देश की आर्थिक स्थिति की समीक्षा के लिए प्रधानमंत्री की मौजूदगी में हुई उच्चस्तरीय बैठक से लोगों को उम्मीद रही कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर बड़ी राहत की घोषणा की जावेगी। खासतौर पर तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव सिर पर आने के कारण जनता की नाराजगी से बचने के लिए उक्त कदम उठाना सरकार के लिए रामबाण माना जा रहा था परन्तु दो दिन के इंतजार के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जो विवरण पेश किया उसमें अर्थव्यवस्था को लेकर आशावादी तस्वीर पेश करते हुए किसी भी तरह की राहत से इंकार कर दिया। राजकोषीय घाटे को कम रखने के लिए केन्द्र सरकार जनता को कोई राहत देने के मूड में नहीं दिखी। वित्तमंत्री के अनुसार राजस्व की वसूली लक्ष्यानुसार होने से अर्थव्यवस्था निरंतर मजबूती की तरफ बढ़ रही है जिसका प्रमाण शेयर बाजार का रिकॉर्डतोड़ प्रदर्शन है। डॉलर की बढ़ती कीमत के बाद भी विदेशी निवेशकों का भारत के कारोबारी जगत में पूंजी निवेश वित्तमंत्री की उम्मीदों को आधार प्रदान करता है। राजकोषीय घाटा कम रखना प्रत्यक्ष रूप से किसी भी सरकार के बेहतर अर्थ प्रबंधन के लिहाज से अच्छा माना जा सकता है। यूं भी पिछले घाटे की पूर्ति करना बहुत बड़ी समस्या थी। गैर उत्पादक व्यय की वजह से सरकार के खजाने पर बोझ बढ़ता ही जा रहा था। उस लिहाज से वर्तमान सरकार ने आर्थिक अनुशासन को सख्त किया है परन्तु कुछ मामलों में ये सख्ती कुछ ज्यादा ही हो गई लगती है। शायद सरकार के रणनीतिकारों को लग रहा है कि खुदरा महंगाई को काबू में रखते हुए सीधे जनता को फायदा पहुंचाने वाली सब्सिडी को जारी रखना पेट्रोल-डीजल के दाम कम करने से ज्यादा लाभप्रद है। वरना कोई और वजह नहीं है कि चारों तरफ से हो रही आलोचनाओं के बाद भी दो दिन चली बैठक में इन चीजों के दाम घटाने को लेकर न तो कोई निर्णय हुआ और न ही आश्वासन मिला। वित्तमंत्री ने संवाददाताओं से बात करते हुए ऐसा आभास कराया मानो पेट्रोल-डीजल कोई मुद्दा ही न हो। अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से सोचने पर सरकार का चिंतन कुछ स्तर पर ठीक भी हो सकता है परन्तु जनता की निगाह से देखें तो यदि सब कुछ ठीक है तथा हालात पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में हैं तब वह पेट्रोल-डीजल के कमरतोड़ दाम सहने को मजबूर क्यों की जा रही है? और उसका ऐसा सोचना किसी भी दृष्टि से गलत नहीं है। संचार क्रांति के इस युग में चूंकि कुछ भी छिपा नहीं है इसलिए ये तथ्य सामने आ गया कि पेट्रोल-डीजल केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों के लिए बैठे-बैठे कमाई का जरिया बन गये हैं। चूंकि इन पर लगने वाला केन्द्रीय उत्पाद कर तथा राज्यों का वैट प्रतिशत पर आधारित है इसलिए मूल्य वृद्धि होने पर जनता की जेब कटती और सरकार का खजाना भरता है। कुल मिलाकर आर्थिक स्थिति की दो दिवसीय समीक्षा से आम जनता को निराशा ही हाथ लगी क्योंकि बैठक के बाद जो कुछ भी बताया गया वह बेहतर अर्थप्रबंधन को लेकर आत्मप्रशंसा के अलावा कुछ भी नहीं है। रुपये की गिरती कीमत को थामने के लिए भी जिस कारगर कदम की प्रतीक्षा थी वह भी कहीं नहीं दिखा। ये सब देखते हुए लगता है कि प्रधानमंत्री इस बात के प्रति पूर्णत: आश्वस्त हैं कि उनकी छवि शेष सभी चीजों पर भारी पड़ जाएगी। नोटबंदी के बाद उ.प्र. और जीएसटी के बाद गुजरात की जीत ने उनका आत्मविश्वास निश्चित रूप से बढ़ाया होगा किन्तु उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि जनता की सोच सदैव एक सी नहीं रहती। नोटबंदी और जीएसटी को लेकर आम जनता तथा व्यापारी वर्ग को यद्यपि भारी परेशानी का सामना करना पड़ा परन्तु उसके पीछे सरकार की बदनीयती न होने के एहसास ने गुस्से को कम कर दिया लेकिन पेट्रोल-डीजल की कीमतों में लगातार हो रही वृद्धि के लिये अंतर्राष्ट्रीय कारणों का बहाना बनाकर सरकार जो मुनाफाखोरी कर रही है वह जनता को चूंकि पता चल चुकी है अत: प्रधानमंत्री को इस बारे में सतर्क हो जाना चाहिए वरना 2004 की पुनरावृत्ति हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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