Tuesday 25 September 2018

भाजपा : संगठन और कार्यकर्ता के बीच संवादहीनता बढ़ रही

आज भाजपा मप्र विधानसभा चुनाव के पहले भोपाल में अपना सबसे बड़ा शक्ति प्रदर्शन कर रही है। लाखों की भीड़ को सम्बोधित करने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को भी बुलाया गया है। हाल ही में राहुल गांधी ने भी भोपाल में बड़ी रैली और रोड शो करते हुए कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की थी। भाजपा चाहेगी कि उससे बड़ा जमावड़ा कर विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाए। भारत में लोकतंत्र अब नीतियों और सिद्धांतों से दूर हटकर भीड़तंत्र में चूंकि बदल गया है इसलिए सभी पार्टियां और नेता अपना जनाधार दिखाने के लिए अधिक से अधिक भीड़ एकत्र करते हैं। इस तरह के आयोजन में अनाप-शनाप पैसा, समय और संसाधन खर्च होते हैं। भाजपा मप्र में 15 वर्षों से काबिज है। उसका संगठन भी बेहद मजबूत माना जाता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी प्रदेश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में शुमार होते हैं। उनकी जन आशीर्वाद रैलियों में उमड़े जनसैलाब ने इस बात की पुष्टि भी की लेकिन ये कहने में भी कोई गल्ती नहीं है कि भाजपा को जितनी चुनौती इस बार कांग्रेस दे रही है उतनी पहले शायद ही कभी मिली हो। कमलनाथ के प्रदेश अध्यक्ष बनने का कितना लाभ चुनाव परिणामों में दिखाई देगा ये तो मतगणना से ही स्पष्ट होगा लेकिन इसमें कोई दो मत नहीं है कि उन्होंने कांग्रेस के आत्मविश्वास को बढ़ा दिया है। हालांकि दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने पूर्व मतभेद भूलकर एकजुट रहेंगे इसमें संशय है किंतु कांग्रेस पहले से आक्रामक और बेहतर नजर आ रही है। इसके विपरीत भाजपा में वह कसावट नहीं दिखाई देती जो उसकी पहिचान रही है। भोपाल में महाकुंभ के एक दिन पहले समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष पद्मा शुक्ला द्वारा पद और पार्टी दोनों से इस्तीफा देना इसकी बानगी है। श्रीमती शुक्ला विजयराघवगढ़ के चुनाव लड़ते रही हैं। पिछले चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के संजय पाठक को कड़ी टक्कर दी और वे महज 900 मतों से जीत पाए किन्तु अपने खनन व्यवसाय की रक्षा हेतु संजय भाजपा में आ गए और उपचुनाव जीतकर शिवराज सरकार में मंत्री बन बैठे। श्रीमती शुक्ल को संतुष्ट करते हुए बोर्ड अध्यक्ष बना दिया किंतु दोनों के बीच मतभेद बने रहे और अन्तत: उन्होंने भाजपा को अलविदा कह दिया। इस प्रकरण ने भाजपा में उच्च स्तर के संगठन और सत्ताधारी नेताओं के बीच संवादहीनता को उजागर कर दिया। यदि श्रीमती शुक्ला रुष्ट थीं तो उन्हें समझाने के लिए क्या किया गया? यदि ऊपरी नेताओं को पता था कि वे पार्टी छोडऩे वाली हैं तब या तो उन्हें रोकना था या फिर पद छीन कर उन्हें कमजोर करना था किंतु महाकुंभ के एक दिन पहले उन्होंने पार्टी को ठेंगा दिखाकर ये बता दिया कि भाजपा में सब मोदी भरोसे बैठे हैं। भले ही ये मान लिया जाए कि पद्मा जी एक विधानसभा सीट से ज्यादा असर नहीं डालेंगी किन्तु चुनाव के पहले इस तरह की घटनाएं पार्टी कैडर का मनोबल तोडऩे वाले होती हैं। उनके इस्तीफे को सवर्ण समाज की भाजपा से नाराजगी के तौर पर भी देखा जा रहा है। प्रश्न ये है कि भाजपा में जो संगठन मंत्री हैं वे ऐसे संवेदनशील वक्त में भी इतने उदासीन या बेपरवाह कैसे बने हुए हैं। कांग्रेस ने श्रीमती शुक्ला को पाले में लाकर कोई बड़ी उपलब्धि हासिल भले ही न की हो किन्तु भाजपा को शर्मसार होने तो बाध्य कर ही दिया। ऐसा लगता है भाजपा का प्रदेश नेतृत्व लगातार जीतते-जीतते अब ये मानकर बैठ गया है कि कार्यकर्ता बंधुआ मजदूर और जनता मज़बूर है जिस वजह से दोनों कितने भी नाराज हों किन्तु झक मारकर बटन तो कमल का ही दबाएंगे। लेकिन वह भूल जाता है कि 2000 में जन्मा बच्चा इस बार वोट देने वाला है जिसे मंदिर, हिंदुत्व वगैरह उतना आकर्षित नहीं करते। बेहतर हो भाजपा का प्रदेश नेतृत्व स्थिति की गंभीरता को समझते हुए कार्यकर्ताओं की भावनाओं को समझकर उन्हें विश्वास में ले। यदि सत्ता की मस्ती में अभी भी पार्टी डूबी रही तो महाकुंभ की भीड़ भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे सकेगी। कांग्रेस निश्चित रूप से भाजपा के संगठन के आगे कमजोर लगती है लेकिन इस बार उसके कार्यकर्ता जोश में दिख रहे हैं जबकि भाजपा में उल्टा माहौल है। यदि जैसा कांग्रेस दावा कर रही है पद्मा शुक्ला जैसे दो चार एपिसोड और हो गए तो कमल के मुरझाने की आशंका और प्रबल हो जाएगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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