Friday 21 September 2018

मायावती की मायावी राजनीति से कांग्रेस को झटका


बसपा की सर्वोच्च या यूँ कहें कि एकमात्र नेता मायावती और अनिश्चितता समानार्थी हैं। पहले अन्ना द्रमुक की सर्वेसर्वा स्व.जयललिता भी इसी तरह असमंजस बनाये रखने के लिए प्रसिद्ध थीं किन्तु वर्तमान परिदृश्य में मायावती ही उन नेताओं में अव्वल हैं जिनके मन की थाह उनके अगल-बगल रहने वाले भी नहीं ले सकते। इसका ताजातरीन प्रमाण है छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव हेतु कांग्रेस को ठेंगा दिखाते हुए उनका राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी से गठबंधन कर लेना। यही नहीं मप्र में भी अपने लगभग दो दर्जन उम्मीदवार घोषित कर उन्होंने कांग्रेस को एक और झटका दे दिया। पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर कांग्रेस द्वारा गत 10 सितंबर को आहूत भारत बंद से किनारा करते हुए मायावती ने जिस तरह कांग्रेस और भाजपा दोनों को एक ही थैली का चट्टा-बट्टा बताया था उसी से संकेत मिल गया था कि वे दूध में नींबू निचोडऩे की परंपरा को निभाने जा रही हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर को खत्म करने के लिए बनाए जा रहे महागठबंधन की सम्भावना उप्र के कुछ संसदीय उपचुनावों से उत्पन्न हुई जब बसपा ने सपा उम्मीदवारों को समर्थन देकर भाजपा में लिए खतरे की घण्टी बजा दी। पूरा जोर लगाने के बाद भी भाजपा वे उपचुनाव हार गई। उप्र चूंकि 80 लोकसभा सदस्य भेजता है इसलिये राष्ट्रीय राजनीति में उसका  बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। लगभग दो दशक से चले आ रहे सांप-नेवले जैसे रिश्ते के बाद सपा और बसपा का पुनर्मिलन बड़ी राजनीतिक घटना के तौर पर देखा गया जिसने 2019 में मोदी विरोधी महागठबंधन की सम्भावना को वास्तविकता में बदलने का विश्वास प्रबल कर दिया। सपा के नए सुप्रीमो अखिलेश यादव के नर्म रवैये ने बुआ-भतीजे के नए समीकरण की नींव रख दी। कांग्रेस यद्यपि इसमें दूध की दुहनियां वाली स्थिति में ही थी क्योंकि दोनों मिलकर उसको अधिकतम 8 सीटें देने की बातें करने लगे। कांग्रेस की भी मजबूरी ये है कि उप्र में सपा-बसपा हाथ खींच लें तब सोनिया गांधी और राहुल गांधी का चुनाव जीतना तक सम्भव नहीं होगा। इस सबके बीच मायावती द्वारा सर्वाधिक 40 सीटें लड़े जाने के प्रस्ताव ने महागठबंधन के बाकी घटकों के कान खड़े कर दिए। अजीत सिंह का लोकदल 10 सीटें मांगने लगा। इसी बीच मायावती ने सम्मानजनक सीटें नहीं मिलने पर लोकसभा चुनाव में अकेले उतरने जैसा बयान दे डाला जिस पर अखिलेश ने तो झुककर समझौता करने की बात कही किन्तु लोकदल को पश्चिमी उप्र में अपने परंपरागत प्रभावक्षेत्र में बसपा की घुसपैठ नागवार गुजर रही थी। यूँ भी जाट और दलित समुदाय के बीच विवाद नए नहीं हैं। कांग्रेस को उम्मीद रही कि मायावती उप्र में भले कुछ भी कहें किन्तु मप्र और छत्तीसगढ़ में वे भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस की बैसाखी बनेंगी। मप्र कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने 10 दिनों के भीतर बसपा से सीटों के बंटवारे की उम्मीद भी जताई थी लेकिन मायावती ने बिना पूछे-बताए 22 उम्मीदवारों की सूची जारी करने के साथ सभी 230 सीटों पर अकेले लडऩे की घोषणा करते हुए झटका दे दिया। इसी के साथ अजीत जोगी के साथ पत्रकार वार्ता के जरिये छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस से दूरी बनाने की घोषणा कर डाली। कांग्रेस की ओर से पीएल पूनिया ने बिना देर लगाए इसे भाजपा का खेल बताते हुए बसपा की आलोचना कर डाली। छत्तीसगढ़ में तो बसपा और श्री जोगी के बीच सीटों के बंटवारे का फार्मूला भी तय हो गया। यद्यपि अभी भी मप्र में कांग्रेस के साथ बसपा के गठबंधन की संभावना खत्म नहीं हुई है क्योंकि हो सकता है मायावती कड़ी सौदेबाजी के बाद समझौता कर लें किन्तु उन्होंने अखिलेश यादव द्वारा झुककर गठबन्धन करने की नीति से हटकर ये दिखा दिया कि वे अपनी शर्तों पर ही समझौता करेंगी, केवल भाजपा को हराने के लिए नहीं। बसपा की यही नीति 2019 में भाजपा विरोधी गठबंधन की संभावना को कमजोर कर रही है। मायावती को एहसास हो गया है कि 2019 उनके लिए अभी नहीं तो कभी नहीं की स्थिति लेकर आ रहा है। 2014 में उप्र में एक भी लोकसभा सीट न जीत पाने और विधानसभा चुनाव में भी दयनीय प्रदर्शन के बाद मायावती भविष्य को लेकर चिंतित हो उठी थी। वरना वे उस सपा से कभी हाथ मिलाने की पेशकश नहीं करतीं जिसने उनके सम्मान से खिलवाड़ करने का दुस्साहस किया था। लेकिन अब लगता है वे समझ गईं हैं कि विपक्ष की भावी राजनीति की चाबी उनके पास है। सम्मानजनक सीटों के बिना अकेले लडऩे के ऐलान के बाद मप्र और छत्तीसगढ़ में उन्होंने कांग्रेस को जो झटका दिया वह इस बात का संकेत है कि वे कांग्रेस अथवा अन्य किसी के नेतृत्व की बजाय महागठबंधन की नेता बनकर मैदान में उतरना चाहती हैं। उन्हें ये भय भी सता रहा है कि भाजपा जिस तरह दलित समुदाय को लुभाने में लगी है उससे तो कालांतर में बसपा का अस्तित्व ही संकट में पड़ जायेगा। बहरहाल बसपा सुप्रीमो के ताजे राजनीतिक पैंतरे ने उन लोगों को कतई आश्चर्यचकित नहीं किया जो उनको जानते हैं। उनके इस कदम के पीछे भाजपा का हाथ है या नहीं ये तो कहना मुश्किल है किंतु यदि बसपा मप्र में अकेले और छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के साथ मिलकर लड़ी तब वह भाजपा की मददगार साबित होगी जो कांग्रेस-बसपा की नजदीकियों से घबराहट में थी। बसपा के इस कदम से 2019 में भाजपा के विरुद्ध महागठबंधन बनने की संभावनाएं भी सवालों के घेरे में आ गईं हैं। राहुल गांधी की ताजपोशी का ख्वाब देख रही कांग्रेस के लिए भी ये बड़ा झटका है क्योंकि ममता बैनर्जी के बाद मायावती का दूर हो जाना विपक्षी एकता की राह में बड़ी बाधा बन रहा है। हालांकि मायावती का अगला कदम क्या होगा इसका अंदाज लगा पाना बहुत ही कठिन है। फिर भी फिलहाल तो उन्होंने भाजपा को राहत की सांस लेने का अवसर दे दिया वहीं कांग्रेस का रक्तचाप बढ़ा दिया है। इस पूरे खेल में दो दिन पहले अलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा मायावती के विरुद्ध उनके शासनकाल में बनाये स्मारकों के निर्माण में हुए भ्रष्टाचार का प्रकरण दर्ज करने संबंधी आदेश को भी बड़ी वजह माना जा रहा है। यूँ भी  सियासत अब सिद्धांत नहीं सुविधा के समझौतों पर आकर टिक गई है और मायावती उसमें बेहद पारंगत हैं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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