Saturday 29 September 2018

भीमा-कोरेगांव : यही बात महीने भर पहले कहनी थी

भीमा-कोरेगांव कांड के सिलसिले में पकड़े गए पांच संदिग्ध नक्सलियों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने जो निर्णय गत दिवस दिया वही यदि उनकी गिरफ्तारी के बाद प्रस्तुत याचिका पर दे देता तो बड़ी बात नहीं कि अब तक या तो उन पांचों को जमानत मिल जाती या फिर उन पर आरोप तय होकर कानूनी प्रक्रिया गति पकड़ लेती। स्मरणीय है 28 अगस्त को महाराष्ट्र पुलिस ने प्रधानमंत्री की हत्या के षड्यंत्र सहित राज्यद्रोह जैसे गंभीर आरोपों में उक्त पांचों व्यक्तियों को गिरफ्तार किया था। यद्यपि उन सभी की पहिचान वामपंथी कार्यकर्ता के तौर पर थी तथा कुछ पहले भी कतिपय मामलों में जेल जा चुके थे किन्तु इस मर्तबा उनकी गिरफ्तारी बतौर शहरी नक्सली की गई। चौंकाने वाली बात ये रही कि सहिष्णुता लाबी के कतिपय वामपंथी उनकी गिरफ्तारी के विरुद्ध सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंचे जिसने उन्हें हिरासत में रखे जाने की बजाय घर में ही नजरबंद रखने का निर्देश दिया। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने उस दिन ऐसी टिप्पणी कर दी मानो देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी पूरी तरह खत्म कर दी गई हो। काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सहित अधिकांश विपक्ष सरकार पर चढ़ बैठा। श्री चंद्रचूड़ की टिप्पणी ने उन पांचों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करते हुए महाराष्ट्र और केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय को इस बात पर नाराजगी थी कि बिना समुचित प्रमाण एकत्र किये महाराष्ट्र पुलिस ने राजनीतिक प्रतिशोधवश फर्जी प्रकरण बनाकर उक्त सामाजिक कार्यकर्ताओं को पकड़ लिया जो विभिन्न क्षेत्रों में नि:स्वार्थ भाव से काम कर रहे थे। अतीत में उनमें से कुछ के कतिपय मामलों में सजा भुगतने की बात का भी कोई संज्ञान नहीं लिया गया। अदालत ने महाराष्ट्र पुलिस को फटकारते हुए गिरफ्तारी के औचित्य को सिद्ध करने वाले दस्तावेज पेश करने कहा। बीच में एक दो पेशियां हुईं जिनमें पुलिस को और समय के साथ आरोपियों की घर में ही नजरबंदी बढ़ा दी गई। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला किया उसमें मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा एवं न्यायमूर्ति एएम खानविलकर ने याचिका को सिरे से खारिज करते हुए पांचों की रिहाई से इंकार ही नहीं किया अपितु महाराष्ट्र पुलिस को ही जांच का अधिकार देते हुए कह दिया कि आरोपियों को किसी साधारण आरोप में नहीं अपितु प्रतिबंधित संगठनों से संबंध रखने के कारण पकड़ा गया था। उन्हें जांच एजेंसी चुनने का अधिकार नहीं दिया जा सकता और वे अपनी रिहाई के लिए सक्षम अदालत में आवेदन कर सकते हैं। वहीं न्यायमूर्ति श्री चंद्रचूड़ ने दोनों से असहमति व्यक्त करते हुए महाराष्ट्र सरकार की पूरी कार्रवाई को गलत सुनाते हुए एक तरह से आरोपियों को बरी ही कर दिया। पीठ में 2 के विरुद्ध 1 के बहुमत से आए फैसले के बाद अब महाराष्ट्र पुलिस के सिर पर सर्वोच्च न्यायालय की जो तलवार लटक रही है वह फिलहाल हट गई है लेकिन जांच पूरी होने और आरोपपत्र दाखिल होने तक पांचों को घर पर ही नजरबंद रखने की जो व्यवस्था सर्वोच्च न्यायालय ने दी वह जरूर चौंकाने वाली हैं क्योंकि जिन लोगों पर प्रधानमंत्री की हत्या और राज्य के विरुद्ध विद्रोह की साजिश जैसे आरोप हों उनके प्रति सौजन्यता बरतने का ये तरीका नए विवाद का कारण बन सकता है। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह की बातें कहीं दरअसल यही उसे पहले दिन कहनी चाहिए थीं। जो लोग गिरफ्तार हुए उनकी जगह किन्हीं और द्वारा प्रस्तुत याचिका को प्राथमिकता के आधार पर सुनते हुए गिरफ्तारी को घर पर नजरबंदी में बदलने और महाराष्ट्र पुलिस को लताड़ लगते हुए अभिव्यक्ति को लोकतंत्र की आत्मा जैसी प्रवचनात्मक बातें करने से निश्चित रूप से महाराष्ट्र सरकार सहित वहाँ की पुलिस पर जो दबाव बनाया गया वह भी न्यायालयीन सक्रियता का अतिरेक ही कहा जायेगा। गत दिवस दो वरिष्ठ न्यायाधीशों ने खुलकर स्वीकार किया कि पांचों संदिग्ध नक्सलियों की गिरफ्तारी प्रतिबन्धित संगठनों से सम्बद्धता के कारण चूंकि हुई इसलिए उसमें हस्तक्षेप करना गलत होगा। उन्होंने ये टिप्पणी भी की कि आरोपी को जांच एजेंसी चुनने का अधिकार नहीं है और वे सक्षम निचली अदालत में ही राहत के लिए जाएं। एसआईटी के गठन से भी सर्वोच्च न्यायालय ने इंकार कर दिया। निश्चित रूप से महाराष्ट्र पुलिस को इस फैसले से बल मिल गया जिससे वह जांच एवं पूछताछ में तेजी ला सकेगी लेकिन आरोपियों को घर में रहने जैसी सुविधा समझ से परे है जिस पर सर्वोच्च न्यायालय को पुनर्विचार करना चाहिए वरना भविष्य में इसे बतौर नजीर इस्तेमाल किये जाने का खतरा बना रहेगा। बेहतर तो ये होता कि सर्वोच्च न्यायालय उक्त याचिका को पहली सुनवाई में ही ये कहते हुए रद्द कर देता कि पहले निचली अदालतों के रूप में उपलब्ध माध्यमों का उपयोग किया जावे। खैर, देर से ही सही लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने सहिष्णु लॉबी द्वारा बनाये गए मनोवैज्ञानिक दबाव से विचलित हुए बिना जो निर्णय गत दिवस दिया उसने अनिश्चितता को समाप्त करते हुए अभिव्यक्ति के अधिकार पर कुठाराघात का जो दुष्प्रचार बीते एक माह से चल रहा था उस पर रोक लगा दी। अच्छा होगा भविष्य में सर्वोच्च न्यायालय इस तरह के मामलों में अतिरिक्त उत्साह न दिखाते हुए सामान्य प्रक्रिया को ही मान्यता दे जिससे कोई प्रकरण व्यर्थ में विवादास्पद न हो जाये। और फिर जब बात प्रधानमंत्री की हत्या और राज्य के खिलाफ  बगावत भड़काने जैसे आरोपों से जुड़ी हो तब तो और भी गंभीरता बरती जानी चाहिए थी। पांच संदिग्ध नक्सलियों पर सर्वोच्च न्यायालय यदि पहले दिन ही उदारता न दिखाता तो हो सकता है महाराष्ट्र पुलिस और जांच एजेंसियां अब तक काफी आगे बढ़ चुकी होतीं और यदि गिरफ्तारी फर्जी थी तो निचली अदालत से आरोपियों को राहत मिल जाती। सर्वोच्च न्यायालय के प्रति पूर्ण सम्मान व्यक्त करते हुए भी ये कहने में कुछ भी अनुचित नहीं लगता कि इस प्रकरण में उसे प्रारम्भ में ही वह सब कह देना चाहिए था जो उसने एक माह बाद कहा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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