Wednesday 23 June 2021

कैप्टन और बल्लेबाज के झगड़े में टीम का कबाड़ा



एक जमाने में जो स्थिति समाजवादी कुनबे की हुआ करती थी वही आज कांग्रेस की हो गई है। ताजा उदाहरण पंजाब का है। 2017 के विधानसभा चुनाव में नशे के मुद्दे पर बदनाम हो चुकी अकाली - भाजपा सरकार को हटाकर जनता ने कांग्रेस को चुना था । कैप्टन अमरिन्दर सिंह मुख्यमंत्री बन गए। चुनाव के पहले वे  सांसद थे किंतु गांधी परिवार के न चाहते हुए भी दबाव बनाकर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बन बैठे। कहते हैं उन्होंने धमकी दे दी थी कि वे भाजपा में चले जायेंगे। इसी बीच 2014 में अमृतसर से लोकसभा टिकिट कटने पर भाजपा से नाराज चल रहे नवजोत सिंह सिद्धू ने राहुल गांधी के मार्फ़त कांग्रेस में प्रवेश कर किया। हालांकि उन्हें राज्यसभा में मनोनीत कर दिया गया था लेकिन वे मोदी सरकार में मंत्री बनने की चाहत रखते थे। जब उनको लगा कि   ज्यादा भाव नहीं मिल रहा तो पहले वे आम आदमी पार्टी की चौखट पर गए लेकिन मुख्यमंत्री का चेहरा बनाये जाने की शर्त पूरी न होने पर अंततः कांग्रेस में आ गए और जिन राहुल का पप्पू कहकर उपहास करते थे उन्हीं का अभिनंदन पत्र पढ़ने लग गए । उधर अमरिंदर चतुर राजनीतिज्ञ होने से समझ गए कि भारतीय क्रिकेट टीम का पूर्व सलामी बल्लेबाज निचले क्रम पर बल्लेबाजी करने राजी नहीं होगा। लिहाजा उन्होंने चुनाव के दौरान ही राहुल से ये घोषणा करवा ली कि बहुमत मिलने पर मुख्यमंत्री वही होंगे। और यहीं से सिद्धू का मन खट्टा हो गया। कांग्रेस की सत्ता आई और वे मंत्री भी बने लेकिन कैप्टन की कप्तानी उनको हजम नहीं हो रही थी सो 2019 में कुर्सी छोड़ बैठे और टीवी शो सहित अन्य गतिविधियों में व्यस्त हो गए किन्तु राजनीति का कीड़ा उनको काटता रहा और ज्योंही अगले विधानसभा  चुनाव की डुगडुगी बजना शुरू हुई तो वे बल्ला घुमाते मैदान में नजर आने लगे । बीच में उनकी पत्नी और पूर्व भाजपा विधायक नवजोत कौर ने बयान दे दिया कि भाजपा अगर अकालियों से नाता तोड़ ले तो उसमें वापिसी के बारे में सोचा जा सकता है। कृषि कानूनों को लेकर अकाली - भाजपा अलग भी हो गए लेकिन सिद्ध के बड़बोलेपन के चलते भाजपा ने उनसे दूर रहना ही बेहतर समझा। जब उनको लगा कि कांग्रेस में रहना मजबूरी है तो अमरिंदर सिंह के विरुद्ध नए सिरे से मोर्चा खोल बैठे। कांग्रेस  हाईकमान के पास शिकायतों का पुलिन्दा भेज दिया गया। अमरिंदर पर बादल परिवार के प्रति नरमी का आरोप भी  मढ़ा ।मुख्यमंत्री से नाराज कुछ मंत्री और विधायक भी सिद्धू की टीम में शामिल हो गए। जब   आलाकमान को लगा कि इस गृहकलह से अगला चुनाव हाथ से निकल जायेगा तब उसने कुछ नेताओं की समिति बनाकर कैप्टन को बातचीत के लिए बुलाया। उद्देश्य विवाद को खत्म करना था किंतु न कैप्टन झुकने राजी हुए न सिद्धू। गत दिवस अमरिन्दर फिर समिति के सामने पेश हुए और बार - बार बुलाये जाने पर गुस्सा व्यक्त करते हए साफ कह दिया कि वे नवजोत को न उपमुख्यमंत्री बनाएंगे न प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर स्वीकारेंगे। सिद्धू के आरोपों पर सफाई देने के साथ ही मुख्यमंत्री ने उनकी बेलगाम जुबान पर लगाम लगाने की मांग भी कर डाली। सुना तो ये भी गया है कि उन्होंने समिति को संकेत दे  दिया है कि यदि सिद्धू को उनके सिर पर लादने की कोशिश हुई तो वे कांग्रेस को तोड़कर अलग पार्टी बना लेंगे । पंजाब के ग्रामीण और नगरीय निकाय चुनावों में कांग्रेस ने अकालियों को जबरदस्त शिकस्त दी जबकि भाजपा का तो सूपड़ा ही साफ हो गया। किसान आन्दोलन की चिंगारी को शोला बनाने में भी अमरिंदर सिंह की भूमिका सर्वविदित है । यद्यपि उस मुद्दे पर अकाली केंद्र सरकार और भाजपा से अलग भी हो गए और प्रकाश सिंह बादल ने पद्मभूषण भी लौटा दिया लेकिन  आंदोलन को दिल्ली भेजने में अमरिंदर की रणनीतिक सोच कारगर रही जिससे उनका आत्मविश्वास और मजबूत हुआ जबकि सिद्धू इस मामले में फिसड्डी साबित हुए। ऐसे में अमरिंदर का ऐंठना स्वाभाविक है। उल्लेखनीय है 1984 में दिल्ली के सिख विरोधी  दंगों से नाराज कैप्टन  कांग्रेस छोड़ अकाली दल में चले गए थे तथा बादल सरकार में मंत्री भी बने। गांधी परिवार उस बात को नहीं भूला । नवजोत को कांग्रेस में प्रवेश दिलवाते समय राहुल के मन में अमरिंदर को।कमजोर करना था किंतु सिद्धू वही गलती कर वैठे जो दो - चार चौके - छक्के मारने के बाद अति - आत्मविश्वास का शिकार  बल्लेबाज बाहर जाती गेंद को छेड़कर कर बैठता है। निश्चित तौर पर वे काफी लोकप्रिय शख्सियत हैं। अच्छे वक्ता होने से प्रभाव भी छोड़ते हैं लेकिन राजनीति में जिस गम्भीरता और गहराई की आवश्यकता होती है उसका अभाव उनकी सभी खूबियों पर भारी पड़ जाता है । अमरिन्दर मंत्रीमंडल से हटने के बाद वे सामाजिक मुद्दों पर जनता के बीच जाते तब शायद उनकी अच्छी पकड़ बन जाती किन्तु बतौर विधायक अपने मतदाताओं तक से उनका सम्पर्क टूटा हुआ है । लेकिन इस लड़ाई में कांग्रेस विशेष रूप से गांधी परिवार के सामने इधर कुआ तो उधर खाई वाली स्थिति बन गई है। सिद्धू में धैर्य नहीं है और अमरिंदर एक नए - नवेले नेता के समक्ष सिर झुकाना शान के खिलाफ समझते हैं ।  वे सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष या उपमुख्यमंत्री तो दूर विधानसभा टिकिट तक देने को राजी नहीं है और उनकी बयानबाजी पर अनुशासन की कार्रवाई करने का दबाव बना रहे हैं। कांग्रेस से वही गलती पंजाब में भी होती दिख रही है जो मप्र में करने के बाद राजस्थान में उसकी पुनरावृत्ति को रोक पाने में वह असमर्थ है। उप्र में जितिन प्रसाद के जाने के बाद कुछ और नेताओं के खिसकने की खबर है। शरद पवार ने विपक्ष की बड़ी बैठक की लेकिन उसे  बुलाने की जरूरत तक नहीं समझी।  पंजाब कांग्रेस की साख बचाने के लिए जरूरी है। हालांकि अकाली दल भी अच्छी स्थिति में नहीं है और भाजपा उससे अलग होकर अस्तित्व के लिए परेशान है किंतु आम आदमी पार्टी इस शून्य को भर सकती है। अब यदि अमरिन्दर और सिद्धू  इसी तरह तलवारें तानते घूमते रहे तब कांग्रेस से हाथ से सत्ता  निकल सकती है। यदि कैप्टन कांग्रेस छोड़कर  नया दल बनाते हैं तब पंजाब त्रिशंकु की स्थिति में फंस जाएगा। कांग्रेस हाईकमान किसी तरह अमरिंदर को लचीला होने और सिद्धू को जुबान पर काबू रखने मना भी ले किन्तु दोनों के मन में भरी खटास कम नहीं हो सकती क्योंकि   कैप्टन को लगता है सिद्धू उनको चैन से रहने नहीं देंगे । वहीं नवजोत को लगता है अमरिंदर की कप्तानी में वे खुलकर शॉट नहीं लगा सकेंगे। रही कांग्रेस हाईकमान की बात तो मैदान में खड़े उसके अंपायरों को हर निर्णय के पहले गांधी परिवार नामक तीसरे अंपायर से पूछना पड़ता है जो निर्णय देने के बारे में पूरी तरह लापरवाह है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


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