Saturday 22 September 2018

शांति वार्ता के लिए तैयार ही क्यों हुए थे

हर भारतीय को ये जानकर संतोष हुआ कि अगले सप्ताह प्रस्तावित भारत-पाक विदेश मंत्री वार्ता रद्द कर दी गई। दरअसल पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री इमरान खान ने नरेंद्र मोदी के बधाई संदेश के आभार स्वरूप भेजे पत्र में दोनों देशों के बीच वार्ता की जो पेशकश की उसका भारत ने सकारात्मक उत्तर देते हुए  विदेश मंत्री स्तर की वार्ता के लिए रजामंदी भी दे दी। लम्बे अर्से से चला आ रहा अनबोला खत्म होने से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी राहत महसूस की गई किन्तु इसी दौरान भारत के एक जवान की नृशंस हत्या ने माहौल खराब कर दिया। यद्यपि उसके पहले से ही देश में मोदी सरकार पर सवाल दागे जाने लगे थे। कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं के जारी रहने तक पाकिस्तान से वार्ता करने का औचित्य किसी को समझ नहीं आ रहा था। विपक्षी दल भी प्रधानमंत्री को उनके पुराने भाषण याद दिलाकर कटाक्ष करने लगे। आम नागरिक को भी लगने लगा कि प्रधानमंत्री के 56 इंची सीने को क्या हो गया? सीमा सुरक्षा बल के जवान की हत्या न हुई होती तब भी यदि भारत वार्ता की टेबल पर बैठता तो वह  एक तरह का नीतिगत पलायन ही होता लेकिन सीमा पर पाकिस्तानी सैनिकों ने फिर अपनी राक्षसी प्रवृत्ति का परिचय देते हुए हमारे एक जवान की गला रेतकर हत्या की और उसके अंग भंग कर दिए। इस घटना के बाद सरकार ने बिना देर किए वार्ता रद्द करने की घोषणा कर दी। ऐसा लगता है इमरान खान के सौजन्यता वाले पत्र पर जल्दबाजी में केंद्र सरकार द्वारा वार्ता की पेशकश स्वीकार तो कर ली गई लेकिन शीघ्र ही उसे ये एहसास हो गया कि उससे चूक हो गई। ज्योंही उसे मौका मिला उसने फौरन उस अपराधबोध से खुद को मुक्त कर लिया। यही नहीं विदेश मंत्रालय ने इमरान सरकार पर तीखे आरोप भी मढ़ दिए। बहरहाल ये तय हो गया कि भले ही पाकिस्तान की सत्ता एक पूर्व खिलाड़ी के हाथ आ गई हो लेकिन वह खिलाड़ी भावना से परे है वरना सेना को निर्देश दिए जाते कि भारत को वार्ता के लिए आमंत्रित किये जाने के पहले सीमा और कश्मीर में हरकतें बन्द कर दी जाएं किन्तु ऐसा कुछ होने की बजाय उल्टे भड़काऊ गतिविधियां जारी रखी गईं। आखिरकार मोदी सरकार को अपनी उसी नीति पर कायम रहना पड़ा जो उसने काफी समय से अपना रखी थी। अमेरिका के ट्रम्प प्रशासन ने इमरान सरकार के प्रति जैसा कड़क रवैया अपनाया उससे पाकिस्तान मुसीबत में है। नवाज शरीफ  के दफ्तर में उपयोग हुई कारें और भैंसें बेचने से उसकी जो जगहंसाई हुई उसने भी पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाया है। इमरान के सामने खाली खजाने वाली अर्थव्यव्यस्था है जो अमेरिका के सहारे के बिना पटरी पर नहीं आ सकती। लेकिन ये तभी सम्भव है जब वह आतंकवादी वाली अपनी छवि में सुधार कर सके और इसके लिए उसे भारत से अपने रिश्ते सुधारने होंगे। मोदी सरकार ने वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान को एक आतकंवादी देश के रूप में बदनाम करने में काफी सफलता हासिल कर ली थी। चीन के इकतरफा समर्थन से भी पाकिस्तान की मुसीबतें कम नहीं हो रही थीं। यही सोचकर इमरान खान ने वार्ता का दांव चला जिसमें भारत करीब -करीब फंस गया था किंतु ऐन वक्त पर केंद्र सरकार की अक्ल रास्ते पर आ गई और उसने वह फैसला कर लिया जो पूरा देश चाह रहा था। सही बात तो ये है कि वार्ता का निर्णय खुद भाजपा को हजम नहीं हो रहा था। ख़ैर, देर आए दुरुस्त आए वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए मोदी सरकार ने अपने कदम पीछे खींचकर जो बुद्धिमत्ता दिखाई उसने उसे फज़ीहत से तो बचा लिया लेकिन जितनी किरकिरी होनी थी वह तो हो ही गई। पता नहीं इस निर्णय के पीछे किसका दिमाग था लेकिन अब जबकि वार्ता रद्द हो ही गई तब केंद्र सरकार को इमरान सरकार से किसी भी तरह की सौजन्यता की उम्मीद रखने के बजाय ये मान लेना चाहिए कि वे भी अपने पूर्ववर्तियों की तरह फौज के हाथ की एक कठपुतली हैं। जिस दिन वे स्वतन्त्र होकर काम करने की जुर्रत करेंगे उसी दिन गद्दी से उतार दिये जायेंगे। कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों की सघन कार्रवाई से बौखलाए अलगाववादी अब स्थानीय पुलिस कर्मियों की हत्या पर उतारू हो चले हैं। दूसरी तरफ सीमा पार से होने वाले घुसपैठ पर भी काफी नियंत्रण हो गया है। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान से शांति वार्ता किये जाने से सैन्य बलों का मनोबल गिरेगा जो दिन रात जान हथेली पर रखकर आतंकवादियों के खात्मे में जुटे हुए हैं। भारत सरकार की नीयत पर शक किये बिना भी ये कहना गलत नहीं होगा कि पाकिस्तान के साथ विदेश मंत्री स्तर की बातचीत के लिए सहमत होना उसकी भूल थी। भले ही उसे समय रहते सुधार लिया गया हो किन्तु इससे एक बात साफ  हो गई कि विदेश मंत्रालय में अब भी ऐसे अधिकारी बैठे हुए हैं जो पाकिस्तान को लेकर खुशफहमी के शिकार हैं। इमरान खान के सत्ता में आने से पाकिस्तान की नीतियों में परिवर्तन की उम्मीद स्वर्ण मृग की कल्पना जैसी भूल ही कही जाएगी। उसका मूल चरित्र या यूँ कहें कि तासीर भारत विरोधी है जिसमें जिन्ना से लेकर आज तक बदलाव नहीं आया फिर चाहे सत्ता में फौजी तानाशाह बैठा रहा या जनता द्वारा चुना प्रधानमंत्री। मोदी सरकार को ये समझ लेना चाहिए कि पाकिस्तान इस समय अपनी आन्तरिक समस्याओं में उलझकर टूटने के कगार पर है। ऐसे में उसे सहारा देना आत्मघाती होगा। बीते कुछ समय से जारी कड़क नीति को और कड़क करने की जरूरत है। देश को सीमा सुरक्षा बल के जवान की कुर्बानी के बदले का  इन्तज़ार है न कि अपने जन्मजात दुश्मन के साथ बैठकर शांति की धुन गुनगुनाए जाने का।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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