Saturday 29 September 2018

भीमा-कोरेगांव : यही बात महीने भर पहले कहनी थी

भीमा-कोरेगांव कांड के सिलसिले में पकड़े गए पांच संदिग्ध नक्सलियों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने जो निर्णय गत दिवस दिया वही यदि उनकी गिरफ्तारी के बाद प्रस्तुत याचिका पर दे देता तो बड़ी बात नहीं कि अब तक या तो उन पांचों को जमानत मिल जाती या फिर उन पर आरोप तय होकर कानूनी प्रक्रिया गति पकड़ लेती। स्मरणीय है 28 अगस्त को महाराष्ट्र पुलिस ने प्रधानमंत्री की हत्या के षड्यंत्र सहित राज्यद्रोह जैसे गंभीर आरोपों में उक्त पांचों व्यक्तियों को गिरफ्तार किया था। यद्यपि उन सभी की पहिचान वामपंथी कार्यकर्ता के तौर पर थी तथा कुछ पहले भी कतिपय मामलों में जेल जा चुके थे किन्तु इस मर्तबा उनकी गिरफ्तारी बतौर शहरी नक्सली की गई। चौंकाने वाली बात ये रही कि सहिष्णुता लाबी के कतिपय वामपंथी उनकी गिरफ्तारी के विरुद्ध सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंचे जिसने उन्हें हिरासत में रखे जाने की बजाय घर में ही नजरबंद रखने का निर्देश दिया। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने उस दिन ऐसी टिप्पणी कर दी मानो देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी पूरी तरह खत्म कर दी गई हो। काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सहित अधिकांश विपक्ष सरकार पर चढ़ बैठा। श्री चंद्रचूड़ की टिप्पणी ने उन पांचों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करते हुए महाराष्ट्र और केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय को इस बात पर नाराजगी थी कि बिना समुचित प्रमाण एकत्र किये महाराष्ट्र पुलिस ने राजनीतिक प्रतिशोधवश फर्जी प्रकरण बनाकर उक्त सामाजिक कार्यकर्ताओं को पकड़ लिया जो विभिन्न क्षेत्रों में नि:स्वार्थ भाव से काम कर रहे थे। अतीत में उनमें से कुछ के कतिपय मामलों में सजा भुगतने की बात का भी कोई संज्ञान नहीं लिया गया। अदालत ने महाराष्ट्र पुलिस को फटकारते हुए गिरफ्तारी के औचित्य को सिद्ध करने वाले दस्तावेज पेश करने कहा। बीच में एक दो पेशियां हुईं जिनमें पुलिस को और समय के साथ आरोपियों की घर में ही नजरबंदी बढ़ा दी गई। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला किया उसमें मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा एवं न्यायमूर्ति एएम खानविलकर ने याचिका को सिरे से खारिज करते हुए पांचों की रिहाई से इंकार ही नहीं किया अपितु महाराष्ट्र पुलिस को ही जांच का अधिकार देते हुए कह दिया कि आरोपियों को किसी साधारण आरोप में नहीं अपितु प्रतिबंधित संगठनों से संबंध रखने के कारण पकड़ा गया था। उन्हें जांच एजेंसी चुनने का अधिकार नहीं दिया जा सकता और वे अपनी रिहाई के लिए सक्षम अदालत में आवेदन कर सकते हैं। वहीं न्यायमूर्ति श्री चंद्रचूड़ ने दोनों से असहमति व्यक्त करते हुए महाराष्ट्र सरकार की पूरी कार्रवाई को गलत सुनाते हुए एक तरह से आरोपियों को बरी ही कर दिया। पीठ में 2 के विरुद्ध 1 के बहुमत से आए फैसले के बाद अब महाराष्ट्र पुलिस के सिर पर सर्वोच्च न्यायालय की जो तलवार लटक रही है वह फिलहाल हट गई है लेकिन जांच पूरी होने और आरोपपत्र दाखिल होने तक पांचों को घर पर ही नजरबंद रखने की जो व्यवस्था सर्वोच्च न्यायालय ने दी वह जरूर चौंकाने वाली हैं क्योंकि जिन लोगों पर प्रधानमंत्री की हत्या और राज्य के विरुद्ध विद्रोह की साजिश जैसे आरोप हों उनके प्रति सौजन्यता बरतने का ये तरीका नए विवाद का कारण बन सकता है। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह की बातें कहीं दरअसल यही उसे पहले दिन कहनी चाहिए थीं। जो लोग गिरफ्तार हुए उनकी जगह किन्हीं और द्वारा प्रस्तुत याचिका को प्राथमिकता के आधार पर सुनते हुए गिरफ्तारी को घर पर नजरबंदी में बदलने और महाराष्ट्र पुलिस को लताड़ लगते हुए अभिव्यक्ति को लोकतंत्र की आत्मा जैसी प्रवचनात्मक बातें करने से निश्चित रूप से महाराष्ट्र सरकार सहित वहाँ की पुलिस पर जो दबाव बनाया गया वह भी न्यायालयीन सक्रियता का अतिरेक ही कहा जायेगा। गत दिवस दो वरिष्ठ न्यायाधीशों ने खुलकर स्वीकार किया कि पांचों संदिग्ध नक्सलियों की गिरफ्तारी प्रतिबन्धित संगठनों से सम्बद्धता के कारण चूंकि हुई इसलिए उसमें हस्तक्षेप करना गलत होगा। उन्होंने ये टिप्पणी भी की कि आरोपी को जांच एजेंसी चुनने का अधिकार नहीं है और वे सक्षम निचली अदालत में ही राहत के लिए जाएं। एसआईटी के गठन से भी सर्वोच्च न्यायालय ने इंकार कर दिया। निश्चित रूप से महाराष्ट्र पुलिस को इस फैसले से बल मिल गया जिससे वह जांच एवं पूछताछ में तेजी ला सकेगी लेकिन आरोपियों को घर में रहने जैसी सुविधा समझ से परे है जिस पर सर्वोच्च न्यायालय को पुनर्विचार करना चाहिए वरना भविष्य में इसे बतौर नजीर इस्तेमाल किये जाने का खतरा बना रहेगा। बेहतर तो ये होता कि सर्वोच्च न्यायालय उक्त याचिका को पहली सुनवाई में ही ये कहते हुए रद्द कर देता कि पहले निचली अदालतों के रूप में उपलब्ध माध्यमों का उपयोग किया जावे। खैर, देर से ही सही लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने सहिष्णु लॉबी द्वारा बनाये गए मनोवैज्ञानिक दबाव से विचलित हुए बिना जो निर्णय गत दिवस दिया उसने अनिश्चितता को समाप्त करते हुए अभिव्यक्ति के अधिकार पर कुठाराघात का जो दुष्प्रचार बीते एक माह से चल रहा था उस पर रोक लगा दी। अच्छा होगा भविष्य में सर्वोच्च न्यायालय इस तरह के मामलों में अतिरिक्त उत्साह न दिखाते हुए सामान्य प्रक्रिया को ही मान्यता दे जिससे कोई प्रकरण व्यर्थ में विवादास्पद न हो जाये। और फिर जब बात प्रधानमंत्री की हत्या और राज्य के खिलाफ  बगावत भड़काने जैसे आरोपों से जुड़ी हो तब तो और भी गंभीरता बरती जानी चाहिए थी। पांच संदिग्ध नक्सलियों पर सर्वोच्च न्यायालय यदि पहले दिन ही उदारता न दिखाता तो हो सकता है महाराष्ट्र पुलिस और जांच एजेंसियां अब तक काफी आगे बढ़ चुकी होतीं और यदि गिरफ्तारी फर्जी थी तो निचली अदालत से आरोपियों को राहत मिल जाती। सर्वोच्च न्यायालय के प्रति पूर्ण सम्मान व्यक्त करते हुए भी ये कहने में कुछ भी अनुचित नहीं लगता कि इस प्रकरण में उसे प्रारम्भ में ही वह सब कह देना चाहिए था जो उसने एक माह बाद कहा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 28 September 2018

विवाहेतर संबंध : व्यभिचार अधिकार नहीं हो सकता

सर्वोच्च न्यायालय में इन दिनों निर्णय सप्ताह चल रहा है। इसी श्रृंखला में गत दिवस एक बड़ा फैसला प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने दिया जिसमें विवाहेतर संबंधों में महिला के लिए पति की सहमति की आवश्यकता को खत्म करते हुए कह दिया गया कि वह चूँकि पति की संपत्ति नहीं है इसलिये उसे भी यौन स्वायत्तता मिलनी चाहिए। भारतीय दंड विधान संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक करार देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यद्यपि विवाहेत्तर संबंध तलाक के लिए ठोस आधार बना रहेगा किन्तु पति की सहमति के बिना पत्नी को किसी परपुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाने पर व्यभिचार का दोषी नहीं माना जा सकेगा क्योंकि वह अपने शरीर की खुद मालिक है। अभी तक जो व्यवस्था थी उसके अनुसार पति से अनुमति लिए बिना परपुरुष से संबंध रखने पर पति तो उस पर विवाहेतर संबंध रखने का मामला दर्ज करवा सकता था किंतु पति के वैसा ही करने पर पत्नी पति को आरोपी नहीं बना सकती थी। अदालत ने स्त्री-पुरुष समानता को आधार मानते हुए धारा 497 को असंवैधानिक, अमानवीय और अव्यवहारिक निरूपित करते हुए रद्द कर दिया। समाज की नजर में भले ही  विवाहेतर संबंध अभी भी व्यभिचार माना जाए किन्तु कानून की नजर में अब स्थिति बदल गई है। उक्त निर्णय में भारत की परिवार नामक संस्था में महिलाओं की भूमिका को जिस नए ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया गया उसे समाज तो क्या खुद भारत की आम नारी कितना स्वीकार करेगी ये विचारणीय प्रश्न है। अदालत की ये भावना तो पूरी तरह स्वीकार्य है कि निजी संबंधों को लेकर पुरुष और स्त्री दोनों में भेदभाव कानून की नजर में नहीं होना चाहिए। पत्नी द्वारा बिना अनुमति के किसी अन्य पुरुष के संग संबंध स्थापित करने पर पति उस पुरुष पर तो कानूनी कार्रवाई कर सकता था किन्तु उस पुरुष की पत्नी को ये अधिकार नहीं था। अब नई व्यवस्था में परपुरुष भी सजा से मुक्त रहेगा और पति के अलावा किसी अन्य से शारीरिक संबंध बनाने के लिए पत्नी को भी पति की अनुमति का बंधन नहीं रहेगा। इस तरह स्त्री-पुरुष की समानता के सिद्धांत को लागू करने के फेर में सर्वोच्च न्यायालय ने विवाहेतर संबंधों को व्यभिचार और अपराध की श्रेणी से हटाने का जो कदम उठाया उसने भारतीय समाज में एक विचित्र स्थिति को जन्म दे दिया है। खुद प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने माना कि विवाहेतर संबंध कानूनी तौर पर न सही लेकिन सामाजिक तौर पर गलत रहेंगे। तब सवाल ये उठता है कि क्या देश का कानून समाज की सोच और मान्यताओं से अलग रहना चाहिए। पत्नी का शरीर निश्चित रूप से पति की जागीर नहीं है लेकिन भारतीय समाज यौन स्वच्छन्दता को यदि पाप की श्रेणी में मानता रहा तो उसके पीछे सदियों का अध्ययन और अनुभव है। परिवार का स्थायित्व सामाजिक व्यवस्था का आधार है। अदालत ने अनेक देशों का उदाहरण देते हुए विवाहेतर संबंधों को व्यभिचार नहीं मानने की बात कही लेकिन उन देशों की संस्कृति और संस्कार भारत से सर्वथा अलग हैं। सर्वोच्च न्यायालय की इस बात का हर समझदार व्यक्ति समर्थन करेगा कि पत्नी का शरीर पति की जागीर नहीं है इसलिए विवाहित स्त्री को भी उसकी वांछित स्वायत्तता हासिल होनी ही चाहिए लेकिन सजा पुरुष को ही क्यों स्त्री को भी मिले जैसी बातों के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है जो कानून की परिधि से बाहर अर्थात निजी संबंधों और सामंजस्य पर निर्भर है। क्या कोई न्यायाधीश इस बात को पसंद करेगा कि उसकी पत्नी या पति विवाहेतर संबंध से जुड़े। जहां तक बात तलाक की है तो वह भी आसानी से नहीं मिलती और फिर ऐसे संबंधों को साबित करना भी कठिन होगा। कहने का आशय ये है कि धारा 497 का खात्मा भारतीय समाज में यौन स्वच्छन्दता को बढ़ावा देगा जिससे परिवारों के टूटने की स्थिति बनेगी और पति-पत्नी के बीच संदेह की दीवार खड़ी हो जाएगी। और फिर परिवार का अर्थ केवल यौन संबंध नहीं अपितु संतान का लालन-पालन जैसे दायित्वों का निर्वहन भी है। विवाह को पवित्र बंधन कहे जाने के पीछे भी गहरी सोच है क्योंकि पश्चिमी संस्कृति की तरह हमारे देश में विवाह केवल वयस्क स्त्री-पुरूष के साथ रहने का अनुबंध नहीं अपितु एक जिम्मेदारी है जिसमें सहयोग, समर्पण और स्नेह भाव की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में केवल पत्नी के शरीर पर पुरुष के अधिकार और यौन स्वायत्तता पर ही अधिकतम ध्यान दिया जबकि समाज और बहुसंख्यकों की धार्मिक मान्यताओं में परपुरुष और परस्त्री गमन दोनों को अनैतिक मानकर पाप की श्रेणी में रखा गया है। अच्छा होता यदि सर्वोच्च न्यायालय पति-पत्नी दोनों के विवाहेतर संबंधों को दंडनीय अपराध मानकर समाज की परिवार नामक इकाई को टूटने से बचाने का प्रयास करता जो पश्चिमी संस्कृति के अतिक्रमण से धीरे-धीरे खतरे की ओर बढ़ रही है। माननीय न्यायाधीशों को इस तरह के फैसले करते समय ये भी ध्यान रखना चाहिए कि कानून समाज के व्यवस्थित संचालन के लिए बनाए जाते हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपना महत्व है किंतु वह समाज के लिए नुकसानदेह है तब वह अनावश्यक और अव्यवहारिक हो जाती है। सर्वोच्च न्यायालय में बैठे विद्वान न्यायाधीशों ने अनेक श्लोकों के माध्यम से नारी के सम्मान को अभिव्यक्त किया है किन्तु इन श्लोकों में जिस नारी का महिमामंडन है वह यौन स्वच्छन्दता की इच्छुक नहीं थी। न्यायपालिका की सर्वोच्चता और सम्मान को लेकर कोई किन्तु-परंतु नहीं लगना चाहिए लेकिन भारत को जबरन इंडिया बनाने का अधिकार भी किसी को नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 27 September 2018

पदोन्नति : इधर कुआ उधर खाई

देश के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा सेवानिवृत्ति के आखिरी दिनों में लंबित मामले निबटाने में जुटे हैं। इसी क्रम में पदोन्नति में आरक्षण विषयक याचिका का भी उन्होंने गत दिवस निराकरण कर दिया। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षित श्रेणी के कर्मचारियों का डाटा एकत्र करने की अनिवार्यता को अनावश्यक बताते हुए इस बात को राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ दिया कि वे इस बात को सुनिश्चित करें कि सरकारी सेवाओं में आरक्षित वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व है या नहीं। बहरहाल इस बारे में व्याप्त विसंगतियों को दूर करने का जिम्मा राज्यों पर छोड़कर सर्वोच्च न्यायालय ने उनके लिए मुसीबतें बढ़ा दी हैं। उदाहरण के लिए मप्र को ही लें तो इस मुद्दे पर आरक्षित और अनारक्षित दोनों वर्ग सरकार पर दबाव बनाए हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी अभी मप्र सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में पेश की गई अर्जी पर फैसला लंबित है। उल्लेखनीय है उच्च न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण पर रोक लगा दी थी जिसके विरुद्ध मप्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय चली गई। गत दिवस जो निर्णय आया वह राज्यों के लिए समस्या बन गया क्योंकि ये विषय भी सीधे-सीधे वोटों की राजनीति से जुड़ा हुआ है। यही वजह रही कि मप्र की शिवराज सरकार ने बिना विलम्ब किये ही सर्वोच्च न्यायालय का रास्ता पकड़ लिया। चुनावी वर्ष में ऐसा करना उसकी मजबूरी भी थी क्योंकि अनु.जाति/जनजाति और ओबीसी वर्ग के कर्मचारियों और अधिकारियों की नाराजगी से बचने का तात्कालिक उपाय भी यही था। सर्वोच्च न्यायालय में मामला लंबित होने से अनेक लोग सेवा निवृत्त हो गए वहीं पदोन्नति की प्रतीक्षा में सैकड़ों सेवानिवृत्ति की कगार पर खड़े हुए हैं। गनीमत है मप्र शासन ने सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाकर 62 वर्ष कर दी जिससे उन लोगों की उम्मीदें जवान हैं लेकिन अभी भी अनिश्चितता बरकरार रहने से उस वर्ग में गुस्सा है। वहीं आरक्षण से खार खाए बैठे सामान्य वर्ग के कर्मचारी-अधिकारी भी क्रोध में भरे हैं क्योंकि शिवराज सिंह ने बीच-बीच में जो बयान दिए उनसे सामान्य वर्ग के बीच ये धारणा व्याप्त हो गई कि मुख्यमंत्री उच्च जातियों के विरोधी हैं। ये स्थिति कमोबेश हर राज्य की होगी या आगे हो जाएगी क्योंकि कोई भी मुख्यमंत्री आरक्षित और सामान्य वर्ग दोनों को एक साथ संतुष्ट नहीं कर पाएगा और ऐसी कोशिश करे तो विपक्षी दल और जातिवादी संगठन उसकी फज़ीहत कर डालेंगे। बेहतर होगा नौकरी मिलने के बाद पदोन्नति के लिए योग्यता और कार्यकुशलता को आधार माने जाने की व्यवस्था बनाई जाए जिससे सरकारी सेवाओं का स्तर भी सुधरे वहीं आरक्षित वर्ग में भी अपने बलबूते आगे बढऩे का आत्मबल पैदा हो। जिस सामाजिक विषमता को मिटाने के लिए आरक्षण नामक उपाय को लागू किया गया वह समाजिक वैमनस्य का कारण न बने ये देखना भी जरूरी है। नौकरियों में आरक्षण की आवश्यकता से हर कोई सहमत होगा  लेकिन जहां पदोन्नति का सवाल आता है वहां योग्यता और कार्यकुशलता ही चयन का आधार हो तो ज्यादा बेहतर होगा। सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में हो सकता है कोई कड़ा फैसला कर देता किन्तु अनु. जाति/जनजाति कानून में बदलाव के उसके फैसले को सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर जिस तरह पलटाया उससे पदोन्नति में आरक्षण पर रोक लगाने से परहेज करते हुए न्यायालय ने राज्य सरकारों पर पूरी जिम्मेदारी डाल दी। आगे क्या होगा कहना मुश्किल है क्योंकि अब सामान्य वर्ग भी खुलकर विरोध करने पर आमादा है। ऐसे में वोट बैंक की चिंता में डूबे राजनेताओं के समक्ष इधर कुआ उधर खाई वाली स्थिति बन गई है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

आधार को मिला कानूनी आधार


सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस दिए फैसले में आधार कार्ड की राह में लगाए जा रहे रोड़े हटा दिए लेकिन उसे जस का तस भी नहीं रखा। मोबाइल फोन, बैंक खाता तथा विद्यालय में प्रवेश जैसे कार्यों में उसकी अनिवार्यता खत्म कर दी किंतु उसकी संवैधानिकता और उपयोगिता को स्वीकृति भी दे दी। न्यायमूर्ति श्री चंद्रचूड़ ने जरूर आधार को सिरे से नकार दिया लेकिन शेष 4 न्यायाधीशों ने आधार को रद्द करने संबंधी याचिकाओं का निराकरण करते हुए उसके अस्तित्व को पुख्ता आधार दे दिया। यद्यपि कार्ड धारक की व्यक्तिगत जानकारी बिना न्यायालयीन अनुमति के किसी अन्य को हस्तांतरित करने पर रोक लगाकर अदालत ने डाटा के दुरुपयोग पर रोक लगा दी जिससे कि इस बारे में उठ रही शंकाओं का समाधान होने की उम्मीद बढ़ चली है। आधार को समाप्त करने संबंधी अनुरोध को अस्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर माना कि आधार से करोड़ों लोगो को सरकारी सुविधाएं प्राप्त करने में मदद मिली है। कुल मिलाकर आधार कार्ड व्यवस्था पर अब सर्वोच्च अदालत की मोहर भी लग गई जिससे इसे लेकर व्याप्त अनिश्चितता खत्म हो गई जो संतोष का विषय है। खुदा न खास्ता अगर सर्वोच्च न्यायालय उस पर रोक लगा देता तो देश भर में अफरातफरी मच जाती क्योंकि सरकार ने आधार के आधार पर काफी कुछ सरकारी व्यवस्थाएं की हुई थीं। सरकारी अनुदानों का लाभ लेने में आधार कार्ड की उपयोगिता और सफलता को भी अदालत ने स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया। शायद ये वजह न रही होती तब हो सकता है सर्वोच्च न्यायालय इस व्यवस्था को कायम रखने के बारे में कुछ और सख्त होता। इसमें तो दो राय नहीं हैं कि आधार के कारण शासकीय अनुदानों में होने वाला फर्जीवाड़ा काफी हद तक नियंत्रित हुआ। रसोई गैस और राशन कार्ड इसके अच्छे उदाहरण हैं। व्यक्ति की पहिचान सुनिश्चित करने में भी आधार कार्ड काफी हद तक सहायक साबित हुआ। याचिकाकर्ताओं की मुख्य आपत्ति आधार के जरिये एकत्रित जानकारी का दुरुपयोग और उसकी गोपनीयता भंग होने को लेकर थी जिसे निजता में हस्तक्षेप से जोड़ा गया। सर्वोच्च न्यायालय ने भी कुछ हद तक इस भय को महसूस किया और इसीलिए उसने बिना न्यायालयीन अनुमति के डाटा किसी अन्य एजेंसी को देने पर प्रक्रियाजनित बंदिश लगा दी। इस तरह फैसला सरकार और याचिकाकर्ताओं के लिए तुम्हारी भी जै-जै हमारी भी जै-जै, न तुम हारे न हम हारे, जैसा कहा जा सकता है। यही वजह है कि केंद्र सरकार जहां इसे विपक्ष के गाल पर तमाचा बता रही है वहीं कांग्रेस की प्रतिक्रिया में इसे सरकार की किरकिरी बताया गया। वैसे निष्पक्ष तौर पर देखें तो हर नागरिक की पहिचान सुनिश्चित करने के लिए तो कोई न कोई व्यवस्था तो होनी ही चाहिए।। आधार की शुरुवात यूपीए सरकार के ज़माने में हुई थी। इंफोसिस के नंदन नीलेकणि को इसका प्रभारी बनाया जाना ही इसके महत्व को स्वीकार करना था। यद्यपि श्री नीलेकणि बाद में इस परियोजना से हट गए किन्तु तब तक वह गति पकड़ चुकी थी। मोदी सरकार ने उसे वैधानिक स्वरूप देकर उसकी अनिवार्यता को लागू किया लेकिन जिस कांग्रेस ने इसे शुरू किया वही इसके दुरुपयोग की आशंका जताते हुए सरकार के विरुद्ध खड़ी हो गई। आखिऱकार सर्वोच्च न्यायालय ने बड़ा ही संतुलित फैसला देते हुए गुण-दोष दोनों को ध्यान में रखते हुए बीच का रास्ता निकालते हुए आधार को कतिपय नियंत्रणों के साथ कायम रखा और उससे जुड़ी निजी जानकारी के दुरुपयोग पर रोक लगाने की व्यवस्था भी कर दी। हर जगह उसकी अनिवार्यता को खत्म करते हुए न्यायालय ने लोगों को होने वाली असुविधा का भी ख्याल रखा। कुल मिलाकर आधार संबंधी निर्णय प्रथम दृष्टया तो अच्छा और संतोषजनक है। रही बात उससे जुड़ी अन्य विसंगतियों की तो उन्हें समय रहते दूर किया जा सकता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 26 September 2018

राजनीतिक दलों को ईमानदार होना पड़ेगा


और सर्वोच्च न्यायालय ने मामला फिर संसद पर टाल दिया। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को चुनाव लडऩे से रोकने संबंधी याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला उपदेशात्मक तो है किन्तु जिन राजनेताओं ने राजनीति का अपराधीकरण करने का पाप किया उन्हीं से उसका प्रायश्चित करने की अपेक्षा करना सर्वोच्च न्यायालय की सदाशयता को तो दर्शाता है किन्तु न्यायपालिका से इस मामले में हस्तक्षेप न करने की सरकार की अपील को स्वीकार कर लेना एक तरह से वह आशावाद है जिसकी वजह से अपराधी तत्वों ने राजनीति सरीखे पवित्र क्षेत्र को कलंकित कर दिया। संसद निश्चित रूप से सर्वोच्च है और सिद्धांतत: ये भी सही है कि न्यायपालिका कानून की समीक्षा तो कर सकती है किंतु वह कानून नहीं बना सकती। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय ने बात संसद पर छोड़ते हुए एक तरह से गलत नहीं किया किन्तु ये भी उतना ही सही है कि देश के सभी राजनीतिक दल मिलकर यदि आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को टिकिट न देने का दृढ़ निश्चय कर लें तब ये समस्या अपने आप हल हो जाएगी लेकिन दूसरी तरफ  ये भी सही है कि महज आरोपों के आधार पर किसी को दोषी मानकर उससे चुनाव लडऩे का अधिकार छीनना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन होगा जो समूची न्यायप्रणाली का आधार है। बहरहाल राजनीतिक दल इतना तो कर ही सकते हैं कि वे अपने स्तर पर ही छन्ना लगाकर दागी किस्म के लोगों को महत्व देना बंद कर दें। किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने की वासना ने ही राजनीति को अपराधी तत्वों की शरणस्थली बना दिया है। ऐसे में जो संसद लोकपाल विधेयक पारित नहीं कर सकी उससे ऐसी अपेक्षा करना बेमानी लगता है क्योंकि अपराधी और दागी किस्म के चेहरों की भरमार तो हर दल में कमोबेश बराबर ही है। यद्यपि वामपंथी पार्टियां इस बारे में तुलनात्मक दृष्टि से तो बेहतर हैं किंतु पूरी तरह निष्कलंक उन्हें भी नहीं कहा जा सकता। नई राजनीति का संवाहक बनकर मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी ने भी जब आपराधिक मामलों में लिप्त लोगों को टिकिट देने में संकोच नहीं किया तब ढर्रे पर चल रही पार्टियों से क्या अपेक्षा की जाए। हांलांकि सर्वोच्च न्यायालय ने दागी उम्मीदवारों की कर्मपत्री मतदाताओं के समक्ष उजागर करने के लिए काफी निर्देश चुनाव आयोग को भी दिए हैं। उनका अच्छा असर भी हो सकता है किंतु यदि दोनों प्रमुख प्रतिद्वंदी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हुए तब मतदाता कहाँ से साफ -सुथरी छवि वाला उम्मीदवार चुनेगा? सवाल और भी हैं जिनका समाधान केवल कानून नहीं अपितु राजनीति चला रहे नेताओं द्वारा किया जा सकता है। यूँ भी लोकसभा चुनाव इतने करीब आ चुके हैं कि संसद में बैठे सियासतदां मिलकर ऐसा कोई निर्णय नहीं करेंगे जिसे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना कहा जा सकता है। 2019 में बनने वाली नई  लोकसभा भी इस दिशा में कितनी पहल करेगी ये भी कोई नहीं बता सकता क्योंकि किसी डिटर्जेंट के विज्ञापन में प्रयुक्त होने वाला वाक्य 'तो दाग अच्छे हैंÓ राजनीति पर बहुत ही सटीक बैठता है। चुनाव में पहले-पहल बाहुबलियों का उपयोग होता था। बाद में वे खुद चुनाव लडऩे लगे और फिर बात फूलन देवी, पप्पू यादव, मुख्तार अंसारी, शहाबुद्दीन और ऐसे ही कई नामों तक आ पहुंची। सामाजिक न्याय के नाम पर शुरू हुई राजनीति ने भी ऐरों-गैरों को महिमामंडित कर दिया। कत्ल जैसे संगीन अपराध में जेल में बंद सांसद को  कड़ी सुरक्षा के बीच राष्ट्रपति चुनाव में मतदान हेतु संसद भवन लाये जाने से भारतीय लोकतंत्र का शर्मनाक चेहरा देश और दुनिया के सामने अनायास आ गया। सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक मामलों में लिप्त प्रत्याशी की जानकारी सार्वजनिक करने की जो बंदिश लगाई वह भी अर्थहीन हो जाएगी जब तक पक्ष-विपक्ष दोनों इस बारे में  ईमानदारी के साथ प्रतिबद्ध न हों। वरना राजनीति का अपराधीकरण होता ही क्यों? वैसे इस मुद्दे पर जनता को भी अपने स्तर पर जागरूक ही नहीं मुखर भी होना चाहिए। हॉलांकि कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने उम्मीदवारों की आपराधिक गतिविधियों संबंधी जानकारी सार्वजनिक करने का अभियान चलाया था किन्तु मतदाताओं ने उसका अपेक्षित संज्ञान नहीं लिया जिससे वह मुहिम ज्यादा आगे नहीं आ सकी। अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने संसद पर कानून बनाने और चुनाव आयोग पर अपराधी उम्मीदवारों को बेपर्दा करने की जिममेदारी डाल दी है तब राजनीतिक दलों का भी ये नैतिक दायित्व है कि वे मतदाताओं के समक्ष साफ-सुथरी छवि के प्रत्याशी पेश करें जिससे भविष्य की राजनीति दागियों से मुक्त हो सके। क्षेत्रीय दलों के समक्ष जरूर इसे लेकर परेशानी उत्पन्न होगी किन्तु उन्हें भी अपना रवैया बदलना होगा नहीं तो 21 वीं सदी के युवा मतदाता उन्हें हाँशिये पर धकेल देंगे ।

-रवीन्द्र वाजपेयी