Thursday 27 September 2018

आधार को मिला कानूनी आधार


सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस दिए फैसले में आधार कार्ड की राह में लगाए जा रहे रोड़े हटा दिए लेकिन उसे जस का तस भी नहीं रखा। मोबाइल फोन, बैंक खाता तथा विद्यालय में प्रवेश जैसे कार्यों में उसकी अनिवार्यता खत्म कर दी किंतु उसकी संवैधानिकता और उपयोगिता को स्वीकृति भी दे दी। न्यायमूर्ति श्री चंद्रचूड़ ने जरूर आधार को सिरे से नकार दिया लेकिन शेष 4 न्यायाधीशों ने आधार को रद्द करने संबंधी याचिकाओं का निराकरण करते हुए उसके अस्तित्व को पुख्ता आधार दे दिया। यद्यपि कार्ड धारक की व्यक्तिगत जानकारी बिना न्यायालयीन अनुमति के किसी अन्य को हस्तांतरित करने पर रोक लगाकर अदालत ने डाटा के दुरुपयोग पर रोक लगा दी जिससे कि इस बारे में उठ रही शंकाओं का समाधान होने की उम्मीद बढ़ चली है। आधार को समाप्त करने संबंधी अनुरोध को अस्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर माना कि आधार से करोड़ों लोगो को सरकारी सुविधाएं प्राप्त करने में मदद मिली है। कुल मिलाकर आधार कार्ड व्यवस्था पर अब सर्वोच्च अदालत की मोहर भी लग गई जिससे इसे लेकर व्याप्त अनिश्चितता खत्म हो गई जो संतोष का विषय है। खुदा न खास्ता अगर सर्वोच्च न्यायालय उस पर रोक लगा देता तो देश भर में अफरातफरी मच जाती क्योंकि सरकार ने आधार के आधार पर काफी कुछ सरकारी व्यवस्थाएं की हुई थीं। सरकारी अनुदानों का लाभ लेने में आधार कार्ड की उपयोगिता और सफलता को भी अदालत ने स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया। शायद ये वजह न रही होती तब हो सकता है सर्वोच्च न्यायालय इस व्यवस्था को कायम रखने के बारे में कुछ और सख्त होता। इसमें तो दो राय नहीं हैं कि आधार के कारण शासकीय अनुदानों में होने वाला फर्जीवाड़ा काफी हद तक नियंत्रित हुआ। रसोई गैस और राशन कार्ड इसके अच्छे उदाहरण हैं। व्यक्ति की पहिचान सुनिश्चित करने में भी आधार कार्ड काफी हद तक सहायक साबित हुआ। याचिकाकर्ताओं की मुख्य आपत्ति आधार के जरिये एकत्रित जानकारी का दुरुपयोग और उसकी गोपनीयता भंग होने को लेकर थी जिसे निजता में हस्तक्षेप से जोड़ा गया। सर्वोच्च न्यायालय ने भी कुछ हद तक इस भय को महसूस किया और इसीलिए उसने बिना न्यायालयीन अनुमति के डाटा किसी अन्य एजेंसी को देने पर प्रक्रियाजनित बंदिश लगा दी। इस तरह फैसला सरकार और याचिकाकर्ताओं के लिए तुम्हारी भी जै-जै हमारी भी जै-जै, न तुम हारे न हम हारे, जैसा कहा जा सकता है। यही वजह है कि केंद्र सरकार जहां इसे विपक्ष के गाल पर तमाचा बता रही है वहीं कांग्रेस की प्रतिक्रिया में इसे सरकार की किरकिरी बताया गया। वैसे निष्पक्ष तौर पर देखें तो हर नागरिक की पहिचान सुनिश्चित करने के लिए तो कोई न कोई व्यवस्था तो होनी ही चाहिए।। आधार की शुरुवात यूपीए सरकार के ज़माने में हुई थी। इंफोसिस के नंदन नीलेकणि को इसका प्रभारी बनाया जाना ही इसके महत्व को स्वीकार करना था। यद्यपि श्री नीलेकणि बाद में इस परियोजना से हट गए किन्तु तब तक वह गति पकड़ चुकी थी। मोदी सरकार ने उसे वैधानिक स्वरूप देकर उसकी अनिवार्यता को लागू किया लेकिन जिस कांग्रेस ने इसे शुरू किया वही इसके दुरुपयोग की आशंका जताते हुए सरकार के विरुद्ध खड़ी हो गई। आखिऱकार सर्वोच्च न्यायालय ने बड़ा ही संतुलित फैसला देते हुए गुण-दोष दोनों को ध्यान में रखते हुए बीच का रास्ता निकालते हुए आधार को कतिपय नियंत्रणों के साथ कायम रखा और उससे जुड़ी निजी जानकारी के दुरुपयोग पर रोक लगाने की व्यवस्था भी कर दी। हर जगह उसकी अनिवार्यता को खत्म करते हुए न्यायालय ने लोगों को होने वाली असुविधा का भी ख्याल रखा। कुल मिलाकर आधार संबंधी निर्णय प्रथम दृष्टया तो अच्छा और संतोषजनक है। रही बात उससे जुड़ी अन्य विसंगतियों की तो उन्हें समय रहते दूर किया जा सकता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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