केंद्र और राज्यों के रिश्ते संघीय ढांचे के आधार हैं | भारत के संदर्भ में ये इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यहाँ भाषा , बोली , खान - पान , पहिनावा , रीति - रिवाज आदि में जबरदस्त अंतर है | अनेक राज्यों के विभिन्न अंचलों तक में भिन्नता स्पष्ट है | मप्र को ही लें तो यहाँ मध्यभारत , मालवा , महाकोशल और विंध्यप्रदेश नामक अंचलों में बहुत सी बातों में बड़ा फर्क है | ये देखते हुए केंद्र और राज्यों के बीच एकरूपता बनाए रखना आसान नहीं होता | जब तक देश में एक ही पार्टी का शासन रहा तब तक केन्द्रीय सत्ता और प्रदेश सरकारों के बीच तलामेल में ज्यादा दिक्कतें नहीं आईं | हालाँकि केरल की निर्वाचित वामपंथी सरकार को बिना किसी कारण के बर्खास्त करने का खेल पंडित नेहरु के काल में हुआ जो लोकतंत्र के बड़े हिमायती थे | उसके बाद भी विरोधी विचारधारा वाली अनेक राज्य सरकारों को सत्ता से हटाने के लिए राष्ट्रपति शासन लगाने का काम किया जाता रहा | इस खेल में सभी पार्टियां बारबार की दोषी रहीं | 1977 में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनते ही कांग्रेस शासित अनेक राज्य सरकारें भंग कर दी गईं | 1980 में इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं तो उन्होंने भी वही किया | अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने बोम्मई मामले में ये फैसला दिया कि राज्य सरकार के बहुमत का फैसला राजभवन नहीं अपितु सदन के भीतर किया जावे | दलबदल विरोधी कानून लागू होने के बाद आयाराम - गयाराम का सिलसिला कुछ थमा किन्तु उसकी भी तोड़ कालान्तर में निकाल ली गयी | इस तरह राज्य सरकारों को भंग कर राष्ट्रपति शासन थोपने की चाल पर तो विराम लगा लेकिन उसकी जगह ले ली केंद्र और राज्यों में भिन्न विचारधारा की सरकार के बीच खींचातानी ने | नब्बे के दशक से देश में गठबंधन राजनीति ने अपनी जगह पुख्ता की | विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों का भी वर्चस्व कायम हुआ जिनसे हाथ मिलाने के लिए राष्ट्रीय पार्टियां तक मजबूर हुईं | आज के परिदृश्य पर नजर डालें तो बिहार , झारखंड , हरियाणा , महाराष्ट्र , तामिलनाडु , पुडुचेरी के अलावा उत्तर पूर्व के अनेक राज्यों में राष्ट्रीय पार्टियों ने क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर सत्ता में हिस्सेदारी हासिल की | इसी तरह राज्यसभा में किसी प्रस्ताव को पारित करवाने के लिए केंद्र सरकार को क्षेत्रीय दलों का सहयोग मिलता रहा है | लेकिन जहां विशुद्ध क्षेत्रीय या प्रतिद्वंदी राजनीतिक दल की राज्य सरकारें हैं उनके केंद्र से रिश्ते कुछ अपवाद छोड़कर तनावपूर्ण ही बने हुए हैं | इनमें सबसे ऊपर बंगाल और दिल्ली हैं जहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और अरविन्द केजरीवाल का केंद्र के साथ आये दिन विवाद चला करता है | हालाँकि झगड़े केरल की वामपंथी और महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार के अलावा छत्तीसगढ़ , पंजाब और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों के साथ भी होते रहते हैं | लेकिन बंगाल और दिल्ली के साथ तो तलवारें म्यान के भीतर जाने का नाम ही नहीं ले रहीं | बंगाल विधानसभा के ताजा चुनाव के बाद जिस तरह घात - प्रतिघात का सिलसिला चल रहा है उससे तो कभी - कभी लगने लगता है मानों ये दुश्मन देशों का झगड़ा हो | इसी तरह केजरीवाल और मोदी सरकार के बीच सांप और नेवले जैसा रिश्ता चला आ रहा है | इन विवादों में बात - बात पर अधिकार क्षेत्र और संविधान की दुहाई दी जाती है लेकिन सही बात तो ये है कि वर्चस्व और राजनीतिक खींचातानी ही इनकी असली वजह है | केंद्र और राज्य के बीच मधुर सम्बन्ध केवल संघीय ढांचे की संवैधानिक औपचारिकता पूरी करने के लिए ही नहीं वरन राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए भी जरूरी हैं | लेकिन हमारे देश में राजनीतिक स्वार्थों के आगे राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों की बलि चढ़ा दी जाती है | इसके लिए किसी एक को कसूरवार ठहाराना अन्याय होगा क्योंकि केंद्र और राज्यों की सत्ता में बैठी विरोधी सरकारें मौका मिलते ही एक दूसरे को नीचा दिखाने से बाज नहीं आतीं | सामान्य दिनों में तो इस तरह की बातें नजरंदाज की भी जा सकती हैं किन्तु जब देश कोरोना जैसे अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा हो , आर्थिक स्थिति अच्छी न हो और सीमा पर भी लगातार तनाव का माहौल हो तब केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय और सौहार्द्र बड़ी अनिवार्यता है | आज के संदर्भ में ममता और केजरीवाल ही नहीं अपितु उद्धव ठाकरे , भूपेश बघेल , अशोक गहालोत , कैप्टेन अमरिंदर सिंह और केरल के विजयन के साथ भी मोदी सरकार के रिश्ते अच्छे नहीं कहे जा सकते | लेकिन उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भाजपा विरोधी होते हुए भी बहुत ही संयत राजनेता की तरह अपने राज्य के हित में आचरण करते हैं | ऐसा ही कुछ - कुछ आंध्र और तेलंगाना के साथ भी है | ये सब देखते हुए आने वाले दिनों में केंद्र और राज्यों के बीच सामंजस्य और सहयोग बढ़ाने की जरूरत है | संवैधान प्रदत्त अधिकारों के अलावा केंद्र को बड़े भाई और राज्यों को अनुजवत अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए क्योंकि जब सवाल देश का आ जाए तब राजनीतिक हितों को किनारे कर देना ही बुद्धिमानी है |
- रवीन्द्र वाजपेयी
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