Saturday 15 September 2018

किसी के साथ ज्यादती न हो

अनु.जाति/जनजाति उत्पीडऩ को लेकर जिस सर्वोच्च न्यायालय ने बिना जांच किए गिरफ्तारी पर रोक लगाने का निर्णय दिया था उसे सरकार ने विपक्षी दलों तथा दलित समुदाय के दबाव में जब पलट दिया तो पूरे देश में उसका उग्र विरोध हुआ। सवर्ण समुदाय ने दलील दी कि जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दहेज उत्पीडऩ में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगाई वैसी ही व्यवस्था दलितों व आदिवासियों के उत्पीडऩ संबंधी शिकायतों को लेकर होनी चाहिए। लेकिन गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व में दिये अपने ही फैसले को बदलते हुए दहेज उत्पीडऩ की शिकायत पर आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी पुलिस पर छोड़ दी है। गत वर्ष दो न्यायाधीशों की पीठ ने शिकायत की जांच एक परिवार कल्याण समिति को सौंपने तथा एक माह के भीतर उसकी रिपोर्ट आने के बाद ही आगे की कार्रवाई करने संबंधी फैसला दिया था लेकिन गत दिवस मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यों की पीठ ने कह दिया कि न्यायपालिका का काम कानून बनाना नहीं है इसलिए परिवार, कल्याण समिति जैसी व्यवस्था सरकार चाहे तो अपने स्तर पर बनाए। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपी को अग्रिम जमानत का अधिकार देते हुए पुलिस को हिदायत दी है कि वह गिरफ्तारी का कदम सोच-समझकर उठाये क्योंकि दंड विधान संहिता के अनुसार गैर जमानती अपराध में गिरफ्तारी का समुचित कारण उसे बताना होगा। प्रथम दृष्ट्या ऐसा प्रतीत होता है कि गत दिवस दिया गया निर्णय न्यायपालिका की सीमाओं को ध्यान रखते हुए किया गया है जिसका उल्लंघन करने के लिए उसे समय-समय पर कार्यपालिका और विधायिका की आलोचना का शिकार होना पड़ा है। लेकिन ऐसे में प्रश्न उठता है कि दहेज प्रताडऩा प्रकरण में जब बिना जांच किये गिरफ्तारी पुलिस के विवेकाधीन छोडऩा गलत नहीं है तब फिर अनु.जाति/जनजाति कानून के तत्संबंधी प्रावधान पर सर्वोच्च न्यायालय ने क्यों पाबंदी लगाई थी? केन्द्र सरकार द्वारा पुरानी व्यवस्था को दोबारा लागू किये जाने को भी सर्वोच्च न्यायालय में चुनाती दी गई है। ऐसे में यदि वह उस संबंध में अपने पिछले निर्णय पर कायम रहते हुए तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगाने की बात दोहराता है तब वह विरोधाभास पैदा करने वाला रहेगा। इस तरह के न्यायालयीन फैसलों से जनसाधारण में भी भ्रम और असंतोष व्याप्त होता है। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कानून बनाने का अधिकार विधायिका का है। शायद इसी आधार पर उसने अनु.जाति/जनजाति उत्पीडऩ संबंधी नये कानून पर स्थगन देने से इंकार करते हुए केन्द्र सरकार से छह हफ्ते में जवाब देने कह दिया किन्तु जिस कानून को वह पहले रद्द कर चुका हो उस पर दोबारा रोक लगाने में वह संकोच कर गया। ये स्थिति अनिश्चितता उत्पन्न करने वाली है। दहेज उत्पीडऩ में अग्रिम जमानत की सुविधा भी सर्वोच्च न्यायालय ने दी है जबकि दलित उत्पीडऩ की शिकायत में छह माह तक सींखचों में रहने की व्यवस्था की गई है। गत दिवस अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने दहेज पीडि़त की शिकायत पर गिरफ्तारी करते समय सावधानी बरतने की हिदायत भरी समझाईश पुलिस महकमे को दी है। ठीक वैसा ही आश्वासन राज्य और केन्द्र सरकार की तरफ से दलितों संबंधी कानून को लेकर दिया जा रहा है परन्तु समस्या का एक पहलू तो पुलिस का रवैया भी है जो लोगों को भयाक्रान्त करता है। कई मामलों में पुलिस को राजनीतिक एवं सामाजिक दबावों में रहकर भी काम करना होता है। ऐसे में बेहतर तो यही होगा कि संदर्भित दोनों ही मामलों में आरोपी को सीधे गिरफ्तार करने की बजाय ऐसी कोई व्यवस्था बनाई जाए जिससे कि कानून का दुरुपयोग भी न हो वहीं आरोपी भी बचकर न निकल जाए। तत्काल जमानत को लेकर ये तर्क दिया जाता है कि ऐसा करने पर आरोपी छूटकर शिकायतकर्ता को धमकाने तथा साक्ष्य नष्ट करने का काम कर सकता है परन्तु दहेज उत्पीडऩ में तत्काल गिरफ्तारी तथा लंबे समय तक जमानत नहीं मिलने की वजह से न जाने कितने शरीफ और बेगुनाह लोगों को यातनाएं झेलनी पड़ी ये किसी से छिपा नहीं है। दलित के अलावा महिलाओं के उत्पीडऩ संबंधी कानूनों का दुरुपयोग भी समय-समय पर सामने आता रहा है। इस संबंध में व्यवहारिक बात ये है कि शिकायतकर्ता एवं आरोपी दोनों में से किसी के साथ ज्यादती न हो ये चिंता करना न्यायपालिका एवं कार्यपालिका दोनों का ही दायित्व है। इस संबंध में बने कानूनों से पीडि़त पक्ष के हितों का संरक्षण तो बेशक हुआ है परन्तु सिक्के का दूसरा पहलू पुलिस के निरंकुश रवैये के रूप में बेहद शर्मनाक है। समय आ गया है जब न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका तात्कालिक सोच से ऊपर उठकर ऐसे निर्णय करें जिनका असर दूरगामी हो तथा एक समस्या का निराकरण करते समय दूसरी के उत्पन्न होने जैसी परिस्थिति से बचा जा सके। एक आदर्श व्यवस्था में किसी का भी उत्पीडऩ नहीं होना चाहिए। न्याय शास्त्र भी सौ गुनाहगारों के छूट जाने की बजाय एक बेगुनाह को दंड मिल जाने को बुरा मानता है। आज ही इसरो के एक वैज्ञानिक की 25 बरस पहले हुई गलत गिरफ्तारी का मामला प्रकाश में आया है जो सभी के लिए विचारणीय है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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