा एक ही दिन में तीन स्वर्णपदक  जीते जाने को वह प्रचार नहीं मिला जो अपेक्षित था | खेल प्रेमियों ने सोशल मीडिया के माध्यम से इस पर अपना गुस्सा व्यक्त भी किया जो जायज है | सवाल ये है कि व्यक्तिगत खेल प्रतिस्पर्धा में देश का नाम रोशन करने वाले खिलाडियों को क्रिकेटरों जैसा मान - सम्मान और प्रशंसा क्यों नहीं मिलती ? भारत का क्रिकेट नियन्त्रण मंडल ( बीसीसीआई ) दुनिया भर के खेल संगठनों में सबसे ज्यादा पैसे वाला है | आईपीएल के कारण बोर्ड की कमाई भी आसमान छूने लगी | इसमें कुछ भी बुरा नहीं है | क्रिकेट में भारतीय खिलाड़ियों ने जो कौशल दिखाया उसकी वजह से ही एक दिवसीय और टी 20 के विश्व कप जीते जा सके | भारत की टेस्ट टीम भी दुनिया की श्रेष्ठतम टीम माने जाने लगी है | कीर्तिमान स्थापित करने में भी हमारे बल्लेबाज और गेंदबाज किसी से पीछे नहीं हैं | लेकिन अन्य खेलों का आकलन करें  तो भले ही  हॉकी पहले जैसी गौरवशाली स्थिति में नहीं रही लेकिन फुटबाल में अनेक विश्वस्तरीय खिलाड़ी हाल के वर्षों  में निकले जिन्हें यूरोप के प्रतिष्ठित क्लबों ने अनुबंधित भी किया | यही स्थिति बैडमिन्टन और टेनिस की है | निशानेबाजी , कुश्ती और मुक्केबाजी में भी भारत का प्रदर्शन निरन्तर सुधार पर है | तीरंदाजी में गत दिवस अर्जित उपलब्धि ताजा प्रमाण है | मुक्केबाजी में मैरीकाम नामक पूर्वोत्तर राज्य की  बेहद साधनहीन महिला द्वारा अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में पांच स्वर्ण पदक जीतने के बाद भी उनको वह सब हासिल नहीं हो सका जो आईपीएल के एक सीजन में चमकने के बाद किसी क्रिकेटर को  हो जाता है | हाल ही में दिवंगत उड़न सिख के नाम से विख्यात धावक मिल्खा सिंह को भारत सरकार द्वारा केवल पद्म श्री से ही अलंकृत किया गया था जबकि क्रिकेट के न जाने कितने खिलाडियों को उनसे ज्यादा सम्मान मिला | दीपिका कुमारी की ताजा उपलब्धि निश्चित तौर पर गौरवान्वित करने वाली है | एक ही दिन में तीन स्वर्ण पदक अपनी झोली में डालकर उसने अपना कौशल तो दिखाया ही किन्तु उनके इस शानदार प्रदर्शन से हर खेल प्रेमी उल्लासित हुआ | अच्छा होता यदि दीपिका और उन जैसा प्रदर्शन करने वाले बाकी खिलाडियों को भी उसी तरह सिर माथे पर बिठाया जावे जिस तरह एक शतक लगाने या चार - पांच विकेट लेने वाले को बिठाया जाता है | सरकार को भी खेलों और खिलाड़ियों के प्रति अपनी नीति में इस तरह का सुधार करना चाहिये  जिससे खेल का अर्थ केवल क्रिकेट न रह जावे | यद्यपि स्थिति में पूर्वापेक्षा काफी सुधार हुआ है जिसकी वजह से झारखंड और पूर्वोत्तर राज्यों से अनेक नवोदित खिलाड़ी  अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं | लेकिन यदि सरकार और औद्योगिक घराने मिलकर नए खिलाड़ियों को और  अधिक प्रोत्साहन  दें तो आने वाले कुछ सालों के भीतर ही अन्य खेलों का आकर्षण भी बढ़ेगा | दीपिका कुमारी के पहले भी अनेक खिलाड़ी इस तरह की स्पर्धाओं में भारत का मान - सम्मान स्थापित कर चुके हैं लेकिन उनको वह सितारानुमा लोकप्रियता नहीं मिल पाई जिसके वे हक़दार थे | वैसे ये अच्छा संकेत है कि समाज ऐसे खिलाड़ियों के प्रति अपना लगाव व्यक्त  करने में कंजूसी नहीं करता | उम्मीद की जा सकती है कि दीपिका की कामयाबी से प्रेरित होकर बाकी खिलाड़ी भी आगामी टोक्यो ओलम्पिक में ज्यादा से ज्यादा पदक जीतकर देशवासियों को आनंदित होने के अनेक अवसर प्रदान  करेंगे |

- रवीन्द्र वाजपेयी

 

 

Saturday 26 June 2021

परिसीमन के जरिये कश्मीर घाटी का प्रभुत्व घटाने का दांव



दो दिन पहले प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के आमंत्रण पर जम्मू - कश्मीर की विभिन्न पार्टियों के नेताओं की जो बैठक दिल्ली में हुई उसमें केंद्र सरकार ने न तो धारा 370 हटाने संबंधी आश्वासन दिया और न  लद्दाख को दोबारा जम्मू  - कश्मीर में मिलाने का | फारुख और उमर अब्दुल्ला दोनों ने बाद में ये कहा भी कि 370 पर सर्वोच्च न्यायालय का जो भी फैसला होगा वे उसे मान्य करेंगे | महबूबा मुफ्ती ने जरूर तीखे तेवर दिखलाये लेकिन  किसी का समर्थन नहीं मिलने से वे अलग  - थलग पड़ गईं | विशेष तौर से  पाकिस्तान से बात करने  संबंधी उनके बयान का किसी ने भी संज्ञान नहीं लिया | बिना किसी पूर्व निर्धारित  विषय सूची के हुई उक्त बैठक में केंद्र ने विधानसभा चुनाव के पूर्व सीटों के परिसीमन की जरूरत बताते हुए पूर्ण राज्य का दर्जा उसके बाद देने की बात कही | जबकि फारुख , उमर और महबूबा का कहना था कि दोबारा जब पूरे देश में परिसीमन की प्रक्रिया शुरू हो तब जम्मू - कश्मीर को भी उसमें  शरीक किया जावे | जवाब में  केंद्र का कहना था कि अतीत में भी विशेष स्थिति का फायदा उठाकर परिसीमन टाला जाता रहा जिससे कि घाटी में जम्मू अंचल से ज्यादा सीटें  होने से राजनीतिक असंतुलन बना रहा | इसे धार्मिक चश्मे से भी  देखा जाता है क्योंकि घाटी में मुस्लिम जनसँख्या 95 फीसदी से ज्यादा है जबकि जम्मू में हिन्दू और सिख बहुमत में हैं | प्रस्तावित परिसीमन में जम्मू क्षेत्र में सात सीटें बढ़नी हैं जिसे लेकर नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी परेशान हैं | गृह मंत्री अमित शाह ने सरकार की तरफ से कहा कि स्थितियां पूर्णतः सामान्य होने पर  जम्मू - कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने सरकार प्रतिबद्ध है किन्तु परिसीमन प्रक्रिया रोकने पर उन्होंने कोई आश्वासन नहीं दिया | इसी तरह से लद्दाख  और धारा 370 की वापिसी पर  किसी भी तरह  के आश्वासन से भी सरकार बचती रही | उस दृष्टि से देखें तो घाटी के नेता खाली हाथ आये थे और वैसे ही लौटे भी | चुनाव करवाने और पूर्ण राज्य का दर्जा देने के पहले नई सीटों के लिए परिसीमन  का पेंच फंसाकर केंद्र ने बैठक में उन छोटे दलों को सम्मोहित कर लिया जो घाटी में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के एकाधिकार के बीच अपनी जगह बनाने प्रयासरत हैं |  उनको ये समझ आ चुका है कि न 370 बहाल होगी और न ही लद्दाख वापिस मिलेगा | नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी की तरह अपना मुख्यमंत्री बनाने की चाहत भी छोटी पार्टियों में नहीं है | इसलिए वे इस बात से ही खुश हैं कि  चुनाव होने से उनकी भी हैसियत में कुछ वृद्धि तो हो ही जायेगी | बैठक में कांग्रेस के प्रतिनिधि के तौर पर पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद जरूर मौजूद रहे लेकिन घाटी की सियासत में उनका विशेष महत्व नहीं बचा  है | हालाँकि उन्होंने 370 और  पूर्ण राज्य का दर्जा जैसे मुद्दों पर तो अब्दुल्ला और मुफ्ती का समर्थन किया किन्तु उनकी बातों में  प्रधानमंत्री के प्रति जो प्रशंसा भाव दिखा वह काबिले गौर था | उस वजह से भी  केंद्र सरकार को काफी बल मिला |  बहरहाल बैठक का अंत जिस खुशनुमा माहौल में हुआ वह भी बेहद महत्वपूर्ण है | बैठक के बाद उमर ने 370 पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला मानने की बात कहकर ये संकेत दे दिया कि अलगाववादी ताकतों का जनाधार ढलान पर है | महबूबा ने जरूर ये रोना रोया कि घाटी  के लोग बदहाली से गुजर रहे हैं लेकिन बाकी नेता विधानसभा चुनाव कराए जाने के साथ ही पूर्ण राज्य का दर्जा लौटने की उम्मीद  से ही संतुष्ट दिखे |  बैठक के बाद दिल और दिल्ली की दूरी घटाने जैसे प्रधानमंत्री के ट्वीट पर कश्मीरी नेताओं का ये कहना कि एक बैठक से ये नहीं होगा , इस बात के प्रति आश्वस्त करने वाला रहा कि वे बातचीत के लिए लालायित हैं जबकि कुछ समय पहले तक  घाटी से एक ही आवाज सुनाई देती थी कि 370 और लद्दाख की वापिसी के बिना केंद्र से कोई बातचीत नहीं होगी | जाहिर है परिसीमन के काम  में समय लगेगा और तब तक  केंद्र का शासन वहां बना रहेगा | इस बैठक के माध्यम से केंद्र सरकार ने घाटी के नेताओं की ताकत और एकता दोनों का आकलन कर लिया जिससे आगे की रणनीति तय करने में उसे सहायता मिलेगी | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 24 June 2021

अब्दुल्ला और मुफ्ती नहीं माने तो उनका सियासी अस्तित्व मिट जाएगा



आखिरकार कश्मीर के नेताओं को ये समझ में आ ही गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निमंत्रण को ठुकराना राजनीतिक तौर पर आत्मघाती कदम होगा। हाल ही में जब जम्मू - कश्मीर के राजनीतिक दलों को वार्ता हेतु श्री मोदी का न्यौता मिला तो शुरुवात में तो कुछ प्रतिरोध देखने मिला। मेहबूबा मुफ्ती ने तो साफ तौर पर प्रधानमंत्री के साथ बैठने तक से इंकार करते हुए कह दिया कि कश्मीरी पार्टियों के गठबंधन गुपकार की ओर से नेशनल  कांफ्रेंस  नेता डॉ.फारुख अब्दुल्ला ही सबका प्रतिनिधित्व करेंगे। ऐसा कहकर उनने दरअसल फारुख के सिर पर ठीकरा फोड़ने की चाल चली थी क्योंकि उनको भी पता है कि धारा 370 की बहाली नामुमकिन है और बैठक से खाली हाथ लौटने पर जनता के बीच  डॉ.अब्दुल्ला की किरकिरी होगी। लेकिन फारुख ने भी स्थिति को भांपकर कहा कि श्री मोदी ने चूंकि विभिन्न राजनीतिक दलों को प्रथक तौर पर निमंत्रित किया है इसलिए सबको अपने दल की नुमाइंदगी करनी चाहिये। कांग्रेस पहले ही इसके लिए तैयार थी और भाजपा के लिए प्रधानमंत्री का बुलावा एक तरह का  निर्देश था। ऐसे में अब्दुल्ला बाप - बेटे के अलावा जब छोटे - छोटे दल भी तैयार हो गए तब मेहबूबा के दिमाग की खिड़कियां खुलीं और उन्होंने सरकार से बातचीत के लिए सदैव रजामंद होने के साथ ही ये भी कह दिया कि  पाकिस्तान से भी बात करनी चाहिए। ऐसा कहने का मकसद अलगाववादी तबके को ये सन्देश देना था कि वे केंद्र सरकार के सामने झुकने तैयार नहीं हैं। लेकिन उनकी उस मांग को कोई विशेष समर्थन नहीं मिला। अंततः वे गत दिवस ही दिल्ली पहुंच गई थीं। जम्मू अंचल के कुछ छोटे दलों ने जरूर इस बात पर ऐतराज जताया  है कि घाटी की तुलना में उनको ज्यादा महत्व नहीं दिया गया । बीती शाम कांग्रेस ने भी कश्मीरी पंडितों को नहीं बुलाने पर सवाल उठाये। बावजूद इसके फारुख और उमर अब्दुल्ला के अलावा गुलाम नबी आजाद और महबूबा मुफ्ती के शामिल होने से बैठक  बुलाने को राजनीतिक तौर पर मान्यता मिल जाएगी ।  उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री ने केवल जम्मू - कश्मीर के नेताओं को बुलाया किन्तु लद्दाख के नहीं जिस पर उंगलियां भी उठीं लेकिन केंद्र सरकार ने जो वजनदारी दिखाई उसके कारण बिना किसी घोषित एजेंडे के भी बैठक होने जा रही है। दरअसल लद्दाख को बैठक से अलग रखकर  संकेत दे दिया गया कि केंद्र सरकार राज्य के विभाजन और 370 की बहाली जैसे विषयों पर न तो बात करेगी और न  सुनेगी। कहा जा रहा है जम्मू - कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने पर भी कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया जावेगा। केंद्र सरकार राज्य की विकास योजनाओं की जानकारी के अलावा विधानसभा चुनाव सम्बन्धी चर्चा कर राय जानेगी। कुछ समय पूर्व पंचायत चुनाव सफलतापूर्वकन होने से उसका हौसला ऊंचा है। गर्मियों में जम्मू - कश्मीर में रिकॉर्ड तोड़ पर्यटको का  आना भी उम्मीदें बढ़ाने वाला है। आतंकवादी घटनाओं के अलावा सीमापार से घुसपैठ भी घटी और तकरीबन समूची घाटी में कानून - व्यवस्था की स्थिति संतोषप्रद है । केंद्र ने इस बैठक के जरिये घाटी के नेताओं को बुरी तरह फंसा लिया है। यदि वे नहीं आते तो ये प्रचार होगा कि वे बातचीत से भाग रहे हैं। इसी तरह 370 हटाये और राज्य के विभाजन को खत्म किये बिना विधानसभा चुनाव  करवाने पर सहमति देने के बाद  घाटी के नेताओं के हाथ और बंध जाएंगे। इस प्रकार केंद्र ने सोच - समझकर ये दांव खेला है । यदि जम्मू - कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने पर केंद्र सहमत हो भी जाये तब  भी लद्दाख को वापिस जम्मू  कश्मीर से जोड़ने और 370 हटाने पर वह कदम पीछे नहीं हटा सकती क्योंकि वैसा करने से जितना उसने कमाया नहीं उससे ज्यादा गंवा बैठेगी। इस प्रकार इस बैठक में शामिल होने के लिए सहमत हो जाना ही ये स्पष्ट कर देता है कि घाटी के नेताओं में अब लड़ने की ताकत नहीं बची और इसका कारण  विकास के काम हैं । आशातीत पर्यटकों के आने से भी अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार को ये लगने लगा है कि जनता ने उनके बहकावे में आना छोड़ दिया है । ये भी चर्चा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने बीते कुछ महीनों में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के विरुद्ध छोटे दलों को खड़ा करते हुए उनके दिमाग में ये बात बिठा दी कि उक्त दो पार्टियों द्वारा कश्मीर घाटी को  अपनी जागीर बना रखा था । लेकिन मोदी सरकार ने एक झटके में उनकी जागीरदारी खत्म कर दी। पंचायत चुनाव में छोटी पार्टियों के अलावा बड़ी संख्या में निर्दलीयों के जीतने से भी अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार कमजोर हो गए। उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने अत्यंत धैर्य और साहस का परिचय देते हए घाटी में नए हालातों के  प्रति स्वीकार्यता उत्पन्न की। आतंवादियों द्वारा नौजवानों की भर्ती और प्रशिक्षण बन्द पड़ा है। हिंसा पर नियंत्रण हुआ और सबसे बड़ी बात ये हुई कि विकास के कामों में तेजी से घाटी के लोगों को ये लगने लगा कि केंद्र की नीयत और नीतियां पूरी तरह राज्य की भलाई के लिए हैं। बैठक का क्या नतीजा होता है ये अंदाज लगाना कठिन है । यदि बातचीत सफल होती है तब भी केंद्र की स्थिति सुदृढ होगी और यदि अब्दुल्ला - मुफ्ती एन्ड कम्पनी अड़ियलपन दिखाती है तब  भी लाभ की स्थिति में प्रधानमंत्री ही रहेंगे क्योंकि तब राज्यपाल शासन जारी रहने का रास्ता साफ होता जाएगा। कुल मिलाकर आज की बैठक इस दृष्टि से तो मायने रखती ही है कि धारा 370 हटने और लद्दाख को अलग कर जम्मू - कश्मीर को केंद्र शासित बना देने जैसा साहसिक फैसले को न मानने वाले भी अकड़ खो बैठे हैं । प्रधानमंत्री ने बहुत सोच - समझकर जो कदम उठाया उसके कारण घाटी के स्थापित छत्रपों से न थूकते बना और न निगलते।  यदि अब्दुल्ला और मुफ्ती समझदारी दिखाते हुए अतीत को भुलाकर नई स्थिति को स्वीकार करें तो उनका वजूद कुछ हद तक कायम रहेगा वरना वे बचा - खुचा असर भी गंवा बैठेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 23 June 2021

कैप्टन और बल्लेबाज के झगड़े में टीम का कबाड़ा



एक जमाने में जो स्थिति समाजवादी कुनबे की हुआ करती थी वही आज कांग्रेस की हो गई है। ताजा उदाहरण पंजाब का है। 2017 के विधानसभा चुनाव में नशे के मुद्दे पर बदनाम हो चुकी अकाली - भाजपा सरकार को हटाकर जनता ने कांग्रेस को चुना था । कैप्टन अमरिन्दर सिंह मुख्यमंत्री बन गए। चुनाव के पहले वे  सांसद थे किंतु गांधी परिवार के न चाहते हुए भी दबाव बनाकर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बन बैठे। कहते हैं उन्होंने धमकी दे दी थी कि वे भाजपा में चले जायेंगे। इसी बीच 2014 में अमृतसर से लोकसभा टिकिट कटने पर भाजपा से नाराज चल रहे नवजोत सिंह सिद्धू ने राहुल गांधी के मार्फ़त कांग्रेस में प्रवेश कर किया। हालांकि उन्हें राज्यसभा में मनोनीत कर दिया गया था लेकिन वे मोदी सरकार में मंत्री बनने की चाहत रखते थे। जब उनको लगा कि   ज्यादा भाव नहीं मिल रहा तो पहले वे आम आदमी पार्टी की चौखट पर गए लेकिन मुख्यमंत्री का चेहरा बनाये जाने की शर्त पूरी न होने पर अंततः कांग्रेस में आ गए और जिन राहुल का पप्पू कहकर उपहास करते थे उन्हीं का अभिनंदन पत्र पढ़ने लग गए । उधर अमरिंदर चतुर राजनीतिज्ञ होने से समझ गए कि भारतीय क्रिकेट टीम का पूर्व सलामी बल्लेबाज निचले क्रम पर बल्लेबाजी करने राजी नहीं होगा। लिहाजा उन्होंने चुनाव के दौरान ही राहुल से ये घोषणा करवा ली कि बहुमत मिलने पर मुख्यमंत्री वही होंगे। और यहीं से सिद्धू का मन खट्टा हो गया। कांग्रेस की सत्ता आई और वे मंत्री भी बने लेकिन कैप्टन की कप्तानी उनको हजम नहीं हो रही थी सो 2019 में कुर्सी छोड़ बैठे और टीवी शो सहित अन्य गतिविधियों में व्यस्त हो गए किन्तु राजनीति का कीड़ा उनको काटता रहा और ज्योंही अगले विधानसभा  चुनाव की डुगडुगी बजना शुरू हुई तो वे बल्ला घुमाते मैदान में नजर आने लगे । बीच में उनकी पत्नी और पूर्व भाजपा विधायक नवजोत कौर ने बयान दे दिया कि भाजपा अगर अकालियों से नाता तोड़ ले तो उसमें वापिसी के बारे में सोचा जा सकता है। कृषि कानूनों को लेकर अकाली - भाजपा अलग भी हो गए लेकिन सिद्ध के बड़बोलेपन के चलते भाजपा ने उनसे दूर रहना ही बेहतर समझा। जब उनको लगा कि कांग्रेस में रहना मजबूरी है तो अमरिंदर सिंह के विरुद्ध नए सिरे से मोर्चा खोल बैठे। कांग्रेस  हाईकमान के पास शिकायतों का पुलिन्दा भेज दिया गया। अमरिंदर पर बादल परिवार के प्रति नरमी का आरोप भी  मढ़ा ।मुख्यमंत्री से नाराज कुछ मंत्री और विधायक भी सिद्धू की टीम में शामिल हो गए। जब   आलाकमान को लगा कि इस गृहकलह से अगला चुनाव हाथ से निकल जायेगा तब उसने कुछ नेताओं की समिति बनाकर कैप्टन को बातचीत के लिए बुलाया। उद्देश्य विवाद को खत्म करना था किंतु न कैप्टन झुकने राजी हुए न सिद्धू। गत दिवस अमरिन्दर फिर समिति के सामने पेश हुए और बार - बार बुलाये जाने पर गुस्सा व्यक्त करते हए साफ कह दिया कि वे नवजोत को न उपमुख्यमंत्री बनाएंगे न प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर स्वीकारेंगे। सिद्धू के आरोपों पर सफाई देने के साथ ही मुख्यमंत्री ने उनकी बेलगाम जुबान पर लगाम लगाने की मांग भी कर डाली। सुना तो ये भी गया है कि उन्होंने समिति को संकेत दे  दिया है कि यदि सिद्धू को उनके सिर पर लादने की कोशिश हुई तो वे कांग्रेस को तोड़कर अलग पार्टी बना लेंगे । पंजाब के ग्रामीण और नगरीय निकाय चुनावों में कांग्रेस ने अकालियों को जबरदस्त शिकस्त दी जबकि भाजपा का तो सूपड़ा ही साफ हो गया। किसान आन्दोलन की चिंगारी को शोला बनाने में भी अमरिंदर सिंह की भूमिका सर्वविदित है । यद्यपि उस मुद्दे पर अकाली केंद्र सरकार और भाजपा से अलग भी हो गए और प्रकाश सिंह बादल ने पद्मभूषण भी लौटा दिया लेकिन  आंदोलन को दिल्ली भेजने में अमरिंदर की रणनीतिक सोच कारगर रही जिससे उनका आत्मविश्वास और मजबूत हुआ जबकि सिद्धू इस मामले में फिसड्डी साबित हुए। ऐसे में अमरिंदर का ऐंठना स्वाभाविक है। उल्लेखनीय है 1984 में दिल्ली के सिख विरोधी  दंगों से नाराज कैप्टन  कांग्रेस छोड़ अकाली दल में चले गए थे तथा बादल सरकार में मंत्री भी बने। गांधी परिवार उस बात को नहीं भूला । नवजोत को कांग्रेस में प्रवेश दिलवाते समय राहुल के मन में अमरिंदर को।कमजोर करना था किंतु सिद्धू वही गलती कर वैठे जो दो - चार चौके - छक्के मारने के बाद अति - आत्मविश्वास का शिकार  बल्लेबाज बाहर जाती गेंद को छेड़कर कर बैठता है। निश्चित तौर पर वे काफी लोकप्रिय शख्सियत हैं। अच्छे वक्ता होने से प्रभाव भी छोड़ते हैं लेकिन राजनीति में जिस गम्भीरता और गहराई की आवश्यकता होती है उसका अभाव उनकी सभी खूबियों पर भारी पड़ जाता है । अमरिन्दर मंत्रीमंडल से हटने के बाद वे सामाजिक मुद्दों पर जनता के बीच जाते तब शायद उनकी अच्छी पकड़ बन जाती किन्तु बतौर विधायक अपने मतदाताओं तक से उनका सम्पर्क टूटा हुआ है । लेकिन इस लड़ाई में कांग्रेस विशेष रूप से गांधी परिवार के सामने इधर कुआ तो उधर खाई वाली स्थिति बन गई है। सिद्धू में धैर्य नहीं है और अमरिंदर एक नए - नवेले नेता के समक्ष सिर झुकाना शान के खिलाफ समझते हैं ।  वे सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष या उपमुख्यमंत्री तो दूर विधानसभा टिकिट तक देने को राजी नहीं है और उनकी बयानबाजी पर अनुशासन की कार्रवाई करने का दबाव बना रहे हैं। कांग्रेस से वही गलती पंजाब में भी होती दिख रही है जो मप्र में करने के बाद राजस्थान में उसकी पुनरावृत्ति को रोक पाने में वह असमर्थ है। उप्र में जितिन प्रसाद के जाने के बाद कुछ और नेताओं के खिसकने की खबर है। शरद पवार ने विपक्ष की बड़ी बैठक की लेकिन उसे  बुलाने की जरूरत तक नहीं समझी।  पंजाब कांग्रेस की साख बचाने के लिए जरूरी है। हालांकि अकाली दल भी अच्छी स्थिति में नहीं है और भाजपा उससे अलग होकर अस्तित्व के लिए परेशान है किंतु आम आदमी पार्टी इस शून्य को भर सकती है। अब यदि अमरिन्दर और सिद्धू  इसी तरह तलवारें तानते घूमते रहे तब कांग्रेस से हाथ से सत्ता  निकल सकती है। यदि कैप्टन कांग्रेस छोड़कर  नया दल बनाते हैं तब पंजाब त्रिशंकु की स्थिति में फंस जाएगा। कांग्रेस हाईकमान किसी तरह अमरिंदर को लचीला होने और सिद्धू को जुबान पर काबू रखने मना भी ले किन्तु दोनों के मन में भरी खटास कम नहीं हो सकती क्योंकि   कैप्टन को लगता है सिद्धू उनको चैन से रहने नहीं देंगे । वहीं नवजोत को लगता है अमरिंदर की कप्तानी में वे खुलकर शॉट नहीं लगा सकेंगे। रही कांग्रेस हाईकमान की बात तो मैदान में खड़े उसके अंपायरों को हर निर्णय के पहले गांधी परिवार नामक तीसरे अंपायर से पूछना पड़ता है जो निर्णय देने के बारे में पूरी तरह लापरवाह है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 22 June 2021

पवार कोई काम किसी और के फायदे के लिए नहीं करते




चुनाव रणनीतिकार के रूप में सफलता अर्जित कर चुके प्रशान्त किशोर अब राजनीतिक गठबंधन बनाने के काम में भी जुट गए हैं। बीते एक पखवाड़े में उन्होंने राकांपा नेता शरद पवार से दो बार मुलाकात कर 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए तीसरी ताकत के तौर पर राष्ट्र मंच  नामक मोर्चे को खड़ा करने की कोशिश तेज कर दी है। हालांकि ये मंच पूर्व भाजपा नेता यशवंत सिन्हा द्वारा 2018 में गठित किया गया था जो बंगाल विधानसभा चुनाव के पहले तृणमूल में शामिल हो गए थे। जैसे कि संकेत हैं प्रशांत ये कवायद ममता बैनर्जी की पहल पर कर रहे हैं , जो आगामी लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के विरुद्ध विपक्ष का चेहरा बनने की महत्वाकांक्षा पाल बैठी हैं। हालिया सफलता ने उनके हौसले को और मजबूत किया है। सर्वविदित है कि बंगाल में मुकाबला मोदी विरुद्ध ममता बन गया था।  उनकी धमाकेदार जीत से गैर कांग्रेसी विपक्ष को भी उनमें सम्भावनाएँ नजर आने लगीं । कुछ समय पहले तक दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल  को श्री मोदी के मुकाबले खड़ा करने की चर्चा होती थी किन्तु दिल्ली की स्थिति महानगर की होने से वे उस दौड़ से बाहर हो गए। बाकी गैर कांग्रेस विपक्षी नेताओं में शरद पवार ही हैं लेकिन आयु और स्वास्थ्य उनके आड़े आ जाता है। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है तो राहुल गांधी चूंकि अपनी पार्टी ही नहीं सम्भाल पा रहे इसलिये उनको लेकर शेष विपक्ष में ज्यादा उम्मीदें नहीं बचीं।  उप्र और बिहार के बाद बंगाल में भी कांग्रेस का जिस तरह सूपड़ा साफ हुआ उसके कारण उनके प्रति निराशा का भाव प्रबल होता जा  रहा है । कांग्रेस से कुछ युवा चेहरों के बाहर आने से भी श्री गांधी की छवि कमजोर नेता की बनती जा रही है। 2019 में अमेठी सीट हारने के बाद उनकी चमक उतर गई । यद्यपि केरल से लोकसभा सीट जीतने पर वे वहां सक्रिय जरूर  हुए किन्तु अप्रैल में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सत्ता से दूर रह गई जबकि उन्होंने वहां पूरी ताकत लगाई थी। इसीलिए कांग्रेस को दरकिनार करते हुए बाकी विपक्ष अब सुश्री बैनर्जी पर दांव लगाने सोच सकता है। विधानसभा चुनाव के दौरान एक पैर में चोट लगने से व्हील चेयर पर प्रचार करते हुए उन्होंने श्री मोदी को चुनौती देते हुए कहा भी था कि एक पांव से बंगाल और दोनों पांवों से दिल्ली जीतूंगी। दरअसल बंगाल चुनाव के दौरान कांग्रेस और वामपंथियों को छोड़कर अन्य विपक्षी नेता ममता के समर्थन में कूद पड़े थे । माना जाता है इसकी शुरुवात श्री पवार द्वारा की गई थी जिसे अन्य दलों ने भी समर्थन दिया । कहा जा रहा है प्रशांत को ममता ने ही श्री पवार के पास भेजा है क्योंकि वे ही ऐसे नेता हैं जिनका संपर्क और सम्मान सभी विपक्षी दलों में है। यहां तक कि वे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अमित शाह के भी करीबी हैं । कुछ समय पहले ही गुजरात में अचानक उनकी श्री शाह से हुई मुलाकात ने हड़कम्प मचा दिया था। लेकिन प्रशान्त से हुई भेंट के बाद श्री पवार ने भाजपा विरोधी विपक्षी नेताओं की जो बैठक बुलाई उससे ये साफ हो रहा है कि वे कांग्रेस को एक बार फिर झटका देने के मूड में हैं । ये भी चर्चा है कि ममता के मन में राष्ट्रीय राजनीति में कूदने की चाहत यशवंत सिन्हा ने ही जगाई जो श्री मोदी से जबरदस्त खुन्नस पाल बैठे हैं। यद्यपि उनके पुत्र जयंत अब भी हजारीबाग से भाजपा के लोकसभा सदस्य हैं। बीते काफी समय से श्री सिन्हा मोदी विरोधी मुहिम चला रहे थे लेकिन कोई तवज्जो नहीं मिलने से अंततः ममता को बैसाखी बनाकर आगे बढ़ने के लिए तैयारी करने लगे। लेकिन इस मुहिम में श्री पवार ने  आज जो आभासी बैठक बुलाई है उसमें फ़ारुख अब्दुल्ला को छोड़ कोई चर्चित चेहरा नहीं है। कहा तो ये जा रहा है कि राष्ट्र मंच गैर राजनीतिक है लेकिन श्री पवार के हर क़दम में  केवल और केवल राजनीति रहती है। जहां तक बात ममता को आगे करने की है तो वे कथित धर्म निरपेक्ष ताकतों का नया चेहरा बनकर उभरी हैं। बंगाल चुनाव में उन्होंने मुस्लिम मतों का जिस सफलता के साथ ध्रुवीकरण किया उसके बाद वे मुलायम सिंह  और लालू प्रसाद की तरह से ही अल्पसंख्यक समुदाय की चहेती कही जाने लगी हैं। उनकी आक्रामकता और महिला होना भी काफी मायने रखता है । लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या कांग्रेस के बगैर भी कोई विपक्षी मोर्चा आज के हालात में  श्री मोदी का विकल्प बन सकता है ? इस बारे में ये भी सोचने वाली बात है कि क्या सोनिया गांधी इतनी आसानी से अपने बेटे को प्रधानमंत्री की दौड़ से बाहर होने देंगी ?  ऐसे में तीसरे मोर्चे की संभावनाओं पर सवालिया निशान लगते रहेंगे। महाराष्ट्र में कांग्रेस द्वारा अगले चुनाव में अकेले लड़ने की घोषणा से उद्धव सरकार के बारे में अटकलें लगने लगी हैं। हो सकता है श्री पवार उसी का जवाब देने ये सब कर रहे हों। असलियत जो भी हो लेकिन कांग्रेस को छोड़कर बनने वाले विपक्षी गठबंधन से तो भाजपा को और लाभ होगा क्योंकि ममता की स्वीकार्यता राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बन सकेगी और उनकी मुस्लिम परस्त छवि हिंदुओं को एकमुश्त भाजपा के साथ जोड़ने का कारण बन सकती है। बंगाल में वे भले ही तीसरी बार सत्ता हासिल करने में कामयाब हो गईं किन्तु वहां भाजपा ने जो जड़ें जमाईं वे बेहद महत्वपूर्ण हैं । श्री पवार राष्ट्र मंच के संयोजक बनकर ममता को आगे कर भले दें लेकिन वह मंच मोदी विरोधी मतों के विभाजन का कारण बनेगा। और फिर श्री केजरीवाल के अलावा अखिलेश यादव  , मायावती , तेजस्वी , कैसी रेड्डी और वामपंथी दल सुश्री बैनर्जी के पीछे चलने राजी होंगे , इसमें संदेह है। बड़ी बात नहीं श्री पवार दोहरा खेल खेल रहे हों , जिसमें वे माहिर हैं । ये भी चर्चा है कि प्रधानमंत्री बनने की इच्छा अधूरी रह जाने के बाद अब वे राष्ट्रपति बनकर राजनीति से विश्राम लेना चाह रहे हैं । और उनकी इस इच्छा को मोदी -  शाह की जोड़ी ने और हवा दे दी है । वैसे भी श्री पवार अनिश्चितता और धोखेबाजी के पर्याय हैं। ऐसे में वे कब और किसकी टाँग खींच दें कहना कठिन है। सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ने और तोड़ने के बाद वे फिर।उन्हीं के साथ सियासी रिश्ता जोड़ बैठे। महाराष्ट्र में कांग्रेस को शिवसेना का दामन थामने राजी करना उनका ही कमाल था। उनके अगले निर्णय पर सभी की निगाहें लगी हैं । लेकिन याद रखने वाली बात ये है कि पवार साहब कोई भी काम किसी और के फायदे के लिए नहीं करते । प्रशांत किशोर कितने भी सफल रणनीतिकार हों लेकिन इस मराठा नेता के मन की थाह पाना उनके बस की बात नहीं है । 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Monday 21 June 2021

लापरवाही अपने और अपनों के लिए जानलेवा हो सकती है



आज अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस है | योग मूलतः एक व्यायाम है जिससे शरीर के साथ ही मन भी स्वस्थ रहता है | बीते एक वर्ष में पूरी दुनिया समझ गई  है कि भारतीय जीवन पद्धति बीमारियों से बचाने में सक्षम हैं | आम भारतीय चूँकि अपने दैनिक जीवन में परम्पराओं का काफी हद तक पालन करता है इसीलिये 135 करोड़ से भी ज्यादा की  जनसंख्या के बावजूद कोरोना की दूसरी लहर के दौरान  भी संक्रमित लोगों की संख्या साढ़े चार लाख से ज्यादा नहीं बढ़ सकी | ये भी अनुमान है करोड़ों लोग  संक्रमित होने के बाद भी बिना इलाज के ही ठीक हो गए | इसी तरह करोड़ों संक्रमित  घर पर ही उपचार लेकर स्वस्थ हुए | यही कारण है कि सरकारी  आंकड़ों में इनकी गिनती नहीं हो सकी | हालाँकि ये बात मौत की संख्या पर भी लागू होती है क्योंकि सरकारी दस्तावेज में जो कोरोना मरीज दर्ज नहीं हुए उनकी मौत को साधारण माना गया | लेकिन एक बात तो स्पष्ट हो ही गई कि भारतीय जनता की रोग प्रतिरोधक क्षमता औसत से बहुत अच्छी है , वरना झुग्गी - झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के बीच कोरोना महामारी का रूप ले सकता था | ऐसे में सवाल उठता है कि फिर दूसरी लहर में इतनी मौतें क्यों हुईं ? और इसका उत्तर ये है कि बीमारी चाहे मौसमी हो या संक्रामक वह मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता से टकराती है | इस टक्कर में जो भारी पड़ जाता है उसकी जीत होती है | देखने वाली बात ये है कि बीमारी के विषाणु जहां हर समय आक्रमण के लिए तत्पर रहते हैं वहीं मनुष्य बचाव के प्रति लापरवाह हो जाता है जो उसे महंगा पड़ता है | कोरोना की पहली लहर में आम जनता ने जिस अनुशासन का परिचय दिया उसी के कारण उस दौर में हमें  अमेरिका , ब्रिटेन , इटली और जर्मनी जैसे विकसित देशों की तुलना में  न्यूनतम जनहानि हुई और जल्द ही देश उस संकट से उबर गया |  टीके का उत्पादन भी उम्मीद के मुताबिक ही शुरू हो सका  | सबसे बड़ी उपलब्धि ये रही कि भारत अपना टीका विकसित करने में कामयाब हो सका | लेकिन इसके बाद जो अति आत्मविश्वास उत्पन्न हुआ उसका दुष्परिणाम ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना के फैलाव और बड़ी संख्या में हुई मौतों के तौर पर देखने मिला | जैसे - तैसे उस संकट से देश बाहर आने लगा है लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी  के बाद गत दिवस  एम्स दिल्ली के निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया ने  भी  आगाह कर दिया कि यदि कोरोना संबंधी अनुशासन का पालन नहीं किया गया तो तीसरी लहर महीने भर में ही आ धमकेगी और पूर्वापेक्षा ज्यादा घातक होगी | इससे बचाव के लिए ज्यादा से जयादा टीकाकरण तो जरूरी है ही किन्तु उनकी सीमित उपलब्धता के अलावा इतनी बड़ी आबादी का टीकाकरण हंसी खेल नहीं है | जैसी कि जानकारी है अब तक कुल 22.57 करोड़ लोगों को एक और 5.10 करोड़ को दोनों टीके लगाये जा सके हैं | इस प्रकार मात्र 2.80 फीसदी जनता को टीका रूपी कवच पूरी तरह से हासिल हो सका है | इसलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और डा. गुलेरिया ने जो चेतावनी दी है उसे गम्भीरता से लेने की सख्त जरूरत है | चिंता का विषय  है कि लॉक डाउन हटते ही मास्क के उपयोग और शारीरिक दूरी जैसी सावधानियों के प्रति घोर उपेक्षाभाव सर्वत्र  देखने मिल रहा है जिससे  तीसरी लहर की आशंका लगातार प्रबल होती जा रही है | ऐसे में  बुद्धिमत्ता इसी में है कि हम पहले से  सतर्क रहें जिससे संक्रमण रूपी शत्रु अचानक हमला नहीं कर सके | कोरोना के दो हमले झेलने के बाद हर किसी में दायित्वबोध  स्वाभाविक रूप से आ जाना चाहिए | इसके बाद भी जो लोग गैर जिम्मेदाराना रवैया रखते हैं तो ये कहना गलत न होगा कि उन्हें न अपनी चिंता है और न अपनों की |  

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 19 June 2021

केवल पद्मश्री से ही टरका दिए गये उड़न सिख




साठ के दशक में उड़न सिख के नाम से मशहूर हुए मिल्खा सिंह नहीं रहे |  91 वर्षीय मिल्खा आज की युवा पीढ़ी के लिए अनजान बने रहते यदि 2013 में उन पर  भाग मिल्खा भाग नामक फिल्म न बनती जिसमें  फरहान अख्तर ने उनके चरित्र को बहुत ही प्रभावशाली तरीके से निभाया था | 1960 के रोम ओलम्पिक में चौथे स्थान पर रहे मिल्खा चन्द सेकेण्ड से चूक गये वरना ओलम्पिक  पदक जीतने वाले पहले भारतीय धावक बन जाते | उसके बाद ही पूरे देश में वे दौड़ के पर्याय बन गए  | लेकिन उनको उड़न सिख की उपाधि किसी भारतीय ने नहीं बल्कि पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अयूब खान द्वारा दी गयी थी | ओलम्पिक पदक जीतने का गौरव वे भले ही हासिल न कर सके हों लेकिन एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों में मिल्खा ने अनेक स्वर्ण पदक जीतकर भारत का नाम रोशन किया | ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि स्वाधीनता के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हॉकी ही वह खेल था जिसमें भारत का दबदबा था लेकिन 1956 , 60 और 64 के ओलम्पिक खेलों के बाद एथलीट के क्षेत्र  में मिल्खा ने ही भारत को पहिचान दिलवाई | लेकिन उन्हें भारत सरकार द्वारा केवल पद्मश्री तक ही सीमित रखा  गया  | प्रश्न ये है कि क्या मिल्खा सिंह इससे और बड़े सम्मान के पात्र नहीं थे ? ये दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जावेगा कि साठ के दशक में विश्व स्तर के धावकों के समकक्ष माने जाने वाले मिल्खा को 2001 में अर्जुन पुरस्कार देने की घोषणा हुई जिसे उन्होंने ये कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि वह बहुत देर से दिया गया | उनकी पीड़ा अनुचित नहीं थी | 1960 के रोम ओलम्पिक में 400 मीटर दौड़ में सेकेण्ड के दसवें हिस्से के अंतर से पदक चूक जाने वाले  खिलाड़ी को अर्जुन पुरस्कार देने की सुध यदि हमारे देश के हुक्मरानों को चार दशक बाद आई तो वह सम्मान एक तरह की भीख जैसा ही था  जिसे ठुकराकर मिल्खा ने अपमे स्वाभिमानी होने का परिचय दिया | ऐसे और भी  उदाहरण  हैं जिनमें पद्म अलंकरण  और खेल पुरस्कारों के लिए  चयन करते समय प्रतिभा और वरिष्ठता को नजरअंदाज किया गया | राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार को लेकर इसीलिये हर वर्ष विवाद की स्थिति बनती है | मिल्खा को अंतर्राष्ट्रीय दौड़ प्रातियोगिताओं में 77 पदक मिले थे जो उनकी श्रेष्ठता का प्रमाण हैं | लेकिन उसके लिए उन्हें केवल पद्म श्री देकर टरका दिया गया जबकि सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट से सन्यास लेने के साथ ही भारत रत्न और राज्यसभा की सदस्यता से उपकृत करने की  दरियादिली दिखाई गयी | 2013 में तत्कालीन खेलमंत्री ने प्रधानमंत्री मनमोहन  सिंह  को भारत रत्न हेतु  हॉकी के जादूगर स्व. ध्यानचंद के नाम की सिफारिश भेजी लेकिन उसे रद्दी की टोकरी के हवाले करते हुए तेंदुलकर को देश का सर्वोच्च नागरिक  सम्मान दे दिया गया | यद्यपि सचिन के योगदान को नकारना तो गलत होगा लेकिन ध्यानचंद भारत रत्न के सबसे मजबूत दावेदार थे और हैं | इसी तरह मिल्खा सिंह एथलीट्स के क्षेत्र में आजाद भारत की युवा पीढ़ी के लिए सबसे बड़े प्रेरणास्रोत बने। लेकिन चालीस साल बाद उनको अर्जुन पुरस्कार के लिए चुना जाना  खेल और खिलाड़ियों के प्रति व्यवस्था की  घटिया सोच के  सबसे बड़े प्रमाणों में से है | इसका रंज उन्हें मरते दम तक रहा ,  जिसे उन्होंने ये कहते हुए व्यक्त किया था कि लन्दन  में भाग मिल्खा भाग फिल्म के प्रदर्शन के बाद उन्हें  संसद के उच्च सदन हॉउस ऑफ लॉर्ड्स में बुलाया गया था , लेकिन क्या हिन्दुस्तान की सरकार नहीं जानती कि मिल्खा कौन है ? उनके उस सवाल का जवाब देने की फुर्सत किसी के पास नहीं है क्योंकि राजनीति के खिलाड़ी असली खिलाड़ियों के हक पर डाका डालने में जुटे हुए हैं | विभिन्न खेल संगठनों पर नेताओं का कब्ज़ा इसका प्रमाण है |

उड़न सिख को विनम्र श्रद्धांजलि |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 18 June 2021

जांगिड़ के आरोप : बात निकली है तो फिर ....



हरियाणा के एक आईएएस अधिकारी अशोक खेमका को ईमानदारी के चलते अनगिनत स्थानान्तरण झेलने पड़े। विपक्ष में रहते हुए उनसे सहानुभूति रखने वाले भी सत्ता में आने के बाद उनके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं। कुछ लोगों का ये भी कहना है कि श्री खेमका जिद्दी और अड़ियल स्वभाव के होने के कारण न सिर्फ उच्च अधिकारियों वरन अपने सहकर्मियों से भी सामंजस्य नहीं बना पाते । देश के अन्य राज्यों से भी इस तरह के समाचार आया करते हैं जिनमें प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों  की सत्ता से टकराहट होने पर उनका आनन -  फानन में  तबादला कर दिया जाता है । जनप्रतिनिधियों से  नौकरशाहों की कहा -  सुनी का भी परिणाम स्थानांतरण की शक्ल में सामने आता है। लेकिन मप्र में एक नये तरह का मामला सामने  आया है। जिसमें एक आईएएस लोकेश कुमार जांगिड़ ने बड़वानी कलेक्टर शिवराज सिंह वर्मा पर  ये आरोप लगा दिया कि उन्होंने  ऑक्सीजन कंसंट्रेटर  खरीदने में घूसखोरी की। उसके बाद उनका बड़वानी से तबादला कर दिया गया। 2014 बैच के इस अधिकारी का ये आठवां स्थानांतरण है। प्राप्त जानकारी के अनुसार उनको एक स्थान पर औसतन छह माह ही रखा गया । उनके तबादलों की वजह उनका झगड़ालू स्वभाव है या फिर वे प्रशासनिक व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों को उजागर करने की सजा पाते हैं ये तो जांच से ही सामने आएगा । लेकिन इस युवा अधिकारी ने जिस दबंगी से अपने वरिष्ठ अधिकारी पर खुला आरोप लगाया  तो सरकार से ज्यादा आईएएस बिरादरी में हड़कम्प मच गया। दूसरा कोई कलेक्टर पर पैसा खाने की तोहमत लगाता तब शायद काले अंग्रेज कहे जाने साहब बहादुर उसे हवा में उड़ाकर रख देते किंतु यहां तो उनका अपना अधीनस्थ अधिकारी ही सार्वजनिक रूप से सीना ठोंककर जिले के सर्वोच्च अधिकारी को घूसखोर कहने का दुस्साहस कर बैठा। जिसकी सजा उसे एक और तबादले की शक्ल में मिली। इससे रुष्ट होकर श्री जांगिड़ ने महाराष्ट्र तबादला मांग लिया । साथ ही ये ऐलान भी कर दिया कि सेवा निवृत्ति उपरांत वे एक पुस्तक लिखकर प्रशासनिक सेवा के अनुभव लिखेंगे क्योंकि सड़ी हुई सेवा शर्तें फिलहाल इसकी अनुमति नहीं देतीं। जैसी जानकारी है , आईएएस अधिकारियों के संगठन में घर के भीतर हुई इस बगावत को दबाने की कोशिश के अलावा सरकार की ओर से  नोटिसबाजी भी हुई और श्री जांगिड़ को व्हॉट्स एप ग्रुप से अपनी पोस्ट हटाने कहा गया । लेकिन वे नहीं मान रहे। सामान्य प्रशासन विभाग की प्रमुख सचिव से हुई बात की रिकॉर्डिंग भी उन्होंने अन्य अधिकारियों को भेज दी। अपनी सफाई देने मुख्य सचिव से समय मांगने की उनकी कोशिश भी निष्फल रही। बहरहाल श्री जांगिड़ को बड़वानी से हटाकर भोपाल ले आया गया। हो सकता है महाराष्ट्र भेजे जाने की उनकी अर्जी मंजूर कर उनसे पिंड भी छुड़ा लिया जावे किन्तु उन्होंने कलेक्टर पर ऑक्सीजन कंसंट्रेटर ज्यादा दाम पर खरीदने और पैसा खाने का जो आरोप लगाया उसका क्या होगा ये बड़ा सवाल है। रोचक बात ये है कि अपने को हरिश्चंद्र साबित करने के फेर में बड़वानी कलेक्टर ने पड़ोसी जिलों के कलेक्टरों द्वारा उनसे भी ज्यादा कीमत पर उक्त उपकरण ख़रीदने का खुलासा कर दिया । हॉलांकि इस तरह उन्होंने अपने को पाक  - साफ दर्शाने का प्रयास किया लेकिन उनका ये दांव अप्रत्यक्ष तौर पर बाकी कलेक्टरों को लपेटने का औजार बन सकता है। इससे एक बात साबित है कि ऑक्सीजन कंसंट्रेटर की कीमतों में एकरूपता का अभाव रहा और हर कलेक्टर द्वारा अलग दामों पर खरीदी की गई। इस विवाद में नेताओं की बिरादरी दूर से मजे ले रही है । ऐसे अवसर कम ही आते हैं जब प्रशासन में बैठे साहब बहादुर एक दूसरे की इज्जत तार-तार करने पर आमादा हों । आम तौर पर ये देखने में आया है कि जब कोई आईएएस अफसर फंसता है तो उनकी पूरी जमात बचाव में खड़ी हो जाती है किंतु यहां तो एक अफसर ही दूसरे को भ्रष्ट बता रहा है। श्री जांगिड़ का तबादला करना सरकार का अधिकार है लेकिन उनके द्वारा अपने से वरिष्ठ जिला अधिकारी पर  सीधे - सीधे पैसे खाने का आरोप लगाए जाने के बाद मात्र तबादला करने से मामले का पटाक्षेप नहीं होने वाला। कलेक्टर श्री वर्मा ने अपने समकक्ष अन्य अधिकारियों पर ज्यादा दाम देकर ख़रीदी की जो बात कही वह भी जांच के दायरे में आनी चाहिए।  राज्य सरकार को इस मामले का गम्भीरता से संज्ञान लेते हुए श्री जांगिड़ के आरोप को अफसर बिरादरी के आंतरिक मामले से अलग कर देखना होगा क्योंकि राज्य में ऑक्सीजन कंसंट्रेटरों की खरीदी में  भ्रष्टाचार की आशंका इससे प्रबल हुई है। यदि सरकार ने इस प्रकरण से अपना पल्ला झाड़ा तो भ्रष्टाचार रूपी तक्षक उसके सिंहासन को भी डगमगाए बिना नहीं रहेगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 17 June 2021

उत्पादक और उपभोक्ता दोनों को मिले राहत तब सुधरेगी हालत



गत वर्ष  प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने जान है तो  जहान है का नारा देते हुए लॉक डाउन लगाये जाने  का औचित्य साबित करने का प्रयास किया था | बाद में लॉक डाउन खोलते समय उन्हीं प्रधानमन्त्री ने जान भी और जहान भी  का नारा दिया | इस वर्ष  लॉक डाउन में  आम तौर पर तो उद्योग - व्यापार ठप्प रहे लेकिन गत वर्ष जैसी सख्ती नहीं रही | निर्माण के साथ ही अनेक व्यवसायिक गतिविधियाँ चलते रहने से अर्थव्यवस्था में ठहराव   के बावजूद हालात उतने नहीं बिगड़े जितनी आशंका थी  | और इसीलिये  लॉक डाउन खुलते ही आर्थिक  गतिविधियाँ जोर पकड़ने लगीं | गत माह का जीएसटी संग्रह  आशातीत रहा और निर्यात भी गत वर्ष की तुलना में काफी बेहतर है | हालांकि बीते दो महीनों में अर्थव्यवस्था को  बड़ी चपत  लगने का अनुमान है लेकिन  ये उम्मीद भी लगाई जा रही है कि आने वाला समय अच्छी  खबरें लेकर आयेगा | विकास दर और सकल घरेलू उत्पादन के अनुमान भले ही पूर्ववर्ती आकलनों की  अपेक्षा कम हों किन्तु उतने निराशाजनक भी नहीं जितना कोरोना काल प्रारम्भ होने पर माना  जा रहा था | इसी बीच विशषज्ञों के सुझाव आने शुरू हो गये हैं | कांग्रेस नेता राहुल गांधी तो पिछले साल से ही कहते आ रहे हैं कि लोगों के जेब में सरकार पैसा डाले जिससे उनकी क्रय शक्ति बढ़े | लेकिन बजाय ऐसा करने के श्री मोदी ने 80 करोड़ गरीबों को कोरोना की पहली लहर के  दौरान तकरीबन छह महीने तक मुफ्त अनाज के साथ 500 रु. बैंक  खाते में जमा करवाने का विकल्प चुना | दूसरी लहर में भी उसी व्यवस्था को लागू किया गया है | इससे बहुत बड़े तबके को भुखमरी और बदहाली से बचाया जा सका | अन्यथा अराजक हालात बन सकते थे | दूसरी लहर ने हॉलांकि बहुत कम समय में अकल्पनीय कहर बरपाया जिसके कारण बड़ी संख्या में मौतें भी हुईं | अचानक  ऑक्सीजन और वेंटीलेटर की कमी से हाहाकार मच गया | इसके कारण  अप्रैल  और मई  के दो महीने बेहद परेशानी में गुजरे लेकिन फिर भी दूसरी लहर जितनी तेजी से आई उतनी ही तेजी से उसकी वापिसी भी हुई | इसी के साथ ही सरकार की ओर से तीसरी लहर के संभावित आगमन से निपटने के लिए जो तैयारियां की गईं उनकी वजह से भी आर्थिक जगत में आशा बनी हुई है | लेकिन इस सबसे बड़ी बात है महंगाई का आसमान छूना और आम लोगों की घटती आय | केंद्र और राज्य दोनों के पास राजस्व का जबर्दस्त अभाव है | भुगतान नहीं होने से काम बंद पड़े हैं | अनेक विभागों में  तो वेतन के लाले हैं | छोटी  बचत की स्थिति भी खराब है | बैंकों से बड़ी मात्रा में जमा राशि निकलना इसका प्रमाण है | ऋणों की वसूली में भी बैंकों को पसीना आ रहा है | गत वर्ष प्रधानमन्त्री और वित्तमंत्री ने जो आर्थिक पैकेज दिए उन पर ठीक से अमल  न होने के कारण अपेक्षित लाभ नहीं हुआ | ऐसे में अब ये मांग हो रही है कि सरकार नए नोट छापकर बाजार में मुद्रा संकुचन की  स्थिति खत्म करे | हालांकि महंगाई से चिंतित रिजर्व बैंक इसके लिए  तैयार नहीं लगता | मई में खुदरा  महंगाई काफी बढ़ना भी चिंता का कारण है | राज्यों के मुख्यमन्त्री केंद्र से ज्यादा कर्ज लेने की अनुमति मांग रहे हैं | हालाँकि लॉक डाउन हटते ही बेरोजगारी घटने के संकेत मिल रहे हैं लेकिन अभी भी उद्योग - व्यापार पर कोरोना का प्रभाव साफ़ तौर पर देखा जा सकता है | इस स्थिति से उबरने के लिए जरूरी है कि उत्पादक और उपभोक्ता दोनों को सरकार की तरफ से प्रोत्साहन मिले | जिस तरह गरीबों को मुफ्त राशन वितरण और किसान के उत्पादन को न्यूनतम मूल्य पर खरीदकर कृषि क्षेत्र को सहारा दिया गया उसी तरह सरकारी नौकरी के अलावा  जो मध्यम वर्गीय नौकरपेशा और व्यापारी है उसे भी राहत देने के इंतजाम होना चाहिए | इस तरह की आपदा में शासक का कर्तव्य है वह जनता को मानसिक  सुरक्षा के साथ ही आर्थिक  सुविधा प्रदान करे | पेट्रोल और डीजल की  कीमतों में जिस बेरहमी से वृद्धि की जा रही है उसकी वजह से सरकार द्वारा दी जा रही राहत पर पानी फिर रहा है |  खबर है आज दिल्ली में उच्चस्तरीय बैठक में इस बारे में  राहत देने पर विचार होगा किन्तु जब तक पेट्रोल और डीजल जीएसटी के अंतर्गत नहीं लाये जाते तब तक ये लूटखसोट नहीं रुकने वाली | ऐसे में  लॉक डाउन खोलने के बाद अर्थव्यवस्था भले ही गति पकड़ रही हो लेकिन वह अपनी स्वाभाविक स्थिति में तब तक नहीं आ सकेगी जब तक केंद्र और राज्य सरकारें अपने अनुत्पादक   खर्चे नहीं घटातीं | वर्तमान स्थिति में तो ऐसा लग रहा है कि कोरोना का मुफ्त टीका लगाने के एवज में सरकारें जनता से उसकी कीमत से कहीं ज्यादा वसूल रही हैं |  

- रवीन्द्र वाजपेयी



Wednesday 16 June 2021

परिवारवाद पर टिकी पार्टियों का यही हश्र होगा



लोजपा ( लोक जनशक्ति पार्टी ) में  टूटन से किसी को आश्चर्य नहीं हुआ | स्व. रामविलास पासवान द्वारा बनाई लोजपा का उद्देश्य निजी स्वार्थ था  । इसीलिए  कांशीराम की तरह दलित राजनीति का चेहरा बनने की उनकी महत्वाकांक्षा धूल  - धूसरित हो गई और वे बिहार के एक छोटे से इलाके तक ही सिमटकर रह गए | वर्तमान लोकसभा में पार्टी के छह सदस्यों में से तीन पासवान परिवार के हैं  | स्व. पासवान 1974 में  जेपी की अगुआई में हुए  छात्र आंदोलन से निकली युवा नेताओं की  टोली के सदस्य थे  | 1977 की  जनता लहर में उन्होंने हाजीपुर लोकसभा क्षेत्र  में  पांच लाख मतों से भी ज्यादा  से जीत का रिकॉर्ड बनाकर राष्ट्रव्यापी पहिचान हासिल की | उसके बाद से वे लगातार संसद मे रहे | एक - दो सांसदों के बल पर भी केंद्र में मंत्री बन जाना उनकी राजनीतिक चतुराई का परिणाम था |   इसी कारण लालू यादव उनको मजाक में मौसम वैज्ञानिक कहने लगे थे | उनके राजनीतिक अवसरवाद का सबसे बड़ा  उदाहरण नरेंद्र मोदी के साथ  गठबंधन था |  2002 के गुजरात दंगों के बाद श्री मोदी को मुख्यमंत्री पद से नहीं हटाये जाने से नाराज रामविलास ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से स्तीफा दे दिया था | लेकिन 2014 में वे फिर भाजपा के साथ आ गये और जीवित रहते तक मोदी सरकार में मंत्री रहे | लोजपा में  उन्होंने पहले तो अपने भाई पशुपति पारस को आगे बढ़ाया लेकिन बाद में बेटे चिराग को पार्टी अध्यक्ष बनाकर उत्तराधिकारी घोषित कर दिया जो फिल्म अभिनेता के तौर पर  फ्लॉप होने के बाद  पिता की उंगली पकड़कर लोकसभा में आ बैठे |  रामविलास के रहते  तो पशुपति शांत रहे लेकिन उनके बाद भतीजे की ताजपोशी उनको नागावर गुजरने लगी | बिहार  के पिछले चुनाव में चिराग ने नीतीश  के विरुद्ध जिस तरह खुलकर मोर्चा खोला उससे जद ( यू ) को अनेक सीटें खोनी पड़ीं |  हालांकि भाजपा ने उनको अपने से दूर रखा लेकिन  वे एनडीए में बने रहे  | हाल ही में  खबर आई कि मोदी मंत्रीमंडल का विस्तार होने जा रहा है और यही लोजपा में टूटन का कारण बन गया | पशुपति को लगा कि चिराग पिता की  जगह मंत्री बन जायेंगे  | इसीलिये उन्होंने भतीजे को नेता पद से हटा दिया | छह में से पाँच सांसद  उनके साथ हो लिए और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने भी बिना देर लगाये पशुपति को लोजपा संसदीय दल का नेता स्वीकार कर इस बात का संकेत दे दिया कि भाजपा भी चिराग से छुटकारा पाना चाहती थी | यद्यपि पशुपति भी अपने स्वर्गीय बड़े भाई की कृपा से ही सांसद हैं वरना उनका फोटो  इसके पहले समाचार माध्यमों में शायद ही किसी ने देखा होगा | बहरहाल परिवारवाद की बुनियाद पर खड़ी एक और पार्टी में टूट - फूट हो गयी | इसके पहले उप्र  में समाजवादी पार्टी चाचा शिवपाल सिंह यादव और भतीजे अखिलेश में वर्चस्व की लड़ाई से  बिखरी  | महाराष्ट्र में शिवसेना संस्थापक स्व. बाल ठाकरे ने अपने  उत्तराधिकारी माने जा चुके भतीजे राज ठाकरे की बजाय जब पुत्र उद्धव को युवराज घोषित किया तो राज ने अलग होकर मनसे नामक पार्टी बना ली | तेलुगु देशम में दामाद और सौतेली सास के बीच जंग हुई | लालू के साले भी भांजे - भांजियों को आगे बढ़ाये जाने से नाराज होकर जीजा से दूर जा बैठे | झगड़ा तो लालू के बेटे तेजस्वी और तेजप्रताप के बीच भी है | बंगाल में तृणमूल की बागडोर ममता बैनर्जी ने भी अपने भतीजे को सौंपने की तैयारी कर दी है | हरियाणा में स्व. देवीलाल के बेटे और पोते इनेलदो के टुकड़े कर बैठे | कुल मिलाकर व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए बनी पार्टियाँ परिवारवाद  का शिकार होकर या तो पथभ्रष्ट हो जाती हैं या विभाजित हो जाती हैं | इस बारे में नीतिश कुमार एक अपवाद हैं जिनका परिवार राजनीति  से दूर  है |  लोजपा भी चूँकि  एक पारिवारिक पार्टी है इसलिए उसका यही हश्र होना था  | वैसे  मुद्दों पर बनी क्षेत्रीय पार्टियों का राष्ट्रीय राजनीति में काफी महत्व है लेकिन जब वे परिवार तक सिमटकर रह जाती हैं तब उनका अस्तित्व खतरे में आ जाता है |  परिवारवाद की  जनक  कांग्रेस की  आज  जो दुर्दशा है उसके पीछे भी एक परिवार का वर्चस्व ही है | चूँकि  क्षेत्रीय दलों में परिवारवाद बतौर  संस्कृति कायम है इसीलिये लोजपा की टूटन से कोई सीख लेगा इसकी सम्भावना बेहद कम है | 


- रवीन्द्र वाजपेयी



Tuesday 15 June 2021

राम मंदिर निर्माण में एक पैसे का घालमेल भी स्वीकार्य नहीं



अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर के लिए बनाये  न्यास द्वारा खरीदी  एक जमीन  को लेकर जो विवाद उठा उससे  प्रथम दृष्टया संदेह हुआ कि बहुत महंगी कीमत चुकाई गई | इसका कारण  संदर्भित जमीन के दो बिक्री पत्रों का  पंजीयन होना है | पहला सौदा जहाँ 2 करोड़ का  हुआ वहीं दूसरा कुछ देर बाद ही तकरीबन 18 करोड़ में  | आम आदमी पार्टी , सपा  और कांग्रेस ने बिन देर किये  चंदे की राशि में हेराफेरी का आरोप लगा डाला | बात प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्री से जवाब मांगने तक जा पहुँची | ममता बैनर्जी ने केन्द्रीय जांच टीम भेजने की गुजारिश की तो  किसी ने सीबीआई जांच की सलाह दे डाली | राम के नाम को बदनाम किये जाने  जैसी बातें भी उठने लगीं | विश्व हिन्दू परिषद , रास्वसंघ और भाजपा को घेरने का जोरदार प्रयास चल पड़ा | दूसरी तरफ न्यास की तरफ से आरोपों को झुठलाते हुए ये साबित करने की कोशिश की गई कि जमीन की खरीदी अयोध्या में प्रचलित  दरों से कम पर की गई है तथा  कीमतों का अंतर पुराने  अनुबंध के कारण है | वास्तविकता क्या है ये तो जांच से ही पता चलेगा क्योंकि  सार्वजानिक ट्रस्ट  होने से  उसका हिसाब - किताब गोपनीय नहीं रह सकता | न्यास ने जो सफाई दी वह इस तरह के सौदों में आम  है किन्तु मंदिर निर्माण में  पारदर्शिता इसलिए  अनिवार्य है  क्योंकि उस योगदान के पीछे धार्मिक के साथ ही राष्ट्र के प्रति आस्था जुड़ी हुई थी | राम पूरे विश्व में भारत के प्रतीक पुरुष माने जाते हैं | मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में उनका जीवन आदर्श था | उनके पूर्व और बाद में भी देश और दुनिया में एक से बढ़कर एक ताकतवर और लोकप्रिय शासक हुए लेकिन शासन की गुणवत्ता के  लिए आज भी राम राज्य को ही मापदंड माना जाता है | और इसका कारण भगवान राम का निष्कलंक और समावेशी व्यक्तित्व ही था | इसीलिये उनका मंदिर बनाने हेतु धनसंग्रह शुरू हुआ तो देखते - देखते ही उसने लक्ष्य को छू लिया | जहाँ तक सवाल मंदिर निर्माण हेतु गठित न्यास का है तो उसके बारे में गैर भाजपाई पार्टियों की मुख्य शिकायत ये है कि उसमें उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं मिला | कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने गत दिवस एक बार फिर दोहराया कि मंदिर निर्माण का दायित्व पहले बनाए जा चुके  रामालय ट्रस्ट को सौंपा जाना चाहिए था जिसका सृजन शंकराचार्य स्वामी  स्वरूपानंद जी द्वारा किया गया था | उल्लेखनीय  है  स्वामी जी विश्व हिन्दू परिषद के घोर विरोधी रहे हैं | ये सब देखते हुए कहा  जा सकता है कि इस विवाद  के पीछे उप्र और उत्तराखंड विधानसभा के आगामी  चुनाव हैं | जैसी कि खबर है चुनाव के पहले तक मंदिर का ढांचा काफी कुछ खड़ा हो जाएगा | चूँकि पत्थरों की गढ़ाई बीते लगभग ढाई दशक से निर्बाध चली आ रही है इसलिए नींव  से ऊपर आते ही  मंदिर को आकार देने में ज्यादा समय नहीं लगेगा | ज़ाहिर है भाजपा इसका राजनीतिक लाभ लेने का भरसक प्रयास  करेगी | इसीलिये विवाद पर समूचा विपक्ष एकस्वर में बोलने लगा | हालांकि न्यास ने जिस आत्मविश्वास से घोटाले को राजनीतिक साजिश बताते हुए मानहानि का दावा करने के संकेत दिए उससे लगता है कि उसका पक्ष कमजोर नहीं  हैं  | लेकिन इस तरह  के मामलों में आरोप  तेजी से प्रचारित होता है | ऐसे में न्यास का फर्ज है कि वह आरोपों का उत्तर विस्तार के साथ दे क्योंकि राम मंदिर निर्माण जैसे पवित्र कार्य में एक पैसे का घालमेल भी स्वीकार्य नहीं   हो सकता | जिन लोगों ने भूमि खरीदी में घपलेबाजी का आरोप लगाया उनको भी चाहिए कि वे अपनी मुहिम को अंजाम तक पहुंचाएं अन्यथा जनता की निगाह में उनकी साख मिट्टी में मिले बिना नहीं रहेगी | मंदिर निर्माण में किसी भी प्रकार की अनियमितता या भ्रष्टाचार न सिर्फ दानदाताओं और राम भक्तों  की आस्था अपितु भगवान राम का ही अपमान होगा | इसलिए आरोप लगाने वालों से अपेक्षा है कि वे पत्थर फेंककर भाग जाने के बजाय अपनी बात को साबित करें , वहीं न्यास पर भी ये नैतिक  दबाव है कि वह अपनी ईमानदारी प्रमाणित करने के साथ ही आरोप गलत पाए जाने पर दुष्प्रचार करने वालों को कड़ी सजा दिलवाने के लिए विधि सम्मत तरीकों का सहारा ले | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Monday 14 June 2021

डूबती नाव में छेद करने का दिग्विजयी प्रयास



मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह राजनीति के  बेहद चालाक खिलाड़ी हैं | गत वर्ष कमलनाथ की सरकार गिरने की सबसे बड़ी वजह भी उनको ही माना जाता है  क्योंकि पहले तो उन्होंने मुख्यमंत्री पद की दौड़ में ज्योतिरादित्य सिंधिया की राह में रोड़ा अटकाया और जब इससे भी जी नहीं भरा तब गुना लोकसभा सीट से हार के बाद  उनको राज्यसभा में जाने से रोकने के लिए जाल बिछाया | उनकी इन्हीं  चालों ने बड़ी  मुश्किल से बनी कांग्रेस  सरकार की बलि चढ़वा दी | वे  खुद तो राज्यसभा में जा पहुंचे लेकिन कमलनाथ के हाथ से सत्ता खिसक गई | ज्योतिरादित्य ने तो भाजपा का दामन थामकर राज्यसभा  सदस्यता हासिल करने के साथ ही मप्र सरकार में अपने ढेर समर्थकों को मंत्री बनवा दिया और  खुद भी केन्द्रीय मंत्री बनने जा रहे हैं | अब खबर  है दिग्विजय  प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद कमलनाथ से छीनकर अपने बेटे  जयवर्धन सिंह को दिलवाने की बिसात बिछा रहे हैं और इसके लिए  पार्टी के सर्वेसर्वा गांधी परिवार को प्रसन्न करने के लिए ऐसा बयान दे डाला जिसने पूरी कांग्रेस पार्टी को पशोपेश में डाल दिया है | एक पाकिस्तानी  पत्रकार से बतियाते हुए श्री  सिंह ने जम्मू काश्मीर में  लोकतंत्र न होने की बात कहते हुए ये कहा कि केंन्द्र में कांग्रेस की सत्ता आने पर जम्मू -  कश्मीर में धारा 370 दोबारा लागू किये जाने पर विचार किया जाएगा | उनके इस बयान को पहले तो भाजपा आईटी सेल की शरारत माना गया लेकिन बाद में इस बात की पुष्टि हो गई कि उन्होंने  उक्त बातें की थीं | चौतरफा फजीहत होने पर बजाय खेद व्यक्त करने के दिग्विजय ने रास्वसंघ प्रमुख डा . मोहन भागवत के किसी पुराने बयान का उल्लेख करते हुए अपना बचाव किया किन्तु उन्हें अपनी पार्टी के भीतर से भी समर्थन नहीं मिला | जम्मू - कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला के अलावा एक भी प्रमुख हस्ती ने उनकी बात का समर्थन नहीं किया | यहाँ तक भी ठीक था किन्तु गत दिवस पहले उनके अनुज मप्र विधानसभा के सदस्य लक्ष्मण सिंह ने साफ़ कहा कि धारा 370 की वापिसी असम्भव है | लेकिन दिग्विजय के लिए सबसे ज्यादा शर्मनाक स्थिति पैदा कर दी लक्ष्मण सिंह की पत्नी रुबीना सिंह ने जिन्होंने अपने जेठ के संदर्भित बयान को गैर जरूरी बताते हुए कश्मीरी पंडितों की बदहाली का मामला उठाकर कांग्रेस पार्टी पर भी अनेक सवाल दागे | उल्लेखनीय है रुबीना कश्मीरी ब्राहमण हैं| कश्मीर घाटी से पंडितों  के पलायन का जिक्र करते हुए उन्होंने 370 हटाये जाने को कश्मीर के हित में बताया | हालाँकि लक्ष्मण पहले भी दिग्विजय और कांग्रेस से अपनी असहमति अनेक मुद्दों पर व्यक्त्त कर चुके हैं , लेकिन उनकी पत्नी ने जिस दबंगी से जेठ साहब के विरोध में मोर्चा खोला उससे  दिग्विजय  सिंह की जमकर भद्द पिट रही है | कांग्रेस ने अभी तक उनके बयान पर अधिकृत तौर पर चुप्पी साध रखी है | हालांकि कुछ नेताओं ने उसे निजी राय बताकर पार्टी को बचाने का प्रयास किया है , लेकिन ज्यादा होशियारी दिखाने के फेर में दिग्विजय सिंह ने एक बार  फिर कांग्रेस का बड़ा नुकसान कर दिया | पता नहीं  गांधी परिवार को वे कितना खुश कर पाएंगे लेकिन उप्र , उत्तराखंड और पंजाब के आगामी विधानसभा चुनाव में इस  बयान पर  कांग्रेस को जवाब देना मुश्किल हो जाएगा | सवाल ये है कि गांधी परिवार अपने इस प्रबल समर्थक को इस तरह के ज़हरीले बयान देने से  रोकने की कोशिश  क्यों नहीं करता ? अतीत में दिग्विजय के अलावा मणिशंकर अय्यर और शशि थरूर  भी इसी तरह की ऊलजलूल बातों  के  जरिये कांग्रेस के लिए मुसीबतें पैदा कर चुके हैं | ऐसे में दिग्विजय सिंह द्वारा एक पाकिस्तानी पत्रकार से कश्मीर घाटी में लोकतंत्र के काल कोठरी में बंद होने और धारा 370 की वापिसी जैसी बातें करना पाकिस्तान के भारत विरोधी दुष्प्रचार का समर्थन करने जैसा ही है | कांग्रेस पार्टी यदि अपनी दुरावस्था से उबरना चाहती है तो उसे न सिर्फ दिग्विजय अपितु उन जैसे बाकी  नेताओं की बदजुबानी रोकनी चाहिए जो पार्टी की डूबती नाव में और छेद करने की मूर्खता दोहराने से बाज नहीं आते | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 12 June 2021

भाजपा की वैचारिक दिशा तय करने वालों के लिए विचारणीय मुद्दा



तृणमूल से भाजपा में आकर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने मुकुल रॉय चार बरस  के बाद वापिस लौट गये | एक ज़माने में वे ममता बैनर्जी के सबसे निकटस्थ हुआ करते थे | शारदा  घोटाले में  उलझने के बाद उनने  भाजपा का दामन थामा और बंगाल  में उसे मजबूत विकल्प के तौर पर खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई  | हालिया विधानसभा चुनाव लम्बे अंतर से जीतकर अपना जनाधार भी  साबित कर दिया |  यद्यपि उनका बेटा हार गया | चुनाव में उम्मीदों पर पानी  फिरते ही तृणमूल से आये अनेक नेता और भाजपा टिकिट पर जीते विधायक वापिस दीदी की शरण में जाने को आतुर बताये जा रहे हैं |  वैसे तो  चुनाव के दौरान तृणमूल से गये नेताओं को मीर ज़ाफर कहा जाता रहा  लेकिन मुकुल  को  वापिस लेते समय ममता ने उनको गद्दार न होने का प्रमाणपत्र दे दिया | वैसे श्री  रॉय के मन में तृणमूल के  प्रति श्रद्धा पुनर्जाग्रत हुई हो ऐसा नहीं है | उनकी भाजपा से नाराजगी की वजह दरअसल विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष पद शुभेंदु अधिकारी को दिया जाना है जो चुनाव के कुछ समय पहले ही भाजपाई बने थे | यद्यपि मुख्यमंत्री को हराकर उन्होंने प्रदेश की राजनीति में अपना कद ऊंचा किया लेकिन मुकुल को इस बात का मलाल है कि वे उस समय भाजपा में आये जब बंगाल में उसकी स्थिति बेहद कमजोर थी | वामपंथ और कांग्रेस के मुकाबले उसको बतौर विकल्प खड़ा करने में उन्होंने जो जमीनी काम किया उसका पुरस्कार उनको बतौर नेता प्रतिपक्ष मिलता तब शायद वे भगवा चोला न उतारते | जब  लगा कि  शुभेंदु को ज्यादा अहमियत मिलने लगी है तो वे अपने भविष्य के प्रति चिंतित हुए और बेटे के माध्यम से पहले भाजपा पर हमला करवाया और फिर दोनों  उसी जहाज पर आ बैठे जिसे कुछ साल पहले  छोड़ दिया था |   बंगाल में तृणमूल सहित बाकी पार्टियों से नेताओं को   भाजपा में लाने  में मुकुल की भूमिका भी थी |  2021 के चुनाव में 200 पार का नारा देने वालों में भी वे  सबसे आगे थे | लेकिन तृणमूल की  धमाकेदार जीत के बाद उनको पुराने घर की याद सताने लगी और आखिर वे लौट ही आये | भाजपा में जाने से पहले   वे तृणमूल के महासचिव हुआ करते  थे | अब इस  पद पर सुश्री बैनर्जी ने अपने भतीजे को बिठा दिया है | चूँकि  वापिसी के बाद भी मुकुल पर शारदा घोटाले की तलवार टंगी रहेगी इसलिए पार्टी उनको ज्यादा महत्व देने से बचेगी | लेकिन भाजपा को जरूर उनका जाना अखरेगा | इसकी वजह साफ़ है | श्री रॉय बंगाल की रग - रग से जितना वाकिफ हैं  उतना शुभेंदु नहीं हैं | केंद्र की राजनीति में भी उनका अनुभव खासा है | रेलमंत्री जैसा विभाग वे सम्भाल चुके हैं | ऐसे में बंगाल में पैर ज़माने में कामयाब होती दिख रही भाजपा के लिए शोचनीय स्थिति बन गयी है |  अब वह किस मुंह से उनको दोबारा शारदा घोटाले का आरोपी कहेगी ये बड़ा सवाल है | ऐसे में  मुकुल का लौट जाना चुनावी रणनीतिकारों से ज्यादा भाजपा की वैचारिक दिशा तय करने वालों के लिए विचारणीय मुद्दा है | दूसरी  पार्टी से आने वाले को बिना आगा - पीछा सोचे संगठन और सत्ता  के शीर्ष पद पर बिठाने से  बरसों से संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं और नेताओं में जो निराशा आती है , बंगाल में उसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है | हालाँकि पार्टी इससे कोई सबक लेगी ये नहीं लगता क्योंकि बंगाल छोड़ अब वह उप्र की चिंता में डूबी है जहां आगामी वर्ष फरवरी में विधानसभा चुनाव होने हैं | दो दिन पहले ही वह जितिन प्रसाद को कांग्रेस से तोड़कर ले आई है  और जैसी खबरें हैं उनके मुताबिक तोड़फोड़ का क्रम जारी रहेगा | राजनीति चूँकि अब विचारधारा के प्रसार की बजाय चुनाव जीतने पर ही केन्द्रित हो चली है इसलिए ये आवागमन भी रिवाज बन गया है और भाजपा भी उससे अछूती नहीं है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 11 June 2021

किसान आंदोलन एकपक्षीय होने से प्रभावहीन होता जा रहा



 इस बार भी  रबी फसल ने पिछला कीर्तिमान तोड़ दिया और सरकार ने भी  में बढ़ - चढ़कर खरीदी की | चूँकि  कोरोना काल में खाद्यान्न उत्पादन और  बढ़ा  इसीलिये केंद्र सरकार 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त अनाज वितरित करने का साहस जुटा सकी | हाल ही में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने इस योजना को आगामी नवम्बर तक बढ़ा दिया  |  इस वर्ष गेंहू का न्यूनतम खरीदी मूल्य  काफी अच्छा होने से किसानों को लाभ हुआ और खाते में सीधा पैसा जमा होने से  भुगतान के लिए चक्कर नहीं  काटने पड़े | बीते दिनों केंद्र सरकार ने खरीफ फसल के लिए सरकारी खरीद के  जो नए मूल्य घोषित किये वे भी काफी आकर्षक हैं | 2014 के बाद से न्यूनतम खरीदी मूल्य में तकरीबन हर साल वृद्धि होने की जाती रही | हालाँकि किसानों की आमदनी दोगुनी किये जाने का लक्ष्य अभी भी दूर है परन्तु  केंद्र और राज्य सरकारें गामीण विकास और किसान कल्याण पर पहले से अधिक राशि खर्च कर रही हैं जिसके अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं | देश के अधिकांश गांवों तक पक्की सड़कें और बिजली पहुंचने से क्रांतिकारी बदलाव आया है  | लेकिन दूसरी तरफ ये भी उतना ही सच है कि ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन अभी भी जारी है | जिसके कारण खेतिहर श्रमिकों का अभाव होने से कृषि कार्य में परेशानी आने लगी है | हालाँकि खेती के काम में मशीनों का उपयोग होने से मानव श्रम का उपयोग पूर्वापेक्षा कम हुआ है लेकिन लघु और मध्यम दर्जे के किसान अभी भी मशीनों का खर्च वहन नहीं कर पाते | श्रमिकों की कमी और युवा पीढ़ी का खेत से दूर होता  जाना भी एक समस्या है | इस वजह से मजदूरी के दाम बढ़ते जा रहे हैं जो छोटे और मझोले दर्जे के किसानों की पहुँच से बाहर हैं | दिल्ली के मुहाने पर चल रहे  किसान आन्दोलन की जो प्रमुख मांग है उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देना है | इसके साथ ये भी कहा जा रहा है कि सरकार ने कहने को तो तकरीबन दो दर्जन कृषि उत्पादों के लिए खरीदी मूल्य घोषित कर रखे हैं लेकिन वह मुख्य रूप से गेंहू , चना , धान  और दलहन ही खरीदती है | इस बारे में मक्के का उदाहराण दिया जा रहा है जिसका सरकारी मूल्य 1800 रु. है लेकिन बाजार में वह उसके आधे पर बिका | हालाँकि कुछ चीजों के दाम सरकारी खरीद से ज्यादा भी मिले जिनमें कपास , दलहन और तिलहन प्रमुख हैं | इसीलिये बीते एक दो साल से सरकार किसानों को इस बात के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित कर रही है कि वे दलहन और तिलहन का उत्पादन बढ़ाएं ताकि दालों और खाद्य तेलों का आयात करने से बचा जा सके | उल्लेखनीय है इन दोनों के आयात पर लगभग  70 हजार करोड़ का खर्च आता है | चूँकि सरकार बड़े पैमाने पर   गेंहू , चना  और धान ही खरीदती है इसलिए किसान इनकी खेती में ज्यादा रूचि लेते हैं | समय आ गया है जब वे बदलते समय और जरूरतों के अनुरूप खुद को ढालें | 2022 तक  पेट्रोल में 10 फीसदी ईथेनॉल मिलाये जाने की स्वीकृति ने गन्ना किसानों के लिए समृद्धि का नया द्वार खोल दिया है | 2030 तक इसे 20 प्रतिशत तक बढ़ाया जायेगा | अभी गन्ना ईथेनॉल का प्रमुख स्रोत है लेकिन अब मक्का ,धान और पराली से भी इसे प्राप्त करने की तैयारी है | ऐसे में किसान को  ढर्रे से निकलकर आय के समानान्तर रास्ते खोजने होंगे | उसे ये भी समझना पड़ेगा कि प्रतिस्पर्धा के इस दौर में वह केवल सरकार के  भरोसे रहकर खुशहाली अर्जित नहीं कर सकेगा | कृषि और पशुपालन का चोली - दामन का  साथ रहा है | अनेक ग्रामीण उद्यमियों ने   गोबर से जैविक खाद का व्यवसायिक  उत्पादन करते हुए खुद के लिए भी कमाई का साधन पैदा किया और साथ ही किसानों को सस्ती खाद उपलब्ध कराकर लागत भी घटाई | इससे भी बड़ी बात ये है कि इस काम के लिए गांवों से गोबर खरीदी किये जाने से पशुपालकों को अतिरिक्त आय हुई | ऐसे में  किसानों को दिल्ली की सीमा पर बेकार बिठाये रखने  वाले कथित नेता यदि उनको नये तौर - तरीके अपनाने हेतु प्रेरित करते तथा अनाज के साथ ही दुग्ध उत्पादन की परम्परा को पुनर्जीवित करने का सन्देश किसान पंचायतों के माध्यम से देते तब शायद उनका आन्दोलन ज्यादा  सफल और सार्थक हुआ होता | किसान इस देश की अर्थव्यवस्था ही  नहीं सामाजिक व्यवस्था की भी धुरी है | हमारी लोक संस्कृति , परम्पराएँ , प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण में ग्रामीण समाज का योगदान अमूल्य है | इसलिए गाँव और किसान को आर्थिक  की बजाय उसके समूचे परिवेश में देखा जाना चाहिए | मौजूदा आन्दोलन यदि केवल कुछ व्यक्तियों एवं राज्यों तक सिमटकर रह गया तो उसका कारण उसका एकपक्षीय होना है | महात्मा गांधी ने स्वाधीनता आन्दोलन के साथ ही आजाद हिंदुस्तान के लिए ग्राम स्वराज जैसी संरचना का खाका खींचा था | दुर्भाग्य से अन्य आंदोलनों की तरह से ही किसान आन्दोलन तात्कालिक सोच से आगे नहीं बढ़ पा रहा और इसीलिए उसकी धार निरंतर कम होती जा रही है |

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 10 June 2021

कांग्रेस को विकल्प बनने से वंचित करने की फ़िराक में भाजपा



हालाँकि जितिन प्रसाद इतने बड़े नेता नहीं हैं जिनके आने से भाजपा को उप्र में बड़ी ताकत मिल सके | वे खुद भी पिछले दो लोकसभा चुनाव हार चुके हैं | उनके स्वर्गीय पिता जितेन्द्र प्रसाद जरूर कांग्रेस की केन्द्रीय राजनीति में काफी प्रभावशाली थे  | रही बात जितिन की तो वे भी केंद्र में मंत्री रह चुके हैं | लेकिन बीते काफी समय से राजनीतिक तौर पर उपेक्षित थे  | कांग्रेस के भीतर असंतुष्टों का जो जी - 23 नामक गुट पनपा उसमें शामिल होने से जरूर वे चर्चा में आये | कांग्रेस से उनकी नाराजगी की वजह उप्र में प्रियंका वाड्रा का हावी होता जाना है |जितिन चाह रहे थे कि राज्य में कांग्रेस की कमान उनको दी जाए लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव के पहले  राहुल गांधी ने अचानक प्रियंका को महामंत्री बनाकर उप्र  की जवाबदारी सौंप दी | हालंकि  उनकी सक्रियता के बावजूद राहुल गांधी अमेठी की पुश्तैनी सीट हार गए | उसके बाद हुए अनेक उपचुनावों के साथ ही हाल के पंचायत चुनावों में भी पार्टी की दयनीय स्थिति में लेश मात्र भी सुधार नहीं  हुआ | जितिन को कांग्रेस ने बंगाल का काम दिया था लेकिन वहां के विधानसभा चुनाव में उसका सफाया हो गया |  उसके बाद उनको लगने लगा कि कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है और इसलिए वे भाजपा में आ गये | हालांकि इस पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि इसकी अटकलें पिछले लोकसभा चुनाव से ही लगाई जा रही थीं | अब ये प्रचारित किया जा रहा है कि उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नीतियों से नाराज भाजपा के परम्परागत समर्थक ब्राह्मण मतदाता जितिन के आने से खुश हो जायेंगे | ये आकलन कितना सही है ये तो भविष्य बतायेगा किन्तु बंगाल के चुनाव में दलबदलुओं को सिर पर बिठाने का खामियाजा उठाने के बाद भी भाजपा नेतृत्व दूसरे दलों से आने वालों के लिए लाल कालीन बिछाए बैठा है | खबर है मुम्बई के युवा कांग्रेस नेता मिलिंद देवड़ा भी जितिन की राह पर चलकर भाजपाई बनने वाले हैं | चर्चा तो राजस्थान के सचिन पायलट की भी हो रही है | कहते हैं गत वर्ष मप्र की कमलनाथ सरकार को गिरवाकर भाजपा में आये ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में तोड़फोड़ करने के काम में लगे हैं | विशेष रूप से राहुल ब्रिगेड के सदस्य कहलाने वाले युवा नेताओं पर उनकी नजर है | वैसे  भाजपा के कार्यकर्ताओं में  नए मेहमानों को लेकर बहुत उत्साह नहीं है | मप्र में सिंधिया समर्थकों को थोक के भाव मंत्री बनाये जाने से पार्टी के अनेक वरिष्ठ विधायक कोप भवन में बैठे हैं | बंगाल में विधानसभा चुनाव के बाद दलबदलू नेताओं के तृणमूल में लौटने की खबरों के साथ ही  अपने संगठन में जमकर खींचातानी के बाद भी पार्टी आलाकामान कांग्रेस में तोड़फोड़ करने के प्रति इच्छुक है तो उसके पीछे सोच  ये है कि उसे इतना कमजोर कर दिया जावे कि वह राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर अपने को पेश करने की  स्थिति में ही न रहे | भाजपा को एक बात समझ में आ चुकी है कि क्षेत्रीय दलों को उनके प्रभाव वाले राज्यों में प्रदेश स्तर की राजनीति में मात देना कठिन है  | लेकिन जब लोकसभा चुनाव आते हैं तब मतदाता राष्ट्रीय पार्टी को महत्व देते हैं | ये देखते हुए भाजपा चाह रही है कि कांग्रेस के युवा नेताओं को  अपने पाले में  खींचकर उसकी मारक क्षमता कम कर दी  जाए | इससे क्षेत्रीय पार्टियां भी उसके साथ गठबंधन करने में कतराने लगेंगी | लोकसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व  कांग्रेस के हाथ ही स्वाभाविक तौर पर आता रहा है | लेकिन यही हाल रहा और राहुल के निकटस्थ साथी  छोडकर जाते रहे तब पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर न तो विकल्प के तौर पर मतदाताओं के सामने दावा कर सकेगी और न ही ममता बैनर्जी जैसी  जनाधार वाली नेता उसे भाव देंगी | जितिन के भाजपा में जाने पर प्रियंका की प्रतिक्रिया कांग्रेस की हताशा को ही दर्शाती है | ऐसा ही श्री सिंधिया के पार्टी छोड़ते समय सुनाई दिया था | राजस्थान में श्री पायलट की नाराजगी को दूर करने में गांधी परिवार जिस तरह से असमर्थ नजर आ रहा है उससे ऐसा लगता है कि  अशोक गहलोत को हिलाने की हिम्मत राहुल नहीं  कर पा रहे | मुम्बई में भी मिलिंद देवड़ा कांग्रेस के युवा चेहरे हैं लेकिन वे भी बुजुर्ग नेताओं के कारण दुखी हैं | भाजपा को लगता है कि यदि राहुल के नजदीकी युवा नेताओं को अपने साथ ले आया जाए तो कांग्रेस की ताकत में कमी आयेगी और जी - 23 में शामिल नेता अपने हमले त्तेज कर देंगे | हालाँकि भाजपा के भीतर भी नए मेहमानों को दिए जा रहे महत्व्  पर नाक सिकोड़ने वाले कम नहीं हैं लेकिन येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के मामले में चूँकि वह भी  कांग्रेस और बाकी दलों की तरह ही हो गयी है इसलिए दलबदलुओं को न चाहते हुए भी बर्दाश्त कर लिया जा रहा है | बंगाल में भी यदि सत्ता बन जाती तब शायद पार्टी के भीतर उठापटक नजर नहीं आती | लेकिन ये स्थिति  कांग्रेस के लिए वाकई चिन्ताजनक  है | पंजाब से आ रही खबरें भी अच्छी नहीं कही जा सकतीं | जितिन प्रसाद के आने से उप्र में भाजपा को कितना फायदा  होगा ये तो  बाद में पता चलेगा लेकिन कांग्रेस का नुकसान तो होगा ही | और भाजपा भी यही चाह रही है क्योंकि मोदी और शाह की निगाह अगले लोकसभा चुनाव पर लग गई है जिसमें कांग्रेस के कमजोर होने से भाजपा को विकल्पहीनता का लाभ मिल सकता है |

- रवीन्द्र वाजपेयी



Wednesday 9 June 2021

शिवराज जैसे अनुभवी नेता को पांचाल की क्या ज़रूरत पड़ गई



मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि एक लोकप्रिय जननेता की है | वे ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो सीधे जनता से सम्वाद करने में पारंगत हैं | ऐसा बहुत कम होता है जब वे लगातार कुछ दिन भोपाल में रहें |  पूरे प्रदेश में उनका दौरा चलता रहता है | ग्रामीण और आदिवासी अंचलों में वे निरंतर जाते  हैं | दमोह का हालिया विधानसभा उपचुनाव छोड़ दें तो उसके पहले तक वे महिंदर सिंह धोनी की तरह मैच जिताऊ कप्तान माने जाते थे | जमीन से जुड़े होने और विनम्रता जैसे गुण के कारण वे आसानी से लोगों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब हो जाते हैं | भले ही 2018 के चुनाव में वे सत्ता में वापिस आने से चूक गये लेकिन उसके बाद भी वे भाजपा का निर्विवाद चेहरा बने रहे | यही कारण था कि गत वर्ष जब कांग्रेस में बगावत हुई और भाजपा के हाथ दोबारा सत्ता आई तो तमाम संभावनाओं को नकारते हुए शिवराज ही मुख्यमंत्री बने और 28 में से 20 उपचुनाव जिताकर  अपनी नेतृत्व क्षमता एक बार फिर  प्रमाणित कर दी |   लेकिन बड़े से बड़े सेनापति से रणनीतिक भूल होती है और वही श्री चौहान से दमोह के कांग्रेस विधायक राकेश लोधी को भाजपा में शामिल कर हुई | उनको उपचुनाव में उम्मीदवार बनाने का भी पार्टी में काफी विरोध था किन्त्तु मुख्यमंत्री उसे समझ नहीं सके | हालाँकि दल बदलते ही  उन्होंने श्री लोधी को एक निगम का अध्यक्ष बनाकर सत्ता सुख प्रदान कर दिया था | लेकिन वे उनकी लोकप्रियता का आकलन करने में गलती कर बैठे | यूँ भी 2018 में वे बहुत कम अंतर से चुने गये थे | उपचुनाव में श्री चौहान ने जी तोड़ मेहनत की किन्तु सफलता नहीं मिली | कांग्रेस ने वहां लम्बे अन्तर से जीत हासिल कर भाजपा पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना दिया | और उसी के परिणामस्वरूप श्री चौहान के नेतृत्व पर सवाल उठए जाने लगे | उनको केंद्र में ले जाये जाने की खबरों के साथ ही उनके संभावित उत्तराधिकारियों की बैठकों ने भी राजनीतिक हलचलें तेज कर दीं | हालाँकि दो - तीन दिन के भीतर ही वे सब पानी के बुलबुलों की तरह फूट गईं किन्तु इस सबसे ये साफ़ हो गया कि मुख्यमंत्री अब चुनौतीविहीन नहीं रहे | गत दिवस मंत्रीपरिषद की बैठक में किसी मुद्दे  पर गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने जिस तरह अपना विरोध दर्ज कराया और दूसरे वरिष्ठ मंत्री गोपाल  भार्गव ने उनका साथ दिया उससे काफी कुछ स्पष्ट हो गया | इसी बीच  श्री चौहान ने हालात को भांपते हुए अपनी छवि पहले जैसी बनाने के लिए तुषार पांचाल नामक एक   पेशेवर को अपने कार्यालय में विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी  ( ओएसडी } नियुक्त कर लिया | वैसे वे बीते अनेक वर्षों से मुख्यमंत्री के  निजी तौर पर सलाहकार बने हुए थे | 2018 के चुनाव में भी रणनीति और प्रबन्धन हेतु उनकी सेवाएँ ली गईं किन्तु तब वे सरकारी अधिकारी   नहीं थे | लेकिन दो - तीन दिन पूर्व ज्योंही उनको सरकारी नियुक्ति दी गई त्योंही कांग्रेस ने पहले तो मुख्यमंत्री पर ये आरोप लगाया कि वे जनसंपर्क विभाग को शक्तिहीन कर  रहे हैं और उसके बाद श्री पांचाल द्वारा अतीत में प्रधानमन्त्री और भाजपा की अनेक नीतियों के विरोध में सोशल मीडिया पर की गईं आलोचनात्मक टिप्पणियों के संदर्भ में ये प्रचारित किया गया कि मुख्यमंत्री प्रधानमन्त्री को चुनौती दे रहे हैं | भोपाल से दिल्ली तक भाजपा के भीतर भी श्री चौहान के इस कदम पर आश्चर्य के साथ विरोध का भाव देखने मिला | यहाँ तक कि पत्रकार जगत भी तुषार को लेकर नाराज दिखा क्योंकि जो दायित्व उनको दिये गए उनका निर्वहन स्वाभाविक तौर पर सरकार का जनसंपर्क विभाग करता है | मुख्यमंत्री के साथ ही सरकार की छवि चमकाने का काम इसी विभाग का होता है | श्री पांचाल के जिम्मे मीडिया मैनेजमेंट का काम  दिए जाने से भी  गलत संदेश गया | चौतरफा विरोध के बीच उन्होंने खुद होकर पद ग्रहण करने में अपनी असमर्थता जताकर पूरे मामले का पटाक्षेप तो कर दिया किन्तु इस विवाद ने श्री चौहान को पिछले पाँव पर खड़े होने बाध्य कर दिया | बीते 15 वर्ष में उनके सामने अनेक बार विषम हालात बने | डम्पर और व्यापमं कांड ने उनकी सत्ता के लिए खतरा पैदा किया था लेकिन वे उन सबसे उबर गये किन्तु  तुषार मामले में उनका दांव जिस तरह उल्टा पड़ा वह उनके  लिए खतरे की घंटी है |  छवि चमकाने के फेर में वे उसे खराब कर बैठे | भाजपा एक संगठन आधारित पार्टी कही जाती है | उसके नेता अक्सर  कार्यकर्ताओं को देव - दुर्लभ बताकर उनकी मिजाजपुर्सी किया करते हैं | ऐसे में संगठनात्मक ढाँचे का सामुचित उपयोग करने की बजाय किसी पेशेवर को मुख्यमंत्री कार्यालय में बिठाने जैसा निर्णय समझ से परे था | खास तौर पर श्री चौहान जैसे जननेता के लिए ऐसा करना वाकई चौंकाने वाला रहा | चुनाव के दौरान ऐसा करना तो मौजूदा हालातों में स्वाभाविक हो चला है लेकिन मुख्यमंत्री की छवि के साथ समाचार माध्यमों के साथ संपर्क और संवाद के लिए ऐसी नियुक्ति किये जाने का अर्थ यही लगाया गया कि प्रदेश का जनसंपर्क विभाग पूरी रह से नाकारा हो चला है और  मुख्यमंत्री को ये आशंका सताने लगी थी कि पार्टी का संगठन उनका सहयोग नहीं कर रहा | ऐसे में भले ही श्री पांचाल ने पद ग्रहण करने से मना कर दिया लेकिन न तो मुख्यमंत्री और न ही पार्टी संगठन ने ये साफ़ किया कि ऐसी नियुक्ति दोबारा नहीं की जावेगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 8 June 2021

मुफ्त के साथ ही टीकाकरण को अनिवार्य भी किया जावे



अपने देश में किसी  भी काम में राजनीति की घुसपैठ होना अवश्यम्भावी है | गत दिवस प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने आगामी 21 जून से कोरोना टीकाकरण पहले की तरह केंद्र सरकार के नियन्त्रण में लेने की घोषणा के साथ सभी आयु वर्ग के लोगों के मुफ्त टीकाकरण का ऐलान कर दिया | नई व्यवस्था में  75 फीसदी टीके केंद्र सरकार खरीदेगी और बचे हुए 25 फीसदी निजी अस्पताल खरीदकर अधिकतम 150 रु. सेवा शुल्क के साथ लगा सकेंगे | इस प्रकार राज्यों द्वारा अपने स्तर पर टीके खरीदने पर रोक लग गई | प्रधानमन्त्री ने इसका कारण स्पष्ट करते हुए बताया कि पहले केंद्र ही देश भर में  टीकाकरण का संचालन कर  रहा था लेकिन अनेक राज्यों ने स्वास्थ्य को राज्य का विषय बताते हुए अपने अधिकार में अतिक्रमण का मुद्दा उठा दिया | इसी तरह टीकों के आवंटन में पक्षपात का आरोप भी लगाया जाने लगा | उसके बाद केंद्र  ने अपनी भूमिका सीमित करते हुए राज्यों को सीधे टीके खरीदने की छूट दे दी | कुछ राज्यों ने विदेशों से टीके खरीदने का प्रयास भी किया जिसमें वे विफल रहे | इन सब वजहों से टीकाकरण अभियान कुछ अव्यवस्थित होता दिखा | ये मांग भी उठी कि राज्यों पर टीके का भार न डाला जाये | राजनीतिक दलों के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने भी मुफ्त टीकाकरण के लिए सरकार को निर्देशित किया | बहरहाल प्रधानमन्त्री ने इस बारे में सब कुछ स्पष्ट कर दिया है | वैसे भी जुलाई से देश में टीके की उपलब्धता में अच्छी खासी वृद्धि होने की सम्भावना है | देश में उत्पादन बढ़ने के साथ ही विदेशी टीके का आयात भी बड़ी मात्रा में होने जा रहा है | अभी तक देश में 23 करोड़ से ज्यादा लोगों को टीके लग चुके हैं | प्रतिदिन का औसत 15 लाख से कुछ ज्यादा है | कोरोना की दूसरी लहर भी धीरे - धीरे लौटती लग रहे है | इस महीने पहले अस्पतालों में बिस्तर , ऑक्सीजन , वेंटीलेटर , रेमिडिसिविर की जो मारामारी थी , वह भी नहीं रही | ये कहना भी गलत न होगा कि तीसरी लहर की आशंका के मद्देनजर देश में आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था पहले से काफी बेहतर हो गई है | प्रधानमन्त्री की घोषणा से एक बात और साफ़ हो गयी कि टीकाकरण की व्यवस्था में अब केंद्र और राज्य के बीच खींचातानी नहीं रहेगी जिससे अनिश्चितता भी समाप्त होगी | आयु सीमा की बंदिश खत्म करने के साथ ही सभी को मुफ्त सरकारी टीका लगाए जाने से जनअसंतोष भी कम होगा | टीवी पर श्री  मोदी का  भाषण खत्म होते ही प्रतिक्रियाओं का चिर - परिचित सैलाब आ गया | पक्ष और विपक्ष दोनों मोर्चे पर डट गये | राजनीति तो ऐसे मौकों  की तलाश में रहती ही है | कुछ का कहना है कि प्रधानमन्त्री ने सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के कारण ये कदम उठाया | दूसरी बात ये भी कही जा रही है कि कांग्रेस  नेता राहुल गांधी द्वारा  एक माह पहले दिए सुझाव को श्री मोदी ने आखिरकार मान ही लिया |  लेकिन इससे अलग हटकर सबसे चौंकाने वाली बात  ये है कि जिस टीके की कमी को लेकर समाचार माध्यम , राजनेता और अदालतें आसमान सिर पर उठाए हुए थीं उसे लगवाने के प्रति एक बड़े वर्ग में अरुचि है | इसके पीछे शिक्षा के साथ ही जागरूकता का अभाव तो है ही लगे हाथ बाबा रामदेव  और अखिलेश यादव सरीखे लोग भी हैं जिनके बयानों ने टीका लगवाने के प्रति असमंजस पैदा किया | एक तरफ तो ये शिकायत आम थी कि लोग टीके के लिए भटक रहे हैं वहीं  दूसरी तरफ ये देखने में आ रहा है कि टीका केन्द्र सूने हैं जिससे गाँव तो दूर शहरों तक में उसका दैनिक लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा | ये जानकारी भी है कि युवा वर्ग तक में इस बारे में उदासीनता देखी जा रही है | ऐसे में अब जबकि टीकाकरण को लेकर एकीकृत सरकारी व्यवस्था बनाई जा रही है और आने वाले समय में टीकों की कमी भी नहीं रहने वाली तब अधिकतम लोगों को कोरोना का टीका लगाने का काम पूरा करना राष्ट्रीय आवश्यकता है क्योंकि आने वाली किसी भी लहर का सामना करने में ये सबसे ज्यादा सहायक होगा | अभी तक सरकार ने इसके लिए किसी भी प्रकार का दबाव नहीं बनाया किन्तु अब ऐसा लगता है कि टीकाकरण मुफ्त किये जाने के साथ ही अनिवार्य भी किया जावे | आधार कार्ड की तरह टीकाकरण प्रमाण पत्र को शासकीय योजनाओं का लाभ लेने के अलावा यात्रा सहित प्रत्येक काम के लिए जरूरी बना  दिया जाना चाहिए | ऐसा करने से ही लोग टीका लगवाने के लिए बाध्य होंगे | जो लोग टीका नहीं लगवाते उनसे इस आशय का घोषणा पत्र लिया जाए कि वे शासन द्वारा मिलने वाला कोई लाभ नहीं लेंगे | कुछ लोग इसे तानाशाही बता सकते हैं | बाबा रामदेव भी इसका विरोध करेंगे लेकिन कुछ लोगों को इस बात की छूट नहीं दी जा सकती कि वे अपनी लापरवाही की सजा दूसरों को दें | मास्क और शारीरिक दूरी के लिए दबाव बनाए जाने के साथ ही टीकाकरण के प्रति भी सख्ती दिखानी होगी | लोगों की उदासीनता की वजह से हजारों टीके रोज बर्बाद  होना  राष्ट्रीय क्षति है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 7 June 2021

केंद्र अग्रज और राज्य अनुज की तरह रहें : देश के सामने राजनीतिक हित तुच्छ



केंद्र और राज्यों के रिश्ते संघीय ढांचे के आधार हैं | भारत के संदर्भ में ये इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यहाँ  भाषा , बोली , खान - पान , पहिनावा , रीति - रिवाज आदि में जबरदस्त अंतर  है | अनेक राज्यों के विभिन्न अंचलों तक में भिन्नता स्पष्ट  है | मप्र को ही लें तो यहाँ मध्यभारत  , मालवा , महाकोशल और विंध्यप्रदेश नामक अंचलों में बहुत सी बातों में बड़ा फर्क  है | ये देखते हुए केंद्र और राज्यों के बीच एकरूपता बनाए रखना आसान नहीं होता | जब तक देश में एक ही पार्टी का शासन रहा तब तक केन्द्रीय  सत्ता और प्रदेश सरकारों  के बीच तलामेल में ज्यादा दिक्कतें नहीं आईं | हालाँकि केरल की निर्वाचित वामपंथी सरकार को बिना किसी कारण के बर्खास्त करने का खेल पंडित नेहरु के काल में हुआ जो लोकतंत्र के बड़े हिमायती थे | उसके बाद भी विरोधी विचारधारा वाली अनेक  राज्य सरकारों को सत्ता से हटाने के लिए राष्ट्रपति  शासन लगाने का काम किया जाता रहा | इस खेल में सभी पार्टियां बारबार की दोषी रहीं | 1977 में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनते ही कांग्रेस शासित अनेक राज्य सरकारें भंग कर दी गईं | 1980 में इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं तो उन्होंने भी वही किया | अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने बोम्मई मामले में ये फैसला दिया कि  राज्य सरकार के बहुमत का फैसला राजभवन नहीं अपितु सदन के भीतर किया जावे | दलबदल विरोधी कानून लागू होने के बाद आयाराम - गयाराम का सिलसिला कुछ थमा किन्तु उसकी भी तोड़ कालान्तर में निकाल ली गयी | इस तरह राज्य सरकारों को भंग कर राष्ट्रपति शासन थोपने की चाल पर तो विराम लगा लेकिन उसकी जगह ले ली केंद्र और राज्यों में भिन्न  विचारधारा  की सरकार  के बीच खींचातानी ने | नब्बे के दशक से देश में गठबंधन राजनीति ने अपनी जगह पुख्ता की | विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों का भी वर्चस्व कायम हुआ जिनसे हाथ मिलाने के लिए राष्ट्रीय पार्टियां तक मजबूर हुईं | आज के परिदृश्य पर नजर डालें तो बिहार , झारखंड , हरियाणा , महाराष्ट्र , तामिलनाडु , पुडुचेरी के अलावा उत्तर पूर्व के अनेक राज्यों में राष्ट्रीय पार्टियों ने क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर सत्ता में हिस्सेदारी हासिल की | इसी तरह राज्यसभा  में किसी प्रस्ताव को पारित करवाने के लिए केंद्र सरकार को क्षेत्रीय दलों का सहयोग मिलता रहा है | लेकिन जहां विशुद्ध  क्षेत्रीय या प्रतिद्वंदी राजनीतिक दल की  राज्य सरकारें हैं उनके  केंद्र से रिश्ते कुछ अपवाद छोड़कर तनावपूर्ण ही बने हुए हैं | इनमें सबसे ऊपर बंगाल और दिल्ली हैं जहां की मुख्यमंत्री  ममता बनर्जी और अरविन्द केजरीवाल का  केंद्र के साथ आये दिन विवाद चला करता है | हालाँकि झगड़े केरल की वामपंथी और महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार के अलावा छत्तीसगढ़ , पंजाब और राजस्थान  की कांग्रेस सरकारों के साथ भी होते रहते हैं | लेकिन बंगाल और दिल्ली के साथ तो  तलवारें म्यान के भीतर  जाने का नाम ही नहीं ले रहीं | बंगाल   विधानसभा के ताजा  चुनाव के बाद जिस तरह घात  - प्रतिघात का सिलसिला चल रहा है उससे तो कभी - कभी  लगने लगता है मानों ये दुश्मन देशों का झगड़ा हो | इसी तरह  केजरीवाल और मोदी सरकार के बीच सांप और नेवले जैसा रिश्ता चला आ रहा है | इन  विवादों में बात - बात पर अधिकार क्षेत्र और संविधान की दुहाई दी जाती है लेकिन सही बात तो ये है कि  वर्चस्व और राजनीतिक खींचातानी ही इनकी असली वजह है | केंद्र और राज्य के बीच मधुर  सम्बन्ध केवल संघीय ढांचे की संवैधानिक औपचारिकता पूरी करने के लिए ही नहीं वरन राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए भी जरूरी हैं | लेकिन हमारे देश में राजनीतिक स्वार्थों के आगे राष्ट्रीय  महत्व के मुद्दों की बलि चढ़ा दी  जाती है | इसके लिए किसी एक को कसूरवार  ठहाराना अन्याय होगा क्योंकि केंद्र और राज्यों की सत्ता में बैठी विरोधी सरकारें मौका मिलते ही एक दूसरे को नीचा दिखाने से बाज नहीं आतीं | सामान्य दिनों में तो इस तरह की बातें नजरंदाज की भी जा सकती हैं किन्तु जब देश कोरोना जैसे अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा हो , आर्थिक स्थिति अच्छी न हो और सीमा पर भी लगातार तनाव का माहौल हो तब केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय और सौहार्द्र बड़ी अनिवार्यता है | आज के संदर्भ में  ममता और केजरीवाल  ही नहीं अपितु उद्धव ठाकरे , भूपेश बघेल , अशोक गहालोत , कैप्टेन अमरिंदर सिंह और केरल के विजयन के साथ भी मोदी सरकार के रिश्ते अच्छे नहीं कहे जा सकते |  लेकिन उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भाजपा विरोधी होते हुए भी बहुत ही संयत राजनेता की तरह अपने राज्य के हित में आचरण करते हैं | ऐसा ही कुछ - कुछ आंध्र और तेलंगाना के साथ भी है |  ये सब देखते हुए आने वाले दिनों में केंद्र और राज्यों के बीच सामंजस्य और सहयोग बढ़ाने की जरूरत है | संवैधान प्रदत्त अधिकारों के अलावा केंद्र को बड़े भाई और राज्यों को अनुजवत अपने  कर्तव्यों का पालन करना चाहिए क्योंकि जब सवाल देश का आ जाए तब राजनीतिक हितों को किनारे कर देना ही बुद्धिमानी है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 5 June 2021

सोचिए , हम अपनी संतानों को क्या देने जा रहे हैं



आज विश्व पर्यावरण दिवस है। इस दिन पर्यावरण को बचाने के लिये तरह - तरह के सरकारी  और गैर सरकारी आयोजन होते हैं। उनका  उद्देश्य प्रकृति का संरक्षण कम फ़ोटो छपाना ज्यादा होता है ।  जो नेता और नौकरशाह विकास के नाम पर वृक्षों के बेरहमी से कत्ले आम में रत्ती भर संकोच नहीं करते वे ही आज के दिन पौधे रोपकर पर्यावरण के सबसे बड़े हिमायती बन  जाते हैं । बीते वर्ष और इस साल भी कोरोना के कारण पर्यावरण सम्बन्धी भव्य आयोजन तो नहीं किये जा सके लेकिन एक बात अधिकतर लोगों के मन में बैठ गई है  कि प्रकृति के प्रति उनका निर्दय व्यवहार ही पर्यावरण में आई विकृति का एकमात्र कारण है। कोरोना के विश्वव्यापी फैलाव को भी पर्यावरण असंतुलन से जोड़कर देखा जा रहा है किंतु वह अभी तक वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित नहीं हो सका। बावजूद उसके विगत और इस वर्ष भी लॉक डाउन के दौरान प्रकृति ने जिस तरह राहत  की सांस ली उसने समूची मानव जाति को अपने भीतर झांकने के लिए प्रेरित कर दिया। दूर न जाते हुए हम अपने देश पर ही नजर डालें  तो प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में गंगा नदी का जल न सिर्फ चमत्कारिक ढंग से स्वच्छ  हुआ अपितु जलचर भी निडर होकर अठखेलियाँ करते  किनारों पर दिखने लगे। दरअसल नदी के  किनारे पूजन सामग्री से लबालब रहने से मछलियां वहां तक आने से कतराती थीं। गंगा को प्रदूषण मुक्त करने पर  बड़ी राशि लुटाई जा चुकी है किंतु  अपेक्षित परिणाम नहीं आये।  जबकि लॉक डाउन के दौरान   वैज्ञानिक परीक्षण किये जाने पर उसके जल की शुद्धता  से वे आश्चर्यचकित  रह गये। वाराणसी के अलावा भी अन्य शहरों के पास प्रवाहित  नदियों की दशा में भी ऐसा ही गुणात्मक सुधार महसूस किया गया। औद्योगिक इकाइयों से आने वाले प्रदूषित जल के रुकने के अलावा प्रतिदिन भक्तगणों के न आने से भी  नदियों को लंबी सांस लेने की छूट मिली। अप्रैल के साथ ही मई की भीषण गर्मी ने भी पिछले और इस वर्ष रौद्र रूप नहीं दिखाया। छोटे और बड़े सभी शहरों में वायु प्रदूषण में  अकल्पनीय सुधार भी देखने मिला। तर्राई क्षेत्रों के निवासियों को तो तब बेहद आनंद मिला जब वातावरण में धूल  और धुंआ कम हो जाने से नंगी आंखों से दूर - दूर के   वे पर्वत भी नजर आने लगे जो पहले दूरबीन से भी बमुश्किल दिखते थे। ये भी अनुभव हुआ  कि गर्मी में  होने वाली आम बीमारियों से लोगों को राहत मिली। गौरतलब है लॉक डाउन में ज्यादातर  जनरल प्रैक्टिशनर अपना दवाखाना बंद कर बैठ गए ।  लेकिन अपवादस्वरूप कुछ को छोड़कर अधिकतर लोगों  को पर्यावरण में आये सुखद बदलाव ने स्वस्थ बनाये रखा।  बीते अनेक वर्षों से गायब हो चुके पक्षियों की मौजदगी का सुखद एहसास भी इस दरम्यान हुआ । घरों की बगिया में तितलियां भी मंडराती दिखीं वहीं राष्ट्रीय उद्यानों में अक्सर  छिपे रहने वाले वन्य जीव निडर होकर बाहर आने लगे। इस दृष्टि से दोनों लॉक डाउन  प्रकृति और पर्यावरण के लिए जीवनदायी साबित हुए  किन्तु ढील दिए जाते ही चंद दिनों में  स्थिति पूर्ववत बनने लगी और मानवीय वासना  पर्यावरण संरक्षण के सुखद एहसास पर पानी फेरने के लिए अपने वीभत्स  रूप में सामने आ गई। ये भी कह सकते हैं कि लॉक डाउन से कोरोना  के फैलाव को रोकने के साथ ही प्रकृति और पर्यावरण को जीवनदान मिला।  इस आधार पर इसे पर्यावरण संरक्षण का दौर भी कह सकते हैं। लेकिन इससे  कुछ नहीं सीखा तो फिर ये कहना पड़ेगा कि हम अपनी भावी पीढ़ियों को खतरे में डालने पर आमादा  हैं । यदि लॉक डाउन के दौरान जैसा आचरण स्थायी तौर पर हम  आत्मसात कर सकें तो पर्यावरण  विषयक चिंताएं दूर हो सकती हैं। सही कहा जाए तो ये केवल एक  या कुछ दिनों की रस्म अदायगी तक सीमित न रहकर हमारे जीवन का स्थायी हिस्सा होना चाहिए। जिस तरह  सांस लेना हमारे लिए जरूरी है वैसी ही अनिवार्यता प्रकृति और पर्यावरण को बचाने की भी है। जिस दिन हम इसके महत्व को समझ लेंगे तो वर्ष का हर दिन  पर्यावरण दिवस होगा। जल, जंगल और जमीन के प्रकृति प्रदत स्वरूप को  ज्यादा से ज्यादा सुरक्षित रखने पर ही भावी पीढ़ियां  स्वस्थ और सुरक्षित रहेंगी। बुजुर्गों से विरासत में  हरी-भरी धरती मिली थी लेकिन हम अपनी संतानों को जो प्रदूषित वातावरण देने जा रहे हैं उसकी चिंता करने का समय आ चुका है। यदि अब भी हम सतर्क और जिम्मेदार न हुए तो ये मान लेना ही सही रहेगा  कि हमने खुद अपने विनाश की शुरुवात कर दी है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 4 June 2021

दस लाख तक की आय करमुक्त करने से बाजार में मांग बढ़ेगी



लगातार दूसरा  वित्तीय वर्ष कोरोना की  बलि चढ़ने जा रहा है | पहले से मंदी की शिकार अर्थव्यवस्था के लिए वह  दूबरे में दो आसाढ़ की कहावत को चरितार्थ करने वाला साबित हुआ | सकल घरेलू उत्पादन ( जीडीपी ) और विकास दर के आंकड़ों में भी आये दिन बदलाव होने से उद्योग - व्यापार की दिशा ही तय नहीं हो पा रही | संतोष की बात है कि कृषि क्षेत्र ने विषम परिस्थितियों में भी आशातीत प्रदर्शन करते हुए रिकॉर्ड पैदावार की जिससे  खाद्यान्न संकट का सामना करने से देश बचा रहा | लेकिन शहरों में बीते सवा साल में अनेक।माह बाजार बंद होने से व्यापारी और उद्योगपति दोनों हलाकान होते रहे | लॉक  डाउन के कारण उपभोक्ता बाजार से दूर हो गया जिसका असर अंततः औद्योगिक उत्पादन पर पड़ा |  कारोबार घटने से सरकार की कर वसूली पर भी बुरा असर हुआ  | सबसे ज्यादा मुसीबत में आये बैंक जिनके कर्ज बड़ी संख्या में वसूली के अभाव में फंस जाने से उनके सामने पूंजी का संकट पैदा हो गया | जो लोग साधन संपन्न या यूँ कहें कि धनवान थे वे तो इस संकट का सामना जैसे - तैसे कर भी गये और जो गरीब हैं उनके पेट भरने का इंतजाम सरकार ने जितना बन सका किया |  हालाँकि रोजगार छिन जाने से उनको भी जीवन यापन में अकल्पनीय दिक्कतें उठानी पड़ीं किन्तु जो मध्यमवर्गीय नौकरपेशा , व्यवसायी अथवा सेवा क्षेत्र से जुड़ा स्व रोजगारी है उसके लिए बीता एक वर्ष भारी संकट लेकर आया | सरकारी कर्मचारी को तो गनीमत है , वेतन मिलता रहा लेकिन निजी क्षेत्र में कार्यरत लोगों को नौकरी जाने अथवा वेतन कटौती का दंश झेलना पड़ा | यही स्थिति स्वरोजगार एवं अन्य पेशेवरों की है जिनका कारोबार लॉक डाउन में बड़े पैमाने पर कम हो गया | अब जैसी कि उम्मीद है आगामी कुछ दिनों में देश कोरोना की दूसरी लहर के प्रकोप से करीब - करीब मुक्त हो जाएगा | तमाम विसंगतियों के बावजूद प्रतिदिन लाखों लोगों को कोरोना  संक्रमण से बचने के लिए रक्षा कवच के रूप में टीका भी लगाया जा रहा है | इसी के साथ ये खबर भी आ रही है कि रबी फसल की सरकारी ख्ररीद ने बीते साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया और किसानों के  बैंक खाते में सीधे उसकी राशि जमा  भी की जा रही है | आर्थिक  मामलों के जानकारों का मानना है कि किसानों की जेब में आया पैसा जल्द ही बाजारों में आयेगा जिससे मांग बढ़ेगी और  उद्योगों को उत्पादन बढाने हेतु प्रोत्साहन मिलेगा | सरकार भी जीएसटी के तौर पर आय का प्रवाह  तेज होने से परेशानी से उबर सकेगी | लेकिन  केवल किसान के बाजार में आने मात्र से अर्थव्यवस्था को प्राणवायु मिलने की बात सोचना अतिशयोक्ति होगी क्योंकि जब तक शहरों में रहने वाला मध्यमवर्ग बाजार में अपनी मौजूदगी दर्ज नहीं करवाता तब तक अर्थव्यवस्था घुटनों के बल भले ही चलने लायक हो जाए लेकिन  पैर्रों पर खड़े होने लायक नहीं हो सकेगी | गत वर्ष के बजट और उसके बाद के  पैकेजों में सरकार ने इस वर्ग को राहत देने के अनेक जतन किये किन्तु वे  कारगर नहीं हुए तो उसकी वजह उनका अव्यवहारिक होना था | ये सब देखते हुए यदि केंद्र सरकार चाहती है कि व्यापार और उद्योग पुरानी रंगत में लौटें तब उसे  चाहिए कि वह मध्यमवर्गीय करदाता की   दस लाख तक की आय को करमुक्त कर दे | ऐसा करने मात्र से बहुत बड़े तबके के मन में अनिश्चित भविष्य को  लेकर समाया भय कम होगा और वह बाजार को गुलजार करने निकलेगा | आज के हालात में मध्यमवर्गीय व्यक्ति चाहे वह किसी भी पेशे में हो , बहुत परेशान है | न तो उसके पास संचित धन है और न ही गरीबों की तरह उसे सरकार से सीधी सहायता मिल रही है |  ऐसे में उसके हाथ बंध जाने से वह बहुत जरूरी खरीदी ही कर पा रहा है और वह भी तकलीफ उठाकर | यदि सरकार इस वर्ग को सीधे राहत देते हुए आयकर छूट की सीमा बढाकर दस लाख रु. कर  दे , लेकिन उसके साथ किसी तरह की चालबाजी न हो तो अर्थव्यवस्था को किसानों के साथ ही शहरी समर्थन भी भरपूर मिलने लगेगा | बाजारों में रौनक आने से कर वसूली के आंकड़े तो सुधरेंगे ही , बेरोजगारी भी दूर होगी | मौजूदा हालातों में अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिए सरकार और रिजर्व बैंक द्वारा किये गये तमाम प्रयास इसलिए आधा- अधूरा नतीजा दे पाए क्योंकि उनमें पेचीदगियों की भरमार थी | बैंकों को दरियादली दिखाने को तो कहा जाता रहा किन्तु उनके हाथ भी  बांधकर रखे गये | ये देखते हुए बेहतर होगा कि किसान के बाद भारतीय अर्थव्यस्था की  रीढ़  कहलाने वाले मध्यमवर्ग को आयकर छूट के  तौर पर सीधी राहत दी  जाए जिससे वह आर्थिक  के अलावा मानसिक तौर पर भी मजबूत बने जो वर्तमान हालातों में  सबसे बड़ी जरूरत है | काश , हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड में पढ़े सरकार के आर्थिक सलाहकार इस आसान  तरीके को समझ पाते |

- रवीन्द्र वाजपेयी



Thursday 3 June 2021

टीकाकरण अभियान में नीतिगत अस्थिरता पर न्यायपालिका की नाराजगी गैर वाजिब नहीं



गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने कोरोना टीकाकरण में व्याप्त विसंगतियों  पर नाराजगी व्यक्त करते हुए केंद्र सरकार द्वारा टीकों के आवंटन संबंधी सभी दस्तावेज मंगवाए , जिनमें फ़ाइल पर लिखे गये नोट्स भी हैं | उल्लेखनीय है न्यायालय द्वारा टीकाकरण को लेकर आ रही शिकायतों पर सरकार से अनेक सवाल पूछते हुए हलफनामे में उनका जवाब देने हेतु दो सप्ताह  का समय दे दिया | सरकार की तरफ से नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप को चुनौती दिए  जाने पर अदालत ने तल्खी भरे अंदाज में कहा कि जनता की तकलीफ देखकर वह मूकदर्शक नहीं रह सकती | अपने आदेश में सर्वोच्च न्यायालय  ने राज्य सरकारों को  कुछ टीके मुफ्त और कुछ निजी अस्पतालों को बेचे जाने पर ऐतराज करते हुए टीकाकरण नीति और अब तक उस पर खर्च हुई राशि का विवरण मांगते हुए  ऑन लाइन पंजीयन में हो रही परेशानी के साथ ग्रामीण और शहरी आबादी के अनुपात में  भेदभाव का भी संज्ञान लिया है | स्मरणीय है टीकाकरण शुरू होने पर केंद्र और राज्यों की तरफ से ये आश्वासन दिया गया था कि वह पूरी तरह मुफ्त होगा | लेकिन जब उसकी शुरुवात हुई तो सरकारी केन्द्रों में तो वह निःशुल्क लगा किन्तु निजी अस्पतालों को 150 रु. में दिये जाने के साथ ही 100 रु. सेवा शुल्क लेने  की अनुमति दी गई | यद्यपि अनेक निजी अस्पतालों ने सेवा शुल्क लिए बिना ही टीके लगाये | लेकिन बाद में सरकार ने जो नीति बनाई उसके तहत 50 फीसदी टीके तो राज्य सरकारों को मुफ्त दिए गये वहीं शेष निजी अस्पतालों को ऊंची दरों पर जिससे अलग - अलग टीकों की औसतन कीमत 1000 रु. तक जा पहुंची | इस कारण बड़ा वर्ग सरकारी टीकाकरण के भरोसे आकर टिक गया | इस बारे में यह उल्लेखनीय है कि टीकाकरण अभियान जिसे प्रधानमन्त्री ने उत्सव का नाम दिया , शुरुवात में अपेक्षानुरूप नहीं रहा | निःशुल्क  होने के बाद भी एक वर्ग टीका लगवाने के प्रति उदासीन रहा किन्तु ज्योंही आयु सीमा घटी त्योंही भीड़ बढ़ने लगी और 18 वर्ष से ऊपर वालों को भी पात्र माने  जाने के बाद से तो अफरातफरी मच गई | अस्पतालों के अलावा अनेक टीकाकरण केंद्र खोलकर  ऑनलाइन पंजीयन की सुविधा भी दी गई किन्तु उसमें भी वे सभी परेशानियां देखने में मिल रही हैं जो हमारी पहिचान हैं | टीकों की कमी के कारण अनेक  केंद्र बंद भी किये गए | कुछ दिन तक टीकाकरण रोकने की नौबत देश की राजधानी दिल्ली तक में आ गई | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि इस  काम में सरकारी नीतियां और निर्णय जिस तरह अचानक बदले जाते रहे उससे वह अनिश्चितता और  अव्यवस्था का शिकार होकर रह गया | हालाँकि खुद सर्वोच्च न्यायालय हाल ही में तमिलनाडु उच्च न्यायालय के एक फैसले के संदर्भ में कह चुका है कि अदालतों को ऐसे आदेश नहीं देना चाहिए जिनका पालन करना असम्भव हो | दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा 80 वर्ष से अधिक आयु वालों की बजाय युवाओं को टीकाकरण में प्राथमिकता देने संबंधी आदेश में जो टिप्पणी की गई वह भी अशोभनीय कही जायेगी | लेकिन सरकार का ये कहना कि नीतिगत मामलों में न्यायपालिका का हस्तक्षेप अनुचित है कुछ हद तक गलत है क्योंकि समीक्षा और निगरानी के तौर पर न्यायालयों की  भूमिका लोकतान्त्रिक व्यवस्था में नियन्त्रण और संतुलन के लिए आवश्यक  प्रतीत होती है | ये बात सही है कि सरकार के दैनंदिन कार्यों  में न्यायिक  सक्रियता  अनेक अवसरों पर अतिरंजित लगती है लेकिन दूसरी तरफ ये भी उतना ही सही है कि आम जनता के लिये सत्ता के उच्च शिखर तक अपनी बात पहुँचाने के माध्यम सिकुड़ जाने और जनप्रतिनिधियों के चुनाव जीतने के बाद मतदाताओं से दूरी बना लेने के कारण अब न्यायपालिका में ही उम्मीद की किरण नजर आने से साधारण जन उसी के जरिये अपनी पीड़ा व्यक्त कर पाते हैं | शासन व्यवस्था चाहे वह केंन्द्र की हो  अथवा राज्य की , पहले जैसी संवेदनशील नहीं रही | सत्ता में बैठे नेतागणों की प्रशासनिक अक्षमता की वजह से नौकरशाही ने निर्णय प्रक्रिया पर कब्ज़ा कर लिया है | इसका  दुष्प्रभाव जनता की उपेक्षा के रूप में दिखाई दे रहा है | कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जो कुछ भी हुआ उसकी पूरी जिम्मेदारी सरकार की भले न हो लेकिन लोगों के इलाज में निजी अस्पतालों को लूटने का जो अभियान चला उसे रोकने में केंद्र  और राज्यों की सरकारें विफल रहीं | उसके बाद टीकाकरण के अभियान का संचालन भी बेहद फूहड़पन से किया जाना ये साबित करता है कि शासन और प्रशासन अपने दायित्व निर्वहन के प्रति गंभीर नहीं हैं | सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस जो कहा उस पर सकारात्मक  दृष्टिकोण का प्रदर्शन करते हुई टीकाकरण अभियान को सुव्यवस्थित करना चाहिये क्योंकि  कोरोना की  तीसरी लहर आने के पहले अधिकांश देशवासियों को टीका लगाया जाना नितांत जरूरी है |


- रवीन्द्र वाजपेयी

 

Wednesday 2 June 2021

परीक्षाएं रद्द हो सकती हैं तो चुनाव क्यों नहीं टल सकते



केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ( सीबीएसई ) ने 10 वीं के बाद 12 वीं की परीक्षा भी रद्द कर दी | खुद  प्रधानमंत्री ने इस आशय की घोषणा की | राज्यों को भी अपने शिक्षा मंडलों में ऐसे ही फैसले करने की छूट दे दे गयी है | इस  निर्णय का कारण कोरोना संक्रमण की स्थिति में छात्रों के स्वास्थ्य और  सुरक्षा की चिंता करना बताया गया जो पूरी तरह उचित भी है | मूल्यांकन से असंतुष्ट छात्रों को परीक्षा का विकल्प भी दिया गया है | लेकिन इसी के साथ  मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा का ये  बयान भी पढ़ने मिला कि आगामी वर्ष होने वाले पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव निर्धारित समय पर ही कराए जायेंगे | ये राज्य हैं मणिपुर , गोवा , पंजाब , उत्तराखंड और उप्र | हमारे देश में चुनाव करवाना बहुत ही पेचीदा काम है | इसलिये चुनाव आयोग काफी पहले से तैयारियां शुरू कर देता है | मतदाता सूचियाँ नए सिरे से बनाने के साथ ही सुरक्षा और प्रशासनिक प्रबन्ध भी करने होते हैं | उस दृष्टि से मुख्य चुनाव आयुक्त ने ऐसी कोई बात नहीं कही जो अस्वाभाविक हो | लेकिन कोरोना के कारण देश में जो परिस्थितियां उत्पन्न हुईं उनमें चुनाव करवाए जाने से जनता का बड़ा वर्ग बहुत नाराज है | अभी हाल ही में असम , बंगाल , तमिलनाडु , केरल और पुडुचेरी में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमन्त्री सहित अन्य नेताओं की रैलियों में उमड़ी भीड़ में कोरोना अनुशासन की धज्जियां उड़ने पर पूरे देश में गुस्सा देखा गया | बंगाल , तमिलनाडु और केरल में चुनाव उपरांत कोरोना का संक्रमण जिस तेजी से बढ़ा उसके लिए देश का जनमत चुनाव प्रचार करने वाले नेताओं को ही जिम्मेदार मानता है | अनेक विपक्षी नेताओं ने प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर खूब हमले किये लेकिन उन सबने भी रैलियां करने में कोई कसर नहीं छोड़ी | भले  ही बीते कुछ दिनों से कोरोना की  दूसरी लहर का प्रकोप काफी कम हो गया  लेकिन इसी के साथ ही तीसरी लहर के आने की आशंकाएं भी लगातार व्यक्त की जा रही हैं जिसका समय आगामी नवम्बर से अगले साल की जनवरी  तक बताया जा रहा है | ये आश्वासन भी दिया जा रहा है कि तीसरी लहर यदि आती भी है तो वह लम्बी नहीं खिंचेगी | सरकारी जानकारी के अनुसार दिसम्बर तक पूरे देश को कोरोना का टीका लगा दिया जावेगा | लेकिन  टीके को लेकर जो अनिश्चितता बनी हुई है उसे देखते हुए सरकारी आश्वासन पर विश्वास नहीं  होता | और फिर तीसरी लहर कोई पूछ बताकर तो आयेगी नहीं | इसके अलावा देश की अर्थव्यवस्था भी डांवाडोल है | वर्तमान वित्तीय वर्ष में सकल घरेलू उत्पादन ( जीडीपी ) और विकास दर के अनुमान आये दिन संशोधित हो रहे हैं | वित्तीय घाटा स्वाभाविक तौर पर बढ़ गया है | केंद्र और राज्यों की सरकारें कोरोना काल में चिकित्सा के साथ ही राहत के कार्यों में उलझी रहीं जिससे विकास  के बाकी काम पिछड़ गए | ऐसे में चुनाव का आयोजन न केवल  कोरोना संक्रमण की वापिसी  में सहायक बन सकता है अपितु उसमें सरकारी खजाने से जो धन खर्च होगा उसका उपयोग किसी और जरूरी काम में हो तो वह ज्यादा सार्थक होगा | इसके अलावा  राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव में जिस बेरहमी से   पानी की तरह पैसा बहाया जाता है उसका बोझ भी घूम फिरकर जनता पर ही पड़ता है क्योंकि चुनावी चंदा भ्रष्टाचार के प्रमुख कारणों में से है | जिन पांच राज्यों में आगामी साल चुनाव होने हैं उनमें से पंजाब , उप्र और गोवा में कोरोना का जबर्दस्त  कहर  देखने मिला | मौतें भी खूब हुईं | उप्र में कोरोना के चरमोत्कर्ष के दौरान हुए पंचायत चुनाव का संचालन जिन सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के जिम्मे था उनमें से बड़ी संख्या में कोरोना ग्रसित हुए | ये सब देखते हुए सभी राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग से मिलकर कोई ऐसा सर्वसम्मत रास्ता निकालना चाहिए जिससे न तो संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन हो और न ही जन के साथ धन हानि की आशंका  बढ़े | कुछ समय पहले इसी स्तंभ में साल - दो साल चुनाव स्थगित करने संबंधी सुझाव दिये जाने पर अनेक पाठकों ने उसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को खत्म करने का प्रयास बताकर  विरोध किया था लेकिन बंगाल चुनाव के दौरान रैलियों को लेकर जो विपरीत प्रतिक्रिया देश भर से आई उसे देखने के बाद ये कहना गलत न होगा कि चुनाव संवैधानिक आवश्यकता होते हुए भी देश और जनहित से बड़ा नहीं हो सकता | आगामी कम से कम दो साल देश को कोरोना से हुए नुकसान से उबरने में लगेंगे | ऐसे में चुनाव आ जाने से केंद्र और  सम्बन्धित राज्य की सरकार सब काम भूलकर उसमें जुट जाती हैं | विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा 5 राज्यों के चुनाव हेतु तैयारियां शुरु करने के भी संकेत मिलने लगे हैं | हालातों के मद्देनजर यदि 10वीं और 12वीं जैसी परीक्षाएं जिनका विद्यार्थी के जीवन में बेहद  महत्वपूर्ण  स्थान होता है , यदि इस कारण से  रद्द की जा सकती हैं कि नई पीढ़ी का स्वास्थ्य और सुरक्षा ज्यादा जरूरी है तो चुनावों में भी तो लाखों लोगों का स्वास्थ्य दांव पर लग सकता है | और अब तो युवा मतदाता भी काफी हैं | चुनाव आयोग चाहे जितनी  सख्ती कर ले  लेकिन  वह नेताओं की रैलियों की भीड़ से  मास्क और शरीरिक दूरी जैसे अनुशासन का पालन नहीं करवा सकता | ऐसे में समय रहते  इस बारे में विचार होना चाहिए | राष्ट्रपति शासन के अलावा विधानसभा का कार्यकाल बढ़ाये जाने जैसे विकल्प भी हो सकते हैं | आने वाले कम से कम एक साल कोरोना से हुई क्षति की पूर्ति पर पूरा ध्यान देना देश हित में होगा | देखें राजनीतिक दल इस दिशा में  क्या सोचते हैं  ?

- रवीन्द्र वाजपेयी