Saturday 8 September 2018

जीएसटी आसान नहीं लेकिन दूसरा उपाय भी नहीं

पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने कहा है कि पेट्रोल-डीजल को भी जीएसटी के दायरे में लाना जरूरी हो गया है जिससे उनके दाम घटें तथा जनता को राहत मिले। मंत्री जी को ये अक्ल इतनी देर से क्यों आई ये विश्लेषण का विषय हो सकता है किन्तु इस तरह की समझाईश तो औसत से भी कम बुद्धि रखने वाला व्यक्ति सरकार को देता आ रहा है। इस विषय पर केन्द्र सरकार राज्यों पर जिम्मेदारी डालती रहती है वहीं राज्य कहते हैं कि केन्द्र एक्साईज घटाकर दाम कम करने में मदद दे। कुल मिलाकर दोनों ही स्तरों पर जमकर मुनाफाखोरी का आलम है। जो विपक्षी दल केन्द्र सरकार को पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों के लिए कसूरवार ठहरा रहे हैं उनके शासित राज्यों में भी भारी भरकम टैक्स पेट्रोलियम पदार्थों पर लगाया जा रहा है। वैट की दरें भी भिन्न-भिन्न हैं। कुछ राज्यों में पेट्रोल-डीजल पर तरह-तरह के अधिभार लगाकर जनता की जेब काटी जा रही है। ये देखकर लगता है कि अपना खजाना भरने के लिए केन्द्र और राज्य दोनों को पेट्रोल-डीजल सबसे आसान जरिया लगते हैं क्योंकि इनके बिना क्या आम और क्या खास सभी की जिंदगी ठहर सी जाती है। अब जबकि केन्द्र सरकार को आगामी लोकसभा चुनाव की चिंता सताने लगी है तथा आर्थिक मोर्चे पर अर्जित तथाकथित उपलब्धियां भले ही अर्थशास्त्रियों को रास आ रही हों परन्तु आम जनता के पल्ले वे नहीं पड़ रहीं तब पेट्रोलियम मंत्री का पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने संबंधी बयान यदि सुर्खियां नहीं पा सका तो उसकी वजह सरकार की विश्वसनीयता में कमी आना है। बीच-बीच में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने दो टूक कहा कि विकास संबंधी कार्यों के लिए जनता को ज्यादा कर देने के लिए तैयार रहना चाहिए। लेकिन धीरे-धीरे सरकार में बैठे लोगों को भी ये महसूस होने लगा कि आम जनता को वित्तमंत्री की बौद्धिक बातें समझ में नहीं आतीं तथा पेट्रोल-डीजल की आसमान छूती कीमतें मोदी सरकार की बड़ी विफलताओं में शुमार हो रही हैं। जीएसटी के कारण अर्थव्यवस्था में सुधार के दावों के आधार पर आम जनता को लगता था कि पेट्रोल-डीजल भी इसके अंतर्गत आ जायेंगे तो दाम अधिकतम 45-50 रु. प्रति लीटर ही रहेंगे परन्तु लगभग सवा साल बीतने के बाद भी न तो केन्द्र और न ही राज्य सरकारें इस बाबत मन बना सकीं तथा जीएसटी काउंसिल में सर्वसम्मति के अभाव में राज्यों को होने वाले घाटे की भरपाई के नाम पर इसे टाला जाता रहा। बीच-बीच में ये भी सुनाई दिया कि केन्द्र सरकार पेट्रोल-डीजल पर भारी-भरकम कराधान के माध्यम से भरपूर कमाई करने के बाद चुनाव आने के पहले उनकी कीमतें घटाने के लिए जीएसटी रूपी उपाय इस्तेमाल करेगी जिससे मतदान का दिन आते-आते तक मतदाता पुराना गुस्सा भूलकर सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में बटन दबा दे। वैसे ये सोच कोई पहली मर्तबा नहीं नजर आई है। हमारे देश में सरकार में बैठे लोगों की नजर हर समय वोट कबाडऩे पर लगी रहती है। उन्हें ये लगता है कि चार-साढ़े चार साल तक जनता को चक्की में पीसने के बाद आखिरी के कुछ महीनों में उसे लालीपॉप देकर फुसलाया जा सकता है। बेशक ये फार्मूला अब तक चला भी लेकिन अब वक्त बदल चुका है। संचार क्रांति के बाद अब सरकार की मंशा का प्रगटीकरण होते देर नहीं लगती। सोशल मीडिया के आगमन के उपरान्त तो भले चुनाव पाँच वर्ष में एक मर्तबा होते हों परन्तु सरकार ही नहीं अपितु विपक्ष के क्रिया-कलापों की समीक्षा भी निरंतर चलती रहती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो स्वयं सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहते हैं। ऐसे में उन्हें पेट्रोल-डीजल के दामों में नित्य प्रति हो रही वृद्धि पर जनता के गुस्से का पता न चल रहा हो ये विश्वास करना कठिन है लेकिन संभवत: श्री मोदी भी ये मानकर चल रहे हैं कि जब तक मौका मिले जनता को चूस लो और जब लगेगा कि अब और संभव नहीं है तब जीएसटी में उन्हें शामिल कर दामों को नीचे उतारकर अच्छे दिन आने का ढोल पीटा जायेगा। राजनीतिक तौर पर देखें तो सत्ता में बैठे लोगों की सोच गलत नहीं है, क्योंकि बीते सात दशकों में मतदाता को ऐसे ही बेवकूफ  बनाया जाता रहा है परन्तु अब पहले जैसी बात नहीं रही तथा जनता छोटी-छोटी बातों का भी संज्ञान लेने लगी है और उस दृष्टि से पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि ने मोदी सरकार की साख और धाक को जबर्दस्त क्षति पहुंचाई है ये कहना गलत नहीं होगा। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि का बहाना भी अब काम नहीं कर रहा क्योंकि देश से पेट्रोल-डीजल का निर्यात लगभग आधी कीमत पर होने की जानकारी मिलने से ये बात सामने आ गई कि केन्द्र तथा राज्य दोनों मिलकर जनता की मजबूरी का बेजा फायदा उठाने में जुटे हैं। पेट्रोलियम मंत्री श्री प्रधान जीएसटी संबंधी बयान को कितना लागू करवा सकेंगे ये बड़ा प्रश्न है क्योंकि पेट्रोल-डीजल को यदि उसके अंतर्गत लाया जाता है तब केन्द्र के राजस्व का तो जो होगा सो होगा ही किन्तु राज्यों की तिजोरियों में रोज आने वाला धन का प्रवाह रुक जाएगा और तब वे इसके लिए कैसे राजी होंगे तथा उनके घाटे की भरपाई किस तरह होगी इस प्रश्न का समुचित उत्तर तलाशे बिना बात आगे बढ़ेगी ये आसान नहीं लगता। लेकिन ऐसा करना मोदी सरकार और भाजपा दोनों की मजबूरी बन गई है क्योंकि लोकसभा चुनाव के पहले ही कुछ राज्यों के चुनाव होने वाले हैं जिनमें भाजपा शासित प्रमुख हैं। मौजूदा स्थिति में पार्टी को सत्ता में वापसी बेहद कठिन लग रही है। यदि ये राज्य हाथ से खिसक गए तब फिर एक बार मोदी सरकार का नारा हवा-हवाई होकर रह जाएगा। राजनीतिक मोर्चे पर चारों तरफ  से घिरने के बाद प्रधानमंत्री के पास भी पेट्रोल-डीजल को जीएसटी में लाने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। यदि अभी भी केन्द्र सरकार ऐसा करने की इच्छा शक्ति नहीं दिखाती तब ये मानकर चलने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि या तो सरकार में बैठे लोग मदमस्त हो चुके हैं या फिर उनकी सोचने-समझने की शक्ति ही खत्म हो चुकी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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