Tuesday 11 September 2018

पेट्रोल-डीजल : पल्ला झाड़ने से काम नहीं चलेगा


पेट्रोल-डीजल के आसमान छू रहे दामों के विरोध में कांगे्रस द्वारा आहूत भारत बंद में 21 छोटे-बड़े दल भी साथ आये। यद्यपि बीते सप्ताह अनु. जाति/जनजाति कानून के विरोध में आयोजित बंद की तरह कल स्वस्फूर्त समर्थन नहीं दिखा। यदि बंद करवाने हेतु टोलियां नहीं निकलतीं तो सुबह से ही बाजार खुले रहते। टीवी चैनलों के जरिये देश के विभिन्न हिस्सों में जबरन बंद कराने के लिए की गई तोडफ़ोड़ के दृश्य भी देखने मिले। इसके जरिये कांगे्रस और उसके साथ आए विपक्षी दलों ने खुद को निष्क्रियता के आरोप से बरी जरूर कर लिया। सत्तारूढ़ भाजपा ने एक तरफ तो ये कहते हुए राजनीतिक हमला बोला कि पिछली यूपीए सरकार के दौरान दस सालों में दाम जिस अनुपात में बढ़े उस तुलना में बीते साढ़े चार साल में उनमें वृद्धि नहीं हुई। दूसरी तरफ सरकार की तरफ से सफाई दी गई कि मूल्य वृद्धि चूंकि अंतर्राष्ट्रीय कारणों से हो रही है अत: वह उसे रोक पाने में पूरी तरह लाचार है। उसका ये तर्क गलत नहीं है क्योंकि कच्चे तेल की कीमतों में आ रहा उछाल अमेरिका द्वारा चलाए जा रहे ट्रेड वार के कारण हो रहा है जिसके पीछे ईरान पर लगाए गए प्रतिबंध भी हैं जिसने भारत को मिल रहे सस्ते कच्चे तेल का रास्ता रोक दिया। इस पूरे खेल में केन्द्र सरकार की इस मजबूरी को स्वीकार कर भी लें कि यदि पेट्रोल-डीजल पर एक्साईज व अन्य कर घटाए जाते हैं तब उसके राजस्व में कमी आयेगी जिसका असर सीधे विकास कार्यों पर पड़ेगा लेकिन जैसी जानकारी आ रही है उसके अनुसार तो कच्चे तेल की कीमतें बढऩे से आम जनता की जेब भले ही हल्की होती हो परन्तु केन्द्र और राज्य दोनों का खजाना भरता है क्योंकि इन वस्तुओं पर लगने वाले करों की राशि बिना कुछ किए बढ़ती जाती है। अधिकृत तौर पर प्राप्त आंकड़ों ने भी ये बात स्पष्ट कर दी है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि से केन्द्र और राज्यों का भंडार लबालब हो गया है। ऐसे में जब केन्द्र सरकार कर घटाने पर अपनी कमाई कम होने का तर्क देती है तब वह ये तथ्य छिपा लेेती है कि पेट्रोल-डीजल पर लगने वाले कर प्रति लिटर के हिसाब से न होकर प्रतिशत के आधार पर हैं। इसलिए जब दाम बढ़ते हैं तब उसी अनुपात में कर की राशि भी बढ़ जाती है। वहीं यदि केन्द्र व राज्य ये तय कर दें कि एक्साईज तथा वैट आदि की राशि प्रति लिटर निश्चित रहेगी तब उपभोक्ता दोहरी मार से बच जायेगा। इस दृष्टि से देखें तो विकास कार्य रुक जाने का बहाना गले नहीं उतरता लेकिन सरकार चाहे केन्द्र की हो या राज्यों की, दोनों अपना आर्थिक प्रबंधन सुधारने की बजाय आम जनता को निचोडऩे पर आमादा हैं। कांगे्रस एवं अन्य विपक्षी दलों ने पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों पर केन्द्र और भाजपा को कठघरे में खड़ा कर अपना फर्ज तो निभा दिया परन्तु भाजपा विरोधी पार्टियों द्वारा शासित राज्य आम जनता को राहत देने की दरियादिली क्यों नहीं दिखा रहे इस प्रश्न का उत्तर भी दिया जाना चाहिए। राजस्थान की वसुंधरा सरकार ने इस दिशा में पहल की क्योंकि विधानसभा चुनाव सिर पर हैं तथा तमाम सर्वेक्षण वहां भाजपा की हालत खस्ता होने की बात कह रहे हैं। आन्ध्र के मुख्यमंत्री चन्द्राबाबू नायडू ने भी गत दिवस राजस्थान का अनुसरण किया लेकिन इसका कारण भी चुनाव निकट होना ही है। अन्य कुछ राज्यों से भी ऐसी खबरें तो आ रही हैं किन्तु अभी तक उनकी पुष्टि नहीं हो सकी। पहले उम्मीद की जा रही थी कि जीएसटी काउंसिल अगली बैठक में पेट्रोल-डीजल को भी अपने दायरे में लाकर उनकी कीमतों को कम करने का कदम उठायेगी किन्तु केन्द्र और राज्यों से मिल रहे संकेतों ने उस उम्मीद को झटका दे दिया है। तीन दिन पहले ही पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने इसका इशारा किया था किन्तु ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार इस संवेदनशील मुद्दे पर या तो अंतर्विरोध का शिकार है या फिर अनिर्णय का। कांगे्रस के पास यद्यपि पंजाब और कर्नाटक दो प्रमुख राज्यों की सत्ता है परन्तु विपक्षी दलों की बंगाल, उड़ीसा, तमिलनाडु, केरल, पुडुचेरी में जो सरकारें हैं वे भी पेट्रोल-डीजल पर चल रही सरकारी लूटमार में शामिल हैं। केन्द्र द्वारा वसूले जाने वाले एक्साईज में से 42 फीसदी हिस्सा राज्यों को मिलता है जिसमें निरंतर वृद्धि होती जा रही है। ऐसे में जबकि पूरी अर्थव्यवस्था चौपट होती दिख रही है तथा डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में रोजाना आ रही गिरावट से देश का मनोबल एवं सम्मान टूटने के कगार पर आ गया हो तब केन्द्र और राज्यों को मिलकर पेट्रोल-डीजल पर लगने वाली एक्साईज तथा वैट की राशि प्रति लिटर के आधार पर निश्चित कर देनी चाहिए जिससे कि मूल्य वृद्धि के कारण आम उपभोक्ता पर दोहरी मार न पड़े। दूसरी तरफ सरकार को ये भी सोचना चाहिए कि वह स्वयं भी पेट्रोल-डीजल की बहुत बड़ी उपभोक्ता है। कीमतें बढऩे से उसका अपना परिवहन व्यय भी तो उसी अनुपात में बढ़ जाता है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि कच्चे तेल की कीमतों पर भले ही केन्द्र सरकार का नियंत्रण न हो परन्तु वह उस पर लग रहे करों के बोझ को इस तरह तो घटा सकती है जिससे उसके राजस्व में कमी नहीं आए वहीं जनता पर भी अनावश्यक अतिरिक्त भार न आए। वैसे सही बात ये है कि केन्द्र सरकार ने इस मामले में तबियत से बेईमानी की है। अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में जब कच्चे तेल की कीमतें औंधे मुंह गिरती जा रही थीं तब पहले तो पिछले घाटे के नाम पर मूल्य नहीं घटाए गए। जब वह पूरा होने को आ गया तब कहा जाने लगा कि भविष्य में दाम बढऩे पर सरकार इसी अतिरिक्त कमाई में से जनता को राहत देगी लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में केन्द्र और उसकी आड़ में लगभग सभी राज्य सरकारें जिस बेहयाई से पेट्रोल-डीजल पर मुनाफाखोरी के कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं वह अभूतपूर्व तो है ही, बेहद दुखदायी भी है। कांगे्रस यदि इस मुद्दे पर राजनीतिक नफे-नुकसान से ऊपर उठकर सोचती तो उसे पहले ही आंदोलन करना चाहिए था परन्तु चूंकि उसके अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी निजी यात्रा पर मानसरोवर गए हुए थे इस वजह से वह केवल जुबानी तीर छोड़ती रही। जब वे लौट आए तब भारत बंद करवाया गया किन्तु न कांगे्रस शासित और न ही आन्ध्र को छोड़कर अन्य किसी गैर भाजपाई शासन वाले राज्य ने अब तक कर घटाने की सौजन्यता दिखाई है। इससे पता चलता है कि सारा खेल सियासी है। केन्द्र सरकार ने भले ही वैश्विक उठापटक का बहाना बनाकर अपना पिंड छुड़ाने की कोशिश की हो किन्तु ऐसा करना मैदान छोडऩे जैसा ही है। रुपये की विनिमय दर में निरंतर गिरावट तथा पेट्रोल-डीजल की अनियंत्रित होती कीमतों के लिए अंतर्राष्ट्रीय कारण नि:संदेह जिम्मेदार हैं परन्तु जिस तरह प्राकृतिक आपदाएं रोकना अपने बस में नहीं होने पर भी सरकार प्रभावित लोगों को राहत पहुंचाने के हरसंभव प्रयास करती है ठीक वैसे ही आर्थिक विपदाओं के समय भी कोई आपदा प्रबंधन तो होना ही चाहिए। यदि है तो वह कहीं नजर नहीं आ रहा और नहीं है तो क्यों नहीं, इसका उत्तर देश मांग रहा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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