Thursday 27 September 2018

पदोन्नति : इधर कुआ उधर खाई

देश के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा सेवानिवृत्ति के आखिरी दिनों में लंबित मामले निबटाने में जुटे हैं। इसी क्रम में पदोन्नति में आरक्षण विषयक याचिका का भी उन्होंने गत दिवस निराकरण कर दिया। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षित श्रेणी के कर्मचारियों का डाटा एकत्र करने की अनिवार्यता को अनावश्यक बताते हुए इस बात को राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ दिया कि वे इस बात को सुनिश्चित करें कि सरकारी सेवाओं में आरक्षित वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व है या नहीं। बहरहाल इस बारे में व्याप्त विसंगतियों को दूर करने का जिम्मा राज्यों पर छोड़कर सर्वोच्च न्यायालय ने उनके लिए मुसीबतें बढ़ा दी हैं। उदाहरण के लिए मप्र को ही लें तो इस मुद्दे पर आरक्षित और अनारक्षित दोनों वर्ग सरकार पर दबाव बनाए हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी अभी मप्र सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में पेश की गई अर्जी पर फैसला लंबित है। उल्लेखनीय है उच्च न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण पर रोक लगा दी थी जिसके विरुद्ध मप्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय चली गई। गत दिवस जो निर्णय आया वह राज्यों के लिए समस्या बन गया क्योंकि ये विषय भी सीधे-सीधे वोटों की राजनीति से जुड़ा हुआ है। यही वजह रही कि मप्र की शिवराज सरकार ने बिना विलम्ब किये ही सर्वोच्च न्यायालय का रास्ता पकड़ लिया। चुनावी वर्ष में ऐसा करना उसकी मजबूरी भी थी क्योंकि अनु.जाति/जनजाति और ओबीसी वर्ग के कर्मचारियों और अधिकारियों की नाराजगी से बचने का तात्कालिक उपाय भी यही था। सर्वोच्च न्यायालय में मामला लंबित होने से अनेक लोग सेवा निवृत्त हो गए वहीं पदोन्नति की प्रतीक्षा में सैकड़ों सेवानिवृत्ति की कगार पर खड़े हुए हैं। गनीमत है मप्र शासन ने सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाकर 62 वर्ष कर दी जिससे उन लोगों की उम्मीदें जवान हैं लेकिन अभी भी अनिश्चितता बरकरार रहने से उस वर्ग में गुस्सा है। वहीं आरक्षण से खार खाए बैठे सामान्य वर्ग के कर्मचारी-अधिकारी भी क्रोध में भरे हैं क्योंकि शिवराज सिंह ने बीच-बीच में जो बयान दिए उनसे सामान्य वर्ग के बीच ये धारणा व्याप्त हो गई कि मुख्यमंत्री उच्च जातियों के विरोधी हैं। ये स्थिति कमोबेश हर राज्य की होगी या आगे हो जाएगी क्योंकि कोई भी मुख्यमंत्री आरक्षित और सामान्य वर्ग दोनों को एक साथ संतुष्ट नहीं कर पाएगा और ऐसी कोशिश करे तो विपक्षी दल और जातिवादी संगठन उसकी फज़ीहत कर डालेंगे। बेहतर होगा नौकरी मिलने के बाद पदोन्नति के लिए योग्यता और कार्यकुशलता को आधार माने जाने की व्यवस्था बनाई जाए जिससे सरकारी सेवाओं का स्तर भी सुधरे वहीं आरक्षित वर्ग में भी अपने बलबूते आगे बढऩे का आत्मबल पैदा हो। जिस सामाजिक विषमता को मिटाने के लिए आरक्षण नामक उपाय को लागू किया गया वह समाजिक वैमनस्य का कारण न बने ये देखना भी जरूरी है। नौकरियों में आरक्षण की आवश्यकता से हर कोई सहमत होगा  लेकिन जहां पदोन्नति का सवाल आता है वहां योग्यता और कार्यकुशलता ही चयन का आधार हो तो ज्यादा बेहतर होगा। सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में हो सकता है कोई कड़ा फैसला कर देता किन्तु अनु. जाति/जनजाति कानून में बदलाव के उसके फैसले को सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर जिस तरह पलटाया उससे पदोन्नति में आरक्षण पर रोक लगाने से परहेज करते हुए न्यायालय ने राज्य सरकारों पर पूरी जिम्मेदारी डाल दी। आगे क्या होगा कहना मुश्किल है क्योंकि अब सामान्य वर्ग भी खुलकर विरोध करने पर आमादा है। ऐसे में वोट बैंक की चिंता में डूबे राजनेताओं के समक्ष इधर कुआ उधर खाई वाली स्थिति बन गई है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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