Thursday 3 June 2021

टीकाकरण अभियान में नीतिगत अस्थिरता पर न्यायपालिका की नाराजगी गैर वाजिब नहीं



गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने कोरोना टीकाकरण में व्याप्त विसंगतियों  पर नाराजगी व्यक्त करते हुए केंद्र सरकार द्वारा टीकों के आवंटन संबंधी सभी दस्तावेज मंगवाए , जिनमें फ़ाइल पर लिखे गये नोट्स भी हैं | उल्लेखनीय है न्यायालय द्वारा टीकाकरण को लेकर आ रही शिकायतों पर सरकार से अनेक सवाल पूछते हुए हलफनामे में उनका जवाब देने हेतु दो सप्ताह  का समय दे दिया | सरकार की तरफ से नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप को चुनौती दिए  जाने पर अदालत ने तल्खी भरे अंदाज में कहा कि जनता की तकलीफ देखकर वह मूकदर्शक नहीं रह सकती | अपने आदेश में सर्वोच्च न्यायालय  ने राज्य सरकारों को  कुछ टीके मुफ्त और कुछ निजी अस्पतालों को बेचे जाने पर ऐतराज करते हुए टीकाकरण नीति और अब तक उस पर खर्च हुई राशि का विवरण मांगते हुए  ऑन लाइन पंजीयन में हो रही परेशानी के साथ ग्रामीण और शहरी आबादी के अनुपात में  भेदभाव का भी संज्ञान लिया है | स्मरणीय है टीकाकरण शुरू होने पर केंद्र और राज्यों की तरफ से ये आश्वासन दिया गया था कि वह पूरी तरह मुफ्त होगा | लेकिन जब उसकी शुरुवात हुई तो सरकारी केन्द्रों में तो वह निःशुल्क लगा किन्तु निजी अस्पतालों को 150 रु. में दिये जाने के साथ ही 100 रु. सेवा शुल्क लेने  की अनुमति दी गई | यद्यपि अनेक निजी अस्पतालों ने सेवा शुल्क लिए बिना ही टीके लगाये | लेकिन बाद में सरकार ने जो नीति बनाई उसके तहत 50 फीसदी टीके तो राज्य सरकारों को मुफ्त दिए गये वहीं शेष निजी अस्पतालों को ऊंची दरों पर जिससे अलग - अलग टीकों की औसतन कीमत 1000 रु. तक जा पहुंची | इस कारण बड़ा वर्ग सरकारी टीकाकरण के भरोसे आकर टिक गया | इस बारे में यह उल्लेखनीय है कि टीकाकरण अभियान जिसे प्रधानमन्त्री ने उत्सव का नाम दिया , शुरुवात में अपेक्षानुरूप नहीं रहा | निःशुल्क  होने के बाद भी एक वर्ग टीका लगवाने के प्रति उदासीन रहा किन्तु ज्योंही आयु सीमा घटी त्योंही भीड़ बढ़ने लगी और 18 वर्ष से ऊपर वालों को भी पात्र माने  जाने के बाद से तो अफरातफरी मच गई | अस्पतालों के अलावा अनेक टीकाकरण केंद्र खोलकर  ऑनलाइन पंजीयन की सुविधा भी दी गई किन्तु उसमें भी वे सभी परेशानियां देखने में मिल रही हैं जो हमारी पहिचान हैं | टीकों की कमी के कारण अनेक  केंद्र बंद भी किये गए | कुछ दिन तक टीकाकरण रोकने की नौबत देश की राजधानी दिल्ली तक में आ गई | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि इस  काम में सरकारी नीतियां और निर्णय जिस तरह अचानक बदले जाते रहे उससे वह अनिश्चितता और  अव्यवस्था का शिकार होकर रह गया | हालाँकि खुद सर्वोच्च न्यायालय हाल ही में तमिलनाडु उच्च न्यायालय के एक फैसले के संदर्भ में कह चुका है कि अदालतों को ऐसे आदेश नहीं देना चाहिए जिनका पालन करना असम्भव हो | दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा 80 वर्ष से अधिक आयु वालों की बजाय युवाओं को टीकाकरण में प्राथमिकता देने संबंधी आदेश में जो टिप्पणी की गई वह भी अशोभनीय कही जायेगी | लेकिन सरकार का ये कहना कि नीतिगत मामलों में न्यायपालिका का हस्तक्षेप अनुचित है कुछ हद तक गलत है क्योंकि समीक्षा और निगरानी के तौर पर न्यायालयों की  भूमिका लोकतान्त्रिक व्यवस्था में नियन्त्रण और संतुलन के लिए आवश्यक  प्रतीत होती है | ये बात सही है कि सरकार के दैनंदिन कार्यों  में न्यायिक  सक्रियता  अनेक अवसरों पर अतिरंजित लगती है लेकिन दूसरी तरफ ये भी उतना ही सही है कि आम जनता के लिये सत्ता के उच्च शिखर तक अपनी बात पहुँचाने के माध्यम सिकुड़ जाने और जनप्रतिनिधियों के चुनाव जीतने के बाद मतदाताओं से दूरी बना लेने के कारण अब न्यायपालिका में ही उम्मीद की किरण नजर आने से साधारण जन उसी के जरिये अपनी पीड़ा व्यक्त कर पाते हैं | शासन व्यवस्था चाहे वह केंन्द्र की हो  अथवा राज्य की , पहले जैसी संवेदनशील नहीं रही | सत्ता में बैठे नेतागणों की प्रशासनिक अक्षमता की वजह से नौकरशाही ने निर्णय प्रक्रिया पर कब्ज़ा कर लिया है | इसका  दुष्प्रभाव जनता की उपेक्षा के रूप में दिखाई दे रहा है | कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जो कुछ भी हुआ उसकी पूरी जिम्मेदारी सरकार की भले न हो लेकिन लोगों के इलाज में निजी अस्पतालों को लूटने का जो अभियान चला उसे रोकने में केंद्र  और राज्यों की सरकारें विफल रहीं | उसके बाद टीकाकरण के अभियान का संचालन भी बेहद फूहड़पन से किया जाना ये साबित करता है कि शासन और प्रशासन अपने दायित्व निर्वहन के प्रति गंभीर नहीं हैं | सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस जो कहा उस पर सकारात्मक  दृष्टिकोण का प्रदर्शन करते हुई टीकाकरण अभियान को सुव्यवस्थित करना चाहिये क्योंकि  कोरोना की  तीसरी लहर आने के पहले अधिकांश देशवासियों को टीका लगाया जाना नितांत जरूरी है |


- रवीन्द्र वाजपेयी

 

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