Friday 7 September 2018

समलैंगिकता : लेकिन समाज मान्यता नहीं देगा

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की विद्वता पर संदेह करना तो पूरी तरह अनुचित होगा परन्तु ये कहना भी गलत नहीं है कि हर मामला कानून के जरिये नहीं सुलझाया जा सकता। यही वजह है कि समलैंगिक संबंधों को लेकर गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा दिया गया फैसला भले ही अप्राकृतिक यौन संबंधों को सहज मानने वालों को खुशी दे गया हो परन्तु भारतीय समाज का आम जनमत इस फैसले को मन से स्वीकार शायद ही कर सके। इसकी सबसे बड़ी वजह यौन स्वछंदता को लेकर भारतीय मानसिकता है जो निजी इच्छाओं की अपेक्षा नैतिकता के उन मानदंडों पर आधारित है जो गहन अध्ययन के बाद तय किये गये वरना कामसूत्र के रचयिता के देश में यौन वर्जनाओं का पालन करना आश्चर्यजनक कहा जा सकता है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने दंड विधान संहिता की धारा 377 को समाप्त नहीं किया। दो वयस्कों के बीच सहमति से बने यौन संबंधों की अनुमति तो उसने दी परन्तु अवयस्क, असहमति और पशुओं के साथ यौन संबंधों को अब भी अपराध की श्रेणी में रखा गया है। समलैंगिक संबंध भारतीय समाज में घृणा की निगाह से देखे जाते रहे हैं। इनसे जुड़े लोगों का उपहास भी होता था किन्तु पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगे कतिपय लोगों ने जब बजाय छिपाने के इसे खुलकर स्वीकार करना शुरू किया तब यह सार्वजनिक विमर्श का विषय बना लेकिन तमाम बड़ी और नामी-गिरामी हस्तियों द्वारा स्वयं को समलैंगिकता का समर्थक घोषित किये जाने के बाद भी समाज की मानसिकता नहीं बदली जा सकी तो उसकी सीधी-सीधी वजह ये है कि जो अप्राकृतिक है उसे महज चंद लोगों की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकार के नाम पर स्वीकृत अथवा मान्य नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसा करना समाज के सामूहिक विवेक पर ही प्रश्नचिन्ह उपस्थित करता है। यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय भी धारा 377 को पूरी तरह रद्द करने की हद तक नहीं बढ़ सका वरना यौन रूझान को प्राकृतिक और जैविक घटना मानते हुए मानसिक विकार से परे बताने के बाद भी समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं दी जा सकी। इसी तरह पशुओं के साथ यौन संबंधों को भी स्वीकृति नहीं दी गई जबकि सदियों पहले बने खजुराहो के विश्व प्रसिद्ध मंदिरों की बाहरी दीवारों पर उसका अवलोकन किया जा सकता है। इस बारे में रोचक बात ये है कि जिस समलैंगिकता को पश्चिमी समाज में स्वीकृति मिलने पर भारत में भी जायज ठहराने का अभियान चला उस पर रोक भी डेढ़ शताब्दि पहले अंगे्रजी सत्ता ने ही लगाई थी। 21वीं सदी का भारत इस हद तक तो बदला है कि लगभग सभी राजनीतिक दलों ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को मानवीय स्वतंत्रता एवं मौलिक अधिकारों के नाम पर उचित ठहराया परन्तु फिल्मी कलाकारों सहित अन्य विशिष्ट हस्तियां जिनमें लेखक और बुद्धिजीवी भी हैं, ने समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान लेने पर जिस प्रकार खुलकर हर्ष व्यक्त किया वह इस बात का संकेत है कि समाज का एक हिस्सा चाहे वह छोटा ही क्यों न हो अपनी विशिष्ट छवि बनाये रखने के लिए लीक से हटकर चलने का दुस्साहस करने लगा है। नि:संतान दंपत्तियों द्वारा शिशु गोद लेने या किराये की कोख से संतान प्राप्त करना तो समझ में आता है परन्तु कतिपय सेलिब्रिटी द्वारा विवाह किये बिना ही किराये की कोख से संतान हासिल करने जैसी खबरें इस बात का संकेत है कि कुछ लोगों को प्रचलित मान्यताएं तोडऩे में ही सुख की अनुभूति होती है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला एक सीमित वर्ग की इच्छाओं को कानूनी मान्यता देने का साधन भले बन जाए तथा बहुत सारी बातें परदे से बाहर आने लगें परन्तु सवाल ये है कि क्या समाज इसे उतने खुले दिल से स्वीकार करेगा जितनी आसानी से सर्वोच्च न्यायालय ने उस पर सहमति देते हुए अपने ही पूर्व फैसले को पलट दिया। इस फैसले के बाद अप्राकृतिक संबंधों में सहमति का लाभ लेकर देह व्यापार का नया सिलसिला भी शुरू हो सकता है। कुल मिलाकर ऐसे विषय केवल कानून के भरोसे छोड़कर बैठ जाना समाज के लिए भी उचित नहीं है। किसी पुस्तक या फिल्म में सामाजिक मान्यताओं और परंपराओं के विरुद्ध की गई अभिव्यक्ति पर पूरे देश में बवाल मचा देने वाले लोग ऐसे मामलों में चुप क्यों हो जाते हैं? देश की सरकार का भी सर्वोच्च न्यायालय में निर्विकार बना रहना समझ से परे है। यौन व्यवहार निश्चित रूप से जैविक एवं प्राकृतिक प्रवृत्ति है। आदिम अवस्था के आगे मनुष्य के उद्विकास की जो प्रक्रिया चली उसमें एक व्यवस्थित समाज की आवश्यकता को देखते हुए ही परिवार नामक इकाई का जन्म हुआ। विश्व के अलग-अलग हिस्सों की भौगोलिक स्थितियां और उनसे वहां के निवासियों पर पडऩे वाले मनोवैज्ञानिक तथा शारीरिक प्रभाव के अनुरूप ही सामाजिक मान्यताएं और नियम बनाए गए। उनमें समयानुसार सुधार एवं बदलाव होना तो पूरी तरह उचित कहा जाएगा किन्तु चंद लोगों द्वारा स्वच्छंदता को स्वतंत्रता का नाम देने की जिद पकड़ लेने पर उसे यदि उनका मौलिक अधिकार मान लिया जाए तो फिर आने वाले समय में जो समस्याएं उत्पन्न होने का खतरा है उसे न तो सर्वोच्च न्यायालय के परम विद्वान न्यायाधीश समझ पाए और न ही देश के स्वनामधन्य नेता। रही बात पेज थ्री संस्कृति के ब्रांड एम्बैसेडर बने अपसंस्कृति के प्रणेताओं की तो वे विकृति को संस्कृति मानने की मानसिकता से ग्रसित हैं। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का आधार चूंकि स्वतंत्रता एवं मौलिक अधिकार हैं इसलिए आने वाले समय में तमाम ऐसे दूसरे मामलों पर भी उसे विचार करने बाध्य होना पड़ेगा जो अभी तक गंदी बात समझे जाते रहे। कल ज्योंही फैसला आया त्योंही सोशल मीडिया पर उस संबंध में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आईं उनका संज्ञान सर्वोच्च न्यायालय को जरूर लेना चाहिए। अधिकतर में ये कहा गया कि देश धारा 370 पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की अपेक्षा कर रहा था परन्तु उसने 377 को प्राथमिकता दे डाली। और भी बहुत सी बातें कही गईं किन्तु कुल मिलाकर देश का जनमानस इस फैसले से न सहमत है और न ही संतुष्ट, क्योंकि उसे इस बात की आशंका है कि समलैंगिकता को कानूनी संरक्षण मिलने से समाज में अनैतिक गतिविधियों की बाढ़ आ जाएगी जो नए विवादों की वजह बन सकती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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