और सर्वोच्च न्यायालय ने मामला फिर संसद पर टाल दिया। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को चुनाव लडऩे से रोकने संबंधी याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला उपदेशात्मक तो है किन्तु जिन राजनेताओं ने राजनीति का अपराधीकरण करने का पाप किया उन्हीं से उसका प्रायश्चित करने की अपेक्षा करना सर्वोच्च न्यायालय की सदाशयता को तो दर्शाता है किन्तु न्यायपालिका से इस मामले में हस्तक्षेप न करने की सरकार की अपील को स्वीकार कर लेना एक तरह से वह आशावाद है जिसकी वजह से अपराधी तत्वों ने राजनीति सरीखे पवित्र क्षेत्र को कलंकित कर दिया। संसद निश्चित रूप से सर्वोच्च है और सिद्धांतत: ये भी सही है कि न्यायपालिका कानून की समीक्षा तो कर सकती है किंतु वह कानून नहीं बना सकती। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय ने बात संसद पर छोड़ते हुए एक तरह से गलत नहीं किया किन्तु ये भी उतना ही सही है कि देश के सभी राजनीतिक दल मिलकर यदि आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को टिकिट न देने का दृढ़ निश्चय कर लें तब ये समस्या अपने आप हल हो जाएगी लेकिन दूसरी तरफ ये भी सही है कि महज आरोपों के आधार पर किसी को दोषी मानकर उससे चुनाव लडऩे का अधिकार छीनना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन होगा जो समूची न्यायप्रणाली का आधार है। बहरहाल राजनीतिक दल इतना तो कर ही सकते हैं कि वे अपने स्तर पर ही छन्ना लगाकर दागी किस्म के लोगों को महत्व देना बंद कर दें। किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने की वासना ने ही राजनीति को अपराधी तत्वों की शरणस्थली बना दिया है। ऐसे में जो संसद लोकपाल विधेयक पारित नहीं कर सकी उससे ऐसी अपेक्षा करना बेमानी लगता है क्योंकि अपराधी और दागी किस्म के चेहरों की भरमार तो हर दल में कमोबेश बराबर ही है। यद्यपि वामपंथी पार्टियां इस बारे में तुलनात्मक दृष्टि से तो बेहतर हैं किंतु पूरी तरह निष्कलंक उन्हें भी नहीं कहा जा सकता। नई राजनीति का संवाहक बनकर मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी ने भी जब आपराधिक मामलों में लिप्त लोगों को टिकिट देने में संकोच नहीं किया तब ढर्रे पर चल रही पार्टियों से क्या अपेक्षा की जाए। हांलांकि सर्वोच्च न्यायालय ने दागी उम्मीदवारों की कर्मपत्री मतदाताओं के समक्ष उजागर करने के लिए काफी निर्देश चुनाव आयोग को भी दिए हैं। उनका अच्छा असर भी हो सकता है किंतु यदि दोनों प्रमुख प्रतिद्वंदी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हुए तब मतदाता कहाँ से साफ -सुथरी छवि वाला उम्मीदवार चुनेगा? सवाल और भी हैं जिनका समाधान केवल कानून नहीं अपितु राजनीति चला रहे नेताओं द्वारा किया जा सकता है। यूँ भी लोकसभा चुनाव इतने करीब आ चुके हैं कि संसद में बैठे सियासतदां मिलकर ऐसा कोई निर्णय नहीं करेंगे जिसे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना कहा जा सकता है। 2019 में बनने वाली नई लोकसभा भी इस दिशा में कितनी पहल करेगी ये भी कोई नहीं बता सकता क्योंकि किसी डिटर्जेंट के विज्ञापन में प्रयुक्त होने वाला वाक्य 'तो दाग अच्छे हैंÓ राजनीति पर बहुत ही सटीक बैठता है। चुनाव में पहले-पहल बाहुबलियों का उपयोग होता था। बाद में वे खुद चुनाव लडऩे लगे और फिर बात फूलन देवी, पप्पू यादव, मुख्तार अंसारी, शहाबुद्दीन और ऐसे ही कई नामों तक आ पहुंची। सामाजिक न्याय के नाम पर शुरू हुई राजनीति ने भी ऐरों-गैरों को महिमामंडित कर दिया। कत्ल जैसे संगीन अपराध में जेल में बंद सांसद को कड़ी सुरक्षा के बीच राष्ट्रपति चुनाव में मतदान हेतु संसद भवन लाये जाने से भारतीय लोकतंत्र का शर्मनाक चेहरा देश और दुनिया के सामने अनायास आ गया। सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक मामलों में लिप्त प्रत्याशी की जानकारी सार्वजनिक करने की जो बंदिश लगाई वह भी अर्थहीन हो जाएगी जब तक पक्ष-विपक्ष दोनों इस बारे में ईमानदारी के साथ प्रतिबद्ध न हों। वरना राजनीति का अपराधीकरण होता ही क्यों? वैसे इस मुद्दे पर जनता को भी अपने स्तर पर जागरूक ही नहीं मुखर भी होना चाहिए। हॉलांकि कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने उम्मीदवारों की आपराधिक गतिविधियों संबंधी जानकारी सार्वजनिक करने का अभियान चलाया था किन्तु मतदाताओं ने उसका अपेक्षित संज्ञान नहीं लिया जिससे वह मुहिम ज्यादा आगे नहीं आ सकी। अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने संसद पर कानून बनाने और चुनाव आयोग पर अपराधी उम्मीदवारों को बेपर्दा करने की जिममेदारी डाल दी है तब राजनीतिक दलों का भी ये नैतिक दायित्व है कि वे मतदाताओं के समक्ष साफ-सुथरी छवि के प्रत्याशी पेश करें जिससे भविष्य की राजनीति दागियों से मुक्त हो सके। क्षेत्रीय दलों के समक्ष जरूर इसे लेकर परेशानी उत्पन्न होगी किन्तु उन्हें भी अपना रवैया बदलना होगा नहीं तो 21 वीं सदी के युवा मतदाता उन्हें हाँशिये पर धकेल देंगे ।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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