Tuesday 18 September 2018

बैंकों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करना जरूरी

केन्द्र सरकार द्वारा तीन बैंकों का विलय करने का जो निर्णय लिया गया उसके अमल में आने के बाद बनने वाला बैंक भारतीय स्टेट बैंक और एचडीएसी के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा बैंक बन जायेगा। प्रस्तावित विलय में बैंक ऑफ  बड़ौदा, देना बैंक और विजया बैंक को शामिल किया जाएगा। जैसा वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बताया कि विलय प्रक्रिया में दो मजबूत और एक कमजोर बैंक को रखा जाता है ताकि उसके खराब ऋणों का बोझ कुछ हल्का हो तथा कारोबार करने के लिए पूंजी की कमी दूर की जा सके। भारतीय स्टेट बैंक में उसके सहयोगी बैंकों का विलय किए जाने के सकारात्मक परिणामों ने सरकार को आगे बढऩे के हिम्मत दी। यद्यपि प्रस्तावित ताजा विलय उतना आसान नहीं होगा क्योंकि तीनों के संचालक मंडल के तत्सम्बन्धी फैसले के बाद अन्य औपचारिकताएं पूरी करनी होंगी और फिर संसद द्वारा अंतिम मुहर लगेगी। कर्मचारी संगठनों का विरोध भी झेलना पड़ेगा। हालांकि सरकार आश्वासन दे रही है कि कर्मचारियों के हित सुरक्षित रहेंगे तथा वरीयता और सेवा शर्तें भी अप्रभावित रहेंगी। यही नहीं तीनों बैंक स्वतंत्र रूप से काम करते रहेंगे। इस विलय के बाद कमजोर कहा जा रहा बैंक पूंजी की दृष्टि से तो सुदृढ़ होगा ही, घाटे के कारण उसकी बैलेंस शीट पर लगा दाग भी मिट जावेगा। सबसे बड़ी बात है भारतीय बैंकों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा में उतरना। खास तौर पर एशियाई देशों में कारोबार फैलना भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए जरूरी है। 1969 में जब स्व. इंदिरा गांधी ने निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तब उसका उद्देश्य बैंकों में जमा रकम का लाभ आम जनता को दिलवाना था। उसके पहले तक भारतीय स्टेट बैंक को छोड़कर शेष बड़े बैंक उद्योगपतियों अथवा पूर्व राजा-महाराजाओं के आधिपत्य वाले थे। इंदिरा जी उस समय कांग्रेस विभाजन से उत्पन्न परिस्थितियों से जूझ रही थीं। पार्टी के अधिकांश बड़े नेता उनके विरोध में खड़े थे। तब उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के साथ ही पूर्व राजा-महाराजाओं को मिलने वाली वार्षिक पेंशन (प्रिवीपर्स) और वे सभी विशेषाधिकार बन्द कर दिए जो आज़ादी के बाद उनकी रियासतों के भारत संघ में विलय के एवज में उन्हें प्राप्त हुए थे। उस निर्णय से इंदिरा जी को जबरदस्त राजनीतिक लाभ हुआ और वे 1971 के चुनाव में  बहुत ताकतवर होकर उभरीं लेकिन समाज के उस तबके के आर्थिक उत्थान में भी बैंकों का राष्ट्रीयकरण मील का पत्थर साबित हुआ जिनके लिए बैंक के दरवाजे बंद थे। रिक्शा और हाथ ठेले वाले तक को बैंकों से कर्ज मिलने लगा। स्वरोजगार विकसित करने की दिशा में वह निश्चित रूप से ऐतिहासिक कदम था किंतु फिर राष्ट्रीयकृत बैंकों का सत्तारूढ़ पार्टियों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए दोहन शुरू किया और यहीं से बैंकों की कार्य संस्कृति और सेहत दोनों बिगडऩे शुरू हो गए जिसका चर्मोत्कर्ष इन दिनों चिंता का विषय बनी हुई एनपीए नामक बीमारी है जिसने समूची बैंकिंग व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर दिया। ऋण वसूली में आने वाली परेशानियों के लिए सियासी पार्टियों के चुनावी वायदे और नीतियां भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। सरकार द्वारा किसानों के कर्जे माफ  कर दिए जाने के बाद उसकी क्षतिपूर्ति बैंकों को समय पर नहीं होने से उनकी बैलेंस शीट गड़बड़ा गई। छोटे-छोटे ऋणों की अंधाधुंध बंदरबांट के बाद धनकुबेरों को नियम विरुद्ध या आंख मूंदकर दिए गए कर्जों ने रही-सही कसर पूरी कर दी, जिसका उदाहरण विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे भगोड़े कर्जदार हैं जो बैंकों का अरबों-खरबों डकारकर विदेश भाग गए। देश में भी ऐसे हजारों बड़े कर्जदार हैं जिन्होंने बैंकों से करोड़ों रुपये कर्ज लेकर नहीं चुकाया और उन्हें मुकदमों में उलझा दिया। बड़े डूबन्त कर्जों में एकमुश्त भुगतान योजना के तहत हुए समझौतों में भी जमकर भ्रष्टाचार हुआ। कुल मिलाकर जिस राजनीति ने देश का भट्टा बिठाया उसी ने बैंकिंग उद्योग की कमर तोड़ दी। परिणामस्वरूप उन्होंने जमा राशि पर ब्याज दरें घटाने के साथ ही विभिन्न सेवाओं के लिए अनाप-शनाप पैसा वसूलकर ग्राहकों का शोषण शुरू कर दिया। हालांकि निजी क्षेत्र को भी  बैंकिंग सेक्टर के लिए खोलने से प्रतिस्पर्धा बढ़ी जिससे सेवाओं और सुविधाओं में वृद्धि तो हुई किंतु उसके लिए ग्राहकों से तरह-तरह के शुल्क वसूले जाने लगे। कम्प्यूटरीकरण और इंटररनेट बैंकिंग ने तो क्रांति ही कर दी। आर्थिक सुधारों ने भी बैकिंग के परंपरागत तौर-तरीके बदल डाले लेकिन इसका दुष्परिणाम घपलों और घोटालों की शक्ल में सामने आने लगा। बीते दो दशक में हुए वित्तीय घोटालों में बैंकों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। ये सब देखते हुए बैंकों के विलय जैसे उपाय समय की मांग और मजबूरी दोनों हैं। कहते हैं इंदिरा जी ने भी आपातकाल के दौरान सारे बैंकों को मिलाकर चार बड़े बैंक बनाने का इरादा व्यक्त किया था किंतु वह योजना आगे नहीं बढ़ सकी। बैंकों का स्थापना व्यय घटाने के लिए भी ऐसे कदम जरूरी लगते हैं किंतु इन पर अमल करने में भी राजनीति और श्रमिक संगठन बाधक बने बिना नहीं रहेंगे। गत दिवस केंद्र सरकार ने जो निर्णय लिया बेहतर हो उसका दायरा और बढ़ाया जाए। भारतीय बैंकिंग उद्योग जिन स्थितियों से गुजर रहा है उसके मद्देनजर उसके बारे में किसी दीर्घकालीन नीति और कदम की जरूरत है क्योंकि तदर्थ उपाय लम्बे समय तक असरकारक नहीं रहते। यदि मौजूदा सरकार की नीयत सही है तो उसे और भी बैंकों के विलय पर विचार कर ठोस निर्णय करना चाहिए लेकिन बैंकों को राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त किये बिना किसी सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकेगी ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment