Tuesday 4 September 2018

आंतकवाद और नक्सलवाद के बाद जातिवाद का खतरा


मप्र की राजनीति में चुनावी माहौल का एहसास पूरी तरह होने लगा है। अभी तक तो केवल नेताओं के स्तर पर ही सक्रियता नजर आ रही थी परन्तु अब जनता भी सड़कों पर उतरने लगी है। पदोन्नति में आरक्षण से भन्नाया सवर्ण समुदाय अनु.जाति/जनजाति कानून को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द किये जाने के बाद दोबारा जस का तस लागू किये जाने के बाद जबर्दस्त गुस्से से भरकर नेताओं से तू-तड़ाक पर उतर आया है। शुरू-शुरू में तो कांग्रेस मन ही मन खुश थी कि सवर्ण वोट बैंक भाजपा की झोली से बाहर आ रहा है परन्तु बीते दो-तीन दिनों में उसके नेताओं के विरूद्ध भी सवर्ण समाज ने गुस्से का प्रगटीकरण कर इस बात का संकेत दिया कि अपनी उपेक्षा से नाराज होकर दबाव बनाने का ये मौका वह हाथ से नहीं जाने देगा। आरक्षण के मामले में अब तक जो पिछड़ी जातियां सवर्णों से दूर रहा करती थीं वे भी अनु. जाति/जनजाति कानून को दोबारा लागू किये जाने के कारण उनके साथ आ खड़ी हुई हैं जिससे समाज में जातिगत आधार पर दो खेमेबाजी स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आ गई हैं। इस विवाद का एक रोचक पहलू ये भी है कि म.प्र. के आदिवासी समुदाय में अलग खिचड़ी पकने लगी है तथा गोंगपा के अलावा जयस नामक संगठन अनु. जातियों से हटकर अपने वोट बैंक की ताकत दिखाने में जुटा हुआ है। इससे भाजपा के माथे पर पसीने की बूंदें छलकना स्वाभाविक है क्योंकि सवर्ण और पिछड़े वर्ग के बीच उसका जनाधार बेहद मजबूत हो चला था वहीं दलित व आदिवासी समुदाय में भी वह तेजी से पकड़ मजबूत कर रही थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जब अनु. जाति/जनजाति कानून के उस प्रावधान को रद्द कर दिया गया जिसके अंतर्गत उत्पीडऩ की शिकायत पर आरोपी की बिना जांच किये ही गिरफ्तारी की व्यवस्था थी तब आदिवासी तो उतने मुखर नहीं हुए किन्तु दलित वर्ग ने न सिर्फ म.प्र. वरन् अन्य प्रदेशों में भी उत्पात मचा दिया था। इसकी वजह से कई जगह हिंसक घटनाएं हुईं तथा कुछ लोग मारे भी गए। केन्द्र सरकार पर दलित विरोधी होने का चौतरफा आरोप लगाने में विपक्षी दल लाभबंद हो गए वहीं सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर भी सरकार से अलग होने की धमकियां सुनाई देने लगीं। अंतत: मोदी सरकार ने रद्द किये गये कानून को पुनर्जीवित कर दिया। भाजपा को लगा था कि ऐसा करने से वह दलित और आदिवासी वर्ग को प्रसन्न कर चुनावी वैतरणी पार करने के प्रति आश्वस्त हो जायेगी किन्तु इसी बीच पदोन्नति में आरक्षण का समर्थन करने से सवर्ण समाज में नाराजगी और बढ़ गई। अब स्थिति ये है कि भाजपा के साथ ही कांग्रेस और अन्य पार्टियां भी आरक्षण के साथ ही दलित-आदिवासी वर्ग को मिल रहे कानूनी संरक्षण के मुद्दे पर कटघरे में खड़ी हो गई है। अनु. जाति/जनजाति कानून में किये गये बदलाव से क्षुब्ध पिछड़े वर्ग की जातियों के भी सवर्णो के साथ सड़कों पर उतर जाने से जातिगत विभाजन और गहरा हो गया है। हो सकता है ये स्थिति फिलहाल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हों केवल वहीं दिखाई दे रही हो परन्तु ये आशंका गलत नहीं है कि लोकसभा चुनाव करीब आने तक ये पूरे देश में समान रूप से फैल जायेगी क्योंकि पहले कांग्रेस और उसके बाद अब भाजपा भी जिस तरह जातिगत वोट बैंक के मकडज़ाल में उलझ गई है उसकी वजह से जिस जाति प्रथा को मिटाने का संकल्प राजनीतिक पार्टियां लेती थीं वही उनकी रणनीति का प्रमुख हिस्सा बन बैठी। दुर्भाग्य की बात ये है कि सही को सही कहने का साहस राजनेताओं में समाप्त हो गया है। केवल सत्ता में बने रहने के लिये जिस तरह के समझौते किये जाते रहे उनका असर खुलकर सामने आने लगा है। न्यायपालिका की गरिमा एवं स्वतंत्रता के लिये चिंता व्यक्त करने वाली राजनीतिक बिरादरी उसके हर उस निर्णय को पलटने एकजुट हो जाती है जिससे वोट बैंक प्रभावित होता है। चूंकि देश और प्रदेश की सत्ता पर भाजपा आसीन है इसलिये जनता के गुस्से की पहली शिकार वही हो रही है किन्तु जनाक्रोश की लपटों में अन्य दलों के दामन भी झुलसे बिना नहीं रहेंगे। समझने वाली बात ये है कि चुनावी जीत-हार ही देश का भविष्य नहीं बनातीं वरना ऐतिहासिक जनादेश प्राप्त करने वाले नेता और पार्टियां भी जनअपेक्षाओं को पूरा कर पाने में विफल न हुए होते। सत्ता की हवस में तदर्थवादी नीतियों एवं सिद्धान्तहीन समझौतों की वजह से जो दुर्गति कांग्रेस की हुई वही भाजपा की होती दिख रही है। क्षेत्रीय दल भी अधिकतर जातीय और क्षेत्रीय भावनाएं भड़काकर देश के हितों की उपेक्षा करने से नहीं चूकते। इन सबका ही परिणाम है कि सवर्ण समाज जहां उसका हक छिनने से नाराज होकर आंदोलित है वहीं दलित एवं आदिवासी इस बात से असंतुष्ट हैं कि उन्हें जितना देने का वायदा था वह पूरा नहीं किया गया। म.प्र. में बीते दो-तीन दिनों से न तो शिवराज सिंह चौहान के विकास संबंधी दावे मुद्दा रह गए हैं और न ही कांग्रेस द्वारा भाजपा सरकार पर लगाए जाते रहे भ्रष्टाचार के आरोप। इनसे सर्वथा हटकर पदोन्नति में आरक्षण तथा अनु.जाति/जनजाति कानून को दोबारा लागू किये जाने को लेकर सवर्णों का आंदोलन राजनीति पर हावी हो गया है। विडंबना ये है कि न भाजपा और न ही कांग्रेस में इतना नैतिक साहस है कि वे खुलकर किसी एक तरफ बोल सकें क्योंकि सवर्णों का पक्ष लेने पर दलित और आदिवासी वोट बैंक के नाराज होने का खतरा है वहीं इसकी उल्टी नीति पर चलने पर सवर्णों के गुस्से से बचना मुश्किल हो जायेगा। इस स्थिति के लिये दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियां किसी और को कसूरवार नहीं ठहरा सकती क्योंकि जातिवाद के नाम पर जहर के जो बीज कांग्रेस ने बोए उन्हें ही खाद, पानी देकर  भाजपा ने भी बड़ा कर दिया। जहां तक बात बसपा, गोंगपा और जयस जैसों की है तो उन्हें भी इन्हीं बड़ी पार्टियों ने दूध पिलाकर बड़ा किया और ये उन्हीं की राजनीतिक चालों से जन्मी थीं। चुनावों के शुरू में ही जो विषाक्त वातावरण बनने लगा है वह मतदान होते तक क्या रूप लेगा ये सोचकर चिंता से ज्यादा डर सताने लगा है। आतंकवाद और नक्सलवाद को तो मान लें कि पाकिस्तान और चीन ने पनपाया किन्तु देश को गृहयुद्ध की कगार पर ला खड़े करने वाले जातिवाद के लिये तो हमारे ही देश के राजनीतिक नेता और पार्टियां पूरी तरह दोषी हैं। लेकिन जनता भी करे तो क्या करे क्योंकि उसकी स्थिति आसमान से टपके और खजूर पे अटके वाली होकर रह गई है। यदि भाजपा-कांग्रेस को देश की रत्ती भर भी फिक्र है तो जिस तरह उन दोनों ने मिलकर अनु.जाति/जनजाति कानून को दोबारा लागू करवाने में एकजुटता दिखाई वैसी ही आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था शुरू करने के लिए दिखाएं वरना स्थिति इतनी बिगड़ जाएगी जिसे संभालना किसी के बस में नहीं रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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